क्या हमाम में सभी नंगे हैं-इसी मुहावरे से काम चलाते रहेंगे?

अरविन्द चतुर्वेद :
संसद से सड़क तक भ्रष्टाचार-त्रिकोण की ही गूंज है। इस गूंज में बिहार विधान सभा चुनाव के आखिरी चरण की चर्चा समेत तमाम बड़ी घटनाएं तक धुंध और धुंधलके में ढक गइं। मसलन, असम में नए सिरे से बोडो उग्रवादियों की हिंसा भी लोगों और मीडिया की आंखों से ओझल होकर रह गई, जिसके शिकार हिन्दीभाषी खासकर बिहारी लोग हुए हैं और अब वहां से दहशत के मारे पलायन के बारे में सोच रहे हैं। भ्रष्टाचार-त्रिकोण यानी आदर्श सोसायटी-कामनवेल्थ खेल-2जी स्पेक्ट्रम ने पांच दिनों से संसद को लगभग ठप्प करके रखा है। मंत्री पद से हटने या हटाए जाने के बावजूद पूर्व केंद्रीय संचार मंत्री ए. राजा की जान सस्ते में छूटती नजर नहीं आ रही, बल्कि सच कहिए तो राजा की कारगुजारी को लेकर केंद्र की संप्रग सरकार और खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जान सांसत में पड़ी हुई है। विपक्ष इन भ्रष्टाचारों की संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी से जांच कराए जाने पर अड़ा हुआ है। लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता और केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की संसद की कार्यवाही चलने देने के लिए विपक्षी दलों से मिलकर कोई राह निकालने की कोशिश भी फिलहाल नाकाम हुई है। पहले तो मुखर्जी ने कड़ा रूख अपनाते हुए यह कहा कि कैग की रिपोर्ट संसद की लोकलेखा समिति को सौंप दी जाएगी और जेपीसी की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन विपक्षी दलों के प्रतिनिधि नेताओं से मुलाकात के बाद उनके रूख को देखते हुए उन्होंने कहा है कि कोई रास्ता निकालने के लिए वे प्रधानमंत्री से बात करके गुरूवार से पहले सरकार का पक्ष सामने रखेंगे। फिलहाल, इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने भी 2जी स्पेक्ट्रम मामले पर सुब्रह्मण्यम स्वामी की याचिका की सुनवाई करते हुए इस बात पर हैरानी जताई है कि इस मामले में स्वामी के लिखे शिकायती पत्र का प्रधानमंत्री कार्यालय ने कोई संज्ञान क्यों नहीं लिया और राजा के खिलाफ कार्रवाई करने में इतनी देर क्यों की गई। इस मामले में प्रधानमंत्री की तरफ से कोई जवाब न देकर खामोशी बरते जाने पर भी सुप्रीम कोर्ट को हैरानी हुई है। दूसरी तरफ देखें तो गठबंधन की मजबूरी और दबाव के चलते राजा के खिलाफ कदम उठाने में हीला-हवाली और देरी की वजह से संप्रग सरकार की हालत गुनाहे-बेलज्जत सरीखी साबित हुई है और विपक्ष इसे देर आयद-दुरूस्त आयद मानने को तैयार नहीं है। दरअसल, सत्ता से इंधन पाकर होनेवाला भ्रष्टाचार, चाहे किन्हीं सरकारों के कार्यकाल में हो, देश के जनमानस को इतना उद्वेलित और हताश कर देता है कि लोग नाउम्मीद होकर इसे नियति मान लेते हैं। यह भी एक कारण है कि जब एक तरफ से भ्रष्टाचार की बात उठती है तो जवाबी तौर पर दूसरी तरफ के भ्रष्टाचार की चर्चा छेड़ दी जाती है। लेकिन सवाल तो यह है कि क्या यह कहने से कि मेरी ही नहीं, तेरी कमीज भी गंदी है, सफाई हो सकती है? क्या हमाम में सभी नंगे हैं- हम इसी मुहावरे से काम चलाते रहेंगे?
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क्रिकेट के अपराधी

अरविन्द चतुर्वेद : 
क्रिकेट के खेल में अब चूंकि पैसा बहुत है इसीलिए इस खेल के इर्दगिर्द लालच, तिकड़म और अपराध का अदृश्य ताना-बाना बुने जाने की आशंका भी बराबर बनी रहती है। एक जमाने में जेंटलमैन गेम कहे जाने वाले क्रिकेट की कहानियां और खिलाड़ियों की शानदार उपलब्धियों के किस्से आज भी खेल-प्रेमियों को रोमांचित करते ही हैं, लेकिन पिछले कुछ बरसों से इस खेल से ऐसी कलंक कथाएं जुड़ती जा रही हैं, जो क्रिकेट की किरकिरी कराने के साथ ही बहुत कड़वा एहसास कराती हैं। कहीं भी क्रिकेट मैच हो, जीत-हार को लेकर सटूटेबाजी के किस्से आम हो चले हैं और अब तो चार कदम आगे बढ़कर मैच फिक्सिंग तक की तिकड़में भी सामने आने लगी हैं। याद होगा कि कुछ साल पहले मैच फिक्सिंग के कलंक में ही भारतीय क्रिकेट के कप्तान रहे मुहम्मद अजहरूदूदीन के साथ-साथ होनहार खिलाड़ी अजय जडेजा का करियर चौपट हो गया और दक्षिण अफ्रीका के कप्तान रहे हैंसी क्रोनिए को फिक्सिंग की ग्लानि ने जीते-जी मार दिया था। इसी तरह बड़े धूमधाम से शुरू हुए शारजाह क्रिकेट टूर्नामेंट की इहलीला भी कुछेक बरसों में सटूटेबाजी और फिक्सिंग की बेईमानियों में खत्म हो गई। गनीमत है कि मैच फिक्सिंग के जाल में फंसकर अभी तक किसी क्रिकेटर को अपनी जान से हाथ नहीं धोना पड़ा है, लेकिन इधर पाकिस्तानी क्रिकेट को लेकर जैसे दुष्चक्र और भयावह षडूयंत्र सामने आ रहे हैं, उन्हें देखते हुए यह आशंका होती है कि कहीं किसी खिलाड़ी के साथ कोई हादसा न हो जाए। ताजा मामला पाकिस्तानी टीम के बिल्कुल युवा विकेटकीपर जुल्करनैन हैदर का सामने आया है, जिसे टीम में आए जुमा-जुमा तीन महीने हुए थे कि जान गंवाने के डर से अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट को अलविदा कह देना पड़ा है। यह अपने आप में हैरत भरी बात है कि दुबई में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ खेली जा रही oृंखला के मैच में फिल्ड में उतरने के ऐन एक दिन पहले डरा हुआ जुल्करनैन हैदर अपने साथी खिलाड़ियों को बिना कुछ बताए ही होटल से निकल लिया। जिस हालत में हैदर चुपके से निकला, वह स्वयं ही इस बात की ओर इशारा है कि अपने साथी खिलाड़ियों पर भी उसे भरोसा नहीं रह गया था। हैदर को मैच फिक्स करने से इंकार करने पर जान मारने की मिल रही धमकी के कारण टीम छोड़कर भागना पड़ा। पाकिस्तान के लिए एक टेस्ट, चार एकदिवसीय और तीन टूवेंटी-20 अंतरराष्ट्रीय मैच खेलने वाले इस 24 वर्षीय विकेटकीपर ने अब इंग्लैंड में राजनीतिक शरण की गुहार लगाई है। हैदर ने लंदन से एक पाकिस्तानी न्यूज चैनल को यह भी बताया है कि उसके परिवार को अब भी धमकियां मिल रही हैं और इसलिए संन्यास लेने का उसने फैसला किया है, क्योंकि उस पर बहुत दबाव है, जिसे वह झेल नहीं पा रहा है। हैदर के इस तरह टीम को छोड़कर जाने से आईसीसी भी परेशान है, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट का संचालन करने वाली इस संस्था का मानना है कि पाकिस्तान के इस विकेटकीपर को सटूटेबाजी के जाल से जुड़े अपराधियों ने निशाना बनाया है। होनहार युवा क्रिकेटर हैदर के साथ हुए इस वाकए से आईसीसी समेत समूचे क्रिकेट जगत का चिंतित होना स्वाभाविक है। आईसीसी ने कहा भी है कि यह काफी घिनौना है कि सटूटेबाजी से जुड़े अपराधी पहले भी खिलाड़ियों के परिवार को निशाना बना चुके हैं। हैरानी तो इस बात की है कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी खुद पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड का अध्यक्ष होने के बावजूद अपने एक प्रतिभाशाली युवा क्रिकेटर और उसके परिवार को आश्वस्त करने के बजाय पीसीबी के पक्ष में लीपापोती करने में लगे हुए हैं। जबकि पिछले कई मामलों की तरह हैदर के मामले में भी मैच फिक्सिंग से जुड़े पाकिस्तानी अंडरवल्र्ड और बदनाम खुफिया एजेंसी आईएसआई के नापाक गठजोड़ का नाम लिया जा रहा है। समझा जा सकता है कि पैसे के बेरोकटोक प्रवाह वाले क्रिकेट को बंधक बनाने के लिए अपराधी किस हद तक जा सकते हैं।
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ओबामा के आगे-पीछे

अरविंद चतुर्वेद :
जैसे-जैसे अमेरिका के प्रथम अश्वेत राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत-यात्रा का दिन यानी छह नवम्बर करीब आता जा रहा है, उत्सुकता और अधीरता दोनों बढ़ती जा रही है। जिस तरह इस यात्रा के पहले ही इसकी अहमियत और हासिल को लेकर अपेक्षाओं की अनुमानपरक मीमांसा हो रही है, उसके अनुरूप अगर ओबामा के सफर का फलितार्थ निकलता है तो इसमें कोई दो राय नहीं कि एशियाई मुल्कों, खासकर दक्षिण एशिया में भारत को एक नई चमक के साथ ठोस अग्रगामिता मिलेगी। जैसाकि खुद प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने इस यात्रा के संदर्भ में संकेत दिया है कि भारत और अमेरिका दोनों ही आपसी सम्बंधों में गुणात्मक बदलाव लाना चाहते हैं। जापान, मलेशिया और वियतनाम के हफ्तेभर के सफर से वापसी के दौरान मनमोहन सिंह ने कहा है कि भारत और अमेरिका के पारस्परिक सम्बंध एक नए चरण में प्रवेश कर गए हैं और दोनों देशों के बीच सौहार्द व समझ कायम है। प्रधानमंत्री ने इस बात की भी ताईद की है दोनों देशों के बीच विभिन्न मामलों पर रणनीतिक साझेदारी है और दोनों देशों की नजर ऐसे उन सभी क्षेत्रों व पहलुओं पर मिलकर यानी कि तालमेल के साथ काम करने की है, जो दोनों देशों के हितों से सम्बंध रखते हैं। बहरहाल, यह तो अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत-यात्रा का एक पहलू है, लेकिन दूसरा पहलू चुनौतियां पेश करने वाला भी है, जिसे कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इस यात्रा की चमक को धुंधलाने की कोशिश करने के मकसद से कुछ चुनौतियां देर-सबेर जरूर दरपेश की जाएंगी, जिन पर दोनों ही देशों को सतर्क निगाह रखनी होगी। उदाहरण के लिए, यह अचानक या आकस्मिक नहीं है कि कश्मीर के अलगाववादी तथाकथित आजादी की मांग के लिए घाटी में अशांति और उपद्रव के ताप को लगातार ऊंचा और सरगर्म बनाए रखना चाहते हैं और उनकी मदद में इंधन के तौर पर पाकिस्तानी फौज सीजफायर का उल्लंघन करते हुए चेतावनी दिए जाने के बावजूद बीच-बीच में गोलाबारी कर चुका है। यही नहीं, अपनी धरती का आतंकवादियों के लिए इस्तेमाल न होने देने का वायदा करने के बावजूद पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के मुजफ्फराबाद में लश्करे-तैयबा समेत विभिन्न नामधारी आतंकी संगठनों के लोग दो दिन पहले ही हजारों की भीड़वाली रैली में खुलेआम शिरकत कर चुके हैं। उधर दूसरी ओर ओबामा के भारत आने की तारीख से चंद रोज पहले यमन से शिकागो के दो यहूदी प्रार्थनागृहों के पते पर भेजे जा रहे दो पार्सल बमों का पता चलने के बाद अमेरिका समेत यूरोपीय देशों के खिलाफ अलकायदा की नई हमलावर मुहिम की आशंका सामने आई है। इस मामले के रहस्योदूघाटन के संदर्भ में खुद अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने कुबूल किया है कि इस समय अमेरिका ठोस आतंकी धमकी का सामना कर रहा है। कुल मिलाकर ये चंद घटनाएं ही बताती हैं कि ओबामा की भारत-यात्रा के आगे-पीछे ऐसी नकारात्मक गतिविधियों का सिलसिला चलाकर चुनौतियां पेश करने का इरादा रखने वालों की तत्परता बढ़ सकती है। लेकिन, इस सबके बावजूद मोटे तौर पर जो बातें बहुत साफ हैं, वह यह कि क्लिंटन और बुश के जमाने की तुलना में ओबामा के अमेरिका का रूख भारत के प्रति बहुत सकारात्मक हुआ है और उसकी तमाम गलतफहमियां भी दूर हुई हैं। फिर इस दौरान भारत ने भी अपने बलबूते विकास की कई मंजिलें तय की हैं। वास्तविकता तो यह है कि समकालीन विश्व में भारत को ही नहीं अमेरिका को भी भारत से बेहतर तालमेल बनाकर चलने की जरूरत है।
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भ्रष्टाचार के भवन में

अरविन्द चतुर्वेद :
क्या पूरा देश ही भ्रष्टाचार के भवन में बदलता जा रहा है? छोटे-मोटे भ्रष्टाचार की तो बात ही छोड़ दीजिए, समय-समय पर इतने बड़े-बड़े भ्रटाचारों का भेद खुलता है, जिनकी जांच और चर्चा कई महीनों तक छाई रहती है। दिलचस्प यह भी है कि एक घोटाले की चर्चा तब मद्धिम पड़ती है, जब उसको पीछे ठेलकर कोई नया घोटाला सीना ताने सामने आ खड़ा होता है। अब जैसे सत्यम वाले रामलिंगा राजू की चर्चा कोई नहीं करता, क्योंकि उनके घोटाले को पीछे धकेल कर झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा का हजारों करोड़ का घोटाला सामने आ गया। इस घोटाले की जांच अभी भी चल रही है, लेकिन इसी बीच मधु कोड़ा की चर्चा को पीछे धकेलकर कामनवेल्थ खेलों के आयोजन और उससे सम्बंधित निर्माण कायों में हुआ महा घोटाला सामने आ गया। खेल खतम हुए तो अब खेलों के पीछे हुए खेल की जांच हो रही है। सरकार की पांच-पांच एजेंसियां अंधों के हाथी की तरह प्रसिद्ध दार्शनिक सत्य की तरह इस महा भ्रष्टाचार की जांच में लगी हैं। अब देखना यह है कि कौन पूंछ को सत्य बताता है, कौन कान को और कौन सूंड़ को। बहरहाल, भ्रष्टाचार का भवन बन चुके देश में राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान हुई वित्तीय अनियमितताओं और घोटालों की जांच के सिलसिले में तीन सौ आयकर अधिकारियों ने देशभर में एक साथ 50 स्थानों पर छापे मारे हैं। ये छापे खेलों से सम्बंधित चार ठीकेदार कंपनियोें के दफ्तरों-परिसरों में मारे गए हैं। केंद्रीय सतर्कता आयोग यानी सीवीसी राष्ट्रमंडल खेलों के एक शीर्ष अधिकारी द्वारा दो सौ करोड़ की धांधली से संबंधित शिकायत की जांच कर रहा है। यह वही अधिकारी हैं, जिन्हें आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी का करीबी सहयोगी माना जाता है। गौरतलब है कि राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़ी अलग-अलग निर्माण परियोजनाओं में आर्थिक अनियमितताओं से संबंधित कुल 22 शिकायतों की जांच सीवीसी कर रहा है। भ्रष्टाचार की यह एक अकेली चादर ही कितनी देशव्यापी है, इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि छापेमारी राजधानी दिल्ली समेत बंगलुरू, मुंबई, जमशेदपुर, कोलकाता में तो की ही गई है, अकेले राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में करीब 50 स्थानों पर मारकर बड़ी संख्या में खेलों से सम्बंधित दस्तावेज जब्त किए गए हैं। क्या दिलचस्प बात है कि आयकर विभाग की जांच के घेरे में आई कंपनियों को इन अंतरराष्ट्रीय खेलों के बाबत राजधानी दिल्ली के सौंदर्यीकरण और स्ट्रीट लैम्पों को बदलने आदि का ठेका दिया गया था, लेकिन इन लोगों ने सौंदर्यीकरण के बहाने कालिख पोत दिया और स्ट्रीट लैम्पों के उजाले की आड़ में अंधेरगर्दी मचाकर रख दी। देश वासियों की गाढ़ी कमाई के पैसे से देश की इज्जत और शान की खातिर कराए गए राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी के बहाने लूट-खसोट मचाने वालों को क्या देशभक्त कहा जा सकता है? असल में भ्रष्टाचारी पैसे के पिशाच होते हैं, जो सिर्फ देश और देशवासियों का खून चूसना जानते हैं। चूंकि इस महा भ्रष्टाचार की जांच प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई, केंद्रीय सतर्कता आयोग के साथ ही प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त विशेेष समिति भी कर रही है, इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बहुस्तरीय जांच में उन सभी कसूरवारों की गरदन फंसेगी, जो भ्रष्टाचार के समंदर में मगरमच्छ की तरह डुबकी लगाते आए हैं। जांच एजेंसियों के साथ ही सरकार से भी आम नागरिक की यही अपेक्षा है कि इस महाघोटाले में दूध का दूध और पानी का पानी होने तक पूरी मुस्तैदी बनाए रखे। ऐसा न हो कि चार-छह महीने में कोई नया घोटालेबाज भ्रष्टाचारी सामने आ जाए और कामनवेल्थ खेलों में हुए घोटाले को धकेलकर पीछे कर दे। वैसे भी अगर कामनवेल्थ खेल देश की प्रतिष्ठा से जुड़े हुए थे, जैसा कि सरकार ने कहा था तो यह भी सरकार की ही जवाबदेही है कि इसके आयोजन में गड़बड़ियां और वित्तीय घपलेबाजी करने वालों की प्रामाणिक तौर पर पहचान करके उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दिलाए , चाहे वे कितने भी ऊंचे रसूख वाले लोग हों। यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि इतने बड़े पैमाने पर कराई जा रही बहुस्तरीय जांच की साख का मामला है। यह भ्रष्टाचार एक देश विरोधी कार्य है, जिसमें लिप्त लोगों को सजा मिलनी ही चाहिए।
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ऊँट के मुंह में जीरा

