यह है विकास का कचरा!

अरविन्द चतुर्वेद : हमारी मानसिकता ही कुछ ऐसी बन गई है कि जब आग लगती है, तब कुआं खोदने की तैयारी करते हैं। अब यही देखिए कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के मायापुरी इलाके में कचरे में पड़े बेहद खतरनाक कोबाल्ट-60 के विकिरण की चपेट में आकर जब कुछ लोग अस्पताल पहुंच गए और सरकार की खूब किरकिरी हो चुकी तो अपने पर्यावरण और वन राज्य मंत्री जयराम रमेश ने बताया है कि सरकार इलेक्ट्रॉनिक कचरे के निस्तारण के लिए प्रभावी नीति बना रही है। इसका एक मतलब तो यही हुआ कि अब तक बगैर किसी नीति-नियम के हम स्व उत्पादित और विदेशों से आयातित कचरे से देश के शहरों-कस्बों और औद्योगिक इलाकों को पाटते चले आ रहे हैं। सवाल यह है कि राजधानी की मायापुरी में कोबाल्ट-60 के गामा विकिरण की चपेट में आकर आधा दर्जन लोग जो अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रहे हैं, अगर बच भी गए तो आधुनिक विकास के उपहार के तौर पर तो उन्हें अपाहिज जिंदगी ही मिलेगी! देश में स्क्रैप के बतौर हर साल जहाजों में भर-भरकर न जाने कितना कचरा हमारे देश में आता है और उसे सस्ते में खरीद कर बहुत सारे उद्यमी रिसाइकिलिंग के जरिए गलाकर नई चीजें बाजार में उतार देते हैं। यह ठीक है कि कच्चे  माल के तौर पर इस "सेकेंड हैंड" का इस्तेमाल करके उपयोगी चीजें बना ली जाती हैं और महंगाई के इस जमाने में शायद वे अपेक्षाकृत सस्ती भी होती हैं, मगर उनके साथ जो खतरनाक कचरा है, उसके नियंत्रण और निस्तारण का उपाय पहले से ही करने के बारे में क्यों नहीं सोचा गया है? हमारी निगाह अगर सिर्फ लाभ और कामचलाऊपन पर रहेगी तो मायापुरी जैसे हादसे भला कैसे रूकेंगे। अपने देश में कामकाज का ढरर ही कुछ ऐसा बन गया है। अब सरकार कह रही है कि इलेक्ट्रॉनिक कचरा देश के सामने अहम चुनौती बनता जा रहा है और ऐसे अपशिष्ट के निस्तारण के लिए सरकार प्रभावी नीति बना रही है। पर्यावरण और वन राज्य मंत्री जयराम रमेश ने राज्यसभा में जानकारी दी कि इलेक्ट्रॉनिक कचरे को लेकर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन ऑफ इन्फॉरमेशन टेक्नोलॉजी ने दो सर्वेक्षण किए थे और दोनों इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि इलेक्ट्रॉनिक कूड़ा देश के सामने चुनौती बनता जा रहा है। कम्प्यूटर, मोबाइल फोन और अन्य इलेक्ट्रॉनिक सामान निश्चित समय के बाद ई-कचरा बन जाते हैं। हम चाहें तो इसे आधुनिक विकास का कूड़ा भी कह सकते हैं। जितना हम विकास करते जा रहे हैं, उतना ही तेजी से यह कूड़ा भी इकटूठा होता जा रहा है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सर्वेक्षण पर आधारित अनुमान के मुताबिक 2005 में देश में 1.47 लाख मीट्रिक टन ई-कचरा निकला था और दो साल बाद 2012 तक बढ़कर यह आठ लाख मीट्रिक टन हो जाएगा। अब सरकार इस कचरे के निपटारे को लेकर नीति बना रही है और मंत्री जी का कहना है कि 15 मई तक यह सामने आ जाएगी। फिलहाल तो देश में रिसाइकिलिंग के लिए 14 इकाइयां पंजीकृत हैं, मगर हाल यह है कि कुल इकाइयों में से 85 से 90 फीसदी अवैध हैं। अभी तक तो ऐसा है कि जैसे कोई चुपके से हमारे-आपके घर के सामने कूड़ा फेंक जाता है, वैसे ही विकसित देश आंखों में धूल झोंककर अपना कचरा हमारे यहां खपाए दे रहे हैं।
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खेल से दूर सदाबहार खेल

अरविन्द चतुर्वेद :
जो खेल होता हुआ दिखता है चाहे वह हॉकी हो या क्रिकेट, उससे अलग एक और सदाबहार खेल चलता रहता है, जो वास्तविक खेलों, उनकी तैयारियों और उनको संचालित-आयोजित करने वाले खेलते रहते हैं। इस सदाबहार खेल के कई रंग हो सकते हैं- पैसे का, भ्रष्टाचारी कारोबार का, काहिली का और लालफीताशाही का भी। क्रिकेट का तो खैर जिक्र करने की ही जरूरत नहीं है, क्योंकि आजकल थरूर के इस्तीफे और ललित मोदी के इकबाल से आईपीएल के कमाल के बारे में वैसे ही बहुत कुछ कहा-सुना जा रहा है और जांच-पड़ताल चल रही है। खेलों से अलग जो सदाबहार खेल चलता रहता है, उसने भारत की विश्वविजयी हॉकी को आज किस गर्त में पहुंचा दिया है, यह भी सभी जानते हैं। लेकिन जरा सोचिए कि जिन राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन को राष्ट्रीय प्रतिष्ठा से जोड़ दिया गया है, उनकी तैयारियों का क्या हाल है? एक साल पहले से ही कहा जा रहा था कि इन खेलों की तैयारियों से जुड़ी विभिन्न एजेंसियों में जैसा तालमेल होना चाहिए, वैसा नहीं है, बल्कि इसके उलट एक एजेंसी दूसरी एजेंसी पर सहयोग न करने की तोहमत लगाने और अड़ंगेबाजी में ज्यादा लगी हुई हैं। ऐसे कामकाजी माहौल में जैसी मंथर गति से राष्ट्रमंडल खेलों के लिए निर्माण कार्य चल रहे थे, उसके मदूदेनजर आशंका जताई जाती रही है कि शायद ही समय से सारी तैयारियां पूरी हो सकें। लेकिन तब राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबान यानी दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित बार-बार यही कहती रहीं कि सबकुछ समय से हो जएगा। लेकिन अब यह सच्चाई सामने आ गई है और सरकार द्वारा आधिकारिक तौर पर कबूल कर लिया गया है कि अक्टूबर से शुरू हो रहे राष्ट्रमंडल खेलों के आधारभूत संरचना का निमार्ण कार्य पूरी गति से आगे बढ़ाए जाने के दावों के बावजूद परियोजनाओं को पूरा करने में देरी हुई है और आवंटित धन का पूरा उपयोग नहीं हो पा रहा है। मानव संसाधन मंत्रालय से जुड़ी स्थाई संसदीय समिति की रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रमंडल खेल से जुड़ी आधारभूत संरचना के निर्माण कार्य में विभिन्न निकायों के बीच समन्वय में और इसे पूरा करने के निध्रारित कार्यक्रम के प्रति प्रतिबद्धता में कमी पाई गई है। समिति ने कहा है कि राष्ट्रमंडल खेल शुरू होने में काफी कम समय रह जाने के चलते जल्दबाजी में निर्माण कार्य किए जाने से अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता के स्तर की गुणवत्ता से समझौता किया जा सकता है। यही नहीं, खिलाड़ियों के अभ्यास, भोजन और उपकरणों आदि से जुड़ी सुविधाओं का विकास भी समय से पीछे चल रहा है। समिति ने अलग-अलग खेलों के आयोजन स्थलों के निर्माण कार्य की मौजूदा स्थिति की बाकायदा जो जानकारी दी है, उसके मुताबिक औसतन 80-90 फीसदी तक काम पूरे हुए हैं। हालत यह है कि राष्ट्रमंडल खेल प्रतियोगिताओं में भाग लेनेवाले हमारे खिलाड़ियों को भी निर्माण में हो रही देरी के चलते अलग-अलग जगहों पर प्रैक्टिस करनी पड़ रही है और उनकी खेल तैयारी जैसे-तैसे चल रही है। संसदीय समिति ने यह भी उजागर किया है कि परियोजनाओं को पूरा करने में देरी के कारण उनकी लागत भी काफी बढ़ गई है। कुल मिलाकर संसदीय समिति की इस सरकारी हिन्दी पर न जाकर यही समझिए कि अंतरराष्ट्रीय स्तर के इस प्रतिष्ठापूर्ण खेल आयोजन की तैयारियों में भी वही परम्परागत सदाबहार खेल खेला जा रहा है, जिसमें पानी की तरह पैसे तो बह जाते हैं लेकिन काम घटिया ढंग का होता है। जहां तक समय का सवाल है तो अगर मंत्री के स्वागत में किसी चमत्कार की तरह रातोरात सड़क बन जाया करती है तो तैयारी भी हो ही जाएगी!   
