गगन घटा घहरानी

अरविन्द चतुर्वेद
क्या मुश्किल है कि आसमान में बादल धरती वालों को ठेंगा दिखाकर चले जाएं, तब भी रोना और अगर घटाएं झूम के बरस जाएं, तब भी मुसीबत। हमने विकास का जो रास्ता चुन लिया है, उसने हमें इस कदर कुदरत विरोधी बना दिया है कि बरसात को ही लीजिए तो या तो हम उसके लायक नहीं हैं या फिर बरसात ही हमारे लायक नहीं रही है। गरमी की झुलसाती तपिश के बाद मानसून के बादल दो दिन झूमकर क्या बरसे कि चारों तरफ से मुसीबत और मुश्किलों की खबरें आ गइं। हमारी नदियां कूड़े-कचरे और गाद से इस कदर अटी-पटी हैं कि बारिश हुई नहीं कि बाढ़ आ जाती है, कटान के चलते गांव-खेत-डबरे जलमग्न हो जाते हैं, बस्तियों-घरों में पानी भर जाता है, कज्जे मकान गिर पड़ते हैं और कई बार कई जगह जान-माल से भी हाथ धोना पड़ता है। बरसात के पहले नदी तटों की भ्रष्टाचार मुक्त मरम्मत कर ली जाए, तटबंधों को दुरूस्त व पुख्ता कर लिया जाए और दिन-ब-दिन छिछली होती नदियों के पेटे में बरसों से जमी गाद निकाल ली जाए तो जल प्रवाही नदियां हमारी कोई दुश्मन नहीं हैं, जो बाढ़ बनकर हम पर यों टूट पड़ें। असल में नदियों के साथ जैसा बुरा सुलूक हम सालों-साल करते हैं, बरसात में मौका मिलने पर हमारी कारस्तानी का सूद समेत खामियाजा चार महीने में बाढ़ के रूप में नदियां हमें लौटा देती हैं। हम चीखते-चिल्लाते हैं, हाथ-पांव मारते हैं, फिर भी कोई सबक नहीं सीखते। दूसरे, नदियों से कम प्रदूषित हमारा प्रशासनिक तंत्र और सियासी पेचोखम नहीं है- राज्य सरकारें केंद्र पर तो केंद्र सरकार राज्यों पर नदियों के मामले में दांव खेलती रहती हैं और प्रशासनिक तंत्र तो खैर कागजों में ही सबकुछ चुस्त-दुरूस्त कर लिया करता है। आखिर नदियां और नहरें भी तो कमाई के अच्छे स्रोत हैं! मसलन, उत्तर प्रदेश के ही सुलतानपुर में सिंचाई विभाग के एक इंजीनियर साहब ने कागज में ही कई किलोमीटर लंबी नहर का काम तमाम करके लाखों रूपए का वारा-न्यारा कर लिया है। अब इस मामले की जांच भी हो रही है और साथ ही कहते हैं कि इसे दबाने की कोशिश भी चल रही है। बहरहाल, हर साल की तरह शुरूआती बरसात ने ही उत्तर प्रदेश में सरकारी कामकाज की पोल-पटूटी खोलकर रख दी है। प्रदेश के जनपदों और दूर-दराज के इलाकों की तो छोड़ ही दीजिए, राजधानी लखनऊ में एक-डेढ़ महीने पहले बनी नई सड़कें तक दो दिन की बरसात में कई जगह धंस गइं- कई जगह उनकी ठठरी निकल आई। समझा जा सकता है कि कितना गुणवत्तायुक्त काम हुआ है और कैसी पैसे की बंदरबांट हुई है। शहर के नाले इसलिए उफना पड़े कि उनकी सफाई ही नहीं हुई। सड़कों पर पानी भर गया, क्योंकि जल निकासी का बेहतर इंतजाम ही नहीं है। शहर में जगह-जगह गडूढे खुदे हुए हैं, मोरम और मलबा पड़ा हुआ है। सारा काम जून में पूरा हो जाना चाहिए था, लेकिन अभी तक लस्टम-पस्टम चल रहा है। खुदे हुए गडूढों में बरसात का पानी भर जाए और किसी की जान भी चली जाए तो बेशर्म प्रशासन को क्या फर्क पड़ता है? फिल्मों में और कविता में बरखा-बहार भले ही बहुत रूमानियत भरी हो, मगर हमारी व्यवस्था का एक बरसाती बीमार चेहरा यह भी है कि बीते बरस की तरह इस बार के मौसम में भी उत्तर प्रदेश में गोदामों की किल्लत के चलते कई जगहों पर करोड़ों रूपए के हजारों कुंतल गेहूं खुले आसमान तले भीगकर सड़ रहे हैं, जो सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए गरीबों का पेट भरते। सार्वजनिक खाद्यान्न की इस बर्बादी का दोषी कौन है- हमारी सड़ी व्यवस्था या बेचारी यह बरसात?
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आत्मीय एक छवि तुम्हें नित्य भटकाएगी

कवि मुक्तिबोध की पांच चरणों में लिखी कविता का पहला और अंतिम हिस्सा प्रस्तुत है। जिंदगी क्या आत्मीयता की तलाश में एक पुलक भरा भटकाव है? क्या यह भटकाव ही हमें अनुभव सम्पन्न नहीं बनाता? इस भटकाव में ही जिंदगी को अर्थवत्ता मिलती है...

पता नहीं.../मुक्तिबोध

पता नहीं, कब कौन कहां किस ओर मिले
किस सांझ मिले, किस सुबह मिले!!
यह राह जिंदगी की
जिससे जिस जगह मिले
हैं ठीक वहीं, बस वहीं अहाते मेंहदी के
जिनके भीतर
है कोई घर
बाहर प्रसन्न पीली कनेर
बरगद ऊंचा, जमीन गीली
मन जिन्हें देख कल्पना करेगा जाने क्या!!
तब बैठ एक
गंभीर वृक्ष के तले
टटोलो मन, जिससे जिस छोर मिले,
कर अपने-अपने तप्त अनुभवों की तुलना
घुलना मिलना!!
.............
अपनी धकधक
में दर्दीले फैले-फैलेपन की मिठास,
या नि:स्वात्मक विकास का युग
जिसकी मानव-गति को सुनकर
तुम दौड़ोगे प्रत्येक व्यक्ति के
चरण-तले जनपथ बनकर!!
वे आस्थाएं तुमको दरिद्र करवाएंगी
कि दैन्य ही भोगोगे
पर, तुम अनन्य होगे,
प्रसन्न होगे!!