अरविन्द चतुर्वेद : 
हालांकि किसान ऊंट नहीं हैं, वे देश के अन्नदाता हैं और उन्हीं की बदौलत यह देश आज भी बहुतायत में कृषि प्रधान बना हुआ है। मगर यह किसानों के साथ-साथ देश का भी दुर्भाग्य कहेंगे कि बात-बात पर किसानों को ऊंट की तरह सरकार का मुंह देखना पड़ता है। सरकार खेती के हर सीजन के पहले जरूरी उपज के प्रोत्साहन के लिए हर साल न्यूनतम समर्थन मूल्य का एलान किया करती है और मानना चाहिए कि किसान रवी की खेती की तैयारी करें, उसके पहले गेहूं व सरसों समेत दालों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की सरकार ने घोषणा की है। लेकिन सरकार ने गेहूं और सरसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य महज 20 रूपए बढ़ाकर ऊंट के मुंह में जीरा वाली कहावत को चरितार्थ कर दिया है। खेती के साल-दर-साल बढ़ते खर्च के आगे न्यूनतम समर्थन मूल्य की यह बढ़त किसानों के जले पर नमक छिड़कने वाली है और उपज के लिए प्रोत्साहित करने के बजाय यह किसानों को हतोत्साहित ही करेगी। क्या सरकार ने गेहूं का समर्थन मूल्य इसलिए मामूली तौर पर बढ़ाया है कि उसके गोदामों में गेहूं रखने की जगह नहीं है और पहले से जो स्टाक पड़ा हुआ है, वह सड़कर सरकार की भदूद पिटवा चुका है? कितना शर्मनाक है कि एक तरफ देश में भुखमरी व कुपोषण का रोना है और दूसरी ओर सरकार किसानों को प्रोत्साहित करने के बजाय हतोत्साहित करने पर आमादा है। गौरतलब है कि प्रति क्विंटल 1. 8 प्रतिशत की मामूली बढ़ोतरी के साथ गेहूं का समर्थन मूल्य जहां सरकार ने 1120 रूपए प्रति क्विंटल किए हंै, वहीं उसने केंद्रीय कर्मचारियों के वेतन में औसतन दस प्रतिशत की बढ़ोतरी की थी। यानी खरीदने वालों की जेब भारी हो, भले ही किसानों का हाल ठन ठन गोपाल हो। देश में चूंकि दालों का उत्पादन जरूरत भर नहीं हो पाता, इसलिए दालों के उत्पादन को प्रोत्साहन देने के मकसद से सरकार ने मसूर और चने की दालों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 380 रूपए प्रति क्विंटल तक की बढ़ोतरी की है। न्यूनतम समर्थन मूल्य वह कीमत होती है, जो सरकार किसानों से उनकी उपज खरीदने के लिए भुगतान करती है। लेकिन सरकारी खरीद के लिए भी क्रय केंद्रों पर किसानों को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, यह बेचारा किसान ही जानता है। उसे अपनी उपज बेचने के एवज में जो चेक मिलते हैं, वे भी कई बार महीनों बाद कमीशन ले-देकर भुनाए जा पाते हैं। ऐसी लचर और धांधली पूर्ण व्यवस्था में गेहूं और सरसों के समर्थन मूल्य में महज पौने दो फीसदी प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी वाकई जले पर नमक छिड़कने वाली ही कही जाएगी। जहां तक दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन का मामला है तो अपेक्षाकृत कुछ बेहतर समर्थन मूल्य जरूर घोषित किए गए हैं, लेकिन एक तो दालों वाली फसलें समान रूप से हर जगह पैदा नहीं हो पातीं, दूसरे कई बार इनका उत्पादन प्रतिकूल मौसम की मार का शिकार होकर किसानों की कमर तोड़ देता है। मसूर दाल का समर्थन मूल्य 380 रूपए और चने की दाल का 340 रूपए बढ़ाया गया है। सरकार ने इस साल दालों के उत्पादन को प्रोत्साहन देने और आयात पर निर्भरता घटाने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य में यह इजाफा किया है। असल में भारत दुनिया का सबसे बड़ा दाल उत्पादक देश तो है, फिर भी घरेलू मांग को पूरा करने के लिए सालाना 35 से 40 लाख टन दालों का आयात करना पड़ता है। तिलहन उत्पादों का भी समर्थन मूल्य कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की सिफारिशों के मदूदेनजर कुछ बढ़ा दिया गया है। लेकिन असल सवाल तो यह है कि जब सरकार और प्रधानमंत्री खुद कह चुके हैं कि देश को एक और हरित क्रांति की जरूरत है तो क्या उसकी जरूरतें इसी तरह के समर्थन मूल्यों के ऐलान से पूरी हो जाएंगी। सच्चाई तो यह है कि किसान हितैषी होने की बातें तो खूब दोहराई जाती हैं, लेकिन कृषि और किसान के समग्र विकास के लिए प्रभावी तौर पर सरकारें कुछ खास कर नहीं रही हैं- केंद्र हो या राज्य सरकारें।
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विकास की चुभन

अरविन्द चतुर्वेद :
विकास के नाम पर अपने देश में विकसित पूंजीवादी देशों, खासकर अमेरिकी उतरन को जिस तरह आदर्श मानकर अंधाधुंध अपनाते जाने की आदत है और इसके जो नतीजे सामने आ रहे हैं, लगता है कि अब वे खुद प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को भी चुभने लगे हैं। तभी तो हैदराबाद में एकेडमी ऑफ साइंसेज फार द डेवलपिंग वल्र्ड की वाष्रिक बैठक का उदूघाटन करते हुए उन्होंने कहा है कि औद्योगिक राष्ट्रों द्वारा अपनाए गए विकास मॉडल विकासशील देशों के अस्तित्व के लिए खतरनाक हो सकते हैं और जरूरत इस बात की है कि इनसे सतर्क रहते हुए विकास के लिए प्रगति के अधिक स्थाई उपाय खोजे जाएं। यही नहीं, प्रधानमंत्री ने भारत जैसे विकासशील देश की पारिस्थितिकी का खास तौर पर जिक्र किया और कहा कि हम दरअसल उष्णकटिबंधीय इलाकों में पैदा होनेवाली बीमारियों से लड़ने के साथ-साथ परम्परागत खेती-बारी में बदलाव और प्राकृतिक आपदाओं से निपटने जैसी साझा चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। असल में हमारी सरकारें भी और तमाम बड़े-छोटे गैर-सरकारी औद्योगिक कम्पनियां भी तेजी से तरक्की करने और कम खर्च में अधिक से अधिक उत्पादन व मुनाफा कमाने के चक्कर में ऐसी हड़बड़ी का विकासवादी रास्ता अपनाती हैं, जो स्थाई भी नहीं होता और प्रकृति-पर्यावरण के तमाम अंगों समेत सामान्य जन के जीवन में भी मुश्किलें पैदा करता है। सबको पता है कि स्थानीय पारिस्थितिकीय जरूरतों और सीमाओं को नजरअंदाज करते हुए हम जिन विकास परियोजनाओं को अबतक अमलीजामा पहनाते आए हैं, उन्होंने इस हद तक पर्यावरणीय असंतुलन पैदा किया है कि आए दिन हमें प्राकृतिक विभीषिकाओं व आपदाओं का शिकार होना पड़ता है। इनसे होनेवाले व्यापक नुकसान की भरपाई क्या दस औद्योगिक परियोजनाएं भी मिलकर पूरी कर सकती हैं? उदाहरण के लिए अगर हम गंगा और यमुना सरीखी दो नदियों की ओर ही देखें तो औद्योगिक और तटवर्ती शहरी विकास का कचरा ढोते-ढोते ये इस कदर प्रदूषित हो चुकी हैं कि अबतक अरबों रूपए खर्च करने के बावजूद इन्हें स्वच्छ नहीं बनाया जा सका है। बिना सोचे-बिचारे अंधाधुंध विकास के कारण जंगलों और पहाड़ों का भी हुआ है। दरअसल, नदियां-पहाड़ और जंगल प्रकृति-पर्यावरण व जीवन की सुरक्षा के ऐसे गार्ड हैं, जिनकी बर्बादी की कीमत पर किया जानेवाला विकास हमेशा घाटे का सौदा ही साबित होता है। कौन नहीं जानता कि न तो हम नदियां बना सकते हैं और न पहाड़, मगर इसके बावजूद विकास का वही मॉडल अपनाए हुए हैं, जो सबसे ज्यादा चोट इन्हीं चीजों को पहुंचाता आ रहा है। नतीजा यह है कि मौजूदा विकास मॉडल एक बड़ी आबादी के जीवन को तहस-नहस करता आ रहा है, उन्हें विस्थापित करता आ रहा है और इसीलिए ऐसे विकास को बहुतेरे लोग स्वाभाविक ही सत्यानाशी कहते हैं। अब अगर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने वैश्विक अनुभव और अभिज्ञता के हवाले से कहा है कि हमने देखा है कि किस तरह औद्योेगिक राष्ट्रों द्वारा अपनाए गए विकास के रास्ते हमारे अस्तित्व और जिंदगी के लिए खतरनाक हैं, तो शायद हम सतर्क होकर अपने लिए विकास का उपयुक्त और उपादेय मॉडल अपनाएं। क्योंकि अभी भी कोई बहुत देर नहीं हुई है। अगर हम ऐसा कोई रास्ता खोज निकालते हैं जो बेवजह हमारी क्षमताओं पर दबाव नहीं डालता और विकास की मूलभूत चुनौतियों से निपटने में सक्षम होता है तो उसका हम अपने खुद के हित में उपयोग कर सकेंगे। अच्छी बात यही है कि भारत समेत दूसरे विकासशील देश भी इस दिशा में सचेत हुए हैं और बेहतर फ्रेमवर्क के तहत समुद्री अनुसंधान, कृषि, जलवायु परिवर्तन और नैनो तकनीक सहित विज्ञान व तकनीक में सामूहिक गतिविधियों की oृंखला चल निकली है। अंधानुकरण के बजाय अपना रास्ता हमेशा बेहतर होता है।
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गंगा प्रदूषकों पर चाबुक

अरविन्द चतुर्वेद :
उत्तर भारत की जीवन रेखा और तकरीबन 45 करोड़ भारतीयों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अन्न-जल दे-दिलाकर उनका भरण-पोषण करने वाली गंगा नदी की लगातार बिगड़ती सेहत दुरूस्त करना केंद्र से लेकर सम्बंधित राज्य सरकारों के लिए कई दशकों से लगातार एक चुनौती है। पौराणिक काल से लेकर आज की उत्तर आधुनिक इक्कीसवीं सदी में भी गंगा का धार्मिक व सांस्कृतिक प्रवाह भारतीय जनमानस में अविरल भले ही हो, लेकिन भौतिक सच्चाई तो यही है कि बुरी तरह प्रदूषित इस पवित्र नदी का पानी आचमन लायक नहीं रह गया है। ैकहीं-कहीं नदी का पानी इस कदर प्रदूषित हो चुका है कि आदमी नहाए तो उसे चर्मरोग हो जाए। प्रदूषित गंगा नदी अपने जल-जीवों को भी जीवन दे पाने में कई स्थानों पर फेल साबित हुई है। यह ऐसी कड़वी सच्चाई है, जो गंगा को देवी और मां मानने वाले सरल हृदय धार्मिक लोगों को भी कष्ट पहुंचाती है और प्रकृति व पर्यावरण से प्रेम करने वाले आधुनिक, पढ़े-लिखे लोगों को भी। लेकिन जिस तरह कहीं न कहीं हमारे जंगलात के महकमे में एक बेईमानी है कि वनों की सुरक्षा और संवर्द्धन पर हर साल करोड़ों रूपए उड़ाने के बावजूद जंगल खत्म होते गए, कुछ उसी तरह गंगा समेत कई दूसरी नदियां भी प्रदूषण नियंत्रण की तमाम हवाई कसरत के बावजूद अपना प्राकृतिक स्वास्थ्य हासिल नहीं कर पाइं। केवल गंगा और यमुना की ही बात की जाए तो अबतक एक्शन प्लान के नाम पर हजारों करोड़ रूपए पानी में बहाए जा चुके हैं, मगर यहां भी एक बेईमानी है कि इन नदियों का प्रदूषण कम होने के बजाय बढ़ता गया है। हमारी संस्कृति और जीवन से जुड़ी ये नदियां दिन पर दिन प्रदूषित क्यों होती गइं और हजारों करोड़ रूपए बहा देने के बाद भी इन्हें स्वच्छ क्यों नहीं बनाया जा सका, दरअसल इसमें कोई गूढ़ रहस्य नहीं है। ऐसा सिर्फ इसलिए हुआ है कि इन दोनों नदियों को प्रदूषित करने वाले सफाई करने वालों पर लगातार भारी पड़ते रहे हैं। राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हों या फिर केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड, गंगा-यमुना में रात-दिन कचरा उगलने वाली औद्योगिक इकाइयों की अनदेखी करके या उनको चेतावनी देकर और बहुत हुआ तो आर्थिक दंड देकर अबतक बख्शती आई हैं। इसका नतीजा ढाक के पात रहा है। अब जाकर मनमानी करने वाली औद्योगिक इकाइयों पर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने चाबुक चलाया है। कड़ा रूख अख्तियार करते हुए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने ऐसी चार प्रदूषक औद्योगिक इकाइयों को बंद करा दिया है। इसके अलावा एक औद्योगिक इकाई को बंद कर देने का नोटिस दिया है। उदूगम से लेकर मंजिल तक गंगा के समूचे क्षेत्र को तो छोड़िए, केंद्रीय प्रदूषण निगरानी संस्था ने उत्तर प्रदेश में कन्नौज से वाराणसी के बीच पांच सौ किलोमीटर की लंबाई में गंगा के प्रदूषण पर सघन निगरानी के बाद तीन हफ्तों में यह कार्रवाई की है। इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि अपने समूचे सफर के दौरान औद्योगिक से लेकर अन्य प्रकार के कितने प्रदूषणों की मार हमारी यह पूज्य पवित्र नदी झेल रही होगी। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पहली बार पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम 1986 की धारा पांच को लागू करते हुए गंगा के अपराधियों पर यह चाबुक चलाया है। यही नहीं, पर्यावरण मंत्री के निर्देश पर गंगा की स्वच्छता सुनिश्चित करने के लिए कानपुर की 402 चमड़ा इकाइयों की भी जांच होनी है। असल में अब इन नदियों को दुर्गति से उबारने के लिए चाबुक चलाने के अलावा कोई रास्ता भी नहीं है।
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इकहरे चेहरे से लोगों का काम ही नहीं चलता

अरविन्द चतुर्वेद
आजकल इकहरे चेहरे से लोगों का काम ही नहीं चलता, और फिर राजनीति में तो पूछना ही क्या! पारदर्शिता की बातें तो खूब की जाती हैं, लेकिन चेहरे पर चेहरा चढ़ा रहता है। कमाल यह कि राजनीति करने वाले अपने हर चेहरे को असली चेहरे की तरह पेश करते हैं। अभी कल तक कांग्रेस के प्रवक्ता रहे अभिषेक मनु सिंघवी को ही लीजिए। उनका एक चेहरा पार्टी के प्रवक्ता के अलावा नामी वकील का भी है और जाहिर है कि वकील होने के नाते वे अपने किसी भी मुवक्किल के साथ कोर्ट में खड़े हो सकते हैं- उसके बचाव में दलीलें भी दे सकते हैं। लेकिन ठीक इसी जगह यदि वही वकील किसी राजनीतिक दल का प्रवक्ता या प्रतिनिधि चेहरा भी होता है तो उससे अगर पारदर्शिता और नैतिकता की अपेक्षा न भी की जाए तो कम से कम पार्टी के सिद्धांतों और नीतियों के लिए प्रतिबद्धता की अपेक्षा तो रहती ही है। अभिषेक मनु सिंघवी का यही वकील वाला चेहरा केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस के लिए अचानक इतना असुविधा जनक और धर्म संकट में डालने वाला साबित हुआ है कि उन्हें पार्टी प्रवक्ता क ी भूमिका से बेदखल कर दिया गया। वैसे दो चेहरे रखने वाले सिंघवी एक तरह से न घर के हुए, न घाट के। क्योंकि केरल में भूटान लॉटरी के एक घोटालेबाज एजेंट की तरफ से केरल सरकार के खिलाफ मुकदमा लड़ने का मामला जब उजागर हुआ और सिंघवी पर दबाव पड़ा तो एक ओर तो उन्होंने मुकदमे से अपने को पीछे खींच लिया, दूसरी ओर जब कांग्रेस की केरल इकाई की ओर से पार्टी आला कमान पर दबाव बढ़ा तो धर्म संकट की हालत में सिंघवी की कांग्र्रेस के प्रवक्ता पद से भी छुटूटी हो गई। इसी को कहते हैं- दुविधा में दोऊ गए, माया मिली न राम। जरा याद कीजिए कि कांग्रेस के प्रवक्ता के बतौर अभिषेक मनु सिंघवी पत्रकारों को शेर ओ शायरी, कानून की धाराओं का हवाला देकर तर्कसंगत ढंग से विभिन्न मुदूदों पर कितनी कुशलता व प्रखरता से जवाब देते थे और पार्टी का पक्ष रखते थे। मगर उन्होंने वकील के बतौर जो कुछ किया, उसे कांग्रेस पचा नहीं सकती थी। एक आदमी भारत के सबसे घनिष्ठ मित्र व छोटे-से देश भूटान की लॉटरी का भारत में ठेका लेता है और देखते ही देखते एक छोटे-से दुकानदार से भूटान को ठग कर खरबपति बन जाता है और जब भूटान सरकार केरल उच्च न्यायालय में उसके खिलाफ मामला दायर करती है तो बचाने के लिए भारत सरकार का नेतृत्व कर रही पार्टी का प्रवक्ता अपने वकील चेहरे में सामने आ जाता है। जैसी कि खबर है वकील सिंघवी की फीस 20 करो.ड रूपए तय हुई थी, लेकिन पैसे का पता नहीं उन्हें मिले या नहीं, हां चेहरे पर चेहरा रखने की दुविधा में उनकी राजनीति जरूर ध्वस्त हो गई। दिवंगत लक्ष्मीमल सिंघवी सरीखे संविधान के बड़े जानकार वकील और सादगी पूर्ण ढंग से रहने वाले शख्स के बेटे अभिषेक मनु सिंघवी को असल में उनका शानो-शौकत में डूबा अहंकार पूर्ण दोहरा व्यक्तित्व ही ले डूबा। आखिर केरल सरकार की शिकायत को प्रधानमंत्री कार्यालय ने गंभीरता से लिया और केरल में अगले वर्ष होनेवाले चुनाव में फजीहत को टालने की लाचारी में कांग्रेस आला कमान को अभिषेक मनु सिंघवी की प्रवक्ता पद से छुटूटी करनी पड़ी। इस संदर्भ में अगर कोई याद करना चाहे तो देश के दूसरे बड़े वकील राम जेठमलानी को भी याद कर सकता है, जिनका वकील और राजनेता वाले दोनों चेहरे भाजपा को पर्याप्त धर्म संकट में डालते आए हैं।
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जलसों के बीच जख्म नहीं दिखते

« अरविंद चतुर्वेद « 
दिल्ली में कामनवेल्थ खेलों का जलसा, बिहार में विधान सभा चुनावों के जरिए लोकतंत्र के महापर्व का जलसा और पश्चिम बंगाल में अगले साल होनेवाले विधान सभा चुनावों की तैयारियों का जलसा। इन जलसों के बीच किसी को जख्म कहां दिखाई दे रहे हैं? खेलों के जलसे में बाढ़ की बर्बादी का जख्म सरकार को नहीं दिखाई देता। स्वास्थ्य मंत्रालय को दिल्ली से पटना तक फैले डेंगू का जख्म नहीं दिखता। जख्म और भी हैं। अभी कुछ ही दिनों पहले बिहार में जमुई जिले के कजरा जंगल में पुलिस से मुठभेड़ के बाद माओवादियों ने जिन पुलिस कर्मियों को बंधक बनाने के बाद एक लुकस टेटे को मारकर नीतीश कुमार के चेहरे पर हवाइयां उड़ा दी थीं, उसी जमुई के संथाली गांवों में एक तरह से मुनादी करते हुए नक्सलियों ने हर घर से लड़ने लायक एक-दो नौजवानों को अपने हवाले करने की मांग की है। जैसी कि खबर है, यह माओवादियों का अपने संगठन में लोगों की भर्ती का तरीका है। हो सकता है कि कुछ डर से और कुछ लाचारी-बेरोजगारी से ग्रामीण नौजवान माओवादियों को मिल भी जाएं, क्योंकि वे उन्हें विस्फोट और खून-खराबे की नौकरी दे देंगे। ऐसे ही तो उनका संगठन और कारोबार चल रहा है। यह एक जख्म के गहराते जाने की निशानी है, मगर बंधक पुलिसकर्मियों की मुक्ति के बाद चुनावी जलसे के रोमांच में डूबे मुख्यमंत्री नीतीश और उनके मुकाबिल लालू एक-दूसरे पर जबानी जंग लड़ते हुए कविता की पैरोडी फेंक रहे हैं। विधान सभा के चुनावी अभियान में माओवादियों के दिए जख्म और मरहम की चर्चा कोई दल और कोई नेता नहीं करना चाहता।
बंगाल का तो और बुरा हाल है। चुनाव में अभी सालभर बाकी है और उसकी तैयारियों में लगे मुख्यमंत्री बुद्धदेव भटूटाचार्य और उनके मुकाबिल ममता-प्रणब की सभाओं व उदूघाटन-शिलान्यास के जलसों में एक-दूसरे को राज्य के दुखों का उत्पादक बताया जा रहा है, मगर जनता के जख्म कोई नहीं देखता। अभी चार दिन पहले झाड़ग्राम जिला मुख्यालय से महज तीन किलोमीटर दूर राधानगर के सेवायतन में एक माध्यमिक स्कूल के चौबीस वर्षीय युवा शिक्षक श्रीकांत मंडल को छात्रों का भेस बनाए तीन किशोर माओवादियों ने घेरकर गोलियों से भून डाला। यह माओवादियों की बच्चा-ब्रिगेड थी, जिसने दिन-दोपहर श्रीकांत मास्टर को उनके मां-बाप की आंखों के सामने स्कूल से लौटते समय छात्र-छात्राओं के बीच गोलियां तड़तड़ाकर मार डाला। आसपास जो स्कूली छात्र-छात्राएं थीं, चीखते-चिल्लाते अपने बस्ते फेंककर भागे। असल में स्कूल में ही श्रीकांत मास्टर को नजर रख रहे बच्चा माओवादियों पर शक हुआ तो स्कूल से निकलने से पहले उसने अपने मां-बाप को फोन करके बुला लिया था। बच्चा माओवादियों के सामने श्रीकांत मास्टर के मां-बाप जान बख्शने के लिए हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते रहे, लेकिन उनपर कोई असर नहीं पड़ा। श्रीकांत मंडल को महज दो साल पहले स्कूल मास्टरी मिली थी, तब जाकर घर की माली हालत थोड़ी ठीक हुई थी, वरना इस नौकरी के पहले तक उसका बाप रिक्शा चलाता था। अब भी घर-परिवार की गाड़ी ठीकठाक से चलाने के लिए उसे लोगों के घरों में रंगाई-पुताई का काम करना पड़ता था। श्रीकांत मास्टर का कसूर यह था कि वह सरकारी पार्टी माकपा में था और गांव में रात में रोजाना दिए जा रहे पहरे में अपनी बारी आने पर पहरा दिया करता था।
यह कहने की तो खैर जरूरत ही नहीं है कि माओवादी जो क्रांति कर रहे हैं, उसमें रिक्शा चालक के बेटे श्रीकांत मंडल जैसे ज्यादातर गरीब ग्रामीण और आदिवासी मारे जा रहे हैं। सच्चाई यही है कि बिहार, झारखंड, बंगाल और छत्तीसगढ़ में रोजाना कहीं न कहीं माओवादी हिंसा के फोड़े फूटकर जख्म या नासूर बन रहे हैं, मगर उनके लिए मरहम खोजने के बजाय सरकारें और सियासी पार्टियां तरह-तरह के जलसों में डूबी हुई हैं। सियासत के इस मिजाज पर रामधारी सिंह दिनकर की ये पंक्तियां याद कर सकते हैं-