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बौनों के बीच महापुरुष

अरविन्द चतुर्वेद :
हमारा आचरण इतना क्षुद्रता पूर्ण और व्यक्तित्व इतना बौना होता जा रहा है कि लगता है शायद हम अपने महापुरूषों का सम्मान करने लायक भी नहीं रह गए हैं। कभी राष्ट्रपिता महात्मा गाांधी को पता नहीं क्या समझ कर और किस सनक में खरी-खोटी सुनाई जाती है तो कभी अपने ही प्रेरणा पुरूषों, पुरखों और अग्रजों की पांत में, उनके बगल में अपनी मूर्तियां लगवा कर खुद को "महान"  बना लिया जाता है। इन कारगुजारियों की अपने पक्ष में चाहे कैसी भी व्याख्या कोई करे, लेकिन तमाम पिछड़ेपन और अशिक्षा के बावजूद देश-प्रदेश की जनता इतनी बेवकूफ और भोली नहीं है कि अपने हाथों अपने लिए रची जानेवाली नकली महानता के पीछे छिपी असली क्षुद्रता और बौनापन न पहचान सके। आखिर ऐसे ही बौनेपन के खिलाफ तो लोक प्रचलित मुहावरा है- अपने मुंह मियां मिटूठू बनना! हैरानी तो इस बात पर होती है कि क्या सभी स्मरणीय और वंदनीय महापुरूषों का सम्मान समान भाव और सज्जे हृदय से करना हमें आता ही नहीं। क्या एक महापुरूष के सम्मान के लिए जरूरी है कि दूसरे महापुरूष का अपमान किया जाए? क्या सर्वजन के हित की चिंता सर्वजन की भावनाओं, विचारों और आस्थाओं के अटूट व अनन्य आश्रय बने महापुरूषों को उपेक्षित-अपमानित करके की जा सकती है? उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के गोमती नगर स्थित लोहिया अस्पताल के प्रांगण में स्थापित महान समाजवादी चिंतक डॉक्टर राम मनोहर लोहिया की प्रतिमा तीन सालों से अनावरण की बाट जोहती रही और जो डॉक्टर लोहिया इसी उत्तर प्रदेश क ी माटी के ही सपूत थे, उनके जन्मशती वर्ष में भी यह प्रतिमा सरकारी जड़ता और घोर उपेक्षा के अंधेरे में खामोश पड़ी रही। डॉक्टर राम मनोहर लोहिया देश और प्रदेश के करोड़ों आम लोगों से लेकर बुद्धिजीवियों, लेखकों और विचारकों के भी प्रेरक व्यक्तित्व हैं, इसे क्या उत्तर प्रदेश का मौजूदा निजाम नहीं जानता? फिर ऐसी नौबत क्यों आई कि तीन साल से लोकार्पण के लिए प्रतीक्षित प्रतिमा को लोहिया जयंती पर प्रशासनिक विरोध के बीच समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव को ही माल्यार्पण करके प्रतिमा अनावरण की पहल करनी पड़ी। यह ठीक है कि लोहिया की विरासत पर दावा करने वाली समाजवादी पार्टी और इसके अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव से मौजूदा बसपा सरकार की राजनीतिक प्रतिद्वंदिता है, लेकिन इसका मतलब यह कहां होता है कि लोहिया के विचारों और उनके द्वारा लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए किए गए संघषों से प्रभावित आम लोहिया अनुरागियों की भावनाओं की सरकार कद्र न करे! आज हम जिस स्वाधीन देश में सांस ले रहे हैं, आखिर इसी आजादी की लड़ाई में अगस्त क्रांति के नायकों में डॉक्टर राम मनोहर लोहिया भी शुमार हैं। कौन नहीं जानता कि देश की आजादी और लोकतांत्रिक मूल्यों के निर्माण में गांधी-लोहिया-जयप्रकाश-अम्बेडकर-नेहरू-पटेल के साथ ही और-और अनेक महापुरूष एक-दूसरे के पूरक रहे हैं। ये सभी इस स्वाधीनता और लोकतंत्र के स्थपति हैं। इन सबके विचारों के आलोक में ही चलकर हमारा लोकतंत्र नई-नई मंजिलें पा सकता है। मगर गहरे अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि इस नालायकी का क्या किया जाए जो एक महापुरूष का सम्मान दूसरे महापुरूष का अपमान करके ही करना जानती है। यही बौनापन दिन पर दिन लोकतंत्र को अपाहिज बनाता जा रहा है और हमारे महापुरूषों द्वारा देखा गया सर्व समावेशी लोकतंत्र का सपना क्षत-विक्षत पड़ा हुआ है।
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इसे कहते हैं चिराग तले अँधेरा!