आत्मीय एक छवि तुम्हें नित्य भटकाएगी
जिस जगह, जहां जो छोर मिले
ले जाएगी...
...पता नहीं, कब कौन कहां किस ओर मिले।
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नाम में क्या रखा है!

सोनागाछी में सोने का गाछ यानी पेड़ न कभी था, न आज है। फिर भी नाम सोनागाछी है। कुछ बुजुर्गों का कहना है कि पुराने जमाने में यह जगह सोने के गहने-जेवर बनाने-बेचने की पूर्वी भारत में एक बड़ी मंडी थी और तब के हिसाब से यहां बहुत निपुण स्वर्णकार बसते थे. बृहत्तर सोनागाछी इलाके में आज भी सोना-चांदी की कुछ दूकानें हैं, पर सोने की मंडी के रूप में सोनागाछी कोलकाता महानगर में भी मशहूर नहीं है।
पुराने जमाने की सोने की मंडी बताने वाले बुजुर्गों का खयाल है कि दूर-देहात से आनेवाली भोली और सोने की लोभी सुंदर औरतों को ऐय्याश किस्म के स्वर्णकार और दूसरे लोग बहका लिया करते थे। धीरे-धीरे यह आम बात हुई और सोनागाछी ऐय्याशी की छोटी-मोटी मंडी बन गई। लेकिन कंचन और कामिनी के संयोग से पैदा हुई सोनागाछी के लिए इतिहास की कोई गली नहीं खुलती। इसे लोक-लोक की बात ही कह सकते हैं।
फिर सोनागाछी नाम क्यों पड़ा इस बदनाम बस्ती का? एक थीं देवी सोना गाजी। उनकी सोनागाछी में मजार भी है। वे इतनी मशहूर हुईं कि इस इलाके का नाम ही उनके नाम पर हो गया। यानी सोना गाजी से सोनागाछी। बहरहाल, इतिहास में झांकते हैं तो पाते हैं कि मनोरंजन के आधुनिक साधनों से दूर 18वीं-19वीं सदी के अंग्रेजी भारत में कलकत्ता का मुख्य मनोरंजन केंद्र थी सोनागाछी। पानी के जहाज से आनेवाले सात समुंदर पार के लोगों का भी मन बहलाती थी सोनागाछी। हुगली की लहरों पर चांदनी रात में हिचकोले खाती नौकाओं पर अंग्रेज साहबों का साथ देती थी यह सोनागाछी। बड़े-बड़े जमींदारों, सेठ-साहूकारों, उनके बिगडै़ल लाडलों, रईसों के पहलू में भी थी सोनागाछी। पर तब सोनागाछी आम ग्राहक की नहीं थी, जैसी कि आज नजर आती है।
असल में सोनागाछी के विकास में बंगाल के अकाल, ऐतिहासिक बंगभंग और फिर पूर्वी पाकिस्तान के रूप में एक हिस्से के चले जाने का बड़ा हाथ है. बड़ा हाथ है पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान के आज़ाद मुल्क बंगलादेश बनने का भी.
नजीर के तौर पर १९८०-८१ में सोनागाछी आई संध्या दे की दास्ताँ ही देखें. बंगलादेश के जैसोर जिले में केशवपुर थाने के तहत एक गाँव है- मध्यकुल ग्राम. संध्या इसी गाँव की बेटी है. जब वह १३-१४ साल की हुई तो उसके पिता सुधीर दे को डर लगा कि बेटी की इज्जत खतरे में है. कभी भी कोई उसे छीनकर ले जा सकता है. संध्या के पिता ने उसे उत्तर चौबीस परगना के हाबरा में नाना-नानी के पास पहुंचा दिया.
एक दिन शेफाली दी नाम की महिला ने गाँव की सीधी-सादी संध्या को कलकत्ता घुमाने का बहाना बनाया और पहुंचा दिया उसे सोनागाछी. संक्षेप में संध्या के सोनागाछी पहुँचने की यही दास्ताँ है. ऐसी सैकड़ों-हज़ारों संध्याओं से अटी पड़ी है सोनागाछी. और, अभी तो सोनागाछी की हालत नो वैकेंसी या हाउस फुल जैसी है.
इतिहास की पगडण्डी पर और पीछे चलते हैं तो १९११ की मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट बताती है कि तब कलकत्ता में १४ हज़ार २७१ महिलायें जिस्म के पेशे में थीं. इस रिपोर्ट के मुताबिक़ तब कलकत्ता की कुल स्त्रियों में से जिनकी उम्र २०-४० साल की है, हर १२ वीं स्त्री जिस्म बेचती है. १२ से २० साल तक की उम्र की लड़कियों में हर सौ में छः लड़कियाँ इस जलालत भरे पेशे में हैं. यह रिपोर्ट कहती है कि १०९६ वेश्या लड़कियों की उम्र दस साल से भी कम है और यों ९० फीसदी वेश्याएं हिन्दू हैं.
सोनागाछी का मतलब है- इस आग के दरिया में डूब ही जाना है...!
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गुनाह और पनाह


अरविन्द चतुर्वेद
जिस्म, जाम और जान की बाजी- तीन खेल से सोनागाछी...। जी हां, सोनागाछी के ये तीन खास खेल हैं। मसलन 1992 में सोनागाछी जिस्म बाजार के एक अड्ïडे से कोलकाता पुलिस के ही एक जवान की लाश मिली थी। कभी-कभार जान लेने-देने के ऐसे हादसे हो जाते हैं तो चंद दिनों के लिए सोनागाछी में तूफान-सा आ जाता है- पुलिस की छापेमारियां, लड़कियों-दलालों की धर-पकड़, काली गाड़ी में सबको लादकर थाने ले जाना। लेकिन वहां भी कबतक रखेंगे? एक-आध दिन में ले-देकर जमानत हो जाती है। फिर सबकुछ पहले जैसा।
बड़ी पुरानी कहावत है कि कंचन-कामिनी और मदिरा की तिकड़ी भी अपने आप बन जाती है। जिस्म की दूकान पर मौज-मस्ती के लिए बेफिक्र बनाने में जाम शायद मददगार साबित होता होगा। यह भी हो सकता है कि दो घूंट गले से उतरने के बाद गलत काम का अपराध बोध काफूर हो जाता हो। या फिर बेपर्दगी का सामना करने के लिए शराब पीकर पर्देदार लोग अपनी झिझक व शर्म भगाते हों और हिम्मत जुटाते हों।
मसलन, दलाल के साथ गली से गुजरते हुए एक बेफिक्र अधेड़ और उसके साथ लडख़ड़ाते हुए चल रहे 25-26 साल के युवक के बीच की बातचीत गौर करने लायक है-
- अमां यार, घबड़ाने की क्या बात थी? साला, मूड खराब हो गया। बेकार तुमको दारू पिलाया।
- नेई, ये बात नेई। हमको वो जंची ही नेई। मेरा सर चक्कर खा रहा था, साला।
- तेरे चक्कर में हमारा भी मजा खराब हो गिया। हम अब्बी और दारू पिएगा।
- ठीक है, हम आपको दारू पिलाएगा। बाकी आपको कसम, अब्बा को बिल्कुल खबर न चले।
- हम तुम्हारा दारू नेई पिएगा। तुमको हमारा यकीन नेई? क्या समझता, हमारे पास पैसा नेई?