तेरी क्रीड़ा और करूणा का जवाब नहीं,
मरहम वहां लगाते हो, जहां घाव नहीं।
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हिन्दी का हाल और कुछ सवाल

अरविंद चतुर्वेद :
हर साल एक तारीख आती है : 14 सितम्बर, जिसे हिन्दी दिवस कहते हैं। सालभर तक पता नहीं क्या करते रहने वाले सरकारी दफ्तरों के राजभाषा विभाग और उनके कर्ता-धर्ता हिन्दी दिवस व सप्ताह वगैरह मनाने में जुट जाते हैं। एक राजभाषा अधिकारी मित्र की कही हुई बात याद आ रही है। उन्होंने कहा था- सच पूछिए तो चाहता ही कौन है कि हिन्दी वास्तव में लागू हो जाए। अगर ऐसा हो गया तो फिर राजभाषा विभागों और हिन्दी अधिकारियों की जरूरत क्या रहेगी? उन्होंने यह बात मजाक में भले ही कही हो, लेकिन यह एक गंभीर संकेत भी है।
इस बात को दूसरी तरफ से देखें। क्या यह सच नहीं है कि अगर हिन्दुस्तान से अंग्रेजी और अंग्रेजियत का खात्मा हो जाए तो बहुतेरे लोग मुश्किल में पड़ जाएंगे? असल में हमारी समूची नौकरशाही निचले दर्जे के कर्मचारियों समेत जनता पर अंग्रेजी में ही तो रोब झाड़ती है। भारतीय भाषाओं में रोब झाड़ना आसान नहीं है। वहां रोब झाड़ने का तर्क देना पड़ेगा और तुरंत जवाब भी सुनना पड़ जाएगा। इस तरह अपने देश के संदर्भ में अंग्रेजीदां लोगों को अंग्रेजी तर्क या बहस से बचने की सहूलियत तो देती ही है, वह उन्हें जवाबदेही से भी बचाती है। यानी कि मनमानी के मौके मुहैया कराती है। चाहे देश के इतिहास, भूगोल, प्रकृति, संपदा, कला, संस्कृति, विज्ञान आदि के बारे में रत्ती भर जानकारी न हो, लेकिन यदि एक भाषा अंग्रेजी आती हो तो अपने को न सिर्फ विद्वान गिनाया जा सकता है, बल्कि बड़े-बड़े विद्वानों की पंूछ मरोड़ी जा सकती है। उन्हें नकेल पहनाई जा सकती है। तमाम संस्थानों-प्रतिष्ठानों और प्रकल्पों-उपक्रमों को देख लीजिए, क्या ऐसा नहीं हो रहा है। आखिर एक लोकतांत्रिक देश में लोक भाषाओं को धकिया कर अंग्रेजियत की अल्पसंख्यक जिद बनाए रखने की तुक ही क्या है?
अब अंग्रेजी के भारतीय हमददों के तर्क पर गौर करें। उनका पहला तर्क यही होता है कि भारत जैसे बहुभाषी देश में अंग्र्रेजी एकसूत्रता का काम करती है- सबको जोड़ती है। दूसरे, वह विश्वभाषा है और इसके जरिए हम दुनिया के संपर्क में रहते हैं। और तीसरे, यह कि विज्ञान और टेक्नोलॉजी में अंग्रेजी के बगैर हम तरक्की नहीं कर सकते-पिछड़ जाएंगे। पर इन तकों की असलियत क्या है? क्या अंग्रेजी इसलिए अलग-अलग भाषा-भाषियों को जोड़ती है कि वह किसी की भाषा नहीं है और इसे सीखकर अलग-अलग भाषा-भाषियों को आपस में संवाद करना पड़ता है। फिर संवाद कायम करने की जरूरत के तहत भारतीय भाषाएं या हिन्दी क्यों नहीं सीखी जा सकती? क्या यह जरूरी है कि दो बिल्लियों में बराबर-बराबर बांटने के बहाने सारी रोटियां बंदर के ही हाथ लगें।
असल में ऐसा है भी नहीं। कोलकाता व बंगाल और मुंबई व महाराष्ट्र के कल-कारखानों में काम करने वाले, व्यापार-कारोबार करने वाले ज्यादातर लोग अंग्रेजी सीखकर तो नहीं ही गए हैं और न रास्ता-बाजार में हर जगह टकराने वाला आम बंगाली या मराठी अंग्रेजी जानता है। फिर भी सबकुछ चल रहा है। ऐसा ही चेन्नई, अहमदाबाद, सूरत, हैदराबाद, नागपुर, गुवाहाटी और चंडीगढ़ में भी है। संवाद की जरूरत तो जीवनयापन और सामाजिकता के तकाजे से है। और, यह काम आपस में भारतीय भाषाभाषी ही मिलजुल कर कर सकते हैं, करते आ रहे हैं। अलबत्ता अंग्रेजी की वकालत करने वालों से यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि क्या अंग्रेजों के भारत आने से पहले भारतीयों का आपसी संपर्क नहीं था? या अंग्रेज ही जब आए तो उन्होंने भारतीयों से कैसे संवाद कायम किया? कम से कम अंग्रेजों के भारत आने से पहले तो यहां अंग्रेजी नहीं ही आई थी। इसी के साथ अंग्रेजी के विश्वभाषा होने और अंग्रेजी के बगैर विज्ञान-टेक्नोलॉजी में पिछड़ जाने के तर्क का भी मुआयना किया जा सकता है। विकास का अर्थ अगर मनुष्य व संपदा के विकास और प्रकृति की समृद्धि से है तो तुलनात्मक दृष्टि से भारतीय अंग्रेजों के आने से पहले उनसे पिछड़े हुए नहीं, बल्कि ज्यादा विकसित थे। और, इससे भी काफी पहले श्रीलंका, बर्मा, थाइलैंड, चीन, जापान आदि देशों तक बौद्ध धर्म-दर्शन का प्रचार-प्रसार भी अंग्रेजी के जरिए नहीं हुआ था। आज भी दुनिया में ऐसे तमाम देश हैं, जहां की भाषा यानी संपर्क भाषा अंग्रेजी नहीं है फिर भी वे दुनिया की मुख्य धारा में शामिल हैं और उन्होंने ब्रिटेन से कुछ कम तरक्की नहीं की है। कई तो उससे आगे भी हैं- चीन और जापान को अपनी तरक्की के लिए अंग्रेजी की बैसाखी नहीं टेकनी पड़ी है। यह जग-जाहिर है।
वास्तविकता यह है कि अंग्रेजी भारत के अलग-अलग भाषा-समाजों के बीच पर्दा गिराने और दीवार खड़ी करने का काम कर रही है। यहां तक कि लोक और तंत्र के बीच खाई खोदने का काम भी इसने किया है, जिसके कारण देश में लोकतंत्र अपने सही अर्थ में फलीभूत नहीं हो पा रहा है और तमाम जनवादी मूल्य पानी भर रहे हैं। स्वाधीनता दिवस की पूर्व संध्या पर राजधानी दिल्ली में एक कवि सम्मेलन या मुशायरा आयोजित कर-करा देने से राजभाषा या राष्ट्रभाषा का दायित्व पूरा नहीं हो जाता। असल में हमारे पास न कोई सुस्पष्ट भाषानीति है, न साफ सांस्कृतिक दृष्टि और न ही मजबूत इच्छा-शक्ति। हिन्दी ही नहीं, कोई भी भाषा महज शब्दावली, व्याकरण या तकनीक भर नहीं होती। वह अपने बोलने वाले समाज की जीवन शैली, उसके सपने और उन सपनों को पूरा करने की इच्छाओं व कोशिशों का वाहक होती है। यही होकर अंग्रेजी सारी खुराफातों की जड़ है और यही न होने देकर हिन्दी की राह में रोड़े अटकाए जाते हैं।
लेकिन इतना तो मानना पड़ेगा कि तमाम रूकावटों और उपेक्षाओं के बावजूद हिन्दी का दायरा अपनी तरह से बढ़ता गया है। दूसरी भारतीय भाषाओं और उनके बोलने वालों के संपर्क में आने के कारण एक सहज रासायनिक प्रक्रिया में हिन्दी का शब्द भंडार काफी बढ़ा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक खास अंचल की खड़ी बोली जिसे आज कीहिन्दी के रूप में हम जानते हैं, उसने तमाम बोलियों व प्रादेशिक भाषाओं के साहचर्य से बहुत कुछ अर्जित किया है। आज की हिन्दी में 10 से लेकर 75 फीसदी तक ऐसे शब्द मिल जाएंगे, जो देशभर की बोलियों और भाषाओं में मौजूद हैं। और ऐसा हुआ है तो इसलिए नहीं कि राजभाषा विभाग ने कोई तीर मारा है। हिन्दी का विकास तो इसलिए हुआ और हो रहा है कि संचार के साधनों, भाषा-व्यवहार के माध्यमों और यातायात के साधनों का देशभर में तेज विस्तार हुआ है। अलग-अलग भाषाभाषी रोजगार और कारोबार के लिए देश में इधर से उधर स्थाई तौर पर जा बसे हैं, या फिर उनका आना-जाना यहां से वहां तक लगा रहता है। हिन्दी की अग्रगामिता और गुणधर्मिता यहीं देखी जा सकती है।
इसके समांतर खेद के साथ कहना पड़ता है कि जहां राजभाषा विभाग हिन्दी के मामले में अपनी अटपटी नियमावलियों में उलझे और जकड़े हुए हैं, वहीं दूसरी ओर हिन्दी भाषा-साहित्य की शिक्षा देनेवाले विश्वविद्यालय और कालेजों के हिन्दी विभागों का पाठूयक्रम बहुत हद तक लकीर का फकीर, पुराना-धुराना और अजीबोगरीब किस्म की शास्त्रीयता में जकड़ा हुआ है। यह पाठूय क्रम सुधारों और परिवर्तनों के बावजूद सृजन के बहुआयामी समकालीन परिदृश्य से 25 से लेकर 40 साल पीछे है। ऐसा कहने का अर्थ यह नहीं है कि हिन्दी के छात्रों को इसकी परंपरा और अतीत की जानकारी न दी जाए। लेकिन यह भी जरूरी है कि वे अपने भाषा-साहित्य की मौजूदा स्थिति और स्वभाव के बारे में भी तो जानें। वरना भाषा-साहित्य के भविष्य-संकेत व चुनौतियां को वे कैसे जान-समझ पाएंगे। जहां तक राजभाषा विभाग और इसके हिन्दी अधिकारियों का सवाल है, स्थिति कुछ ज्यादा ही विकट है। हिन्दी को देश की संपर्क भाषा बनाने के मकसद से आजादी के बाद सरकार ने इसे राजभाषा का संवैधानिक दर्जा देकर इसकी तरक्की के लिए अपने तमाम संस्थानों और औद्योगिक प्रतिष्ठानों में राजभाषा विभाग खोले। सभी मंत्रालयों की राजभाषा समितियां भी हैं, केंद्रीय हिन्दी निदेशालय है, भाषा प्रशिक्षण केंद्र हैं, और भी बहुत कुछ है। इन विभागों के तमाम कागज-पत्र, बही-खाता, सम्मेलन-रिपोर्ट, फाइल-दफ्तर वगैरह तामझाम को देखकर लगता है कि राजभाषा विभाग हिन्दी के लिए जैसे कोई पहाड़ तोड़ रहे हों। लेकिन हकीकत में ऐसा है नहीं। अगर ये विभाग, इनके अफसर और अमले सचमुच पहाड़ तोड़ रहे होते और हिन्दी का माहौल बनाने का काम कर रहे होते तो क्या आजादी के इतने बरसों बाद भी राजभाषा के मामले में संविधान की ऐसी-तैसी होती? कौन नहीं जानता कि अंग्रेजी की अठखेलियां सबसे ज्यादा सरकारी दफ्तरों में ही हैं और अफसरशाही की अंग्रेजी हेकड़ी भी।
इस विभाग की अपनी कोई भाषा नीति होगी तो जरूर ही। लेकिन इनके लोगों ने अंग्रेजी से अनुवाद की जैसी सरकारी हिन्दी पैदा की, उससे मुठभेड़ हो जाए तो अच्छी-खासी हिन्दी जानने वालों के भी छक्के छूट जाएं। पता नहीं क्यों और किस भाषा वैज्ञानिक आधार पर सरकारी हिन्दी की शब्दावली में तत्सम यानी संस्कृत के अप्रचलित शब्दों को रखने की रूझान अधिक दिखाई पड़ती है। हिन्दी के मानक रूप का मतलब संस्कृत की तत्सम शब्दावली ही होती है, ऐसा किस भाषा विज्ञान और वैज्ञानिक की मान्यता है? नतीजा यह है कि इस शुद्धतावाद और अंग्रेजी के सरकसी अनुवाद में राजभाषा विभाग हिन्दी की फजीहत कर रहा है। इससे तो यही लगता है गोया हिन्दी को कठिन व दुरूह बनाए रखने और अप्रचलित कर देने की कोई सुनियोजिज योजना हो। हिन्दी के सरकारी सेवकों को शायद हिन्दी की ग्रहणशीलता पर भरोसा नहीं है। वरना अंग्रेजी, पुर्तगाली, अरबी, फारसी से लेकर देश की तमाम बोलियों और प्रादेशिक भाषाओं के शब्दों को हिन्दी ने पचाया है-उन्हें अपना बनाया है। यह प्रक्रिया लगातार जारी है।
लेकिन नहीं, हिन्दी के सरकारी सेवक टाइपराइटर को टंकक, टाइप को टंकण, नोट या नोटिंग करने को टिप्पण, ड्राफ्ट को प्रारूप और ड्राफ्टिंग को प्रारूपण ही लिखेंगे। इसी तरह डॉक्टर, मास्टर, स्कूल, कॉलेज, टीचर, इंस्पेक्टर, सुपरवाइजर, एसपी या पुलिस कप्तान कहने में क्या हर्ज है। अंग्रेजी के ये शब्द हिन्दी में घुलमिल गए हैं और अपने स्वभाव के मुताबिक हिन्दी ने इनका बहुवचन-डाक्टरों, मास्टरों, टीचरों, स्कूलों, कालेजों, इंस्पेक्टरों, सुपरवाइजरों वगैरह बनाया है। क्या कोई कह सकता है कि अंग्रेजी शब्दों के ये बहुवचन भी अंग्रेजी हैं? असल में यह हिन्दी की अपनी गतिशीलता और ग्रहणशीलता की पहचान है।
भाषा की शुद्धता और शास्त्रीयता का राग अलापने वाले हिन्दी की गतिशीलता के इस प्रवाह और ग्रहणशीलता के इस गहरे प्रभाव पर चाहे जितना बिदकें और नाक-भौं सिकोड़ें, लेकिन महज तत्सम शब्दों और संस्कृत के उपसर्ग-प्रत्यय लगाकर बनाई गई शब्दावली से इसे नहीं रोक पाएंगे। आप अधिशासी, अधीक्षक, निरीक्षक, अभियंता, अधिकर्ता, धारक, यंत्री वगैरह लिख-छापकर कागज काला करते रहिए,, मोटी-मोटी पोथियां छापिए, अनुदान लीजिए, तरक्की पाइए- लेकिन इससे कुछ होने-जाने का नहीं है। जनता तो इनके प्रचलित अंग्रेजी शब्द एक्जिक्यूटिव, सुपरिटेंडेंट, इंस्पेक्टर इंजीनियर, एजेंट, ओवरशियर आदि ही बोलेगी। क्योंकि इन शब्दों को हिन्दी पचा चुकी है। क्योंकि हिंदी को आज नहीं तो कल सचमुच समूचे भारत की जीवंत संपर्क भाषा होना है। क्योंकि इसी ग्रहणशीलता के बल पर वह ऐसा कर भी सकती है।
सरकारी हिन्दी का तो यह हाल है कि एक विभाग की शब्दावली जानने वाला अधिकारी दूसरे विभाग की शब्दावली का बहुत आसानी से मायने तक नहीं बता सकता है। भरोसा न हो तो किसी सरकारी हिन्दी सेवक से पूछकर देखिए कि भारत के भाषाजात अल्प भाषा-भाषियों के आयुक्त का कार्यालय कहां है? बशर्ते वह हिन्दी अधिकारी इसी विभाग में काम न करता हो और यह हिन्दी उसने खुद ईजाद न की हो। ऊटपटांग सरकारी हिन्दी के ऐसे बेशुमार उदाहरण दिए जा सकते हैं।
फिर अंग्रेजी ही क्यों? बांग्ला, मराठी, गुजराती, पंजाबी, असमिया, ओड़िया आदि के संपर्क-साहचर्य में आकर भी हिन्दी ने बहुत सारे शब्द और अभिव्यंजना-कौशल इन भाषाओं से ग्रहण किया है। यह हिन्दी की कमजोरी या भाषा-प्रदूषण नहीं है। यह हिन्दी की शक्ति और अपना स्वभाव है। इस शक्ति और स्वभाव को राजस्थान की मीरा, पंजाब के नानक, ब्रज के सूर, अवधी के तुलसी-जायसी, पूरबी के कबीर, मैथिली के विद्यापति, बुंदेलखंड के जगनिक ही नहीं, चंद बरदाई से लेकर अमीर खुसरो और नामदेव-रैदास सरीखे कितनों ने बनाया है-पुख्ता किया है। और, इसीलिए भारतीय संदर्भ में इस भाषा के साथ गैर-हिन्दीभाषी शब्द बेमानी हो जाता है। असल में इस देश में जो भी जिस अंदाज और लहजे में हिन्दी बोलता है, बोलने की प्रक्रिया में है, सीख रहा है या समझ लेता है, वह हिन्दीभाषी ही है। सुविधा के लिए अगर कहना ही चाहें तो बांग्ला-हिन्दीभाषी, मराठी-हिन्दीभाषी, असमिया-हिन्दी भाषी, तमिल-तेलगू-मलयालम-हिन्दीभाषी कह सकते हैं। आखिर कोलकाता में हिन्दी का स्थानीय कलकतिया रूप और मुंबई में हिन्दी का मुंबइया मिजाज है या नहीं। मुंबई में मराठी के संपर्क-साहचर्य में जो बिंदास हिन्दी बोली-बतियाई जाती है, उसे आप खाली-पीली नहीं कह सकते और न कलकतिया हिन्दी में जो बांग्ला ढुक गई है, उसे निकाल सकते हैं- बूझे कि नहीं। भाषा के मामले में बोका बनने से नहीं चलेगा। इसी तरह गुवाहाटी में असमिया के संपर्क-साहचर्य से जो हिन्दी लाहे-लाहे पसर रही है, उसे कबूल करना होगा। नहीं तो बनारसी लहजे में कहें तो आप घोंचू रह जाएंगे।
कहना नहीं होगा कि अहिंदी भाषी कहे जानेवाले राज्यों की राजधानियों -कोलकाता, गुवाहाटी, मुंबई, चंडीगढ़ और नागपुर आदि शहरों से छपकर अपने-अपने इलाके में पढ़ जा रहे हिन्दी के दैनिक-साप्ताहिक अखबार ही भविष्य की हिन्दी का स्वरूप व चरित्र बनाएंगे। क्योंकि वे सीधे पाठकों के हाथ पहुंचते हैं और उनसे सीधा संवाद बनाते हैं। हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिहाज से फिल्म, टीवी व रेडियो जैसे दृश्य-श्रव्य माध्यमों की भूमिका भी झुठलाई नहीं जा सकती। यह जरूर है कि सांस्कृतिक स्तर पर येे माध्यम कई बुराइयां भी फैला रहे हैं।
लेकिन, हिन्दी के सामने असली खतरा दूसरा ही है। डर इस बात से लगता है कि इतिहास में जो दुर्घटना संस्कृत जैसी अत्यंत समृद्ध भाषा या पालि के साथ घटी, वैसी ही दुर्घटना का शिकार हिन्दी न हो जाए। अगर राम जैसे चरित्र को साम्प्रदायिक बनाने की कोशिश की जा सकती है, तुलसी जैसे लोकनायक महाकवि को साम्प्रदायिकता के घेरे में लाने की कोशिश की जा सकती है तो क्या ताज्जुब कि साम्प्रदायिकता की राजनीति हिन्दी को भी अपनी जद में लेने-लाने की कोशिश न करे? अगर ऐसा कभी हुआ तो यह हिन्दी का दुर्भाग्य होगा। क्योंकि कालिदास, बाण, भवभूति, चरक, सुश्रुत जैसी प्रतिभाओं के बावजूद संस्कृत पर पंडितों और कर्मकांडियों की धार्मिक-साम्प्रदायिक भाषा होने का ठप्पा लगते ही बौद्धौं की पालि भाषा ने इसे उखाड़ फेंका। इसी तरह बौद्ध मठों के अनाचार और हीनयानियों  के दुराचरण के चलते पालि भाषा को मिटूटी पलीद होते देर नहीं लगी। तब फिर हिन्दी के साथ ऐसा अघट क्यों नहीं घट सकता?
हिन्दी का भला चाहने वालों को इसके प्रति ही ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है। ताकि हिन्दी के जरिए जोड़ने के बजाय तोड़ने की कोशिश न की जा सके।
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आओ किसान-किसान खेलें