अरविन्द चतुर्वेद :
कहते हैं कि यह ग्लोबल समय है और सूचना क्रांति के चलते दुनिया सिमट कर बहुत छोटी हो गई है। अपने देश ने भी कम ग्लोबल तरक्की नहीं की है और सूचना तकनीक के मामले में तो कहा जाता है कि हमने दुनियाभर में झंडे गाड़ दिए हैं और परचम फहरा रहे हैं। लेकिन विडम्बना देखिए कि दिल्ली में बैठी हमारी सरकार को ऊबड़-खाबड़ भूगोल वाले अपने देश में कुल कितने जिले और जिला पंचायतें हैं, इसकी ठीक-ठीक और ठोस जानकारी नहीं है। इसी को कहते हैं चिराग तले अंधेरा। और वह भी ऐसा चिराग कि जिसकी रोशनी का तो गांवों में पता नहीं है मगर उसके नीचे अंधेरा ही अंधेरा फैला हुआ है। आखिर कहां है वह सुपर कम्प्यूटर और महान सूचना प्रौद्योगिकी, जो इतनी मोटी जानकारी भी मुहैया नहीं करा पाती। लेकिन नहीं, यह कमी सूचना प्रौद्योगिकी की नहीं, बल्कि हमारे कामकाज करने के तरीके की है। इस बात पर तो सिर्फ माथा ही पीटा जा सकता है कि केंद्र सरकार के पंचायती राज मंत्रालय को यह नहीं मालूम है कि अपने देश में कुल कितनी जिला पंचायतें हैं। ग्रामीण विकास से सम्बंधित संसद की स्थाई समिति ने पंचायती राज मंत्रालय के बारे में अपनी रिपोर्ट में आश्चर्य जताया है कि मंत्रालय को पता ही नहीं है कि देश में आज की तारीख में कुल कितनी जिला पंचायतें हैं। भारतीय जनता पार्टी की वरिष्ठ सांसद सुमित्रा महाजन की अध्यक्षता वाली इस समिति की रिपोर्ट लोकसभा में पेश की गई, तब पंचायती राज मंत्रालय की इस मासूमियत का सच सामने आया। पंचायती राज मंत्रालय का कहना है कि पंचायतों की संख्या के सम्बंध में जो सूचना है, वह 2007-08 के दौरान प्रदेश पंचायतों पर हुए एक शोध के परिणामों के आधार पर है, जबकि जिलों और ग्रामों की संख्या के बारे में जानकारी पेयजल आपूर्ति विभाग से ली गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सुपर कनेक्टिविटी और सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में मंत्रालय अब भी उन्हीं सूचनाओं का अचार डाले हुए है, जो तीन साल पुरानी हैं यानी 2007-08 के दौरान यह जुटाई गई थीं। हमारे विभिन्न मंत्रालयों में परस्पर कितना तालमेल और आदान-प्रदान होता है, यह भी इसी से पता चल जाता है कि पंचायती राज मंत्रालय के मुताबिक देश में 608 जनपद हैं, जबकि ग्रामीण विकास मंत्रालय ने ठीक एक साल पहले यानी 1 अपै्रल 2009 तक के आधार पर बताया है कि देश में कुल 619 ग्रामीण जिले हैं। यह मामला संख्या गिनने और गणित-ज्ञान बढ़ाने का कतई नहीं है, बल्कि इससे बेहद गम्भीर और संवेदनशील चूक उजागर होती है, क्योंकि ठोस तथ्यों और सूचनाओं के आलोक में ही तो योजनाएं और कार्यक्रम बनाकर उन पर अमल किया जा सकता है। आखिर अंधेरे में तो विकास के तीर नहीं चलाए जा सकते! यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि पंचायती राज मंत्रालय की लापरवाही या उदासीनता या फिर काहिली ऐसे वक्त की चीज है, जब वर्ष 2009-10 को "ग्राम सभा वर्ष" घोषित करके पंचायती राज व्यवस्था को अधिक सक्षम, सुचारू और प्रभावकारी बनाने का संकल्प लिया गया था। ऐसी लचर स्थिति में जाहिर है कि संसद की स्थाई समिति ने मंत्रालय की न सिर्फ खिंचाई की है, बल्कि यह भी कहा है कि प्रदेशों को ग्राम सभा बैठकें आयोजित करने के लिए सर्कुलर जारी करने और महज "ग्राम सभा वर्ष" घोषित करने से ही मंत्रालय को दिए गए पंचायती राज व्यवस्था के काम और दायित्व पूरे नहीं हो जाते। इस इकलौते प्रसंग को ही आईना बनाएं तो आसानी से समझ सकते हैं कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज का सपना आजादी के छह दशक बाद भी क्षत-विक्षत क्यों है। हम चाहे ग्राम सभा वर्ष मना लें या फिर महात्मा गांधी के "हिंद  स्वराज" की शताब्दी मना लें, लेकिन अगर संकल्प और सदूइच्छाओं को पूरा करने की सजगता और पराक्रम हमारे भीतर नहीं होगा तो सबकुछ धरा का धरा रह जाएगा। आखिर जिसे पाखंड कहते हैं, वह इससे अलग कोई चीज तो नहीं होती है, न!
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मोहन कुजूर का चाकू

अरविन्द चतुर्वेद :
हेड ऑफिस के सामने वाले लॉन में मेन गेट के ठीक बायीं ओर सस्ते नीले जींस की पैंट और गहरे लाल रंग की बनियान पहने वह जो एक काला-कलूटा तंदुरूस्त-सा लड़का बैठा हुआ है- वह है मोहन कुजूर। आप उसकी उम्र के बारे में क्या सोचते हैं- चौबीस-पच्चीस साल? आप धोखा खा गए, न! दरअसल, उसकी उम्र मुश्किल से सत्रह-अटूठारह साल है। यह जो पठारी आदिवासी इलाका है, झारखंड के छोटा नागपुर का, यहां आदमी, जंगल, पठार और कई दूसरी चीजों के बाबत आप दस तरह के धोखे खा सकते हैं- अगर आप आदिवासी नहीं हैं या आदिवासी जिंदगी को आपने करीब से नहीं देखा है। यह दिक्कत उन लोगों के साथ ज्यादा है, जिन्हें पटना-लखनऊ-दिल्ली से सरकार द्वारा काबिलियत देखकर यहां किसी कारखाना, प्रोजेक्ट या दूसरे महकमों में भेजा जाता है।
रांची शहर, अपनी कम्पनी और खुद के बारे में आप ठीक ही सोचते हैं। इस पठारी शहर का क्लायमेट तंदुरूस्ती के लिए बहुत अच्छा है। कम्पनी में अगर आपका परफारमेंस बहुत अच्छा रहा तो आपकी गुडविल बनते देर नहीं लगेगी। आप और ऊपर पहुंच सकते हैं। बस, कम्पनी को मुनाफा देते जाइए या अपनी तरह से मुश्किलों की रिपोर्ट करते हुए घाटा पहुंचाइए। कोई फर्क नहीं पड़ता। अव्वल तो आपकी शिकायत यहां से दिल्ली तक पहुंच नहीं सकती, वैसे भी दिल्ली से इस जंगल पहाड़ में बार-बार आने की कोई जहमत उठाएगा नहीं। आपका बेटा अगर इस छोटी-सी जगह में रहते हुए कभी बोर होने की शिकायत करे तो आप उसे समझा सकते हैं कि यहां से फ्लाइट पकड़ो और चंद घंटों में दिल्ली-मुम्बई-कोलकाता, जहां जी चाहे, जाकर दस-पांच दिन घूम-फिरकर आ सकते हो। आपकी मेम साहब को यहां का क्लायमेट कुछ ज्यादा ही अच्छा लग रहा हो तो कोई अच्छी-सी जगह देखकर बंगला बनवा लीजिए। यहां आप क्या नहीं कर सकते? सब कुछ तो आपके हाथ में है।