वह अधेड़ आदमी नशे के सुरूर में नौजवान पर उखड़ गया। नौजवान नशे में लडख़ड़ाती आवाज में अधेड़ साथी को मनाने की कोशिश में मिमियाने लगा। गरमी कुछ खास नहीं थी, फिर नौजवान का चेहरा पसीने से तर-ब-तर क्यों था- घबराहट और डर की वजह से, या तेज नशे में खाए पान के किमाम व जर्दे की वजह से?
सोनागाछी की गलियों में कई जगह तो जाहिरा तौर पर शराब मिलती है और कई जगह किस्म-किस्म की ऐसी रंग-बिरंगी शीशियों-बोतलों में कि सरसरी तौर पर लगे कहीं यह शरबत या टॉनिक तो नहीं है। प्याजी पकौड़ी की दूकानों पर बाजार की नजाकत से वाकिफ लोगों को गिलास में पानी की जगह पानी के ही रंग वाली देसी दारू भी आसानी से मिल जाती है। कई दूकानों पर चाय-पकौड़ी और दूसरी चीजें बेचना तो महज एक आड़ है। दरअसल इन दूकानों पर बिकती है देसी शराब, जिसे बांग्ला या बांग्लू कहते हैं।
शौकीन ग्राहकों के मांगने पर बाड़ीवाली बऊ दी खुद भी देसी-विदेशी शराब मंगा देती है। लेकिन आम तौर पर धंधे के वक्त लड़कियों के दारू पीने पर मनाही है। शायद इसलिए कि लड़की कहीं धंधे के दौरान ही नशे के सुरूर में बहक कर धंधा चौपट न कर दे। हां, सारी रात के लिए आए और बुक कराए ग्राहक की फरमाइश पर लड़की का दारू-सिगरेट पीना जरूर धंधे का हिस्सा है।
जिस्म बाजार के कई अड्डे किसिम-किसिम के अपराधियों, गुंडे, बदमाशों के पनाहगार भी हैं। क्योंकि वे ग्राहक हैं और ग्राहक के लिए दरवाजा हर वक्त खुले रखना इस बाजार का धर्म है। एक दलाल ने एक दिलचस्प बात बताई कि यहां एक अड्डे पर तो केवल शहर के गुंडे-बदमाश ही आते हैं। यह अड्डा आम ग्राहक के लिए नहीं है। शायद अड्डे की मालकिन ने सब तरह से हिसाब बैठाकर इसे स्पेशल बना रखा है।
..... जारी  
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बाड़ी वाली बऊ दी उर्फ मौसी

अरविन्द चतुर्वेद
सोनागाछी जिस्म बाजार के संचालन का सारा दारोमदार बाड़ी वाली बऊ दी पर होता है। कुछ तो बऊ दी किस्म की महिलाओं की अपनी बाड़ी है और बहुतेरी बऊ दी मकानों की पुरानी किराएदार हैं। जिस्म बाजार में समय-समय पर पुलिस की होनेवाली छापेमारियों से निपटना, पकड़ी गई लड़कियों को छुड़ाकर वापस लाना, ग्राहकों और गुंडे-बदमाशों की ज्यादतियों से अपनी लड़कियों को बचाना- यह सारा सिरदर्द बऊ दी का है। बऊ दी इस सिरदर्द के बदले में लड़कियों की कमाई में हिस्सा लेती हैं।
यह बताते समय दलाल मंगला प्रसाद के होठों पर बऊ दी के लिए एक व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट चिपकी रहती है। वह कहता है- क्या है कि साहब, ये जो बऊ दी लोग हैं न, इनको भी तो सबकुछ का परेटिकल एक्सपीरियन(प्रैक्टिकल एक्सपीरियंश) होता है, न। किसी बराबर आनेवाले ग्राहक को तजबीज कर उसके साथ एक तरह से घर बसा लेती हैं।
- क्या बऊ दी लोग शादीशुदा होती हैं?
इस सवाल पर ठहाके लगाकर हंस पड़ता है मंगला। हंसते-हंसते कहता है- धत्त तेरे की। अरे, उसे क्या कहेंगे-बऊ दी रखैला रखती हैं, रखैला। कोई टैक्सी वाला होता है, कोई चाय-पान की गुमटी वाला और कोई छोटा-मोटा दुकानदार। सब साला मउगा होता है, साहब। बाकी क्या है कि हफ्ता में एक-दो बार बऊ दी का आदमी जरूर आता है।
सोनागाछी की बऊ दी महिलाओं के बच्चे भी हैं- लड़के-लड़कियां। वे बच्चों को स्कूल भेजती हैं। बाड़ी में मास्टर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने आते हैं। जाहिर है कि बऊ दी के मन में यह इच्छा जरूर है कि उनके बच्चे किसी तरह पढ़-लिखकर सोनागाछी जिस्म बाजार की चौहद्दी पार करके दूसरी बेहतर दुनिया में शामिल हो जाएं।
इस जिस्म बाजार की लड़कियों की हैसियत भी तीन तरह की है। पांच सौ से हजार तक ऐसी लड़कियां हैं, जिन्हें दलाल मंगला प्रसाद हाई क्लास कहता है। इनकी फीस ढाई सौ से तो कतई कम नहीं है और ऊपर हजार-डेढ़ हजार तक जा सकता है. गिफ्ट वगैरह अलग से. हाई क्लास लड़कियां शहर के होटलों में भी जाती हैं, खाली फ़्लैट वाले तनहा गुणग्राहक के घर भी. कुछ ऐसी भी हैं जो किसी की निजी हैं. लेकिन अगर सचमुच वे वफादारी के साथ निजी बनी रहें, तब फिर क्या जिस्म बाज़ार का रिवाज नहीं टूटेगा? बेवफाई और फरेब पर ही तो टिका है यह जिस्म बाज़ार. मंगला बताता है - जब लड़की का परमानेंट आदमी किसी दिन नहीं आता तो महँगी फीस वाला टेम्परेरी ग्राहक भी चल जाता है.