अरविन्द चतुर्वेद
उत्तर प्रदेश में नोएडा-आगरा एक्सप्रेस वे के 168 किलोमीटर की लम्बाई में उसके लिए अधिग्रहीत की जानेवाली इर्दगिर्द की जमीन और उस जमीन के लिए किसानों को दिए जानेवाले मुआवजे को लेकर इस पूरे दायरे में सभी राजनीतिक दलों की सियासत तेज हो गई है। राजनीतिक दलों की प्रतिस्पद्धा और प्रतियोगिता ऐसी कि कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता। सभी चाहते हैं कि वही किसानों के असली हमदर्द दिखें। अबकी बार चूंकि प्रदेश में सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी के हाथ जले हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से उसे दबाव में रखकर सभी कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। जबकि असलियत यह है कि देशभर में विकास योजनाओं की दुहाई देकर उद्योग-धंधे और दूसरे निर्माण कायों के लिए विभिन्न दलों की राज्य सरकारें किसानों-आदिवासियों की जमीनें अधिगृहीत करती आ रही हैं। अभी लोगों को पिछले बरसों में पश्चिम बंगाल के सिंगूर और नंदीग्राम में किसानों की जमीन के अधिग्रहण और उग्र आंदोलनों के बाद जमीन वापसी और टाटा की विदाई की घटना भूली नहीं होगी। उड़ीसा में तो भूमि अधिग्रहण के खिलाफ लगातार आंदोलन ही चल रहा है और वहां की सरकार कान में रूई डालकर बैठी हुई है। फिर उड़ीसा ही क्यों, कांग्रेस और भाजपा शासित राज्यों में भी किसानों की जमीनें औने-पौने मुआवजे पर अधिगृहीत की गई हैं और स्थानीय लोगों की मांगों की खूब अनदेखी हुई है।
अगर तुलना ही की जाए तो यूपी सरकार ने हठधर्मिता के बजाय किसानों की मांगों के अनुरूप न सिर्फ तत्परता दिखाई है, बल्कि दोषी अधिकारियों पर कार्रवाई करते हुए प्रदर्शनकारी किसानों का गुस्सा शांत करने की कोशिश भी की है। इसलिए आज जरूरत इस बात की है कि भूमि अधिग्रहण और मुआवजे के मसले को हल करने के लिए समस्या की जड़ों को देखा जाए, न कि टहनियां और पत्ते गिने जाएं। अपने आप में इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि आजादी के 63 साल बाद भी जमीन अधिग्रहण के मामले में अंग्रेजी राज में 1894 में बना भूमि अध्याप्ति अधिनियम लागू है। जाहिर है कि ऐसी सूरत में देश के विभिन्न राज्यों में सत्तारूढ़ दलों की सरकारें अपने-अपने ढंग से जमीनों का अधिग्रहण करती आ रही हैं। यूपी ही नहीं दूसरे राज्यों में भी अलग-अलग काम के लिए अलग-अलग जगहों पर अधिगृहीत जमीन के मुआवजे अलग-अलग रेट पर दिए गए हैं। इस मामले में कोई भी सत्तारूढ़ दल पाक साफ नहीं कहा जा सकता।यूपी के ताजा किसान आंदोलन के बाद राज्य सरकार ने हठधर्मिता के बजाय ऐसे विवादों को सुलझाने के लिए जिला, मंडल और राज्य स्तर पर कमेटियां गठित करने की घोषणा की है। मुख्यमंत्री मायावती ने किसानों की भूमि के अधिग्रहण को लेकर आए दिन हो रहे विवादों व खून खराबे के लिए अगर केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहराया है तो इसे महज आरोप कहकर झुठलाया नहीं जा सकता। उनका यह कहना कतई गलत नहीं है कि बदलते परिवेश में केंद्र सरकार को चाहिए था कि वह भूमि अध्याप्ति अधिनियम में ऐसे संशोधन करती, जिससे किसानों का हित सुरक्षित होता और सार्वजनिक उदूदेश्यों के लिए भूमि अधिग्रहण की आवश्यकताओं की पूíत भी होती। अब केंद्र सरकार ने कहा है कि भूमि अधिग्रहण पर जल्दी ही वह एक व्यापक विधेयक लाएगी। चलिए, अगर आग लगने के बाद ही सही, केद्र सरकार कुआं खोदना चाह रही है तो उसका भी इंतजार किया जा सकता है!
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भोपाल त्रासदी का उत्तरकाण्ड

अरविन्द चतुर्वेद : 
भोपाल की औद्योगिक गैस त्रासदी का खलनायक  वारेन एंडरसन हजारों लोगों को मारकर, हजारों की जिंदगी अपाहिज बनाकर और हजारों के भविष्य को बीमार बनाकर शासन-प्रशासन के सुरक्षा कवच की मदद से भोपाल से दिल्ली और फिर दिल्ली से सीधे अमेरिका भाग गया, यह तो एक कहानी है, लेकिन बहुत बड़े जनसंहार के अभियुक्तों के खिलाफ बहुत मामूली-सी दो वर्ष की जमानती सजा के बाद अब विभिन्न माध्यमों से इस त्रासदी के उत्तर कांड की जो कथाएं सामने आई हैं, वह तो और भी ज्यादा त्रासदी पूर्ण हैं। मध्य प्रदेश के तत्कालीन कांगे्रसी मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और कांगे्रस की तत्कालीन केंद्र सरकार पर अमेरिकी दबाव में यमराज एंडरसन को भगाने, सीबीआई द्वारा लचर तरीके से जांच करने, अभियोग की कमजोर धाराएं लगाने और कमजोर पैरवी के कारण सहअभियुक्तों के अदालत में ‘हारकर भी जीत जाने जैसी सहूलियत’ में आ जाने के कारण भुक्तभोगियों के 25 साल पुराने जख्म हरे हो गए हैं। लेकिन क्या गैस त्रासदी के भुक्तभोगियों के जख्म बीते 25 बरसों में एक दिन के लिए भी कभी सूखे हैं? गैस प्रभावित लोग इन बरसों में असाध्य बीमारियों की गिरफ्त में आकर तिल-तिल कर मरते आए हैं, मगर उनके इलाज की जैसी मुकम्मल और सघन व्यवस्था होनी चाहिए, वह इतने बरसों में भी नहीं हो पाई है- यह है भोपाल त्रासदी का उत्तर कांड। पुराने भोपाल के वह इलाके जो यूनियन कार्बाइड कारखाने की गैस की जद में आ गए थे, उनकी जिंदगी आजतक क्यों नरक बनी हुई है? नए भोपाल के स्वर्ग में जो सरकार और प्रशासन बैठा हुआ है, उसके चिराग तले यह नरक का अंधेरा क्यों है? इतना तो तय है कि जिन जिंदगियों को जहरीली गैस के दैत्य ने लील लिया है, उन्हें कोई वापस नहीं ला सकता, मगर बच गई जिंदगियों को बेहतर इलाज और बेहतर जीवन स्थितियां तो मुहैया कराई ही जा सकती हैं। कम से कम राहत और हिफाजत के मामले में तो राजनीति की गुंजाइश नहीं ही खोजी जानी चाहिए। गैसकांड के बाद के 25 बरसों में मध्य प्रदेश के इस राजधानी-शहर में कांगे्रस की भी सरकार रह चुकी है और भाजपा के भी कई मुख्यमंत्री गद्दीनशीन रहे आए हैं, लेकिन गैस के मारे बदनसीबों को बेहतर इलाज और समुचित राहत के लिए किसी ने कुछ खास नहीं किया है। सच पूछिए तो यूनियन कार्बाइड से मिले हुए या वसूले गए नाकाफी मुआवजे के आधे-अधूरे, छीना-झपटी वाले वितरण के अलावा किन्हीं सरकारों ने गैस प्रभावितों के लिए कुछ खास किया ही नहीं है। आज भी गैस पीडि़त-प्रभावित लोग अपनी घायल जिंदगी लिए दर-दर की ठोकर खा रहे हैं। दो साल की जमानती मामूली सजा की प्रतिक्रिया में उठे तूफान के बाद मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने कुछ सदस्यों की कमेटी बनाकर कानूनी पहलुओं की छानबीन के साथ हाईकोर्ट जाने की बात कही तो केंद्रीय विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने कहा कि अभी खेल खत्म नहीं हुआ है और एंडरसन का प्रत्यर्पण कराया जा सकता है। प्रधानमंत्री ने भी मंत्रियों का एक समूह बनाया, जिसने  भोपाल जाकर गैस पीडि़तों-प्रभावितों की स्थितियों-परिस्थितियों का जायजा लेकर उनको अपनी रिपोर्ट सौंप दी है। लेकिन एक गैस प्रभावित का सवाल वाकई सबके सामने खड़ा है- अगर हम गैस पीडि़तों की इतनी ही चिंता थी तो किसी पार्टी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में कभी हमारा जिक्र क्यों नहीं किया?
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महंगाई की बारिश में समर्थन मूल्य की छतरी

अरविन्द चतुर्वेद : 
मानसून की  आहट मिल चुकी  है और सरकार ने हर साल की  तरह खरीफ की  फसलों के समर्थन मूल्य घोषित कर दिए हैं। यह अलग बात है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की छतरी महंगाई की तूफानी बारिश में किसानों समेत देश के उपभोक्ताओं को  भीगने और गलने से कितना बचा पाती है। इंद्रदेव से प्रार्थना कीजिए  कि मानसून की कृपा  बनी रहे ताकि खेती -किसानी अच्छी  हो जाए। इसके दो फायदे होंगे- एक  तो पैदावार अच्छी होगी तो किसानों और ग्रामीन  भारत को राहत मिलेगी, दूसरे सरकार को  अब तक  महंगाई के लिए खराब मौसम की  बहानेबाजी का  मौका नहीं मिलेगा। फिर  भी ऐसा हो सकता है कि अगर महंगाई बनी ही रहती है तो अपने कृषि  मंत्री शरद पवार और अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह मिलजुल कर कोई नई अर्थशास्त्रीय बहानेबाजी खोज ही लेंगे। प्रधानमंत्री की  अध्यक्षता  में संसद की  आर्थिक  समिति ने दाल-दलहन की  आसमान छूती कीमतों को  ध्यान  में रखते हुए इस बार खरीफ की  दलहन फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में जबरदस्त बढ़ोतरी करते हुए कीर्तिमान ही कायम कर डाला है। सरकार के  फैसले के  मुताबिक  अरहर, मूंग और उड़द के  न्यूनतम समर्थन मूल्य में 380 से 700 रुपए कुंतल  की  वृद्धि कर दी गई है। अब अरहर दाल का न्यूनतम समर्थन मूल्य 3000 रुपए कुंतल होगा, जबकी  मूंग का  न्यूनतम समर्थन मूल्य  410 रुपए बढ़ाकर 3,170 रुपए और उड़द का  380 रुपए बढ़ाकर 2,900 रुपए प्रति-कुंतल कर दिया गया है। सरकार की  तरफ  से यह भी कहा गया है कि अनाजों दाम किसानों को  मंडियों में फसल के आने के  दो महीने के  भीतर मिल जाएगा। बताया गया है कि कृषि लागत और कीमत आयोग की सिफारिशों को  ध्यान  में रखते हुए सरकार ने समर्थन मूल्य बढ़ाए हैं, बल्कि  सिफारिशों से कुछ ज्यादा ही समर्थन मूल्य घोषित किया है। दलहन फसलों के अलावा धान का  न्यूनतम समर्थन मूल्य भी 50 रुपए बढ़ाकर हजार रुपए कुंतल कर दिया गया है। दलहन फसलों पर प्रति किलो  पांच रुपए की अतिरिक्त प्रोत्साहन राशि देने की भी सरकार ने बात कही है। सरकार का मकसद शायद  यह हो कि किसानों को खेती की लागत से ज्यादा मूल्य दिया जाए ताकि  उत्साहित  होकर देश भर के किसान दलहन फसलों की  खेती में ज्यादा दिलचस्पी लें और दलहन खेती का रकबा बढ़ जाए। शायद यह इसलिए भी जरूरी है कि देश को  खिलाने भर के  लिए दाल का  पर्याप्त उत्पादन  न होने के कारण हर साल सरकार को करीब 40 लाख टन दालों का  आयात करना पड़ता है। लेकिन क्या  समर्थन मूल्य में यह बढ़त खेती के घाटे को पाटने में सक्षम साबित हो सकेगी? यह याद रखना होगा कि  डीजल की आसमान छूती कीमतें, महंगी रासायनिक  खाद व महंगे कीटनाशकों समेत महंगाई के ही अनुरूप खेत मजूरी में वृद्धि -- कुल  मिलाकर अपने देश में किसानों को घाटे की  खेती हताश और हतोत्साहित किये  रहती है। फिर  इस बात की गारंटी कौन दे सकता है कि किसानों को उनकी उपज का पूरा मूल्य बिचौलियों और कमीशनखोरों के बीच में आए बगैर ही मिल जाएगा? समर्थन मूल्य में बढ़त का बहाना लेकर आढ़तियों से लेकर अनाज बाजार के  छोटे-बड़े कारोबारी अनाजों के दाम बढ़ाकर क्या  आम उपभोक्ताओं की माली हालत और पतली नहीं करेंगे? बात-बात पर अमेरिका को आदर्श मानने वाली हमारी सरकार आखिर किसानों को  खेती पर न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने के बजाय अधिकतम सब्सिडी  देने के बारे में क्यों  नहीं सोचती!
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नरेंद्र मोदी का बच्चा-राग

अरविन्द चतुर्वेद :
बचपन कैसे सुरक्षित रहे, बच्चों की दुनिया को कैसे खुशगवार और रचनात्मक बनाया जाए- इसकी चिंता सरकारों को भले ही कम हो और बच्चों की बेहतरी का सारा दारोमदार उनके मां-बाप पर छोड़कर सरकारें निश्चिंत हो जाती हों, लेकिन सियासत करने वाले बच्चों का इस्तेमाल अपनी राजनीति के लिए भी खूब करते हैं। अभी ताजा उदाहरण गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के भविष्य की आशा कहे-समझे जाने वाले नरेंद्र मोदी ने पेश किया है। अपने गृह प्रदेश महाराष्ट्र में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने पार्टी शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई पार्टी और उसकी सरकारों के बाबत विभिन्न पहलुओं पर विचार-विमर्श के लिए, लेकिन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना न देखकर दूसरे के फटे में हाथ डालने की अपनी पुरानी आदत के मुताबिक यह उच्च विचार प्रकट किया कि कहा जाता है कि जवाहरलाल नेहरू को बच्चों से बेहद प्रेम था और उनके जन्मदिन को बाल दिवस का नाम दिया गया। बच्चे उन्हें चाचा नेहरू कहकर पुकारते थे और यह हमारे मन में परोपकारी नेहरू की छवि तैयार करता है। लेकिन उन्होंने बच्चों का क्या भला किया? नरेंद्र मोदी इतने पर ही नहीं रूके, उन्होंने कहा कि बाल दिवस से उन बच्चों की दशा सुधारने में क्या मदद मिली है जिन्होंने गरीबी के साए में अपना बचपन खोया। मोदी का सवाल था कि क्या इससे उन बच्चों के आंसू पोछे जा सकते हैं जिन्हें बाल दिवस पर एक थाली भोजन पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है? नरेंद्र मोदी के इन उच्च विचारों से अव्वल तो यही लगता है, गोया गडकरी ने भाजपा के मुख्यमंत्रियों को देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू के कामकाज की समीक्षा के लिए बुलाया हो! आखिर आजादी के तुरंत बाद खड़े हो रहे देश के प्रधानमंत्री के कामकाज के मूल्यांकन की आज क्या जरूरत है, यह शायद मोदी ही जानते होंगे। असल में होता यह है कि जब लोग वर्तमान की चुनौतियों और समस्याओं का मुकाबला नहीं कर पाते तो अतीत की गुफाओं में झांकने लगते हैं। शायद मोदी ने भी यही रास्ता चुना हो। जबकि आज के भारत की अपनी अनेक समस्याएं हैं, जिनमें एक बड़ी आबादी का देश होने के नाते स्वाभाविक तौर पर बच्चों के लिए भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। दूसरी बात यह भी है कि नरेंद्र मोदी अपनी प्रतिद्वंदी पार्टियों पर राजनीतिक बयानबाजी के लिए भाजपा में अधिकृत संगठन के नेता नहीं, बल्कि एक राज्य के जिम्मेदार मुख्यमंत्री हैं और बाकी देश की तरह गुजरात में भी "बच्चों की दुनिया" बहुत खुशहाल नहीं है। गुजरात में भी, खासकर आदिवासी इलाकों में बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का भगवान ही मालिक है और गैर कानूनी बालश्रम की समस्या भी काफी गहरी है। दरअसल, बच्चों का दुर्भाग्य यह है कि उनकी मासूमियत का इस्तेमाल अपने देश में खूब होता है। बाजार तो बच्चों का इस्तेमाल एक अरसे से ही अबाध ढंग से करता आ रहा है, जिसका प्रमाण यह है कि बच्चे  उन उत्पादों के विज्ञापनों में भी छाए रहते हैं, जो चीजें बच्चों के काम की नहीं होतीं। अब नरेंद्र मोदी ने भाजपा अध्यक्ष की बुलाई पार्टी मुख्यमंत्रियों की बैठक में नेहरू के बहाने बच्चों के सियासी इस्तेमाल का श्रीगणेश कर दिया है। शायद नरेंद्र मोदी यह भी भूल रहे हैं कि उनके मुख्यमंत्रित्व काल में ही गुजरात दंगों में बच्चे हिंसा के शिकार भी हुए थे और बड़ी तादाद में अनाथ भी हुए। बहुत स्वाभाविक है कि बच्चों को हथियार बनाकर नेहरू पर किए गए प्रहार का कांग्रेस की तरफ से तीखा जवाब दिया गया। शायद बिना मौके के छेड़े गए इस बच्चा-राग का मकसद भी यही रहा हो। फिर भी बच्चों का इस तरह सियासी इस्तेमाल करने से राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को बचना चाहिए, क्योंकि बच्चे देश का भविष्य ही नहीं, भविष्य की आंख भी हैं।
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भारत की बढती स्वीकार्यता