मिस्टर नरेंद्र मल्होत्रा का भी कुछ ऐसा ही ख्याल था, शुरू-शुरू में यहां के बारे में। आने के साथ ही यहां के मौसम और माहौल को उन्होंने काफी खुशगवार पाया था। दिल्ली से चलते वक्त नई जगह को लेकर उनके दिमाग में जो एक स्वाभाविक तनाव था, वह यहां पहुंचने के साथ ही काफूर हो गया। उन्होंने चैन की सांस ली थी और यह सोचकर खुश हो गए कि दिल्ली जैसे महानगर की चिल्लपों, भागदौड़ और धक्कामुक्की से उन्हें निजात मिल गई। उन्हें जो बड़ा-सा बंगला, लॉन, गैरेज, नौकरों के क्वार्टर वगैरह मिले थे, उसमें अनको जीवन की तमाम उपलब्धियां आराम से पसरी हुई नजर आई थीं। उन्होंने महसूस किया था कि दिल्ली में रहते हुए किस तरह वे एक मशीन हो गए थे। और, इसे यहीं आकर महसूस भी किया जा सकता था।
हेड ऑफिस को अपने मुताबिक बनाने में मिस्टर नरेंद्र मल्होत्रा को कोई झंझट नहीं झेलनी पड़ी थी। ठीक उसी तरह से, जैसे एक चेयरमैन-कम-मैनेजिंग डायरेक्टर को होना चाहिए था, वे हुए। सबने उनका सहज ढंग से स्वागत किया। वे एक ऐसे जहाज के कप्तान थे जिसकी बागडोर उनके हाथ में थी और उसे अपनी तरह से जिधर चाहे, वे ले जा सकते थे। अलबत्ता, यह समुद्र उनका जाना-पहचाना नहीं था लेकिन जहाज तो उनका अपना था और इस पर उन्हें पूरा भरोसा था।
मल्होत्रा साहब ने पिछले तीन साल यहां बड़े मजे में गुजारे हैं- तनाव मुक्त, स्वतंत्र और उल्लासपूर्ण। लेकिन, इधर पिछले चंद महीनों से उनके मन में एक अव्यक्त-सी बेचैनी ने घर बना लिया है।
इसकी वजह है, मोहन कुजूर। वही मोहन कुजूर, जो इस समय लॉन में चुपचाप टांगें पसारे अपने आप में गुमसुम बैठा है। आप सोच रहे होंगे कि भला इतने बड़े अफसर की निश्चिंत-सी जिंदगी में मोहन कुजूर जैसा अदना-सा टेम्परेरी चपरासी क्या खलल पैदा करेगा? लेकिन नहीं, अगर आप ऐसा सोचते हैं तो फिर धोखा खा रहे हैं, जैसे उसकी उम्र के बारे में अभी खा चुके हैं।
अब यही देखिए कि इस वक्त साढ़े दस बज रहे हैं, हेड ऑफिस खुल गया है तो इस समय मोहन कुजूर को इस तरह लॉन में तो नहीं बैठे होना चाहिए था। होना यह चाहिए था कि वह किसी काम में मशगूल होता। अगर किसी बाबू या साहब का पान-सिगरेट लेने गया होता, तब भी ठीक था। और नहीं तो, उसे कम से कम इस बात के लिए चौकन्ना तो रहना ही चाहिए था कि हेड ऑफिस के सबसे बड़े बॉस के आने का यही टाइम है।
मोहन कुजूर की नीली जींस और लाल बनियान दूर से ही सब पहचान लेते हैं। इसकी कोई खास वजह नहीं है। दरअसल, उसके पास यही एक ठीकठाक कपड़ा है, जिसे पहन कर वह ऑफिस आ सकता है। कम से कम इस बारे में किसी को आज तक ऑफिस में धोखा नहीं हुआ है कि नीली जींस पैंट और लाल बनियान वाला लड़का मोहन कुजूर के अलावा और भी कोई हो सकता है।
मल्होत्रा साहब की कार आई तो दरबान ने झटपट गेट खोल दिया। कार गेट से अंदर होते हुए जरा धीरे हुई और फिर मुड़कर अपनी सही जगह पर खड़ी हो गई। मल्होत्रा साहब ने गौर किया कि उनके आने पर सभी अपने ढंग से सावधान हो गए हैं, केवल मोहन कुजूर को छोड़कर। वह लॉन में उसी तरह अपने आप में गुमसुम निश्चिंत बैठा है। मल्होत्रा साहब की निगाह उसकी तरफ पड़ी तो उनके मन की सोई बेचैनी जाग गई। माथे पर हल्की-सी शिकन
उभरी मगर उसे उन्होंने झटक दिया। वे अपने चेम्बर में दाखिल हो गए।
रामदेव प्रसाद बाबू ऑफिस रूम से निकल कर बरांडे में आए तो मोहन कुजूर को लॉन में देखा। उन्होंने मोहन कुजूर को आवाज देकर बहन की एक भदूदी-सी गाली दी और बुलाया। उन्हें पान की तलब हो रही थी और ऑफिस के लिए चाय भी मंगानी थी।
मोहन कुजूर आहिस्ता से उठा और रामदेव प्रसाद बाबू के सामने पहुंच कर चुपचाप खड़ा हो गया।
- साला, मुंह क्या देखता है। जा, साहब के चेम्बर में टेबुल पर एक गिलास पानी रख दे।’ रामदेव बाबू ने कहा और जेब से दस रूपए का मुड़ा-तुड़ा नोट निकाल कर उसकी तरफ बढ़ा दिया- कैंटीन में ऑफिस के लिए चाय बोलकर मेरा पान लेते आना, समझा! जरा जल्दी से।’ और, इस बार रामदेव बाबू ने मोहन कुजूर की च्मां को याद’ किया, जो कब की स्वर्ग सिधार चुकी थी।
मोहन कुजूर ने चुपचाप पैसा लिया और चल दिया। मल्होत्रा साहब के चेम्बर में जब वह पानी भरा गिलास लेकर दाखिल हुआ तो उन्होंने फाइल से नजर उठाकर मोहन कुजूर के चेहरे पर गड़ा दी, मगर वहां कुछ न था। मोहन कुजूर ने अपनी आदत के मुताबिक उन्हें सलाम नहीं किया था। मल्होत्रा साहब ने उसकी आंखों में झांककर कुछ पढ़ना चाहा, मगर उन्हें उसकी ठंडी आंखों की गहराई अथाह लगी। तब तक मोहन कुजूर पानी भरा गिलास टेबुल पर रख चुका था। फिर वह चेम्बर से बाहर निकल गया। मोहन कुजूर की आंखें इतनी गहरी क्यों हैं? उसका चेहरा इतना निर्विकार क्यों है? सोचते हैं, मल्होत्रा साहब। अब उनका मन फाइल में नहीं लगता। वे फाइल बंद कर देते हैं और गिलास उठाकर पानी पीने लगते हैं।
मोहन कुजूर का बाप इसी हेड ऑफिस में अभी पिछले साल तक दरबान था। उसकी साध थी कि किसी तरह पेट काटकर भी वह मोहन को पढ़ाए-लिखाए और कम से कम उसे बाबू बनता हुआ देख ले। मगर वैसा कुछ नहीं हुआ। मोहन कुजूर ने मैट्रिक पास तो कर लिया मगर डेढ़ साल की ठोकरों ने उसे जमाने भर की ऊंच-नीच दिखा दी। गांव भर में वह तेज-तररर, समझदार और निर्भीक लड़का माना जाता था। उसने अपने इलाके के रिजर्व सीट वाले एमएलए के चुनाव में श्रीमती उर्मिला बरपेटा के लिए क्या नहीं किया था। रात-दिन एक करके उसने पोस्टर चिपकवाए। खुद छोकरों की टोली लेकर गांव-गांव जाकर दीवारों पर चुनाव चिन्ह बनाए और नारे लिखे। उसे पूरी उम्मीद थी कि श्रीमती बरपेटा जीतने के बाद अगर नौकरी नहीं दिलाएंगी तो कम से कम पच्चीस हजार रूपए वाला सरकारी कर्ज दिलाकर रोजगार का कोई न कोई जुगाड़ जरूर बना देंगी।
मगर, जब बेरोजगार मोहन कुजूर को पच्चीस हजार रूपए का शिक्षित बेरोजगारों को स्वावलम्बी बनाने वाला सरकारी कर्ज भी नहीं मिला तब गांव-देहात में उसकी बड़ी भदूद हुई। गांव में उसका मन नहीं लगा। आखिर में कोई रास्ता न देखकर रिटायर होते वक्त उसके बाप ने रामदेव प्रसाद बाबू के सामने हाथ जोड़कर कहा- इस आवारा छोकरे का उद्धार करा दीजिए, हजूर!