सोनागाछी की हाई क्लास लड़कियों के पास एक-एक साफ़-सुथरे अच्छे कमरे हैं और टीवी-वीडियो जैसी मनोरंजन की सुविधाएं भी. खाना बनाने, खिलाने के लिए नौकरानी भी है. बाज़ार से रोजमर्रा की खरीदारी के लिए नौकर भी. ये लड़कियां उत्तर प्रदेश के आगरा और आसपास के इलाके की हैं. कह सकते हैं कि ये जानबूझ कर पेशेवर बनी हैं. मंगला बताता है- ये लड़कियां मां-बाप, भाई-बहनों के लिए अपने देस मनिआर्दर और बैंक ड्राफ्ट के जरिये पैसे भेजती हैं. बीच-बीच में इनसे मिलने घरवाले भी आया करते हैं. सोनागाछी की हाई क्लास लड़कियां कम-से-कम हाई स्कूल तक जरूर पढ़ी-लिखी हैं. इन्होने अपनी कमाई के पैसे कुछ दूसरे कारोबार में भी लगा रखा है. मसलन, कुछ हाई क्लास लड़कियों की महानगर में टैक्सियाँ भी चलती हैं.
..... जारी  
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साला, इस लाइन में भी बड़ा कंपटीशन हो गया है

अरविन्द चतुर्वेद
वाकई एक तिलस्म है सोनागाछी. यहाँ की बदनाम बस्तियों में जिस्म के खरीदार ग्राहक के लिए भी बहुत आसान नहीं है इस तिलस्म का खुल जा सिमसिम. इस तिलस्म को खोलकर ठिकाने तक ले जाने का काम करते हैं समस्तीपुर के मंगला ( पूरा नाम मंगला प्रसाद ), बीरभूम के बोनू और राधा ( पूरा नाम राधाचरण ) जैसे दलाल .
सोनागाछी के मायावी जिस्म बाज़ार के विस्तार का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह इमामबख्श लेन, गौरी शंकर लेन, दुर्गाचरण मित्र लेन, मस्जिदबादी स्ट्रीट और दालपट्टी तक कमोबेश अपना दायरा बना चुका है। यह बाजार सिमटने के बजाय दिन-ब-दिन फैलता ही जा रहा है। फिलहाल, सोनागाछी जिस्म बाजार की चौहद्दी पश्चिम में चितपुर ट्राम लाइन, पूरब में सेंट्रल एवेन्यू, दक्षिण में चक्रवर्ती लेन और उत्तर में मस्जिदबाड़ी स्ट्रीट तक फैली हुई है।
ऐसा नहीं है कि इस समूचे दायरे में सिर्फ जिस्म की दूकानें ही सजी हैं। शरीफ नागरिकों का घर-संसार भी है, पुश्तैनी बाशिंदों के मकान भी हैं, दूसरे आम कारोबारी लोग भी हैं और नौकरी-पेशा लोग भी। लेकिन इनकी हालत बत्तीस दांतों के बीच जीभ जैसी है। जिस्म बाजार के बीच बसे परिवारी लोगों के घरों के दरवाजे अमूमन शाम साढ़े सात-आठ बजे तक बंद हो जाते हैं। अगर घर का कोई आदमी बाहर रह गया है तो वह भी कोशिश यही करता है कि किसी तरह रात नौ बजे तक जरूर घर पहुंच जाए।
सोनागाछी के विशाल देह बाजार के बारे में दलाल मंगला प्रसाद बड़े फख्र के साथ कहता है- दुनियाभर में मशहूर है साहब, कलकत्ते की यह सोनागाछी। करीब पच्चीस-तीस हजार औरतें तो होंगी ही।
- आप लोग कितने होंगे?
मंगला ने जवाब दिया- साला, इस लाइन में भी बड़ा कंपटीशन हो गया है, साहब। दस हजार दलाल तो होंगे ही।
- कितनी कमाई हो जाती है?
- ऊपर वाले की मेहरबानी से ठीके हो जाती है। सत्तर-पचहत्तर तो कहीं नहीं गया है। किसी किसी दिन दो-चार दिलदार ग्राहक मिल गए तो दो-ढाई सौ भी हो जाता है।
सोनागाछी का दलाल मंगला अपना परिवार यहां कोलकाता में नहीं रखता। परिवार समस्तीपुर में गांव में रहता है। यहां से पैसे भेजता है। तीन-चार महीने पर दो-चार दिन के लिए गांव हो आता है। गांव-घर वाले यही जानते हैं कि मंगला कोलकाता में कोई नौकरी करता है। पैंतालिस साल की उम्र वाला मंगला बीस सालों से दलाली कर रहा है।
बताता है- शुरू-शुरू में यह काम बहुत खराब लगता था। एक-दो साल तक रोज यही मन में आता था कि कल से यह काम छोड़ देंगे। लेकिन एक बार जो यह धंधा पकड़ाया तो कहां छूटा, साहब।
जिस चाय की दूकान पर मंगला से बात हो रही थी, वह दूकान भी मंगला की जान-पहचान की थी। फिर भी मंगला हड़बड़ी में था। वह मुझसे जल्दी से जल्दी पिंड छुड़ा लेना चाहता था। जब उससे मैंने सोनागाछी का जिस्म बाजार पूरा दिखा देने और किसी अड्डे पर चलकर किसी लड़की से बातचीत करा देने की बात की तो मेरी बात पूरी होने के पहले ही चालाक व अनुभवी दलाल मंगला ने कहा- पूरा सोनागाछी देखने-दिखाने में दो-तीन घंटे से कम टाइम नहीं लगेगा, साहब। मेरा तो आज का धंधा ही चौपट हो जाएगा।
आखिर में मुफ्त के चाय-नाश्ते-सिगरेट के बाद बेहयायी से मुस्कराते हुए मंगला धंधा चौपट करने के एवज में कुछ लेकर एक अड्डे पर मुझे ले गया। बीस-पच्चीस साल की दो लड़कियां अनमनी-सी कमरे के बाहर संकरे बरांडेनुमा गलियारे में खड़ी थीं। उन्होंने एक उचटती-सी नजर हम पर डाली और फिर नीचे से आने वाली सीढिय़ों की तरफ देखने लगीं।