अरविन्द चतुर्वेद :
आजकल हमारे विदेश मंत्री एसएम कृष्णा प्रतिनिधि मंडल के साथ अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन में हैं। अपनी समकक्ष अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन से हुई मुलाकात और उनके साथ हुई आधिकारिक बातचीत में हिलेरी ने भारत को च्एक उभरती हुई विश्व शक्ति’ कहते हुए इस बात को बहुत जरूरी बताया कि दक्षिण एशिया क्षेत्र की मौजूदा चुनौतियों से निपटने के लिए अमेरिका और भारत को दो करीबी सहयोगियों की तरह काम करने की जरूरत है। कहा जा रहा है कि दोनों देशों के बीच यह अपनी तरह की च्पहली रणनीतिक बातचीत’ हो रही है। यही नहीं, अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता के लिए अपने देश के समर्थन का संकेत भी दिया है। कुल मिलाकर यह अच्छी बात है कि अमेरिका अपने लिए भारत को अब अनिवार्य रूप से महत्वपूर्ण मानने और स्वीकारने लगा है, लेकिन भारत के लिए यह कोई बहुत गदगद हो जानेवाली बात नहीं है। भारत अगर विकास करेगा, मजबूत होगा तो अपने बलबूते और अपनी वजह से और तभी उसकी वैश्विक स्वीकार्यता भी बढ़ेगी, वरना किसी का पिछलग्गू दिखते हुए तो न स्वीकार्यता बढ़ाई जा सकती है और न वैश्विक सहयोग पाया जा सकता है। एकध्रुवीय हो चुके विश्व में भी इतना सचेत होकर तो चलना ही पड़ेगा कि और भी च्दुनिया’ है दुनिया में अमेरिका के सिवा। कहने का मतलब यह कि सवा अरब की आबादी वाले दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत को अबतक काफी पहले ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य हो जाना चाहिए था। अगर भारत अबतक सुरक्षा परिषद का सदस्य नहीं हो पाया तो क्या यह कहने की जरूरत है कि इसके पीछे वीटो पावर धारी दादा देशों की अड़ंगेबाजी ही मुख्य वजह रही है। बहरहाल, अगर अमेरिका अब भारत के महत्व को गहराई से समझने लगा है तो बहुत अच्छी बात है- हिलेरी क्लिंटन के मुंह में घी-शक्कर! जहां तक दक्षिण एशियाई क्षेत्र की चुनौतियों का सवाल है, कुछ चुनौतियां अमेरिका और भारत की साझा भी हो सकती हैं, जैसे कि अफगानिस्तान का पुनर्निर्माण और उसे तालिबानी आतंकवाद से मुक्त कराया जाना। इसी तरह भारत के साथ मजबूती से खड़े रहकर अमेरिका एशिया में चीन के बढ़ते वर्चस्व और खुराफातों को नियंत्रित करने में भी एक हद तक मददगार हो सकता है। पड़ोस पोषित आतंकवाद, जिससे भारत एक लम्बे अरसे से आक्रांत है, जो कश्मीर-सीमा की ओर से लगभग स्थाई सरदर्द बना हुआ है और जो अब स्थानिक न रहकर लगभग विश्वव्यापी बन चुका है और अमेरिका को भी गहरा आघात दे चुका है- एक ऐसी चुनौती है, जिसका मुकाबला अमेरिका-भारत साझेदारी में ही नहीं, एक-दूसरे के कंधे से कंधा मिलाकर कर सकते हैं। पड़ोस पोषित इस आतंकवाद की तरफ भारतीय विदेश मंत्री एसएम कृष्णा ने बातचीत में हिलेरी क्लिंटन का ध्यान भी दिलाया है। इसलिए अगर अमेरिका मानता है कि भारत एक उभरती हुई वैश्विक ताकत है तो यह जरूरी नहीं होना चाहिए कि भारत-दौरे के बाद अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन च्संतुलन’ बनाने के लिए पाकिस्तान जाकर उसके हुक्मरानों के मन-मुआफिक बयान दें और गैर-जरूरी ढंग से पीठ थपथपाएं। अमेरिका और भारत में आपसी समझदारी, सहयोग और किन्हीं मामलों में साझेदारी भी अच्छी बात है, लेकिन कई चुनौतियां और समस्याएं दोनों देशों की अपनी-अपनी भी हैं, इसलिए अनावश्यक हस्तक्षेप से अमेरिका को बचना भी चाहिए। संबंधों की समझदारी यही है।
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बदल रहा बंगाल

अरविन्द चतुर्वेद :
पश्चिम बंगाल में 15वीं लोकसभा के चुनावों के पहले से ही बदलाव की जो बयार बह रही है, उसका रूख किसी भी प्रकार से मोड़ पाने या दूसरी ओर घुमा सकने की सत्तारूढ़ वाममोर्चा की कोई भी कोशिश कामयाब होती नहीं दिखाई दे रही है। पहले त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव, फिर लोकसभा के आम चुनाव, इसके बाद खाली हुई विधानसभा सीटों के उपचुनाव और अब नगर निकायों के चुनाव तक यही देखने को मिला है कि सीपीएम की अगुवाई वाला लेफ्ट फ्रंट वाकई फ्रंट से बैकफुट पर है। यही हाल रहा तो अगले साल होनेवाले विधानसभा के आम चुनावों में शायद वह आखिरी दीवार भी ढह जाएगी, जिससे पीठ टिकाए सत्तारूढ़ वाममोर्चा किसी तरह खड़ा है। यह सही है कि वाममोर्चा त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और केरल सरीखे तीन राज्यों तक ही सत्ता की दौड़ में सिमटा रहा है, लेकिन इसके बावजूद उसे भारतीय राजनीति में अगर क्षेत्रीय दलों जैसा नहीं देखा गया तो इसका सबसे बड़ा कारण उसकी विचारधारा रही है, जो जनता के जनवादी अधिकारों और जनतांत्रिक मूल्यों पर आधारित है। लेकिन यह कहना ही पड़ता है कि अच्छे से अच्छे विचार और सिद्धांत अगर अमल में न लाए जाएं और उन्हें सिर्फ बहस-मुबाहिसे के औजार के तौर पर इस्तेमाल किया जाए- सिद्धांत और व्यवहार में उत्तरी-दक्षिणी ध्रुव जैसा फर्क हो तो नतीजा वही होता है, जो पश्चिम बंगाल में विभिन्न स्तरीय चुनावों में इधर देखने में आया है। आखिर पश्चिम बंगाल की वही जनता लेफ्ट फ्रंट को पटखनी पर पटखनी देती जा रही है, जिस जनता के भले की बड़ी-बड़ी बातें और लम्बे-चौड़े तर्क-वितर्क सीपीएम के नेता मंचों पर करते रहते हैं। राजधानी कोलकाता के दशकों से अविजित नगर निगम और साल्टलेक सिटी की नगर पालिका से सीपीएम का लाल पताका उतार कर जिस तरह से ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस का झंडा लहराया है, उसने वास्तव में लेफ्ट फ्रंट के सिपहसालारों की बोलती बंद कर दी है। नगर निकाय चुनावों के नतीजों पर मुख्यमंत्री बुद्धदेव भटूटाचार्य द्वारा कुछ भी बोलने से इनकार कर दिए जाने के दो ही अर्थ हो सकते हैं- या तो वे सचमुच बहुत हताश हो चुके हैं, या फिर साढ़े तीन दशक की सत्ता का वह दम्भ है,जो सहजता और विनम्रता पूर्वक जनादेश को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करके ममता बनर्जी को बधाई देने से उन्हें रोक देता है! बुद्धदेव या फिर बिमान बोस वैसे ही ममता बनर्जी को बधाई देते हुए हार स्वीकार कर सकते थे, जैसा कि कभी ममता के राजनीतिक गुरू रहे प्रणब मुखर्जी ने कांग्रेस की ओर से स्वीकार की। लेकिन नहीं, राजनीतिक शिष्टाचार और बड़प्पन की बात तो छोड़ दीजिए, अभी भी वाम खेमे के नेतागण अपने मुताबिक तर्क-तीर संधान करते नजर आ रहे हैं। जबकि इतने झटके खा चुकने के बाद सत्तारूढ़ वाममोर्चा और इसके नेताओं को जनता के मनोभाव के अनुरूप अपने और सरकार के तौर-तरीके बदलना-सुधारना इस समय पहली जरूरत है। अब तक तो यही देखा गया है कि वाममोर्चा की अगुवाई करनेवाली सीपीएम खुद मोर्चे के अपने सहयोगियों फारवर्ड ब्लाक, आरएसपी और सीपीआई के साथ दादागीरी करती आई है। सीपीएम और वाममोर्चा में " दुर्नीति का रोग " लगा हुआ है और पार्टी में " गलत व स्वार्थी तत्व " आ गए हैं, जिनकी सफाई की जरूरत है, यह विरोधी नहीं, स्वयं सीपीएम के जिम्मेदार लोग कह चुके हैं। लेकिन यक्ष प्रश्न तो यह है कि हार को भी सहजता से न लेने वाले वाममोर्चा के पास विधानसभा चुनाव तक खुद को सुधारने का वक्त ही कहां है?
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दौलत की देवी

अरविन्द चतुर्वेद : 
मायावती दलित की बेटी होने के विशेषण का इजहार करते हुए अपने विरोधियों को सियासत के मैदान में चुनौती देती हैं और विरोधी जवाब में उन्हें दौलत की बेटी के विशेषण से नवाजा करते हैं। दोनों ही विशेषण अपनी जगह सौ फीसदी सही हैं। मायावती जन्मना दलित की बेटी हैं और कर्मणा वह दौलत की बेटी बन चुकी हैं। बेचारी उत्तर प्रदेश की जनता चाहे तो उन्हें दौलत की देवी कह ले! बसपा की मुखिया मायावती ने मुख्यमंत्री की हैसियत से प्रदेश वासियों की झोली में चाहे कुछ दिया हो या न दिया हो, लेकिन इतना तो बड़े भरोसे से कहा जा सकता है कि सूखा और बाढ़ की चक्की में पिसते प्रदेश की गरीब जनता ने उन्हें करोड़पति बना दिया है। वह भी कोई छोटा-मोटा करोड़पति नहीं, ऐसा करोड़पति जो तेजी से अरबपति होने की राह पर चल रहा है। महज दो बरस में उनकी सम्पत्ति में 34 करोड़ का इजाफा हुआ है। उत्तर प्रदेश की विधान परिषद के लिए द्विवार्षिक चुनाव का नामांकन करते हुए दलित की बेटी मायावती ने अपनी सम्पत्ति का जो ब्यौरा दिया है, उसके मुताबिक उनकी दौलत पिछले तीन सालों में 52 करोड़ रूपए से बढ़कर 87 करोड़ रूपए हो गई है। इसका मतलब यह हुआ कि उनकी हर महीने की औसत आमदनी लगभग तीन करोड़ रूपए के बराबर रही। अपने आप में यह कम दिलचस्प नहीं है कि इन बरसों में जब समूची दुनिया समेत अपने देश की अर्थव्यवस्था भी घनघोर मंदी के भंवर में ऊभचूभ कर रही थी और बड़े-बड़े उद्यमियों के पसीने छूट रहे थे, तब भी मायावती की दौलत का ग्राफ उत्तरोत्तर ऊंचाई की सीढि.यां चढ़ता रहा। इसका एक अर्थ तो यही हुआ कि जनता की सेवा और प्रदेश के निर्माण का जो पारिश्रमिक है, उस पर आर्थिक मंदी और सूखा-बाढ़ जैसे प्राकृतिक प्रकोप का कोई असर नहीं पड़ता। मायावती ने विधानपरिषद के नामांकन में अपनी चल-अचल सम्पत्ति का जो विवरण दिया है, उसके मुताबिक उनके पास 12 लाख, 95 हजार रूपए की नगदी है। बैंक एकाउंट में 11 करोड़ 39 लाख 3 हजार रूपए जमा हैं। इसके अलावा उनके पास 1034.260 ग्राम सोना और 86 लाख 8 हजार रूपए कीमत का 380.17 कैरेट का हीरा है। उनके पास 18.500 किलोग्राम वजन का चांदी का डिनर सेट है, जिनकी कीमत 91.24 लाख रूपए है। मायावती हैं तो उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मगर दिल्ली के कनॉट प्लेस में दो करोड़ पांच लाख की उनकी एक बिल्डिंग है। कनॉट प्लेस में ही एक करोड़ 27 लाख रूपए की एक और बिल्डिंग है। इसके अलावा दिल्ली में ही 15 करोड़ 50 लाख रूपए का कम्यूनिटी सेंटर औरएसपी मार्ग पर 54 करोड़ 8 लाख रूपए की अचल सम्पत्ति है। प्रदेश की राजधानी लखनऊ में नेहरू रोड पर एक करोड़ 79 लाख 92 हजार रूपए कीमत की अचल सम्पत्ति है। बहरहाल, वैभव के इस विवरण के सामने दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की कुल 50 लाख डालर की सम्पत्ति को रखकर देखें तो लगेगा कि अमीरी के मामले में वे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के आगे कहीं नहीं ठहरते। क्या इसका एक अर्थ यह नहीं निकलता कि अमेरिका की तरह जिन देशों के शासनाध्यक्षों की सम्पत्ति संतुलित व सामान्य है, वे देश तो विकास करते हैं, मगर जिस देश के प्रदेशों के मायावती, जयललिता और मधु कोड़ा सरीखे तेजी से अमीर होने वाले मुख्यमंत्री हुआ करते हैं, वहां उत्तर प्रदेश-तमिलनाडु-झारखंड जैसे विकास के मोहताज, दर-दर की ठोकर खानेवाले राज्य दिखाई देते हैं। सवाल यह भी है कि किसी शासनाध्यक्ष को उसकी निजी अमीरी के आधार पर उद्यमी-पराक्रमी माना जाए या फिर उसके शासन काल में दुर्गति की दशा भोगते प्रदेश के आईने में उसे फिसडूडी और दरिद्र कहा जाए! याद ही होगा कि कुछ महीने पहले कृपालु महाराज के भंडारे में मामूली खैरात पाने की भगदड़ में मरे लोगों को मुआवजा देने के लिए पैसे न होने की बात मुख्यमंत्री मायावती ने वैसे ही सार्वजनिक की थी, जैसे अब अपनी सम्पत्ति की घोषणा की है।
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बैलगाड़ी पर लदी नींद