मोहन कुजूर ने अपने बूढ़े बाप के साथ तब पहली बार रामदेव प्रसाद बाबू को देखा था- मिचमिची आंखों और चिकनी खोपड़ी वाले, रामदेव बाबू को। बाप के कहे मुताबिक मोहन कुजूर ने तब जो पहला काम किया था, वह यह था कि लपक कर रामदेव बाबू का पान ले आया था।
उसके बाद से मोहन कुजूर लगातार रामदेव बाबू से अपनी मां और बहन के अंगों के बखान के साथ गाली का आशीर्वाद पाते हुए पान और चाय ला रहा है, जिन अंगों को उसने देखा नहीं। अपनी गालियों में रामदेव बाबू उन अंगों का जिक्र करते हुए जैसा खाका खींचते हैं, उस सबको सुनकर मोहन कुजूर के तन-बदन में आग जलने लगती है। मगर कुछ भी बोले बिना वह चुपचाप चाय-पान लेने चल देता है, जैसे इस समय चला गया।
मोहन कुजूर की चुप्पी और गुमसुम रहने वाले स्वभाव के कारण ऑफिस के सभी बाबुओं का मौखिक रूप से मोहन कुजूर की मां और बहन पर हक हो गया है। उसको यह नौकरी कतई पसंद नहीं है। वह गांव लौट जाना चाहता है या यूं ही शहर में आवारा बन जाना चाहता है। अगर वह ऐसा नहीं कर पा रहा है तो इसकी सिर्फ एक ही वजह है कि सबेरे-सबेरे ऑफिस में झाड़ू लगाने वाली लड़की इतवारी अकेली पड़ जाएगी। उसने अपनी आंखों से एक दिन यह देखा था कि रामदेव बाबू ने इतवारी को झाड़ू लगाते वक्त दबोच लिया था और उसे बाथरूम की ओर घसीटने की कोशिश कर रहे थे। मोहन कुजूर के अचानक वहां पहुंच जाने से हालांकि इतवारी उस दिन छूट गई थी, मगर जब-जब मोहन कुजूर नौकरी छोड़ने का इरादा बनाता है, तब-तब उसकी आंखों के सामने वही दृश्य घूम जाता है और वह भीतर ही भीतर ध्वस्त हो जाता है। जब से मोहन कुजूर ने वह दृश्य देखा है, तब से उसके ऊपर चुप्पी का साया और गहरा हो गया। उसकी मां-बहन को याद करते वक्त ऑफिस के सभी बाबू उसे आदमी की शक्ल में भेड़िया नजर आते हैं। वह सोचता है, सभी रामदेव बाबू हैं। ऑफिस में उन सबके बीच रहते हुए उसका दम घुटने लगता है। लगता है कि दिमाग की नसें फट जाएंगी। उसे हर वक्त श्रीमती उर्मिला बरपेटा एमएलए पर गुस्सा आता है। अगर वे मोहन कुजूर को पच्चीस हजार रूपए वाला कर्ज दिलाकर कोई रोजगार करा देतीं तो उसे यह सब न देखना-सुनना पड़ता। वह सोचता है, बेचारी इतवारी...।
इसी उधेड़बुन में मोहन कुजूर सड़क पर पान वाली गुमटी के सामने खड़ा है। कैंटीन में ऑफिस के लिए चाय बोले उसे पंद्रह मिनट से ज्यादा हो रहे हैं। वह जानता है कि चाय पीने के बाद पान की तलब में रामदेव बाबू उसकी मां-बहन को याद कर रहे होंगे। वह ऐसा मौका नहीं भी दे सकता था, अगर फुटपाथ की दुकान से चाकू न खरीदने लगता। वह पान लेकर लौटते वक्त इस बात से अपने मन को तसल्ली देता है कि बात-बेबात उसकी मां-बहन को याद करना रामदेव बाबू की तो आदत ही बन चुकी है।
वह दाएं हाथ में पान लिए बाएं हाथ से पैंट के पीछे वाली जेब को थपथपाता है, जिसमें चाकू है। मोहन कुजूर इस बार गांव जाएगा तो यह चाकू अपनी बहन को दे देगा। घर में कोई अच्छा चाकू भी नहीं है। उसे याद है कि कभी शिकार वगैरह पकाने से पहले घर में कितनी दिक्कत होती है। शिकार काटने के लिए पड़ोसी से चाकू मांगना पड़ता है।
मोहन कुजूर इत्मीनान के साथ ऑफिस में घुसता है। बंधे हुए पान के साथ बची हुई रेजगारी रामदेव प्रसाद बाबू की टेबुल पर रख देता है। बिना कुछ बोले और बिना कुछ सुनने का इंतजार किए वह लौटता है। रामदेव बाबू उसकी तरफ देखते भर हैं, कुछ बोलते नहीं। वे पान उठाकर मुंह में डालते हैं। मोहन कुजूर बरांडे में आकर खड़ा हो जाता है।
मोहन कुजूर के चाकू पर सबसे पहले रामदेव बाबू की ही नजर पड़ी। वे पान की पीक थूकने के लिए बाहर निकले और थूक कर लौटते वक्त जैसे ही मोहन कुजूर को कुछ कहने को हुए, उसे एक खुले हुए चाकू का मुआयना करते हुए पाया। उनकी मुखाकृति अप्रत्याशित रूप से बदल गई। आंखों में अविश्वास का भाव तैर गया। वे कुछ नहीं बोल सके। बस, जरा-सा ठिठके और ऑफिस रूम में घुस गए।