मंगला मुझे लेकर कमरे में घुस गया। उसके साथ होने के कारण मैं निश्चिंत था। कमरे में सजधज कर बैठी, करीब तीस साल की औसत शक्ल-सूरत मगर अच्छे कद-काठी वाली युवती के चेहरे पर हमें देखकर पहले तो चमक उभरी। पर मैथिली में जैसे ही मंगला ने उससे कहा- देस से आए हैं, अपने भरोसे के आदमी हैं। थोड़ा यह सब देखना-जानना चाहते हैं- महिला के चेहरे पर झल्लाहट का भाव उभर आया। वह शिष्ट महिला थी और शायद मंगला के लिहाज के चलते वह उखड़ी तो नहीं, फिर भी नाराजगी की झलक देते सपाट लहजे में कहा- इसमें देखने-जानने का क्या है? हमलोग क्या कोई तमाशा हैं? अपने बारे में कुछ भी बोलने-बताने से उसने साफ मना कर दिया और अपने हावभाव से जता दिया कि मैं वहां से चलता बनूं।
इतनी देर में ही उस अच्छे-खासे आयताकार कमरे की एक झलक मिल चुकी थी। कमरे के एक सिरे पर लकड़ी की बंद आलमारी थी जिसमें शायद उसके कपड़े-लत्ते रहे होंगे। बेंत की इकलौती कुर्सी पर कुशन- ग्राहक के बैठने के लिए, तिपाईनुमा टेबुल, लकड़ी के तख्त पर हल्का गद्ïदेदार बिस्तर और साफ धुली चादर-उसी पर वह बैठी थी। कमरे के दूसरे छोर पर एक स्टैंड था, जिस पर प्लास्टिक का पानी भरा एक जग कांच की दो गिलासें और एक-दो प्लेटें पड़ी थीं। लंबाई वाली भीतरी दीवार में एक दरवाजा भी था, जिसपर परदा टंगा था। शायद वह बाथरूम और छोटी-मोटी रसोई जैसी जगह में खुलता हो। दीवार पर दो कैलेंडर अलग-अलग टंगे थे- एक, लेटे हुए शिव की छाती पर खड़ी, गले में मुंड-माला पहने, जीभ निकाले हुई काली का और दूसरा, सिर्फ चड्ढी पहने, खड़े, मांस-पेशियां दिखाते, चौड़ी छाती वाले बॉडीबिल्डर पहलवान का, जो निश्चय ही आनेवाले ग्राहक को चुनौती देता हुआ लगता होगा।
बहरहाल, कमरे से निकल कर जब मैं सीढिय़ां उतर रहा था, पीछे से बरामदे में खड़ी दोनों लड़कियों की जोरदार खिलखिलाहट सुनाई पड़ी।
.... जारी
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सोनागाछी की सैर

अरविन्द चतुर्वेद
एक शाम हम तीन दोस्त बड़ी हिम्मत जुटाकर बदनाम बस्ती सोनागाछी की निषिद्ध गली के मुहाने पर खड़े हुए। इरादा था कि गली के इस पार से सेंट्रल एवेन्यू तक निकल कर पूरी गली का  जायजा लिया जाए। इससे पहले हममें से कोई भी इस गली से होकर गुजरा नहीं था।
जबरन चेहरे पर सहजता लाने की कोशिश करते हुए हम गली में ऐसे घुसे, जैसे किसी भी गली या सड़क से आम तौर पर राहगीर गुजरते हैं। सोनागाछी की गली में मेला-सा लगा था। सड़क के दोनों किनारे पर बदन दिखाऊ पोशाकों में, चेहरे पर जरूरत से ज्यादा क्रीम-पावडर पोते अलग-अलग उम्र की किशोरियां, युवतियां और तमाम कोशिश के बावजूद बढ़ती उम्र की निशानियां न छिपा पाती अधेड़ औरतें।
यह जिस्म का बाजार है। ये औरतें-लड़कियां आपस में बातचीत भी कर रही हैं और आने-जाने वालों को तरह-तरह के इशारे भी। सारा माहौल रोशनी में जगमग है। छनती प्याज की पकौडिय़ों और आलूचाप की वजह से समूची गली में जलते तेल और बेसन की गंध समाई हुई है। पकौडिय़ों और पान-सिगरेट की इन छोटी-मोटी दुकानों पर दो-तीन दिनों की बढ़ी हुई दाढ़ी वाले तमाम लोग अड्डे जमाए हुए हैं।
इनमें कुछ लोग इधर-उधर चहलकदमी भी कर रहे हैं। सबकी निगाहें गली में आने-जाने वालों पर टिकी हैं। अजीब चमक है इन निगाहों में। आपसे अगर इनकी नजर मिली तो लगेगा जैसे निगाहों के जरिए आपके भीतर कुछ टटोला जा रहा है।
निगाहें हमारी भी मिलीं और उधर से इशारे भी हुए। पर हम बराबर सहज बने रहने की कोशिश के साथ यूं चलते रहे, जैसे इस दुनिया से हमारा कोई वास्ता नहीं है।
एक गुमटी के सामने सिगरेट सुलगाने के लिए हम खड़े ही हुए थे कि आजू-बाजू में तीन लोग आकर खड़े हो गए। हमारे कुछ बोले बिना ही किसी होटल के बेयरे की तरह उनका मुंहजबानी मेनू पेश हो गया-
- चलेगा, साब?
- बिल्कुल नया, ताजा माल है।
- एक बार देख तो लीजिए, तबियत खुश हो जाएगी।
फिर इसके बाद देश के जितने प्रदेशों के नाम उन्हें मालूम थे, उन सबका उन्होंने जाप कर डाला- बंगाली है, बिहारी है, यूपी है, पंजाबी है, मद्रासी है। नेपाली भी है। जो आपको पसंद हो, साहब।
इतना सुनते ही मेरे दोनों साथियों के चेहरे पर घबराहट उभर आई। अब वे जल्दी से जल्दी इस गली से निकल जाना चाहते थे। मैंने बात जारी रखने के खयाल से पूछा- कितने पैसे लगेंगे?