अरविन्द चतुर्वेद :
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आसपास के बारह गांवों का सरगना कहा जाता है, यह गांव। सरगना, केवल इसलिए कि अंगरेज कलक्टर उल्ढन साहेब ने इसी गांव के लोगों के साथ कर्मनाशा के जंगल में शिकार खेलना पसंद किया था। सरगना, केवल इसलिए कि नलराजा के मेले में इस गांव के पहलवानों ने पूरे जसौली परगना और बाकी ग्यारह गांवों के पहलवानों को धूल चटाई थी।
एक जमाने तक इस गांव के पंडित लोग विद्या-विरहित थे, क्योंकि पढ़ना-लिखना इस गांव में सहता नहीं था-
" अशगुन" था। और, जब बाद में इधर-उधर स्कूल खुले और गांव के लड़के "पटरी-बोरिका" के साथ रवाना हुए तो कई बातें हुइं। नम्बर एक, ददई सुकुल इस्कूल न जाकर बीच में ही मोटी मेड़ के किनारे झरबेरियों की झाड़ के ओट में विश्राम-लाभ करने लगे। नम्बर दो, बिसेस्सर चौबे ने कर्मनाशा के किनारे महुआ (के फूल) बीनने में गणित का ज्ञान बढ़ाना बेहतर समझा। नम्बर तीन, काशी चौबे पर हेड मास्टर की बेंत का ऐसा असर पड़ा कि दूसरे ही दिन स्कूल न जाकर कर्मनाशा के जंगल में अपना गुस्सा कुल्हाड़ी के साथ लकड़ियों पर उतारने लगे। नम्बर चार, शिवनाथ को "सूरज निकला, चिड़ियां बोलीं..."  मजाक करने जैसा लगा और उन्होंने सूरज निकलते ही भैंस चराने का काम संभाल लिया। बाकी बचे गेना चौबे। वे कोलकाता चले गए और पांच साल बाद जब गांव लौटे तो अजब रंग में, अजब वेश में नजर आए। कोलकाता में चूड़ीदार पाजामा पहनने की प्रेरणा उन्हें कहां से मिली और किसने दी, यह तो नहीं पता, लेकिन अब उनका भी मन न जाने क्यों कोलकाता से उचट गया था और जुबान पर कोलकाता का नाम केवल कहानी-किस्सों के लिए रह गया।
तो भाइयो! जमाना तो रूकेगा नहीं। बैलगाड़ी पर लदी नींद भी जब खुलती है तो आप अपने को ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर पाते हैं। नहीं तो, सामने से कोई जीप के अंदर से हार्न बजाता, चेहरे पर गुस्सा टांगे, होठों पर गालियां उछालते, काले चश्मे वाला चेहरा झांकता नजर आता है। तब आप क्या करते हैं? आंखें मलते हुए बैल की पीठ पर सड़ासड़, और नींद खुल जाती है। जमाने की चाल है, भई! नींद हड़बड़ी में ही खुलेगी, और, जो खुलेगी तो फिर कभी आने का नाम न लेगी।
गेना चौबे की नींद खुल गई थी। हार्न की आवाज से जो नींद खुली तो सामने जीप देखकर उनकी जान ही सूख गई। मगर, जीप ब्लाक आफिस की नहीं है, यह देखकर अप्रत्याशित डर की ही तरह उन्हें अप्रत्याशित खुशी हुई। जीप सररहट के साथ गुजर गई थी। अब उन्होंने बैलों को पुचकारा और जमाने को एक भदूदी गाली देते हुए जम्हाई ली, देह तोड़कर चौकस हो गए। गाड़ी जरा तेज की। बैल अब तेज चलने लगे। रेलवे स्टेशन नजर आ रहा था। राजा साहेब का च्सलीमाहाल’ दूर से ही चमक रहा था। मंजिल करीब आ गई थी। "सुकउआ" (शुक्र तारा) उगते ही, वे गांव से रापटगंज के लिए चल दिए थे। उनके हिसाब से अगर ग्यारह-बारह बजे तक महुआ बिक गया तो वे शाम सात-आठ बजे तक गांव वापस पहुंच जाएंगे।
गेना चौबे के मन में अब थोड़ी हलचल हुई और वे गोला में जल्दी महुआ बिक जाने के बारे में सोचने लगे। गोले का दलाल कम से कम दो रूपए तो लेगा ही। नहीं तो, साला टरका देगा। और, ऐसा करने से ऐसा भी हो सकता है कि आज महुआ न बिके। यहां रात भर रूकना बेकार होगा। खाने-पीने में खर्च लगेगा और बैलों के सानी-भूसा की अलग परेशानी होगी। सो, हर हालत में दलाल को खुश करना ही होगा। वैसे भी दलाल जानता तो है, मगर रूपए पाने के बाद ही आदमी को पहचानता है।
गेना चौबे सोचते हैं- शंकर सेठ के बारे में। अभी दस साल पहले शंकर के पास कुछ नहीं था। मगर, उसने खूब ब्योपार किया। अब तो वह सबसे ज्यादा चंदा देता है- मंदिर में, धरम-किर्तन में, नाच मंडली में, साहब-सुबहा को और नेता लोगों को। शंकर सेठ पूरा सेठ है। गेना चौबे के दिमाग में यह बात नहीं समझ में आई कि सेठ खुद तो पुराना जनसंघी है, मगर कांगरेस वालों की आवभगत भी उसके यहां कुछ कम नहीं है। सोशलिस्ट वाले भी पर्चा छपाने और मीटिंग करने का, माइक वगैरह का खर्च शंकर सेठ से ही लेते हैं। राजनीति भी साली भांड़-मंडली से कम नहीं। कोई भी सरकार हो, उनको लगता है शंकर सेठ, शंकर सेठ ही रहेगा।
गेना चौबे को अपने पर ही गुस्सा आ गया। वे रह-रहकर बेकार में बहक जाते हैं। आए हैं महुआ बेचने और लगे देस-दुनिया की पड़ताल करने। अब वे बाजार में आ गए थे। सोचना बंद किया और गाड़ी को मुस्तैदी से सड़क की बायीं बगल में कर लिया।
गोले में पहुंच कर उन्होंने देखा कि बहोरनपुर के पंडित पुरूषोत्तम तिवारी का दो ट्रैक्टर गल्ला आया है और ट्रैक्टरों की ट्राली के पास गोले के सारे पल्लेदार जमा हैं। तिवारी जी सेठ के बराबर में गदूदी पर बैठे हैं। अभी-अभी दौड़कर सेठ का नौकर उनके लिए पान लाया है। गेना चौबे ने उदासीन नजर से उनकी ओर देखा। फिर, खुद ही बैलों के कंधे से गाड़ी का जुआ उतारा। यह जानकर भी कि पहले तिवारी जी का माल बिकेगा, वे दलाल की ओर बढ़ गए। दलाल फटकार भी दे तो उन्हें ग्लानि नहीं होगी। बाहर में शर्म और ग्लानि पर विजय उन्होंने कलकत्ते में ही सीख ली थी। गांव के पटूटीदारों के बीच जरूर वे हल्का नहीं साबित होना चाहते।
आज की साइत अच्छी थी कि दलाल के सामने उन्हें ज्यादा चिरौरी नहीं करनी पड़ी। तीन रूपए पाकर उसने चार पल्लेदारों से गाड़ी पर लदा महुआ उतरवा दिया। तीन रूपए गोले का खर्च कट गया। इस तरह पचास रूपए का महुआ चालीस रूपए में बेचकर वे थोड़ा नून-तेल और सौदा-सुलुफ के बाद गांव के लिए चल दिए। जेब में बाकी कुल बीस रूपए रह गए।
बाजार बाहर आकर गेना चौबे थोड़ा निश्चिंत हुए। एक बज रहा होगा, मगर धूप नहीं है। मौसम अच्छा है। आसमान में बादलों के उड़ते हुए टुकड़े यहां-वहां बिखरे हुए हैं, मगर उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया। अच्छी बात लगी तो केवल यही कि जैसे भी हो, धूप नहीं लग रही है। अब उनके मन में थोड़ा-सा डर केवल रामगढ़ पहुंचने में है। दो जगहें बचाकर उन्हें निकल जाना है- एक तो ब्लॉक ऑफिस और दूसरी त्रिलोकी कपड़ा भंडार। दो महीने पहले उन्होंने एक धोती, गंजी और लड़कों के लिए कमीज का कपड़ा लिया था। दस-पांच दिनों के लिए तो लेन-देन चलती है, मगर अभी तक जुगाड़ बैठ नहीं सका था। सेठ के पंद्रह रूपए बाकी रह गए हैं। फिर भी कोई बड़ी बात नहीं। असल में उन्हें डर है तो ब्लॉक ऑफिस का। अब वे सोचते हैं कि सोसायटी से रूपए लेकर उन्होंने बहुत बड़ी गलती की। भैंस का दूध बेचकर देते-देते, तो भी, बारह सौ रूपयों में सूद-बाकी लेकर अभी भी चार सौ देने रह गए हैं। इस बीच तीन बार तो तलबी हो चुकी। दो बार घर के पिछवाड़े से खिसक गए और कहलवा दिया कि घर पर नहीं हैं। मगर, तीसरी बार सामना हो ही गया था। सोचने पर अब भी उन्हें ग्लानि होती है, मन बेचैन हो उठता है।
गांव के बीचोबीच कुएं के सामने मचिया पर ब्लॉक का साहेब, उसका सहायक, दो सिपाही और सभापति बैठे थे। बार-बार भागते-फिरते पांचवीं बार जोखू और इंद्रपाल पकड़ में आ ही गए। वे लोग सिर झुकाए बैठे थे। साहब उन्हीं का इंतजार कर रहा था। सोसायटी वालों के आने का उन्हें पहले से पता नहीं चल सका। जैसे ही राम प्रकाश के पिछवाड़े की गली से वे सामने आए कि साहब ने उन्हें देख लिया। उनका जी धकू से कर गया। चेहरे का रंग फीका पड़ गया। एक बार तो उनके मन में आया कि पीछे मुड़कर दौड़ जाएं। मगर ऐसा न हो सका और साहब तपाक से बोल उठा- "आइए, आइए चौबे जी! आपका ही इंतजार है।"
वही जानते हैं कि भारी ग्लानि और भय से उनके मन की पूरी सांसत हो गई थी। उन्होंने मुस्कराने की भरपूर कोशिश की, लेकिन ठीक से वे मुस्करा नहीं सके। तो भी, उन्होंने झूठ-मूठ में कह दिया था कि दोपहर में ही नौडीहा चले गए थे और तब के गए-गए अभी लौटे हैं। यह घटना अपने पूरे विस्तार में उनकी आंखों के सामने उनके मन में तरतीब से है।
गेना चौबे, उस समय केवल साहब को और उससे भी ज्यादा अपने आप को देखते रहे। उन्होंने कहा- "आपने बेकार कष्ट किया। मैं तो खुद ही कल आने वाला था।" उन्होंने देखा कि साहब की आंखों में उनकी बात का रत्ती भर विश्वास नहीं है। उन्होंने फिर कहा- "अच्छा, मैं अभी घर से पैसे लेकर आता हूं। आज ही रसीद कटवा लेता हूं।" उन्हें तब और भी अपमानजनक स्थिति लगी, जब साहब ने अविश्वास पूर्वक कहा- "देर मत कीजिएगा" और साथ ही सिपाही भी भेज दिया।
उस समय घर के सभी प्राणी घनघोर आशंका में डूबे हुए थे। सबके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं। घर में घुसते ही, उन्होंने समय जाया करना बेकार समझा और पिछवाड़े के रास्ते से दक्खिन तरफ वाले ताल की ओर तेजी से दौड़ते हुए भाग चले। घर का पिछवाड़ा पूरा सुरक्षित था। जनानखाना होने और घर में नई बहू तथा जवान लड़की होने के कारण सिपाही उधर नहीं जा सकता था। उनके भागने के बाद उनकी पत्नी को जरूर थोड़ा-बहुत अपमान सहना पड़ा था। मगर ब्लॉक में च्बंद’ होने से वे साफ-साफ बच गए थे। डर-हदस, अपमान और ग्लानि के मारे, बारह बजे रात से पहले वे घर नहीं लौटे थे। और, लौटे भी तो पिछवाड़े के रास्ते से ही।
गेना चौबे ने सोचा, यह खतरे का दिन कभी भी आ सकता है। रामगढ़ करीब आ गया था। धीरे-धीरे शाम का अंधेरा भी गहराता जा रहा था, मगर तब भी उनके मन में ढांढ़स नहीं बंध पा रहा था। जैसे-जैसे रामगढ़ बाजार करीब आता गया, उनके भीतर का बवंडर तेज होता गया। उन्होंने निर्णय लिया कि अगर आज ब्लॉक ऑफिस पार कर गए तो भैंस जरूर शिवजतन यादव के हाथ बेचकर ब्लॉक से निजात पा लेंगे।
रामगढ़ आ गया। उनकी धौंकनी तेजी से चलने लगी। धुंधलके में ब्लॉक ऑफिस के बरांडे में बिजली का लटूटू चमक रहा है। गेना चौबे को आज शायद रातभर नींद न आए।
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यह है विकास का कचरा!

अरविन्द चतुर्वेद : हमारी मानसिकता ही कुछ ऐसी बन गई है कि जब आग लगती है, तब कुआं खोदने की तैयारी करते हैं। अब यही देखिए कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के मायापुरी इलाके में कचरे में पड़े बेहद खतरनाक कोबाल्ट-60 के विकिरण की चपेट में आकर जब कुछ लोग अस्पताल पहुंच गए और सरकार की खूब किरकिरी हो चुकी तो अपने पर्यावरण और वन राज्य मंत्री जयराम रमेश ने बताया है कि सरकार इलेक्ट्रॉनिक कचरे के निस्तारण के लिए प्रभावी नीति बना रही है। इसका एक मतलब तो यही हुआ कि अब तक बगैर किसी नीति-नियम के हम स्व उत्पादित और विदेशों से आयातित कचरे से देश के शहरों-कस्बों और औद्योगिक इलाकों को पाटते चले आ रहे हैं। सवाल यह है कि राजधानी की मायापुरी में कोबाल्ट-60 के गामा विकिरण की चपेट में आकर आधा दर्जन लोग जो अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रहे हैं, अगर बच भी गए तो आधुनिक विकास के उपहार के तौर पर तो उन्हें अपाहिज जिंदगी ही मिलेगी! देश में स्क्रैप के बतौर हर साल जहाजों में भर-भरकर न जाने कितना कचरा हमारे देश में आता है और उसे सस्ते में खरीद कर बहुत सारे उद्यमी रिसाइकिलिंग के जरिए गलाकर नई चीजें बाजार में उतार देते हैं। यह ठीक है कि कच्चे  माल के तौर पर इस "सेकेंड हैंड" का इस्तेमाल करके उपयोगी चीजें बना ली जाती हैं और महंगाई के इस जमाने में शायद वे अपेक्षाकृत सस्ती भी होती हैं, मगर उनके साथ जो खतरनाक कचरा है, उसके नियंत्रण और निस्तारण का उपाय पहले से ही करने के बारे में क्यों नहीं सोचा गया है? हमारी निगाह अगर सिर्फ लाभ और कामचलाऊपन पर रहेगी तो मायापुरी जैसे हादसे भला कैसे रूकेंगे। अपने देश में कामकाज का ढरर ही कुछ ऐसा बन गया है। अब सरकार कह रही है कि इलेक्ट्रॉनिक कचरा देश के सामने अहम चुनौती बनता जा रहा है और ऐसे अपशिष्ट के निस्तारण के लिए सरकार प्रभावी नीति बना रही है। पर्यावरण और वन राज्य मंत्री जयराम रमेश ने राज्यसभा में जानकारी दी कि इलेक्ट्रॉनिक कचरे को लेकर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन ऑफ इन्फॉरमेशन टेक्नोलॉजी ने दो सर्वेक्षण किए थे और दोनों इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि इलेक्ट्रॉनिक कूड़ा देश के सामने चुनौती बनता जा रहा है। कम्प्यूटर, मोबाइल फोन और अन्य इलेक्ट्रॉनिक सामान निश्चित समय के बाद ई-कचरा बन जाते हैं। हम चाहें तो इसे आधुनिक विकास का कूड़ा भी कह सकते हैं। जितना हम विकास करते जा रहे हैं, उतना ही तेजी से यह कूड़ा भी इकटूठा होता जा रहा है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सर्वेक्षण पर आधारित अनुमान के मुताबिक 2005 में देश में 1.47 लाख मीट्रिक टन ई-कचरा निकला था और दो साल बाद 2012 तक बढ़कर यह आठ लाख मीट्रिक टन हो जाएगा। अब सरकार इस कचरे के निपटारे को लेकर नीति बना रही है और मंत्री जी का कहना है कि 15 मई तक यह सामने आ जाएगी। फिलहाल तो देश में रिसाइकिलिंग के लिए 14 इकाइयां पंजीकृत हैं, मगर हाल यह है कि कुल इकाइयों में से 85 से 90 फीसदी अवैध हैं। अभी तक तो ऐसा है कि जैसे कोई चुपके से हमारे-आपके घर के सामने कूड़ा फेंक जाता है, वैसे ही विकसित देश आंखों में धूल झोंककर अपना कचरा हमारे यहां खपाए दे रहे हैं।
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खेल से दूर सदाबहार खेल

अरविन्द चतुर्वेद :
जो खेल होता हुआ दिखता है चाहे वह हॉकी हो या क्रिकेट, उससे अलग एक और सदाबहार खेल चलता रहता है, जो वास्तविक खेलों, उनकी तैयारियों और उनको संचालित-आयोजित करने वाले खेलते रहते हैं। इस सदाबहार खेल के कई रंग हो सकते हैं- पैसे का, भ्रष्टाचारी कारोबार का, काहिली का और लालफीताशाही का भी। क्रिकेट का तो खैर जिक्र करने की ही जरूरत नहीं है, क्योंकि आजकल थरूर के इस्तीफे और ललित मोदी के इकबाल से आईपीएल के कमाल के बारे में वैसे ही बहुत कुछ कहा-सुना जा रहा है और जांच-पड़ताल चल रही है। खेलों से अलग जो सदाबहार खेल चलता रहता है, उसने भारत की विश्वविजयी हॉकी को आज किस गर्त में पहुंचा दिया है, यह भी सभी जानते हैं। लेकिन जरा सोचिए कि जिन राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन को राष्ट्रीय प्रतिष्ठा से जोड़ दिया गया है, उनकी तैयारियों का क्या हाल है? एक साल पहले से ही कहा जा रहा था कि इन खेलों की तैयारियों से जुड़ी विभिन्न एजेंसियों में जैसा तालमेल होना चाहिए, वैसा नहीं है, बल्कि इसके उलट एक एजेंसी दूसरी एजेंसी पर सहयोग न करने की तोहमत लगाने और अड़ंगेबाजी में ज्यादा लगी हुई हैं। ऐसे कामकाजी माहौल में जैसी मंथर गति से राष्ट्रमंडल खेलों के लिए निर्माण कार्य चल रहे थे, उसके मदूदेनजर आशंका जताई जाती रही है कि शायद ही समय से सारी तैयारियां पूरी हो सकें। लेकिन तब राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबान यानी दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित बार-बार यही कहती रहीं कि सबकुछ समय से हो जएगा। लेकिन अब यह सच्चाई सामने आ गई है और सरकार द्वारा आधिकारिक तौर पर कबूल कर लिया गया है कि अक्टूबर से शुरू हो रहे राष्ट्रमंडल खेलों के आधारभूत संरचना का निमार्ण कार्य पूरी गति से आगे बढ़ाए जाने के दावों के बावजूद परियोजनाओं को पूरा करने में देरी हुई है और आवंटित धन का पूरा उपयोग नहीं हो पा रहा है। मानव संसाधन मंत्रालय से जुड़ी स्थाई संसदीय समिति की रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रमंडल खेल से जुड़ी आधारभूत संरचना के निर्माण कार्य में विभिन्न निकायों के बीच समन्वय में और इसे पूरा करने के निध्रारित कार्यक्रम के प्रति प्रतिबद्धता में कमी पाई गई है। समिति ने कहा है कि राष्ट्रमंडल खेल शुरू होने में काफी कम समय रह जाने के चलते जल्दबाजी में निर्माण कार्य किए जाने से अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता के स्तर की गुणवत्ता से समझौता किया जा सकता है। यही नहीं, खिलाड़ियों के अभ्यास, भोजन और उपकरणों आदि से जुड़ी सुविधाओं का विकास भी समय से पीछे चल रहा है। समिति ने अलग-अलग खेलों के आयोजन स्थलों के निर्माण कार्य की मौजूदा स्थिति की बाकायदा जो जानकारी दी है, उसके मुताबिक औसतन 80-90 फीसदी तक काम पूरे हुए हैं। हालत यह है कि राष्ट्रमंडल खेल प्रतियोगिताओं में भाग लेनेवाले हमारे खिलाड़ियों को भी निर्माण में हो रही देरी के चलते अलग-अलग जगहों पर प्रैक्टिस करनी पड़ रही है और उनकी खेल तैयारी जैसे-तैसे चल रही है। संसदीय समिति ने यह भी उजागर किया है कि परियोजनाओं को पूरा करने में देरी के कारण उनकी लागत भी काफी बढ़ गई है। कुल मिलाकर संसदीय समिति की इस सरकारी हिन्दी पर न जाकर यही समझिए कि अंतरराष्ट्रीय स्तर के इस प्रतिष्ठापूर्ण खेल आयोजन की तैयारियों में भी वही परम्परागत सदाबहार खेल खेला जा रहा है, जिसमें पानी की तरह पैसे तो बह जाते हैं लेकिन काम घटिया ढंग का होता है। जहां तक समय का सवाल है तो अगर मंत्री के स्वागत में किसी चमत्कार की तरह रातोरात सड़क बन जाया करती है तो तैयारी भी हो ही जाएगी!   
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बौनों के बीच महापुरुष

अरविन्द चतुर्वेद :
हमारा आचरण इतना क्षुद्रता पूर्ण और व्यक्तित्व इतना बौना होता जा रहा है कि लगता है शायद हम अपने महापुरूषों का सम्मान करने लायक भी नहीं रह गए हैं। कभी राष्ट्रपिता महात्मा गाांधी को पता नहीं क्या समझ कर और किस सनक में खरी-खोटी सुनाई जाती है तो कभी अपने ही प्रेरणा पुरूषों, पुरखों और अग्रजों की पांत में, उनके बगल में अपनी मूर्तियां लगवा कर खुद को "महान"  बना लिया जाता है। इन कारगुजारियों की अपने पक्ष में चाहे कैसी भी व्याख्या कोई करे, लेकिन तमाम पिछड़ेपन और अशिक्षा के बावजूद देश-प्रदेश की जनता इतनी बेवकूफ और भोली नहीं है कि अपने हाथों अपने लिए रची जानेवाली नकली महानता के पीछे छिपी असली क्षुद्रता और बौनापन न पहचान सके। आखिर ऐसे ही बौनेपन के खिलाफ तो लोक प्रचलित मुहावरा है- अपने मुंह मियां मिटूठू बनना! हैरानी तो इस बात पर होती है कि क्या सभी स्मरणीय और वंदनीय महापुरूषों का सम्मान समान भाव और सज्जे हृदय से करना हमें आता ही नहीं। क्या एक महापुरूष के सम्मान के लिए जरूरी है कि दूसरे महापुरूष का अपमान किया जाए? क्या सर्वजन के हित की चिंता सर्वजन की भावनाओं, विचारों और आस्थाओं के अटूट व अनन्य आश्रय बने महापुरूषों को उपेक्षित-अपमानित करके की जा सकती है? उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के गोमती नगर स्थित लोहिया अस्पताल के प्रांगण में स्थापित महान समाजवादी चिंतक डॉक्टर राम मनोहर लोहिया की प्रतिमा तीन सालों से अनावरण की बाट जोहती रही और जो डॉक्टर लोहिया इसी उत्तर प्रदेश क ी माटी के ही सपूत थे, उनके जन्मशती वर्ष में भी यह प्रतिमा सरकारी जड़ता और घोर उपेक्षा के अंधेरे में खामोश पड़ी रही। डॉक्टर राम मनोहर लोहिया देश और प्रदेश के करोड़ों आम लोगों से लेकर बुद्धिजीवियों, लेखकों और विचारकों के भी प्रेरक व्यक्तित्व हैं, इसे क्या उत्तर प्रदेश का मौजूदा निजाम नहीं जानता? फिर ऐसी नौबत क्यों आई कि तीन साल से लोकार्पण के लिए प्रतीक्षित प्रतिमा को लोहिया जयंती पर प्रशासनिक विरोध के बीच समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव को ही माल्यार्पण करके प्रतिमा अनावरण की पहल करनी पड़ी। यह ठीक है कि लोहिया की विरासत पर दावा करने वाली समाजवादी पार्टी और इसके अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव से मौजूदा बसपा सरकार की राजनीतिक प्रतिद्वंदिता है, लेकिन इसका मतलब यह कहां होता है कि लोहिया के विचारों और उनके द्वारा लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए किए गए संघषों से प्रभावित आम लोहिया अनुरागियों की भावनाओं की सरकार कद्र न करे! आज हम जिस स्वाधीन देश में सांस ले रहे हैं, आखिर इसी आजादी की लड़ाई में अगस्त क्रांति के नायकों में डॉक्टर राम मनोहर लोहिया भी शुमार हैं। कौन नहीं जानता कि देश की आजादी और लोकतांत्रिक मूल्यों के निर्माण में गांधी-लोहिया-जयप्रकाश-अम्बेडकर-नेहरू-पटेल के साथ ही और-और अनेक महापुरूष एक-दूसरे के पूरक रहे हैं। ये सभी इस स्वाधीनता और लोकतंत्र के स्थपति हैं। इन सबके विचारों के आलोक में ही चलकर हमारा लोकतंत्र नई-नई मंजिलें पा सकता है। मगर गहरे अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि इस नालायकी का क्या किया जाए जो एक महापुरूष का सम्मान दूसरे महापुरूष का अपमान करके ही करना जानती है। यही बौनापन दिन पर दिन लोकतंत्र को अपाहिज बनाता जा रहा है और हमारे महापुरूषों द्वारा देखा गया सर्व समावेशी लोकतंत्र का सपना क्षत-विक्षत पड़ा हुआ है।
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इसे कहते हैं चिराग तले अँधेरा!