लंच टाइम तक ऑफिस में मोहन कुजूर का चाकू सनसनीखेज ढंग से सबकी जबान का चर्चा बन गया। रामदेव बाबू ने खुद ही मल्होत्रा साहब के चेम्बर में जाकर उन्हें यह खबर दी कि दरअसल मोहन कुजूर कितना खतरनाक आदमी है। लोगों ने कहा- आदिवासी को समझना वाकई आसान नहीं है। एक आदमी बोला- मेरे तो बाल पक गए लेकिन आजतक नहीं समझ सका कि किस बात पर कब एक आदिवासी खुश हो जाएगा और कब किस बात पर गुस्सा हो जाएगा। दूसरा बोला- अखबारों में नहीं पढ़ते, फलां ने अपनी बीवी को मार डाला तो फलां ने अपने बाप का मर्डर कर दिया! ये आदिवासी ऐसे होते ही हैं। बात-बेबात जान लेने-देने पर उतारू हो जाते हैं। तीसरा बोला- मुझे तो यह छोकरा शुरू से ही काफी खतरनाक लगता था। कितना चुप रहता है। हंसता भी नहीं और न किसी को सलाम करता है।
मल्होत्रा साहब ने भी जब मोहन कुजूर के चाकू वाली बात सुनी तो सकते में आ गए। एक तो वैसे ही उसका व्यवहार रहस्यपूर्ण है, दूसरे उसने चाकू खरीद लिया है- जरूर वह अनसोशल एलीमेंट है। अब इस टेम्परेरी चपरासी के बारे में सीरियसली सोचना होगा- मल्होत्रा साहब सोचते हैं। मान लो, अगर उसे नौकरी से निकाल ही दिया जाए तो? नहीं-नहीं, यह और भी खतरनाक होगा। तब तो मोहन कुजूर के मन में जरूर ही बदले की आग भड़क उठेगी! क्या उसकी नौकरी परमानेंट करके उसे खुश नहीं किया जा सकता? दिमाग में यह बात आते ही मल्होत्रा साहब का तनाव थोड़ा कम होता है। वे टेबुल पर रखी घंटी बजा देते हैं। उनका अर्दली आता है तो बोलते हैं- जरा मोहन कुजूर को भेजो तो!
अर्दली मल्होत्रा साहब के चेहरे का भाव देखकर यह जानने की कोशिश करता है कि साहब मोहन कुजूर के बारे में क्या फैसला करने वाले हैं। वह चेम्बर से लौटते वक्त सोचता है कि बस, मोहन कुजूर की छुटूटी हो गई।
मोहन कुजूर हमेशा की तरह मल्होत्रा साहब के चेम्बर में दाखिल होता है- हमेशा की तरह चुपचाप, हमेशा की तरह अबूझ और रहस्यपूर्ण।
मल्होत्रा साहब उसे गौर से देखते हैं, मुस्कराते हैं। आत्मीयता पूर्वक पूछते हैं, क्या हाल है, मोहन! मजे में तो हो?
मोहन कुजूर के चेहरे पर कोई भाव नहीं आता। वह सिर्फ एक अक्षर के शब्द में जवाब देता है- हूं।
मल्होत्रा साहब कहते हैं- मोहन, तुम्हें ऑफिस में काम करते छह महीने हो गए। मैंने तुम्हें एक अच्छी खबर देने के लिए बुलाया है। मैं सोचता हूं, तुम्हें अब परमानेंट कर दिया जाए।
मोहन कुजूर के चेहरे पर कोई खुशी का भाव नहीं आता। वह हमेशा की तरह गम्भीर बना रहता है। मल्होत्रा साहब हैरान हो जाते हैं। बोलते हैं- ठीक है, जाओ। मन लगाकर काम करो।
वह चुपचाप चेम्बर से निकल जाता है। मल्होत्रा साहब गौर से देखते हैं, पैंट के पीछे वाली जेब उठी हुई नजर आती है। उसी में वह खतरनाक चाकू है, शायद। मल्होत्रा साहब परेशान हो जाते हैं- कैसा है यह आदमी? इसे परमानेंट होने में भी कोई खुशी नहीं है।
तभी रामदेव बाबू हाथ में फाइल लिए चेम्बर में घुसते हैं। जरूरी कागजों पर दस्तखत करानी है। रामदेव बाबू का इस वक्त आना मल्होत्रा साहब को अच्छा ही लगा। उन्होंने रामदेव बाबू को सामने की कुर्सी पर बैठा लिया।
मल्होत्रा साहब ने सलाह-मशविरे के अंदाज में पूछा- रामदेव बाबू! मोहन को परमानेंट करने के बारे में आपकी क्या राय है?
रामदेव बाबू ने समझा कि वाकई यह कोई आसान मामला नहीं है। उन्होंने बहुत सोच-समझ कर कहा- सर, गलती तो मुझसे शुरू में ही हो गई, जब इसके बाप की प्रार्थना पर इसे रख लिया गया। पहले पता नहीं था कि यह इतना खतरनाक छोकरा होगा। मुश्किल तो यही है कि परमानेंट हो जाने पर परमानेंट खतरा हो जाएगा। मान लीजिए कि आज परमानेंट होने से खुश हो भी जाए तो क्या भरोसा कि कल किसी बात पर नाराज न हो!
- तो क्या सोचते हैं, इसे ऐसे ही टेम्परेरी रहने दिया जाए?