जवाब मिला- पचास रुपए से लेकर ढाई सौ तक। जैसी चीज, वैसा दाम। इससे ऊपर की भी हैं।
अब उनसे पीछा छुड़ाने के लिए काफी भरोसा दिलाते हुए मुझे कहना पड़ा- ठीक है, मैं अपने साथियों को सेंट्रल एवेन्यू तक छोड़कर अभी आता हूं। इन लोगों को नहीं जाना है।
(जारी)

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मुख्यमंत्री के चरण रज

अरविन्द चतुर्वेद
भक्ति की अपनी एक परंपरा है, जिसमें अपने गुरू या आराध्य के चरण रज माथे से लगाकर कोई भक्त अपने को धन्य समझता है और अपने आराध्य को स्वामी और खुद को उसका दास मानता है। इसी तरह सामंती जमाने से चली आ रही स्वामिभक्ति की परंपरा भी काफी लंबी है और सेवक बेचारे मालिक के पांव-पनही पर अपनी पगड़ी रखकर सेवकाई करते आए हैं। लेकिन यह जो हमारा लोकतंत्र है और जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की सरकार चल रही है, उसकी मुखिया के पांव-पनही की धूल अगर कोई अधिकारी अपनी जेब से रूमाल निकाल कर समेट ले और उस अमूल्य चरण रज को अपनी जेब में संचित करके कृतार्थ हो जाए तो इस कृत्य को किस कोटि में रखा जा सकता है? मुख्यमंत्री मायावती के औरैया दौरे के वक्त पुलिस के बड़े अफसर जो उनके प्रमुख सुरक्षा अधिकारी हैं, उस पद्म सिंह ने यह अदूभुत पराक्रम कर दिखाया है। अगर इसे प्रतीक मानें तो क्या इसमें कोई शक है कि प्रदेश की नौकरशाही बसपा सरकार की चेरी बन गई है। सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी का जो चुनाव चिन्ह हाथी अब गणेश बन गया है, कुछ अधिकारी और पुलिस विभाग के लोग अपना वास्तविक कामकाज छोड़कर इसके मंत्रियों, सांसदों और विधायकों की वास्तव में गणेश परिक्रमा ही कर रहे हैं और इसका पुरस्कार लाभ ले रहे हैं। ऐसे अधिकारियों का मनोबल क्या उनकी दासवृत्ति के चलते सियासत के पांव के नीचे नहीं कुचला जा रहा है? तभी तो बलात्कार व यौन शोषण और महिला उत्पीड़न के आरोपी विधायकों और मंत्रियों का पुलिस व नागरिक प्रशासन हर संभव ढाल बन जाता है और पीड़िताओं को ही जेल में ठंूस दिया जाता है। गौरतलब है कि गत रविवार को औरैया में विकास कायों का जायजा लेने के लिए मुख्यमंत्री मायावती के अछलदा ब्लाक के नौनीपुर गांव पहुंचने पर उनके सुरक्षा प्रमुख पदूम सिंह ने अपने रूमाल से उनके जूते साफ किए थे। कुछ टेलीविजन चैनलों पर इसकी फुटेज भी दिखाई गई। कोई ताज्जुब नहीं कि स्वामिभक्ति की इस होड़ में इस घटना से शमिंदा होने के बजाय गणेश परिक्रमा को आतुर प्रदेश के दूसरे अफसर प्रेरणा लेने लगें। उत्तर प्रदेश में नौकरशाही क्यों विकास को जमीनी अमली जामा पहनाने के बजाय कागजी घोड़े दौड़ा रही है और कानून-व्यवस्था अराजकता का शिकार है, यह आसानी से समझा जा सकता है। मुख्यमंत्री का चरण रज लेने की यह परंपरा दरअसल पांवपुजाऊ उसी ब्राrाणवाद का नव संस्करण है, जिसकी आलोचना व निंदा हमारे संविधान निर्माता और खुद बसपा के प्रेरणा पुरूष बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने की थी। क्या गजब है कि सत्ता के सिंहासन ने समूचे विचार दर्शन को सिर के बल खड़ा करते हुए नव ब्राrाणवाद की नींव ही नहीं डाली है बल्कि भव्य भवन खड़ा कर लिया है। यह लोकतंत्र की मर्यादा और सरकार के आचरण दोनों के लिए वास्तव में शर्मनाक है।
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रात की बात

अरविन्द चतुर्वेद
सुबह होते ही जन समुद्र में शोर की उठती-गिरती लहरों पर किसी बड़े जहाज की तरह हिचकोले खाने लगता है अपना यह कोलकाता महानगर। रात की परछाइयां सुबह के उजाले में कहां छिप जाती हैं, पता ही नहीं चलता। पर शाम होते ही दूधिया रोशनी की झिलमिलाहट के बीच अंधेरे के साए जगह-जगह से उभरने लगते हैं। जैसे-जैसे रात गहराती जाती है, सड़कों पर आवाजाही थमती है, दुकानों के पट गिर जाते हैं और ऊंचे-नीचे मकानों की बंद खिड़कियों के शीशे से किसिम-किसिम की मद्धिम-सी रंगीन रोशनियां भर नजर आती हैं- तब शुरू होता है रात का सफर। दिन के उजाले में छिपी खामोश अंधेरी दुनिया रोज जब रात को बारह का गजर होता है, भरपूर अंगड़ाई लेकर जाग चुकी होती है। अपने कारोबार में, कमाल और करतूत में खामोशी से काम लेती रात की परछाइयों का कद बहुमंजिली इमारतों जितना बड़ा भी हो सकता है- होता है। सन्नाटे का ऐसा आलम कि कोई गहरी चीख भी उठे तो डूबकर रह जाए। दूसरे-तीसरे दिन लोग यह खबर पाते हैं कि पिछली रात फलां इलाके में लावारिश लाश मिली। फलां जगह लूट लिया। फलां जगह ये हुआ, फलां जगह वो हुआ... पिछली रात... वगैरह।