अरविन्द चतुर्वेद :
कहते हैं कि यह ग्लोबल समय है और सूचना क्रांति के चलते दुनिया सिमट कर बहुत छोटी हो गई है। अपने देश ने भी कम ग्लोबल तरक्की नहीं की है और सूचना तकनीक के मामले में तो कहा जाता है कि हमने दुनियाभर में झंडे गाड़ दिए हैं और परचम फहरा रहे हैं। लेकिन विडम्बना देखिए कि दिल्ली में बैठी हमारी सरकार को ऊबड़-खाबड़ भूगोल वाले अपने देश में कुल कितने जिले और जिला पंचायतें हैं, इसकी ठीक-ठीक और ठोस जानकारी नहीं है। इसी को कहते हैं चिराग तले अंधेरा। और वह भी ऐसा चिराग कि जिसकी रोशनी का तो गांवों में पता नहीं है मगर उसके नीचे अंधेरा ही अंधेरा फैला हुआ है। आखिर कहां है वह सुपर कम्प्यूटर और महान सूचना प्रौद्योगिकी, जो इतनी मोटी जानकारी भी मुहैया नहीं करा पाती। लेकिन नहीं, यह कमी सूचना प्रौद्योगिकी की नहीं, बल्कि हमारे कामकाज करने के तरीके की है। इस बात पर तो सिर्फ माथा ही पीटा जा सकता है कि केंद्र सरकार के पंचायती राज मंत्रालय को यह नहीं मालूम है कि अपने देश में कुल कितनी जिला पंचायतें हैं। ग्रामीण विकास से सम्बंधित संसद की स्थाई समिति ने पंचायती राज मंत्रालय के बारे में अपनी रिपोर्ट में आश्चर्य जताया है कि मंत्रालय को पता ही नहीं है कि देश में आज की तारीख में कुल कितनी जिला पंचायतें हैं। भारतीय जनता पार्टी की वरिष्ठ सांसद सुमित्रा महाजन की अध्यक्षता वाली इस समिति की रिपोर्ट लोकसभा में पेश की गई, तब पंचायती राज मंत्रालय की इस मासूमियत का सच सामने आया। पंचायती राज मंत्रालय का कहना है कि पंचायतों की संख्या के सम्बंध में जो सूचना है, वह 2007-08 के दौरान प्रदेश पंचायतों पर हुए एक शोध के परिणामों के आधार पर है, जबकि जिलों और ग्रामों की संख्या के बारे में जानकारी पेयजल आपूर्ति विभाग से ली गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सुपर कनेक्टिविटी और सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में मंत्रालय अब भी उन्हीं सूचनाओं का अचार डाले हुए है, जो तीन साल पुरानी हैं यानी 2007-08 के दौरान यह जुटाई गई थीं। हमारे विभिन्न मंत्रालयों में परस्पर कितना तालमेल और आदान-प्रदान होता है, यह भी इसी से पता चल जाता है कि पंचायती राज मंत्रालय के मुताबिक देश में 608 जनपद हैं, जबकि ग्रामीण विकास मंत्रालय ने ठीक एक साल पहले यानी 1 अपै्रल 2009 तक के आधार पर बताया है कि देश में कुल 619 ग्रामीण जिले हैं। यह मामला संख्या गिनने और गणित-ज्ञान बढ़ाने का कतई नहीं है, बल्कि इससे बेहद गम्भीर और संवेदनशील चूक उजागर होती है, क्योंकि ठोस तथ्यों और सूचनाओं के आलोक में ही तो योजनाएं और कार्यक्रम बनाकर उन पर अमल किया जा सकता है। आखिर अंधेरे में तो विकास के तीर नहीं चलाए जा सकते! यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि पंचायती राज मंत्रालय की लापरवाही या उदासीनता या फिर काहिली ऐसे वक्त की चीज है, जब वर्ष 2009-10 को "ग्राम सभा वर्ष" घोषित करके पंचायती राज व्यवस्था को अधिक सक्षम, सुचारू और प्रभावकारी बनाने का संकल्प लिया गया था। ऐसी लचर स्थिति में जाहिर है कि संसद की स्थाई समिति ने मंत्रालय की न सिर्फ खिंचाई की है, बल्कि यह भी कहा है कि प्रदेशों को ग्राम सभा बैठकें आयोजित करने के लिए सर्कुलर जारी करने और महज "ग्राम सभा वर्ष" घोषित करने से ही मंत्रालय को दिए गए पंचायती राज व्यवस्था के काम और दायित्व पूरे नहीं हो जाते। इस इकलौते प्रसंग को ही आईना बनाएं तो आसानी से समझ सकते हैं कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज का सपना आजादी के छह दशक बाद भी क्षत-विक्षत क्यों है। हम चाहे ग्राम सभा वर्ष मना लें या फिर महात्मा गांधी के "हिंद  स्वराज" की शताब्दी मना लें, लेकिन अगर संकल्प और सदूइच्छाओं को पूरा करने की सजगता और पराक्रम हमारे भीतर नहीं होगा तो सबकुछ धरा का धरा रह जाएगा। आखिर जिसे पाखंड कहते हैं, वह इससे अलग कोई चीज तो नहीं होती है, न!
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मोहन कुजूर का चाकू

अरविन्द चतुर्वेद :
हेड ऑफिस के सामने वाले लॉन में मेन गेट के ठीक बायीं ओर सस्ते नीले जींस की पैंट और गहरे लाल रंग की बनियान पहने वह जो एक काला-कलूटा तंदुरूस्त-सा लड़का बैठा हुआ है- वह है मोहन कुजूर। आप उसकी उम्र के बारे में क्या सोचते हैं- चौबीस-पच्चीस साल? आप धोखा खा गए, न! दरअसल, उसकी उम्र मुश्किल से सत्रह-अटूठारह साल है। यह जो पठारी आदिवासी इलाका है, झारखंड के छोटा नागपुर का, यहां आदमी, जंगल, पठार और कई दूसरी चीजों के बाबत आप दस तरह के धोखे खा सकते हैं- अगर आप आदिवासी नहीं हैं या आदिवासी जिंदगी को आपने करीब से नहीं देखा है। यह दिक्कत उन लोगों के साथ ज्यादा है, जिन्हें पटना-लखनऊ-दिल्ली से सरकार द्वारा काबिलियत देखकर यहां किसी कारखाना, प्रोजेक्ट या दूसरे महकमों में भेजा जाता है।
रांची शहर, अपनी कम्पनी और खुद के बारे में आप ठीक ही सोचते हैं। इस पठारी शहर का क्लायमेट तंदुरूस्ती के लिए बहुत अच्छा है। कम्पनी में अगर आपका परफारमेंस बहुत अच्छा रहा तो आपकी गुडविल बनते देर नहीं लगेगी। आप और ऊपर पहुंच सकते हैं। बस, कम्पनी को मुनाफा देते जाइए या अपनी तरह से मुश्किलों की रिपोर्ट करते हुए घाटा पहुंचाइए। कोई फर्क नहीं पड़ता। अव्वल तो आपकी शिकायत यहां से दिल्ली तक पहुंच नहीं सकती, वैसे भी दिल्ली से इस जंगल पहाड़ में बार-बार आने की कोई जहमत उठाएगा नहीं। आपका बेटा अगर इस छोटी-सी जगह में रहते हुए कभी बोर होने की शिकायत करे तो आप उसे समझा सकते हैं कि यहां से फ्लाइट पकड़ो और चंद घंटों में दिल्ली-मुम्बई-कोलकाता, जहां जी चाहे, जाकर दस-पांच दिन घूम-फिरकर आ सकते हो। आपकी मेम साहब को यहां का क्लायमेट कुछ ज्यादा ही अच्छा लग रहा हो तो कोई अच्छी-सी जगह देखकर बंगला बनवा लीजिए। यहां आप क्या नहीं कर सकते? सब कुछ तो आपके हाथ में है।
मिस्टर नरेंद्र मल्होत्रा का भी कुछ ऐसा ही ख्याल था, शुरू-शुरू में यहां के बारे में। आने के साथ ही यहां के मौसम और माहौल को उन्होंने काफी खुशगवार पाया था। दिल्ली से चलते वक्त नई जगह को लेकर उनके दिमाग में जो एक स्वाभाविक तनाव था, वह यहां पहुंचने के साथ ही काफूर हो गया। उन्होंने चैन की सांस ली थी और यह सोचकर खुश हो गए कि दिल्ली जैसे महानगर की चिल्लपों, भागदौड़ और धक्कामुक्की से उन्हें निजात मिल गई। उन्हें जो बड़ा-सा बंगला, लॉन, गैरेज, नौकरों के क्वार्टर वगैरह मिले थे, उसमें अनको जीवन की तमाम उपलब्धियां आराम से पसरी हुई नजर आई थीं। उन्होंने महसूस किया था कि दिल्ली में रहते हुए किस तरह वे एक मशीन हो गए थे। और, इसे यहीं आकर महसूस भी किया जा सकता था।
हेड ऑफिस को अपने मुताबिक बनाने में मिस्टर नरेंद्र मल्होत्रा को कोई झंझट नहीं झेलनी पड़ी थी। ठीक उसी तरह से, जैसे एक चेयरमैन-कम-मैनेजिंग डायरेक्टर को होना चाहिए था, वे हुए। सबने उनका सहज ढंग से स्वागत किया। वे एक ऐसे जहाज के कप्तान थे जिसकी बागडोर उनके हाथ में थी और उसे अपनी तरह से जिधर चाहे, वे ले जा सकते थे। अलबत्ता, यह समुद्र उनका जाना-पहचाना नहीं था लेकिन जहाज तो उनका अपना था और इस पर उन्हें पूरा भरोसा था।
मल्होत्रा साहब ने पिछले तीन साल यहां बड़े मजे में गुजारे हैं- तनाव मुक्त, स्वतंत्र और उल्लासपूर्ण। लेकिन, इधर पिछले चंद महीनों से उनके मन में एक अव्यक्त-सी बेचैनी ने घर बना लिया है।
इसकी वजह है, मोहन कुजूर। वही मोहन कुजूर, जो इस समय लॉन में चुपचाप टांगें पसारे अपने आप में गुमसुम बैठा है। आप सोच रहे होंगे कि भला इतने बड़े अफसर की निश्चिंत-सी जिंदगी में मोहन कुजूर जैसा अदना-सा टेम्परेरी चपरासी क्या खलल पैदा करेगा? लेकिन नहीं, अगर आप ऐसा सोचते हैं तो फिर धोखा खा रहे हैं, जैसे उसकी उम्र के बारे में अभी खा चुके हैं।
अब यही देखिए कि इस वक्त साढ़े दस बज रहे हैं, हेड ऑफिस खुल गया है तो इस समय मोहन कुजूर को इस तरह लॉन में तो नहीं बैठे होना चाहिए था। होना यह चाहिए था कि वह किसी काम में मशगूल होता। अगर किसी बाबू या साहब का पान-सिगरेट लेने गया होता, तब भी ठीक था। और नहीं तो, उसे कम से कम इस बात के लिए चौकन्ना तो रहना ही चाहिए था कि हेड ऑफिस के सबसे बड़े बॉस के आने का यही टाइम है।
मोहन कुजूर की नीली जींस और लाल बनियान दूर से ही सब पहचान लेते हैं। इसकी कोई खास वजह नहीं है। दरअसल, उसके पास यही एक ठीकठाक कपड़ा है, जिसे पहन कर वह ऑफिस आ सकता है। कम से कम इस बारे में किसी को आज तक ऑफिस में धोखा नहीं हुआ है कि नीली जींस पैंट और लाल बनियान वाला लड़का मोहन कुजूर के अलावा और भी कोई हो सकता है।
मल्होत्रा साहब की कार आई तो दरबान ने झटपट गेट खोल दिया। कार गेट से अंदर होते हुए जरा धीरे हुई और फिर मुड़कर अपनी सही जगह पर खड़ी हो गई। मल्होत्रा साहब ने गौर किया कि उनके आने पर सभी अपने ढंग से सावधान हो गए हैं, केवल मोहन कुजूर को छोड़कर। वह लॉन में उसी तरह अपने आप में गुमसुम निश्चिंत बैठा है। मल्होत्रा साहब की निगाह उसकी तरफ पड़ी तो उनके मन की सोई बेचैनी जाग गई। माथे पर हल्की-सी शिकन
उभरी मगर उसे उन्होंने झटक दिया। वे अपने चेम्बर में दाखिल हो गए।
रामदेव प्रसाद बाबू ऑफिस रूम से निकल कर बरांडे में आए तो मोहन कुजूर को लॉन में देखा। उन्होंने मोहन कुजूर को आवाज देकर बहन की एक भदूदी-सी गाली दी और बुलाया। उन्हें पान की तलब हो रही थी और ऑफिस के लिए चाय भी मंगानी थी।
मोहन कुजूर आहिस्ता से उठा और रामदेव प्रसाद बाबू के सामने पहुंच कर चुपचाप खड़ा हो गया।
- साला, मुंह क्या देखता है। जा, साहब के चेम्बर में टेबुल पर एक गिलास पानी रख दे।’ रामदेव बाबू ने कहा और जेब से दस रूपए का मुड़ा-तुड़ा नोट निकाल कर उसकी तरफ बढ़ा दिया- कैंटीन में ऑफिस के लिए चाय बोलकर मेरा पान लेते आना, समझा! जरा जल्दी से।’ और, इस बार रामदेव बाबू ने मोहन कुजूर की च्मां को याद’ किया, जो कब की स्वर्ग सिधार चुकी थी।
मोहन कुजूर ने चुपचाप पैसा लिया और चल दिया। मल्होत्रा साहब के चेम्बर में जब वह पानी भरा गिलास लेकर दाखिल हुआ तो उन्होंने फाइल से नजर उठाकर मोहन कुजूर के चेहरे पर गड़ा दी, मगर वहां कुछ न था। मोहन कुजूर ने अपनी आदत के मुताबिक उन्हें सलाम नहीं किया था। मल्होत्रा साहब ने उसकी आंखों में झांककर कुछ पढ़ना चाहा, मगर उन्हें उसकी ठंडी आंखों की गहराई अथाह लगी। तब तक मोहन कुजूर पानी भरा गिलास टेबुल पर रख चुका था। फिर वह चेम्बर से बाहर निकल गया। मोहन कुजूर की आंखें इतनी गहरी क्यों हैं? उसका चेहरा इतना निर्विकार क्यों है? सोचते हैं, मल्होत्रा साहब। अब उनका मन फाइल में नहीं लगता। वे फाइल बंद कर देते हैं और गिलास उठाकर पानी पीने लगते हैं।
मोहन कुजूर का बाप इसी हेड ऑफिस में अभी पिछले साल तक दरबान था। उसकी साध थी कि किसी तरह पेट काटकर भी वह मोहन को पढ़ाए-लिखाए और कम से कम उसे बाबू बनता हुआ देख ले। मगर वैसा कुछ नहीं हुआ। मोहन कुजूर ने मैट्रिक पास तो कर लिया मगर डेढ़ साल की ठोकरों ने उसे जमाने भर की ऊंच-नीच दिखा दी। गांव भर में वह तेज-तररर, समझदार और निर्भीक लड़का माना जाता था। उसने अपने इलाके के रिजर्व सीट वाले एमएलए के चुनाव में श्रीमती उर्मिला बरपेटा के लिए क्या नहीं किया था। रात-दिन एक करके उसने पोस्टर चिपकवाए। खुद छोकरों की टोली लेकर गांव-गांव जाकर दीवारों पर चुनाव चिन्ह बनाए और नारे लिखे। उसे पूरी उम्मीद थी कि श्रीमती बरपेटा जीतने के बाद अगर नौकरी नहीं दिलाएंगी तो कम से कम पच्चीस हजार रूपए वाला सरकारी कर्ज दिलाकर रोजगार का कोई न कोई जुगाड़ जरूर बना देंगी।
मगर, जब बेरोजगार मोहन कुजूर को पच्चीस हजार रूपए का शिक्षित बेरोजगारों को स्वावलम्बी बनाने वाला सरकारी कर्ज भी नहीं मिला तब गांव-देहात में उसकी बड़ी भदूद हुई। गांव में उसका मन नहीं लगा। आखिर में कोई रास्ता न देखकर रिटायर होते वक्त उसके बाप ने रामदेव प्रसाद बाबू के सामने हाथ जोड़कर कहा- इस आवारा छोकरे का उद्धार करा दीजिए, हजूर!
मोहन कुजूर ने अपने बूढ़े बाप के साथ तब पहली बार रामदेव प्रसाद बाबू को देखा था- मिचमिची आंखों और चिकनी खोपड़ी वाले, रामदेव बाबू को। बाप के कहे मुताबिक मोहन कुजूर ने तब जो पहला काम किया था, वह यह था कि लपक कर रामदेव बाबू का पान ले आया था।
उसके बाद से मोहन कुजूर लगातार रामदेव बाबू से अपनी मां और बहन के अंगों के बखान के साथ गाली का आशीर्वाद पाते हुए पान और चाय ला रहा है, जिन अंगों को उसने देखा नहीं। अपनी गालियों में रामदेव बाबू उन अंगों का जिक्र करते हुए जैसा खाका खींचते हैं, उस सबको सुनकर मोहन कुजूर के तन-बदन में आग जलने लगती है। मगर कुछ भी बोले बिना वह चुपचाप चाय-पान लेने चल देता है, जैसे इस समय चला गया।
मोहन कुजूर की चुप्पी और गुमसुम रहने वाले स्वभाव के कारण ऑफिस के सभी बाबुओं का मौखिक रूप से मोहन कुजूर की मां और बहन पर हक हो गया है। उसको यह नौकरी कतई पसंद नहीं है। वह गांव लौट जाना चाहता है या यूं ही शहर में आवारा बन जाना चाहता है। अगर वह ऐसा नहीं कर पा रहा है तो इसकी सिर्फ एक ही वजह है कि सबेरे-सबेरे ऑफिस में झाड़ू लगाने वाली लड़की इतवारी अकेली पड़ जाएगी। उसने अपनी आंखों से एक दिन यह देखा था कि रामदेव बाबू ने इतवारी को झाड़ू लगाते वक्त दबोच लिया था और उसे बाथरूम की ओर घसीटने की कोशिश कर रहे थे। मोहन कुजूर के अचानक वहां पहुंच जाने से हालांकि इतवारी उस दिन छूट गई थी, मगर जब-जब मोहन कुजूर नौकरी छोड़ने का इरादा बनाता है, तब-तब उसकी आंखों के सामने वही दृश्य घूम जाता है और वह भीतर ही भीतर ध्वस्त हो जाता है। जब से मोहन कुजूर ने वह दृश्य देखा है, तब से उसके ऊपर चुप्पी का साया और गहरा हो गया। उसकी मां-बहन को याद करते वक्त ऑफिस के सभी बाबू उसे आदमी की शक्ल में भेड़िया नजर आते हैं। वह सोचता है, सभी रामदेव बाबू हैं। ऑफिस में उन सबके बीच रहते हुए उसका दम घुटने लगता है। लगता है कि दिमाग की नसें फट जाएंगी। उसे हर वक्त श्रीमती उर्मिला बरपेटा एमएलए पर गुस्सा आता है। अगर वे मोहन कुजूर को पच्चीस हजार रूपए वाला कर्ज दिलाकर कोई रोजगार करा देतीं तो उसे यह सब न देखना-सुनना पड़ता। वह सोचता है, बेचारी इतवारी...।
इसी उधेड़बुन में मोहन कुजूर सड़क पर पान वाली गुमटी के सामने खड़ा है। कैंटीन में ऑफिस के लिए चाय बोले उसे पंद्रह मिनट से ज्यादा हो रहे हैं। वह जानता है कि चाय पीने के बाद पान की तलब में रामदेव बाबू उसकी मां-बहन को याद कर रहे होंगे। वह ऐसा मौका नहीं भी दे सकता था, अगर फुटपाथ की दुकान से चाकू न खरीदने लगता। वह पान लेकर लौटते वक्त इस बात से अपने मन को तसल्ली देता है कि बात-बेबात उसकी मां-बहन को याद करना रामदेव बाबू की तो आदत ही बन चुकी है।
वह दाएं हाथ में पान लिए बाएं हाथ से पैंट के पीछे वाली जेब को थपथपाता है, जिसमें चाकू है। मोहन कुजूर इस बार गांव जाएगा तो यह चाकू अपनी बहन को दे देगा। घर में कोई अच्छा चाकू भी नहीं है। उसे याद है कि कभी शिकार वगैरह पकाने से पहले घर में कितनी दिक्कत होती है। शिकार काटने के लिए पड़ोसी से चाकू मांगना पड़ता है।
मोहन कुजूर इत्मीनान के साथ ऑफिस में घुसता है। बंधे हुए पान के साथ बची हुई रेजगारी रामदेव प्रसाद बाबू की टेबुल पर रख देता है। बिना कुछ बोले और बिना कुछ सुनने का इंतजार किए वह लौटता है। रामदेव बाबू उसकी तरफ देखते भर हैं, कुछ बोलते नहीं। वे पान उठाकर मुंह में डालते हैं। मोहन कुजूर बरांडे में आकर खड़ा हो जाता है।
मोहन कुजूर के चाकू पर सबसे पहले रामदेव बाबू की ही नजर पड़ी। वे पान की पीक थूकने के लिए बाहर निकले और थूक कर लौटते वक्त जैसे ही मोहन कुजूर को कुछ कहने को हुए, उसे एक खुले हुए चाकू का मुआयना करते हुए पाया। उनकी मुखाकृति अप्रत्याशित रूप से बदल गई। आंखों में अविश्वास का भाव तैर गया। वे कुछ नहीं बोल सके। बस, जरा-सा ठिठके और ऑफिस रूम में घुस गए।
लंच टाइम तक ऑफिस में मोहन कुजूर का चाकू सनसनीखेज ढंग से सबकी जबान का चर्चा बन गया। रामदेव बाबू ने खुद ही मल्होत्रा साहब के चेम्बर में जाकर उन्हें यह खबर दी कि दरअसल मोहन कुजूर कितना खतरनाक आदमी है। लोगों ने कहा- आदिवासी को समझना वाकई आसान नहीं है। एक आदमी बोला- मेरे तो बाल पक गए लेकिन आजतक नहीं समझ सका कि किस बात पर कब एक आदिवासी खुश हो जाएगा और कब किस बात पर गुस्सा हो जाएगा। दूसरा बोला- अखबारों में नहीं पढ़ते, फलां ने अपनी बीवी को मार डाला तो फलां ने अपने बाप का मर्डर कर दिया! ये आदिवासी ऐसे होते ही हैं। बात-बेबात जान लेने-देने पर उतारू हो जाते हैं। तीसरा बोला- मुझे तो यह छोकरा शुरू से ही काफी खतरनाक लगता था। कितना चुप रहता है। हंसता भी नहीं और न किसी को सलाम करता है।
मल्होत्रा साहब ने भी जब मोहन कुजूर के चाकू वाली बात सुनी तो सकते में आ गए। एक तो वैसे ही उसका व्यवहार रहस्यपूर्ण है, दूसरे उसने चाकू खरीद लिया है- जरूर वह अनसोशल एलीमेंट है। अब इस टेम्परेरी चपरासी के बारे में सीरियसली सोचना होगा- मल्होत्रा साहब सोचते हैं। मान लो, अगर उसे नौकरी से निकाल ही दिया जाए तो? नहीं-नहीं, यह और भी खतरनाक होगा। तब तो मोहन कुजूर के मन में जरूर ही बदले की आग भड़क उठेगी! क्या उसकी नौकरी परमानेंट करके उसे खुश नहीं किया जा सकता? दिमाग में यह बात आते ही मल्होत्रा साहब का तनाव थोड़ा कम होता है। वे टेबुल पर रखी घंटी बजा देते हैं। उनका अर्दली आता है तो बोलते हैं- जरा मोहन कुजूर को भेजो तो!
अर्दली मल्होत्रा साहब के चेहरे का भाव देखकर यह जानने की कोशिश करता है कि साहब मोहन कुजूर के बारे में क्या फैसला करने वाले हैं। वह चेम्बर से लौटते वक्त सोचता है कि बस, मोहन कुजूर की छुटूटी हो गई।
मोहन कुजूर हमेशा की तरह मल्होत्रा साहब के चेम्बर में दाखिल होता है- हमेशा की तरह चुपचाप, हमेशा की तरह अबूझ और रहस्यपूर्ण।
मल्होत्रा साहब उसे गौर से देखते हैं, मुस्कराते हैं। आत्मीयता पूर्वक पूछते हैं, क्या हाल है, मोहन! मजे में तो हो?
मोहन कुजूर के चेहरे पर कोई भाव नहीं आता। वह सिर्फ एक अक्षर के शब्द में जवाब देता है- हूं।
मल्होत्रा साहब कहते हैं- मोहन, तुम्हें ऑफिस में काम करते छह महीने हो गए। मैंने तुम्हें एक अच्छी खबर देने के लिए बुलाया है। मैं सोचता हूं, तुम्हें अब परमानेंट कर दिया जाए।
मोहन कुजूर के चेहरे पर कोई खुशी का भाव नहीं आता। वह हमेशा की तरह गम्भीर बना रहता है। मल्होत्रा साहब हैरान हो जाते हैं। बोलते हैं- ठीक है, जाओ। मन लगाकर काम करो।
वह चुपचाप चेम्बर से निकल जाता है। मल्होत्रा साहब गौर से देखते हैं, पैंट के पीछे वाली जेब उठी हुई नजर आती है। उसी में वह खतरनाक चाकू है, शायद। मल्होत्रा साहब परेशान हो जाते हैं- कैसा है यह आदमी? इसे परमानेंट होने में भी कोई खुशी नहीं है।
तभी रामदेव बाबू हाथ में फाइल लिए चेम्बर में घुसते हैं। जरूरी कागजों पर दस्तखत करानी है। रामदेव बाबू का इस वक्त आना मल्होत्रा साहब को अच्छा ही लगा। उन्होंने रामदेव बाबू को सामने की कुर्सी पर बैठा लिया।
मल्होत्रा साहब ने सलाह-मशविरे के अंदाज में पूछा- रामदेव बाबू! मोहन को परमानेंट करने के बारे में आपकी क्या राय है?
रामदेव बाबू ने समझा कि वाकई यह कोई आसान मामला नहीं है। उन्होंने बहुत सोच-समझ कर कहा- सर, गलती तो मुझसे शुरू में ही हो गई, जब इसके बाप की प्रार्थना पर इसे रख लिया गया। पहले पता नहीं था कि यह इतना खतरनाक छोकरा होगा। मुश्किल तो यही है कि परमानेंट हो जाने पर परमानेंट खतरा हो जाएगा। मान लीजिए कि आज परमानेंट होने से खुश हो भी जाए तो क्या भरोसा कि कल किसी बात पर नाराज न हो!
- तो क्या सोचते हैं, इसे ऐसे ही टेम्परेरी रहने दिया जाए?
- कोई हर्ज नहीं है, सर। कभी भी निकाला तो जा सकता है।
- हां, ठीक ही कहते हैं। परमानेंट किए जाने की खबर पर भी उसे खुशी नहीं हुई, तब फिर परमानेंट करने का फायदा ही क्या है।
- ये आदिवासी ऐसे ही होते हैं, सर। इन्हें समझना आसान नहीं है।