- कोई हर्ज नहीं है, सर। कभी भी निकाला तो जा सकता है।
- हां, ठीक ही कहते हैं। परमानेंट किए जाने की खबर पर भी उसे खुशी नहीं हुई, तब फिर परमानेंट करने का फायदा ही क्या है।
- ये आदिवासी ऐसे ही होते हैं, सर। इन्हें समझना आसान नहीं है।

इनका विश्वास तो किया ही नहीं जा सकता।
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मेरे गाँव की कहानी/दस : अकाल में अनहोनी

अरविन्द चतुर्वेद :
वे सालभर पहले आए थे " बारहगांवा " के इस हेकड़ीबाज गांव में। इलाके भर के बारह गांवों में लोग पीठ पीछे कहा करते थे- यह गांव तो हरहा सांड़ है, भइया! किसी के भी खेत में मुंह मारता फिरता है, और मना करो तो ऊपर से सींग भी चलाता है। लेकिन क्या मजाल कि मुंह पर " पालागी चौबेजी "  के अलावा कोई कुछ मीन-मेख निकाल सके। अब की बात और है। आज हवा इस इलाके के महुआ के पेड़ों को झिंझोड़ने लगी है, हर आदमी के बगल में बाल उग रहे हैं, तब बात कुछ और ही थी।
झकू झकू अकाल। कर्मनाशा नदी की ठठरी निकल आई है। महुआ-वन में पेड़ों के नीचे चुर्र-मुर्र करते सूखे पत्ते। खेतों में फसल पियराते-पियराते दम तोड़ चुकी है। मवेशियों के झुंड खुला छोड़कर खेतों में हांक दिए जाते हैं। घर में एक दाना नहीं आना है तो मवेशियों का ही पेट भरे। नहर के दोनों किनारे की फसलें शायद थोड़ी-बहुत बचाई जा सकती थीं, लेकिन नगवा बांध का पानी दूसरी नहर से मंत्री जी के गांव-इलाके की ओर दौड़ाया जा रहा है। दूर-दूर तक सुखाड़ ही सुखाड़। बारहगांवा का यह हरहा गांव अकाल में पैर टूटे सांड़ की तरह थौंसकर बैठ गया है। काम-धाम, मेहनत-मजूरी कुछ नहीं बची गांव में। सारी बभनई निकल गई मालिक टोला की।
महीने भर से सुना जा रहा है, सरकारी टेस्ट वर्क शुरू होगा। मगर वह जब होगा, तब होगा। पेट का गडूढा तो रोज-रोज भरना पड़ता है। सुबह होते-होते समूची दलित बस्ती खाली हो जाती है। दुसाध, चेरो, धोबी, कहार, सबके सब पहर भर रात रहते जंगल में घुसते हैं तो शाम को सूरज का मुंह फूंककर ही गांव में पैर रखते हैं। जंगल में भी क्या मिलेगा? कर्मनाशा की मछलियां, नदी में मिलने वाले सूखे जंगली नालों के मुहाने पर जमीन खोदने पर सूरन-ओल जैसी जंगली गठिया, कभी-कभी खरगोश, पाकड़ के फूल, गूलर, पीपल और बरगद के पके-अधपके फल...थोड़ा-बहुत महुआ का सहारा है... यही सब उबाल कर, भूनकर पेट का गडूढा भरो। बार-बार भूख लगे तो पानी पीयो। कोई-कोई जलावन की लकड़ियों का गटूठर सिर पर लादे रामगढ़ बाजार निकल जाते हैं- वहां भी ठीक से पैसा तो क्या मिलेगा, औने-पौने दाम पर या पेटभर रोटी-भात के बदले भी लोगों के दरवाजे गटूठर पटक देते हैं। चार रोटी के बदले कोई घंटा-दो घंटा, थोड़ी-बहुत बेगार भी करा ले तो कर देते हैं।
..... ...... ......

ब्लॉक ऑफिस से खबर मिली है कि अकाल राहत का सरकारी राशन आ गया है। गांव में हर भूमिहीन परिवार में कुल कितने मेंबर हैं, उसी के हिसाब से खैरात बांटी जाएगी। रजिस्टर में सबका नाम लिखकर पूरी लिस्ट बनाकर ब्लॉक पर जमा करना है।
मालिकों के बाभन टोला में, प्रधान जी ने अपने दरवाजे से ही पड़ोसी रघुवीर पंडित को हांक लगाई- हे रघुवीर...! अरे, कहां हरदम घर में घुसे रहते हैं। जरा इधर आइए, न!
रघुवीर अपने ओसारे में रामधनी के साथ चिलम जगा रहे थे। ऊंची आवाज में जवाब दिया- बस चच्चा, पांच मिनट में आते हैं।
प्रधान जी की लिखापढ़ी का सारा काम दसवीं फेल रघुवीर ही करते हैं और रामधनी उनका अपना आदमी है। दोनों आ गए तो प्रधान जी रजिस्टर लेकर उनके साथ अपनी बैठक में चले गए। सरकारी खैरात बांटने को लेकर रघुवीर पंडित और रामधनी के साथ बात-विचार शुरू हुआ। रामधनी प्रधान का अपना ही आदमी है, सो खुलकर बात होने लगी।
- पहिले तो अपने आदमी-जन का नाम लिख लिया जाए। रघुवीर पंडित ने कहा।
प्रधान जी ने टोका- बात समझते नहीं हैं, फट से बोल देते हैं। अरे भाई, राशन पूरे गांव में बंटना है। साथ में ब्लॉक का कोई सरकारी मुलाजिम भी रहेगा। कौन अपने घर से जा रहा है? गड़बड़ नहीं होना चाहिए। राशन बंटते समय कोई हल्ला-गुल्ला हो, यह अच्छी बात थोड़े है।
- तब एक किनारे से शुरू किया जाए।
- हां। पहिले पूरब की दलित बस्ती, फिर चेरवान, दुसधान, धोबी-कहार-नाई, छूटे-छटके सबको लिखते जाइए।
- तो ठीक है, रामधनी बोलते जायं, मैं लिखता जाता हूं।
- हां, मगर ऐसा भी नहीं कि हजार नाम का पोथी-पतरा तैयार कर दीजिए। बस, परिवार के मुखिया का नाम लिखिए और उसके आगे लिख दीजिए परिवार में चार मेंबर कि छह मेंबर। अब जैसे रामधनी अपने आदमी हैं तो परिवार में पांच मेंबर लिखिए चाहे आठ मेंबर, इतना चलेगा। इसी तरह रामधनी का एक और भाई शिवधनी और रामगोपाल के भाई शिवगोपाल का परिवार दिखा दीजिए। इसमें कोई हर्ज नहीं।
- मगर राशन लेते समय शिवधनी और शिवगोपाल कहां से आएंगे? रघुवीर पंडित ने पूछा।
प्रधान ने कहा- पढ़-लिखकर भी रह गए घामड़ के घामड़। अरे, दोनों के बड़े लड़के क्या उनके भाई नहीं हो सकते? लड़के जब बड़े हो जाते हैं तो बाप के भाई ही हो जाते हैं! वही दोनों शिवधनी और शिवगोपाल के परिवार का राशन ले लेंगे।
तीसरे दिन प्रधान जी के दरवाजे पर मेला-सा लग गया। नाश्ता-पानी के बाद ब्लाक के मुलाजिम के साथ कुर्सी लगाकर प्रधान जी बैठ गए। रघुवीर पंडित रजिस्टर से एक-एक नाम पुकारते और लोग सामने आ जाते। रामधनी और रामगोपाल बोरे से राशन निकाल कर हर परिवार के मेंबर के हिसाब से तौलकर देते जा रहे थे।
चेरो टोले के लोगों की ओर से थोड़ी हलचल हुई :
एक आदमी बोला- ई तो खुला अन्याव हो रहा है। छह परानी पर दस किलो पंद्रह दिन। राशन है कि हींग-जीरा की छौंक!
- का हो रामधनी, एही लिए नेता भए हो?
- वाह रे रामधनी!
- हाय बप्पा!