इस सबसे बेखबर रात की स्याह चादर ओढ़े फुटपाथ पर पसरे बेपनाह सपनों की दुनिया है- औरत-मर्द, बूढ़े-जवान-बच्चे, भिखमंगे, बीमार, विक्षिप्त-अर्धविक्षिप्त। जानवर और आदमी के बीच का फर्क बनाए रखने के लिए ही शायद आवारा कुत्ते उनसे हाथ-दो हाथ की दूरी बनाकर सोते हैं। यह सर्वहारा है कोलकाता का, जिसके सामने वाम मोर्चा सरकार का साम्यवाद फुस्स हो जाता है। किसी कड़वी सच्चाई की तरह नंगी, गैरपोशीदा इस फुटपाथी दुनिया में भी लुक-छिपकर कई पोशीदा काम होते रहते हैं। यह और बात है कि कम्यूनिज्म के पिता माक्र्स की सूक्ति दोहरा कर आप संतोष कर लें- नंगे-भूखे आदमी की कोई नैतिकता नहीं होती। पर हकीकत यही है कि धरती पर अगर कहीं नरक है तो हावड़ा पुल के कोलकाता-छोर के नीचे दो तरफ से आनेवाली सड़कों के बीच बने मूत्र सिंचित कूड़े के गोदामनुमा फुटपाथी रैन बसेरों में ही है। ऐसे नरक सियालदह स्टेशन के पुल के इर्द-गिर्द भी है।
महानगर के दोनों रेलवे स्टेशन हावड़ा और सियालदह तेज रोशनी में रतजगा मना रहे हैं। देर से आने या जाने वाली ट्रेनों के मुसाफिरों की आंखों में नींद करवट बदल रही है, कुछ झपकी ले रहे हैं, कुछ लम्बी जम्हाई। कुछ चाय-सिगरेट पीते हुए नींद से मुठभेड़ कर रहे हैं। इन सबसे कुछ गज की दूरी पर या झिलमिल अंधेरे कोने में स्टेशन में- प्लेटफार्म पर बिल्ली आंखें चमक रही हैं- घात लगाए शिकारी आंखें। कब आंख झपके और कब ब्रीफकेस गायब। कोई दिलफेंक मुसाफिर किसी लफड़े में फंस जाए। कुली के भेस में ही कोई गच्चा दे जाए।

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छह-छह पैसा चल कलकत्ता

अरविन्द चतुर्वेद
 तीन गांवों को  खरीद कर कलकत्ता उर्फ कोलकाता की नींव डालने वाले जॉब चार्नाक  ने भी कभी यह कल्पना नहीं की होगी कि  तीन सौ साल बाद यह महानगर इतना बड़ा मायावी, इतना बहुरूपिया बन जाएगा। बंगाली बाबुओं का कलकत्ता आजादी के बाद से ही लगातार सिमटता गया है। महानगर की कुछ खास पुरानी बस्तियों-गलियों में मिट्टी के कुल्हड़ में चाय की चुस्कियों के बीच बीड़ी के कश के साथ खांसी की ठक्-ठक् में सांसें नाप रहा है। यह वही कलकत्ता है, जिसकी ताक-झांक राजकमल चौधरी के उपन्यासों-कहानियों में बखूबी दिखाई देती है। दूसरी ओर, हाय महंगाई-हाय बेकारी में ऊभ-चूभ करता एक दूसरा कलकत्ता भी है जो बेकारों या सरकारी-गैर सरकारी कामगारों के रंग-बिरंगे जुलूस के रूप में सड़कों का यातायात जाम करता दिते हबे-दिते हबे (देना होगा-देना होगा) की रट लगाता शहीद मीनार धर्मतल्ला में धर्मघट (जनसभा) किए हुए है। पता नहीं, राजीव गांधी ने कलकत्ता के किस रूप को देखकर यह विवादास्पद टिप्पणी की थी कि कलकत्ता मरता हुआ शहर है। लेकिन इतना निश्चित ही कहा जा सकता है कि वे जो रूप देख सके होंगे, वह बहुरूपिया महानगर की कोई एक खास शक्ल होगी- मौत का इंतजार करते रोगी की। मगर कलकत्ता मर नहीं सकता। काली का यह शहर रक्तबीज है।
कलकत्ता जैसे महानगर तो अमरबेल की तरह होते हैं, जो और भी ज्यादा-ज्यादा फैलते जाते हैं, भले ही वह जिंदगी छीजती चली जाती है जिससे यह अमरबेल रस चूस कर अमर होती है।
कलकत्ता के जन-समुद्र में आबादी का ज्वार ही ज्वार है। वरना महानगर का तट तोड़कर बाड़ी-गाड़ी-बंगला वालों की साल्टलेक सिटी पैदा न होती।
आज दमदम हवाई अड्डा और उससे भी आगे तक फैली नई आबादी की बस्तियां जन-समुद्र में आबादी के ज्वार का ही नतीजा हैं। आबादी का यह ज्वार महानगर के चौतरफा देखा जा सकता है। मेट्रो रेल के चालू होने के बावजूद बसों में भीड़ कम होने के बजाय कुछ ज्यादा ही हुई है। महानगर में आबादी के उफान का अहसास चौबीस परगना और हावड़ा-हुगली जिलों के उपनगरों में रिहायशी जमीन की कीमत से भी किया  जा सकता है। जो जमीन दस-पंद्रह साल पहले चार-पांच हजार रुपए कट्ठा की दर से आसानी से मिल जाती थी, वही जमीन आज साठ-सत्तर हजार रुपए कट्ठा की कीमत पर भी मुश्किल से मिल पाती है।
मगर कलकत्ता इतना भर ही हो तो फिर कलकत्ता क्या! अमरबेल की तरह फैलते कलकत्ता में अगर जिंदगी की छीजन देखनी हो तो फुटपाथों पर, पुलों के नीचे, सरकारी और पुरानी इमारतों के अनुपयोगी बरामदों और कोनों में छितराई-सिमटी स्थाई-अस्थाई फुटपाथी आबादी को देखिए। फुटपाथ पर और खुले आसमान के नीचे जिंदगी बसर करने वालों की तादाद हजारों में नहीं, लाखों में है। खुले पार्कों और वृक्षों के नीचे रहने वाले पॉलिथिन, बोरे और टाट के टुकड़ों से अपना रैन बसेरा बनाए हुए हैं। कूड़े के ढेर से रद्ïदी बीनने वाले, होटलों के जूठन पर पेट पालने वाले, पैंतीस-चालीस की उम्र होने तक बुढ़ा जानेवाले लोगों की यह जिंदगी भले ही क्षण-भंगुर हो, मगर उनका संसार क्षण-भंगुर नहीं है। तमाम सरकारी फाइलें और योजनाएं मुंह चुराती फिरती हैं इस दुनिया से। यह न तो मुख्यमंत्री कामरेड ज्योति बसु का कलकत्ता था और न मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्ïटाचार्य का कलकत्ता है।