इनका विश्वास तो किया ही नहीं जा सकता।
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मेरे गाँव की कहानी/दस : अकाल में अनहोनी

अरविन्द चतुर्वेद :
वे सालभर पहले आए थे " बारहगांवा " के इस हेकड़ीबाज गांव में। इलाके भर के बारह गांवों में लोग पीठ पीछे कहा करते थे- यह गांव तो हरहा सांड़ है, भइया! किसी के भी खेत में मुंह मारता फिरता है, और मना करो तो ऊपर से सींग भी चलाता है। लेकिन क्या मजाल कि मुंह पर " पालागी चौबेजी "  के अलावा कोई कुछ मीन-मेख निकाल सके। अब की बात और है। आज हवा इस इलाके के महुआ के पेड़ों को झिंझोड़ने लगी है, हर आदमी के बगल में बाल उग रहे हैं, तब बात कुछ और ही थी।
झकू झकू अकाल। कर्मनाशा नदी की ठठरी निकल आई है। महुआ-वन में पेड़ों के नीचे चुर्र-मुर्र करते सूखे पत्ते। खेतों में फसल पियराते-पियराते दम तोड़ चुकी है। मवेशियों के झुंड खुला छोड़कर खेतों में हांक दिए जाते हैं। घर में एक दाना नहीं आना है तो मवेशियों का ही पेट भरे। नहर के दोनों किनारे की फसलें शायद थोड़ी-बहुत बचाई जा सकती थीं, लेकिन नगवा बांध का पानी दूसरी नहर से मंत्री जी के गांव-इलाके की ओर दौड़ाया जा रहा है। दूर-दूर तक सुखाड़ ही सुखाड़। बारहगांवा का यह हरहा गांव अकाल में पैर टूटे सांड़ की तरह थौंसकर बैठ गया है। काम-धाम, मेहनत-मजूरी कुछ नहीं बची गांव में। सारी बभनई निकल गई मालिक टोला की।
महीने भर से सुना जा रहा है, सरकारी टेस्ट वर्क शुरू होगा। मगर वह जब होगा, तब होगा। पेट का गडूढा तो रोज-रोज भरना पड़ता है। सुबह होते-होते समूची दलित बस्ती खाली हो जाती है। दुसाध, चेरो, धोबी, कहार, सबके सब पहर भर रात रहते जंगल में घुसते हैं तो शाम को सूरज का मुंह फूंककर ही गांव में पैर रखते हैं। जंगल में भी क्या मिलेगा? कर्मनाशा की मछलियां, नदी में मिलने वाले सूखे जंगली नालों के मुहाने पर जमीन खोदने पर सूरन-ओल जैसी जंगली गठिया, कभी-कभी खरगोश, पाकड़ के फूल, गूलर, पीपल और बरगद के पके-अधपके फल...थोड़ा-बहुत महुआ का सहारा है... यही सब उबाल कर, भूनकर पेट का गडूढा भरो। बार-बार भूख लगे तो पानी पीयो। कोई-कोई जलावन की लकड़ियों का गटूठर सिर पर लादे रामगढ़ बाजार निकल जाते हैं- वहां भी ठीक से पैसा तो क्या मिलेगा, औने-पौने दाम पर या पेटभर रोटी-भात के बदले भी लोगों के दरवाजे गटूठर पटक देते हैं। चार रोटी के बदले कोई घंटा-दो घंटा, थोड़ी-बहुत बेगार भी करा ले तो कर देते हैं।
..... ...... ......

ब्लॉक ऑफिस से खबर मिली है कि अकाल राहत का सरकारी राशन आ गया है। गांव में हर भूमिहीन परिवार में कुल कितने मेंबर हैं, उसी के हिसाब से खैरात बांटी जाएगी। रजिस्टर में सबका नाम लिखकर पूरी लिस्ट बनाकर ब्लॉक पर जमा करना है।
मालिकों के बाभन टोला में, प्रधान जी ने अपने दरवाजे से ही पड़ोसी रघुवीर पंडित को हांक लगाई- हे रघुवीर...! अरे, कहां हरदम घर में घुसे रहते हैं। जरा इधर आइए, न!
रघुवीर अपने ओसारे में रामधनी के साथ चिलम जगा रहे थे। ऊंची आवाज में जवाब दिया- बस चच्चा, पांच मिनट में आते हैं।
प्रधान जी की लिखापढ़ी का सारा काम दसवीं फेल रघुवीर ही करते हैं और रामधनी उनका अपना आदमी है। दोनों आ गए तो प्रधान जी रजिस्टर लेकर उनके साथ अपनी बैठक में चले गए। सरकारी खैरात बांटने को लेकर रघुवीर पंडित और रामधनी के साथ बात-विचार शुरू हुआ। रामधनी प्रधान का अपना ही आदमी है, सो खुलकर बात होने लगी।
- पहिले तो अपने आदमी-जन का नाम लिख लिया जाए। रघुवीर पंडित ने कहा।
प्रधान जी ने टोका- बात समझते नहीं हैं, फट से बोल देते हैं। अरे भाई, राशन पूरे गांव में बंटना है। साथ में ब्लॉक का कोई सरकारी मुलाजिम भी रहेगा। कौन अपने घर से जा रहा है? गड़बड़ नहीं होना चाहिए। राशन बंटते समय कोई हल्ला-गुल्ला हो, यह अच्छी बात थोड़े है।
- तब एक किनारे से शुरू किया जाए।
- हां। पहिले पूरब की दलित बस्ती, फिर चेरवान, दुसधान, धोबी-कहार-नाई, छूटे-छटके सबको लिखते जाइए।
- तो ठीक है, रामधनी बोलते जायं, मैं लिखता जाता हूं।
- हां, मगर ऐसा भी नहीं कि हजार नाम का पोथी-पतरा तैयार कर दीजिए। बस, परिवार के मुखिया का नाम लिखिए और उसके आगे लिख दीजिए परिवार में चार मेंबर कि छह मेंबर। अब जैसे रामधनी अपने आदमी हैं तो परिवार में पांच मेंबर लिखिए चाहे आठ मेंबर, इतना चलेगा। इसी तरह रामधनी का एक और भाई शिवधनी और रामगोपाल के भाई शिवगोपाल का परिवार दिखा दीजिए। इसमें कोई हर्ज नहीं।
- मगर राशन लेते समय शिवधनी और शिवगोपाल कहां से आएंगे? रघुवीर पंडित ने पूछा।
प्रधान ने कहा- पढ़-लिखकर भी रह गए घामड़ के घामड़। अरे, दोनों के बड़े लड़के क्या उनके भाई नहीं हो सकते? लड़के जब बड़े हो जाते हैं तो बाप के भाई ही हो जाते हैं! वही दोनों शिवधनी और शिवगोपाल के परिवार का राशन ले लेंगे।
तीसरे दिन प्रधान जी के दरवाजे पर मेला-सा लग गया। नाश्ता-पानी के बाद ब्लाक के मुलाजिम के साथ कुर्सी लगाकर प्रधान जी बैठ गए। रघुवीर पंडित रजिस्टर से एक-एक नाम पुकारते और लोग सामने आ जाते। रामधनी और रामगोपाल बोरे से राशन निकाल कर हर परिवार के मेंबर के हिसाब से तौलकर देते जा रहे थे।
चेरो टोले के लोगों की ओर से थोड़ी हलचल हुई :
एक आदमी बोला- ई तो खुला अन्याव हो रहा है। छह परानी पर दस किलो पंद्रह दिन। राशन है कि हींग-जीरा की छौंक!
- का हो रामधनी, एही लिए नेता भए हो?
- वाह रे रामधनी!
- हाय बप्पा!
आखिर ब्लॉक से आया मुलाजिम बोल पड़ा- हल्ला नहीं, हल्ला नहीं। सब सरकार का नियम-कायदा है। भीड़ मत लगाओ। अपना- अपना राशन लेकर यहां से एक-एक आदमी निकलते जाओ।
दोपहर दो बजे तक खैरात बांटी जा चुकी थी। जलते-भुनते, बड़बड़ाते सब अपने-अपने घर चले गए। दलित बस्ती से लेकर चेरवान और दुसधान तक सब जगह एक साथ चूल्हे जल रहे हैं। एक साथ छप्परों के ऊपर धुआं उठ रहा है।
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वाह रे धरती! वाह रे अकास!
एक घड़ी दिन और होगा, नहीं, आधा घड़ी। शाम हो रही है। इससे क्या? मामला गरम है। स्साला रामधनी नेता बना है। भगवंती के घर के पास खाली जगह में लोग बैठे हैं। सारा दुसधान और चेरवान रामधनी पर जल-भुन रहा है।
- सब गुन रामधनी का है।
- रघुवीर से मिलकर लगता है परधान से कुछ गांठ लिया है।
- चलो अब जो मिला, उसी पर संतोख करो। शिवबरन बुढ़ऊ बोले।
- कइसा संतोख? छह परानी का पेट है, संतोख-फंतोख कइसा? भगवंती का बाप रामवचन झुंझला उठा।
- अच्छा, ई रामधनी जंगल क्यों नहीं जाता? कौन सरग से थैली गिरती है इसके आंगन में?
- बस कुछ नहीं, एक बार बलभर कुटम्मस कर दो। नेतागीरी का सारा नशा उतर जाएगा!
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लालटेन जल रही है। रघुवीर पंडित कुर्सी पर, प्रधान जी चादर ओढ़े खटिया पर और रामधनी दोनों के सामने दीवार से टेक लगाकर मोढ़े पर बैठा है। वह दिसा-फरागत के लिए शाम को नहर की पटरी की ओर निकला था कि तभी अचानक उस पर हमला हुआ। लात-घूंसे के बाद दो-चार लाठियां भी पड़ीं, लेकिन गिरते-पड़ते किसी तरह वह भाग आया। मारने वालों ने बड़ी चालाकी से काम लिया था। अंधेरे में हमलावरों को रामधनी पहचान नहीं सका। कहीं कोई टूट-फूट तो नहीं हुई मगर भितरचोट गहरी है। देह पर गरम हल्दी पीसकर मलनी पड़ेगी। रामधनी की कराह के साथ ही चुप्पी टूटी, पैर सीधा करने में घुटना चिलक गया।
- मैं देख रहा हूं, रामवचन का दिमाग बहुत चढ़ गया है। रघुवीर की ओर प्रधान ने देखा।
- अभी पाला नहीं पड़ा बच्चू का भले आदमी से। रघुवीर अपने थैले में सुपारी टटोलते हुए बोले। उनके हाथ में सरौता बेचैन हो रहा था।
- आह, मालिक! उसी के घर के सामने शाम को सब बैठे थे, आह...। पहलू बदलते हुए रामधनी बोला।
- ठीक है, ठीक। आधी फसल काम करके छोड़ा था, साला। हम प्रधान चच्चा के एतराज को लेकर सोचते थे। दो दिन में पानी का थाह चल जाएगा। कतरी गई सुपारी में चूना-कत्था मिल चुका था। रघुवीर पंडित ने उसे मुंह में झोंक दिया।
- कुछ न कुछ इंतजाम तो करना ही पड़ेगा। ये अच्छे लच्छन नहीं हैं। प्रधान ने अपनी मुहर मार दी।
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जैसे उड़ि जहाज को पंछी पुनि जहाज पर आवै, हफ्ता भर बाद ही सारी बस्ती फिर जंगल में खो गई।
लकू-लकू दुपहरिया। बस्ती में चिरई का पूत नहीं। सिर्फ उत्तर तरफ वाले बगीचे से पेंड़ुकी की आवाज आ रही है। रामवचन की बड़ी लड़की भगवंती के पेट में भूख के मारे ऐंठन हो रही थी। उसने तीन मुटूठी महुआ उबाल कर थोड़ा खुद खाया और बाकी अपनी दोनों छोटी बहनों को खिलाया। फिर चुटकी भर नमक मिला गरम पानी पीकर लेटी पड़ी रही। उसकी दो छोटी बहनें दरवाजे पर  " घर-घरौना "  खेल रही हैं।
तभी अचानक रघुवीर पंडित को अपने घर की ओर आते देख दोनों बच्चियां  सकपका गइं, लेकिन फिर वे उनकी ओर देखने लगीं। रघुवीर दरवाजे पर आकर खड़े हो गए। उन्होंने अपने गमछे से चार रोटियां निकालीं और बच्चियों को देते हुए पूछा- ए छोकरी, भगवंती कहां है?
दोनों रोटी मुंह में काटते हुए एक साथ बोलीं- भित्तर!
वे भीतर घुस गए। दोनों बच्चियों के हाथ में रोटियां थीं।
भगवंती को अजीब लगा। भूख के मारे उसका सिर चकरा रहा था, तब भी वह किसी तरह उठ बैठी।
- ले, रोटी खाएगी? रघुवीर ने भरी  नजर से उसे जांचा।
- मालिक, सबेरे से पेट में कुछ नहीं गया। बड़ी मेहरबानी है आपकी। भगवंती की निरीह आंखों में जैसे जमाने भर की भूख उतर आई।
- अरे, नहीं-नहीं, ई क्या बोलती हो? गाढ़े समय में अपने ही तो काम आते हैं! कहते हुए रघुवीर उसके पास बैठ गए और गमछा खोलकर रोटियां उसके सामने रख दी।
जैसे ही भगवंती का हाथ रोटी पर गया, रघुवीर ने उसे दबोच लिया। जैसे कोई भेड़िया मेमने पर टूट पड़ा हो, भूख से पस्त भगवंती छटपटाई। फिर उसका शरीर पथरा गया। वह चीखी-चिल्लाई नहीं, सिर्फ आंखों से आंसू बहते रहे।
शाम को उसके मां-बाप जंगल से लकड़ी का गटूठर और कर्मनाशा से कुछ मछलियां लेकर थके-मांदे लौटे तो भगवंती को जिंदा लाश की तरह पाया। देखा कि दो-चार रोटियां उसके पास ही पड़ी हैं। पूछा, क्या हुआ? भगवंती की रूलाई फूट पड़ी। दोनों छोटी बच्चियों ने बताया- रघुवीर पंडित आए थे, उन्होंने उन्हें रोटियां खिलाई।
आधी रात को जब सारा गांव सो रहा था, रामवचन के घर से आग की लपटें उठने लगीं। अड़ोसी-पड़ोसी उठकर आग बुझाने दौड़े। पूरा गांव ही जुट गया। प्रधान जी भी पहुंच गए। नहीं दिखाई पड़े तो केवल रघुवीर पंडित। रामवचन के परिवार का कहीं पता नहीं था।
आज तक कोई नहीं जान पाया कि घर में आग लगाकर रामवचन अपने परिवार के साथ उस रात कहां चले गए। अकाल में यह अनहोनी हुई थी गांव में!  ....... जारी
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