आखिर ब्लॉक से आया मुलाजिम बोल पड़ा- हल्ला नहीं, हल्ला नहीं। सब सरकार का नियम-कायदा है। भीड़ मत लगाओ। अपना- अपना राशन लेकर यहां से एक-एक आदमी निकलते जाओ।
दोपहर दो बजे तक खैरात बांटी जा चुकी थी। जलते-भुनते, बड़बड़ाते सब अपने-अपने घर चले गए। दलित बस्ती से लेकर चेरवान और दुसधान तक सब जगह एक साथ चूल्हे जल रहे हैं। एक साथ छप्परों के ऊपर धुआं उठ रहा है।
.....      .....     .....     ......    ......
वाह रे धरती! वाह रे अकास!
एक घड़ी दिन और होगा, नहीं, आधा घड़ी। शाम हो रही है। इससे क्या? मामला गरम है। स्साला रामधनी नेता बना है। भगवंती के घर के पास खाली जगह में लोग बैठे हैं। सारा दुसधान और चेरवान रामधनी पर जल-भुन रहा है।
- सब गुन रामधनी का है।
- रघुवीर से मिलकर लगता है परधान से कुछ गांठ लिया है।
- चलो अब जो मिला, उसी पर संतोख करो। शिवबरन बुढ़ऊ बोले।
- कइसा संतोख? छह परानी का पेट है, संतोख-फंतोख कइसा? भगवंती का बाप रामवचन झुंझला उठा।
- अच्छा, ई रामधनी जंगल क्यों नहीं जाता? कौन सरग से थैली गिरती है इसके आंगन में?
- बस कुछ नहीं, एक बार बलभर कुटम्मस कर दो। नेतागीरी का सारा नशा उतर जाएगा!
..... ..... ..... .....
लालटेन जल रही है। रघुवीर पंडित कुर्सी पर, प्रधान जी चादर ओढ़े खटिया पर और रामधनी दोनों के सामने दीवार से टेक लगाकर मोढ़े पर बैठा है। वह दिसा-फरागत के लिए शाम को नहर की पटरी की ओर निकला था कि तभी अचानक उस पर हमला हुआ। लात-घूंसे के बाद दो-चार लाठियां भी पड़ीं, लेकिन गिरते-पड़ते किसी तरह वह भाग आया। मारने वालों ने बड़ी चालाकी से काम लिया था। अंधेरे में हमलावरों को रामधनी पहचान नहीं सका। कहीं कोई टूट-फूट तो नहीं हुई मगर भितरचोट गहरी है। देह पर गरम हल्दी पीसकर मलनी पड़ेगी। रामधनी की कराह के साथ ही चुप्पी टूटी, पैर सीधा करने में घुटना चिलक गया।
- मैं देख रहा हूं, रामवचन का दिमाग बहुत चढ़ गया है। रघुवीर की ओर प्रधान ने देखा।
- अभी पाला नहीं पड़ा बच्चू का भले आदमी से। रघुवीर अपने थैले में सुपारी टटोलते हुए बोले। उनके हाथ में सरौता बेचैन हो रहा था।
- आह, मालिक! उसी के घर के सामने शाम को सब बैठे थे, आह...। पहलू बदलते हुए रामधनी बोला।
- ठीक है, ठीक। आधी फसल काम करके छोड़ा था, साला। हम प्रधान चच्चा के एतराज को लेकर सोचते थे। दो दिन में पानी का थाह चल जाएगा। कतरी गई सुपारी में चूना-कत्था मिल चुका था। रघुवीर पंडित ने उसे मुंह में झोंक दिया।
- कुछ न कुछ इंतजाम तो करना ही पड़ेगा। ये अच्छे लच्छन नहीं हैं। प्रधान ने अपनी मुहर मार दी।
..... ..... ..... .....
जैसे उड़ि जहाज को पंछी पुनि जहाज पर आवै, हफ्ता भर बाद ही सारी बस्ती फिर जंगल में खो गई।
लकू-लकू दुपहरिया। बस्ती में चिरई का पूत नहीं। सिर्फ उत्तर तरफ वाले बगीचे से पेंड़ुकी की आवाज आ रही है। रामवचन की बड़ी लड़की भगवंती के पेट में भूख के मारे ऐंठन हो रही थी। उसने तीन मुटूठी महुआ उबाल कर थोड़ा खुद खाया और बाकी अपनी दोनों छोटी बहनों को खिलाया। फिर चुटकी भर नमक मिला गरम पानी पीकर लेटी पड़ी रही। उसकी दो छोटी बहनें दरवाजे पर  " घर-घरौना "  खेल रही हैं।
तभी अचानक रघुवीर पंडित को अपने घर की ओर आते देख दोनों बच्चियां  सकपका गइं, लेकिन फिर वे उनकी ओर देखने लगीं। रघुवीर दरवाजे पर आकर खड़े हो गए। उन्होंने अपने गमछे से चार रोटियां निकालीं और बच्चियों को देते हुए पूछा- ए छोकरी, भगवंती कहां है?
दोनों रोटी मुंह में काटते हुए एक साथ बोलीं- भित्तर!
वे भीतर घुस गए। दोनों बच्चियों के हाथ में रोटियां थीं।
भगवंती को अजीब लगा। भूख के मारे उसका सिर चकरा रहा था, तब भी वह किसी तरह उठ बैठी।
- ले, रोटी खाएगी? रघुवीर ने भरी  नजर से उसे जांचा।
- मालिक, सबेरे से पेट में कुछ नहीं गया। बड़ी मेहरबानी है आपकी। भगवंती की निरीह आंखों में जैसे जमाने भर की भूख उतर आई।
- अरे, नहीं-नहीं, ई क्या बोलती हो? गाढ़े समय में अपने ही तो काम आते हैं! कहते हुए रघुवीर उसके पास बैठ गए और गमछा खोलकर रोटियां उसके सामने रख दी।
जैसे ही भगवंती का हाथ रोटी पर गया, रघुवीर ने उसे दबोच लिया। जैसे कोई भेड़िया मेमने पर टूट पड़ा हो, भूख से पस्त भगवंती छटपटाई। फिर उसका शरीर पथरा गया। वह चीखी-चिल्लाई नहीं, सिर्फ आंखों से आंसू बहते रहे।
शाम को उसके मां-बाप जंगल से लकड़ी का गटूठर और कर्मनाशा से कुछ मछलियां लेकर थके-मांदे लौटे तो भगवंती को जिंदा लाश की तरह पाया। देखा कि दो-चार रोटियां उसके पास ही पड़ी हैं। पूछा, क्या हुआ? भगवंती की रूलाई फूट पड़ी। दोनों छोटी बच्चियों ने बताया- रघुवीर पंडित आए थे, उन्होंने उन्हें रोटियां खिलाई।
आधी रात को जब सारा गांव सो रहा था, रामवचन के घर से आग की लपटें उठने लगीं। अड़ोसी-पड़ोसी उठकर आग बुझाने दौड़े। पूरा गांव ही जुट गया। प्रधान जी भी पहुंच गए। नहीं दिखाई पड़े तो केवल रघुवीर पंडित। रामवचन के परिवार का कहीं पता नहीं था।
आज तक कोई नहीं जान पाया कि घर में आग लगाकर रामवचन अपने परिवार के साथ उस रात कहां चले गए। अकाल में यह अनहोनी हुई थी गांव में!  ....... जारी
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