सियालदह में ऐसे ही एक फुटपाथ पर रहने वाले लगभग 35 वर्षीय मुकुंद दास ने बताया- भइया, इसी फुटपाथ पर चोर, गुंडे, पाकेटमार, वैगन-ब्रेकर आदि भी पैदा होते हैं, वे लोग तो किसी के लिए किराए पर या गिरोह में काम करते हैं, इसलिए धर-पकड़ होने पर आसानी से छूट जाते हैं, पर मेरे जैसा यदि कोई पेट के लिए मजबूर होकर कुछ करता है तो पिटाई अलग, जेल में ले जाकर ठूंस देते हैं।
इसी तरह सियालदह इलाके में ही फुटपाथ पर, मगर दिन के उजाले में नहीं, रात के अंधेरे में रहने वाली अस्थाई फुटपाथी लड़कियां शांति, विमला और वंदना ने काफी झिझक और ना-नुकुर के बाद यह कबूल किया कि वे देह का धंधा करती हैं। बहूबाजार में सड़क के नुक्कड़ पर वे शाम को खड़ी हो जाती हैं तो रातभर में सौ-डेढ़ सौ रुपए या कभी-कभी इससे ज्यादा भी कमा लेती हैं। कारण वही गरीबी, छोटे-छोटे भाई-बहन और बूढ़े-बीमार मां-बाप। चौबीस परगना जिले के देहात की हैं ये लड़कियां। पुलिस की वसूली और वजह-बेवजह तंग किए जाने की शिकायत इन्हें भी है। महानगर के जीवन की छीजन की यह आखिरी परत है। मगर एक परत और भी है, जिसे सोनागाछी, मुंशीगंज, बहूबाजार आदि देह व्यापार की बड़ी मंडियों के रूप में देखा जा सकता है।
बहरहाल, यह तो अकेले कोलकाता की ही नहीं, मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों की भी साझा त्रासदी है। मगर कोलकाता की सर्वाधिक मार्मिक और कारुणिक तसवीर तो वह है, जो उत्तर प्रदेश और बिहार की तरफ से होकर आनेवाली रेलगाडिय़ों की कोख से पैदा होती है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर, इलाहाबाद, जौनपुर, आजमगढ़, बलिया, गाजीपुर, गोरखपुर और बिहार के आरा, छपरा, गया, सिवान, पटना, भागलपुर आदि जिलों के गांवों-कस्बों से कोलकाता कमाने आए लाखों परदेसियों की व्यथा-कथा इन जिलों के देहात में लोकगीत बनकर जैसे औरतों के कंठहार बन गई है। कोलकाता महानगर अपने परदेसी की प्रतीक्षा में दिन गुजारने वाली औरतों के लिए एक टीस है- किसी सौत से कम नहीं है। अकेले महानगर में रहने वाले भोजपुरी भाषा-भाषियों की तादाद पंद्रह लाख से ऊपर पहुंचती है। उत्तर प्रदेश और बिहार के जातियों की बेड़ी में जकड़े इन सामंती जिलों के नौजवान-अधेड़ और बूढ़े हर साल सूखा और बाढ़ की मार खाकर ट्रेनों में टिड्डियों के दल की भांति चढ़ते हैं और हावड़ा का पुल पार करके महानगर की मायावी गुफा में समा जाते हैं।
अच्छा कमाएंगे, चार पैसा जुटाएंगे और फिर घर वापस लौट जाएंगे- का सपना लेकर आनेवालों के सपने रास्ते में ही ट्रेन की भीड़भाड़ और धक्कामुक्की में जो दबना-कुचलना शुरू होते हैं तो महानगर में पहुंचते-पहुंचते लहूलुहान हो जाते हैं। कठिन मेहनत-मशक्कत से सालभर में कमाकर, कलेजे पर पत्थर रखे, पेट काटे किसी भोजपुरी मजदूर की जेब वापसी में अगर मोकामा पैसेंजर में कट जाए और वह बुक्का फाड़कर माई गे-बाबू गे की दुहाई देता हुआ रो पड़े तो उस महाकरुणा की गिरफ्त में आने से बच पाना किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए मुश्किल हो जाता है।
कोलकाता के मोटिया मजदूर, होटल-रेस्तराओं में पानी भरते, बर्तन धोते, झालमुड़ी बेचते, पार्कों में चलती-फिरती अंगीठियों में गरम चाय बेचते, खोमचा लगाते, ठेला खींचते, पीठ पर माल ढोते-माल उतारते और हावड़ा-सियालदह के प्लेटफार्म पर आधे बांह की लाल कमीज पहने कुलियों के रूप में यूपी-बिहार के ये भोजपुरी लोग मिल जाएंगे। उजड्ïड-गंवार की हिकारत झेलकर, कनपटी का पसीना पोंछ मुस्करा देनेवाले इस भोजपुरी बिहारी को पता नहीं कब लागा झुलनिया का धक्का, बलम कलकत्ता निकल गए। इन लाखों भोजपुरी भाषियों के लिए रवींद्र सदन, अकादमी ऑफ फाइन आर्ट्स, सिनेमा का सरकारी पे्रक्षागृह नंदन आदि कोई अर्थ नहीं रखते। रामऔतार उपाध्याय नामक तोता-भविष्य वाचक एक ज्योतिषी, जो चौरंगी के फुटपाथ पर बरसों से बैठते आ रहे हैं, बताते हैं कि वे पहली बार जब कलकत्ता आए थे तब उनकी उम्र पंद्रह साल थी, आज वे छप्पन साल के हैं। बीस साल पहले उनकी कमाई अच्छी थी, मगर अब दिनभर में पचास रुपए भी मिल जाएं तो गनीमत है। फिर भी कहते हैं- जब सारी उमर इसी कलकत्ते में कट गई तो अब अंत में कहां जाएंगे, बचवा?
पता नहीं, ऐसे कितने रामऔतार इस कोलकाता में होंगे, जो भिखारी ठाकुर के बिदेसिया का सच ढो रहे हैं-
छह रे महीना कहि के गइले कलकतवा,
बीति गइले बारह बरिस रे बिदेसिया...
अब कोयला इंजन वाली ट्रेन का जमाना तो रहा नहीं और न छह पैसे का एक आनेवाला, लेकिन उसी जमाने से यूपी-बिहार के लोग परदेसी बनकर कोलकाता खाने-कमाने आते रहे हैं। यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। उनको ढोनेवाले इंजन की छुक-छुक्, छक्-छक् भोजपुरी इलाकों के देहात में बच्चों के रेल के खेल का छह-छह पैसा चल कलकत्ता बन गया है। देखिए कि आदमी अपने विषाद को भी कैसे विनोद में बदल देता है!
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