धरम-धक्के में निकली जान

अरविंद चतुर्वेद अपनी भोली श्रद्धा और अटूट आस्था लेकर जो धर्मभीरू-धर्मप्राण लोग हजारों-लाखों की तादाद में किसी धार्मिक स्थल पर अपनी प्रार्थना निवेदित करने जाते हैं और उनमें से कुछ लोग धरम-धक्के में जान गंवा बैठते हैं, उनके लिए अफसोस ही तो जताया जा सकता है। यह समझ में नहीं आता कि हमारे तीथों, मंदिरों अथवा दूसरे धार्मिक स्थलों के जो कर्ता-धर्ता होते हैं, वे ऐसी सुचारू व्यवस्था क्यों नहीं बना पाते कि वहां पहुंचने वाले भक्तों और श्रद्धालुओं में भेड़ियाधसान की नौबत ही न आए। अलबत्ता कोई दुर्घटना या हादसा हो जाने के बाद जितनी तरह की बातें की जाती हैं या बनाई जाती हैं, उनमें केवल बच निकलने के बहाने होते हैं या अपना दोष किसी और पर टालने की कोशिश नजर आती है। अब चाहे मथुरा के बरसाना स्थित राधारानी मंदिर में मची भगदड़ में दो महिलाओं के जान गंवाने का मामला हो या फिर उसके अगले ही दिन झारखंड के देवघर में प्रतिष्ठित धर्मगुरू ठाकुर अनुकूल चंद्र के आश्रम में उनकी 125वीं जयंती पर जुटे अनुयायियों की भीड़ में पिसकर नौ वृद्ध जनों के प्राण निकलने और दर्जनों के घायल होने का हादसा हो, इनके पीछे दोनों जगहों पर कमोबेश एक जैसी वजहें सामने आ रही हैं। देवघर वाले मामले में यह कहना कि पहले से अंदाजा नहीं था कि इतनी बड़ी तादाद में अनुयायी उमड़ पड़ेंगे, यह जिम्मेवारी को नजरअंदाज करने का बहुत ही हास्यास्पद और अविश्वसनीय बहाना लगता है। आखिर यह ठाकुर अनुकूल चंद्र की 125वीं जयंती का आयोजन था और उनकी जयंती पर पहले से ही हर साल आयोजन होते आ रहे हैं तो आयोजकों को भीड़ संभालने के मामले में अनाड़ी के बजाय अनुभवी होना ही चाहिए। आश्रम के कर्ता-धर्ता अच्छी तरह जानते हैं कि अनुकूल ठाकुर के अनुयायी पश्चिम बंगाल और ओड़िशा से लेकर असम, झारखंड व बिहार में और इसके बाहर भी फैले हुए हैं। असली बात तो यह है कि धामर्कि स्थलों, मंदिरों, तीथों के कर्ता-धर्ता लोगों का ध्यान दान-दक्षिणा, भेंट-चढ़ावा आदि पर ज्यादा रहता है, वहां जुटने वाले भक्तों की भीड़ को संभालने, व्यवस्थित करने और उन्हें अनुकूल सुविधाएं-सहूलियतें देने पर कम रहता है। कहना नहीं होगा कि धर्मस्थलों या आश्रमों के व्यवस्थापक मानकर चलते हैं कि विशेष अवसरों पर जुटने वाले भक्तों की भीड़ को संभालना स्थानीय प्रशासन का काम है। यही वजह है कि इन हादसों में अपनों को खो चुकी आंखों में आंसुओं के साथ-साथ पुलिस और प्रशासन के लिए गुस्सा है। जैसी कि खबर है देवघर के ठाकुर अनुकूल चंद्र आश्रम में प्रार्थना के दौरान भगदड़ की घटना तड़के ही हो गई थी। हर साल ठाकुर की समाधि पर लगने वाले मेले के दौरान इस बार सत्संग में दो लाख से ’यादा लोग जुट गए थे। बताया जा रहा है कि जिस जगह सत्संग हो रहा था, वहां का दरवाजा काफी छोटा होने की वजह से धक्कामुक्की और भगदड़ की नौबत आई। इसी तरह बरसाने के राधारानी मंदिर में भी राधाष्टमी पर हजारों भक्तों का हुजूम उमड़ पड़ा था, जिसे दर्शन-पूजन के दौरान संभाला नहीं जा सका और धक्के खाकर ऊंचाई पर स्थित मंदिर की सीढि.यों से लुढ़क कर दो महिलाओं ने प्राण गंवाए तो कुछ लोग घायल भी हो गए। लेकिन दोनों ही हादसों की जवाबदेही से बचने के लिए दोनों जगह के प्रशासन की बातें कुछ वैसी ही हैं, जैसे भुखमरी से हुई मौतों के मामले में प्रशासन कहता है कि मौत भूख से नहीं बीमारी से हुई है। यानी प्रशासन का कोई दोष नहीं, वह तो भक्तों की अनियंत्रित अधीरता और उत्साह ही था, जो धरम-धक्के के बाद भगदड़ में बदल गया। सवाल तो धर्मस्थलों के कर्ता-धर्ता लोगों से भी है कि हजारों-लाखों अनुयायियों के बावजूद वे कुछ सौ वालेंटियर क्यों नहीं तैयार कर लेते, जो खास आयोजनों पर सुचारू व्यवस्था बनाएं और भीड़ को नियंत्रण में रखें!
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केहि विधि रहना!





ऐसा नहीं है कि खाइं सिर्फ गांवों और शहरों के बीच ही है। खुद शहरों में भी आबादियों के बीच गहरी खाइयां हैं और अनेक परतें हैं। मध्यकाल के किसी संत कवि ने एक सवाल उठाया था- ऐसी नगरिया केहि विधि रहना, लेकिन रहने की मुश्किलें आज भी कम नहीं हैं। यह सवाल आम शहरी से लेकर सरकार के लिए भी बड़ी चुनौती बना हुआ है। गांवों के विकास का चाहे जितना कीर्तन करें और ग्रामीण रोजगार बढ़ने का ढोल पीटें, लेकिन हकीकत यह है कि आज भी गांवों से शहरों की ओर आबादी का जबरदस्त खिंचाव बना हुआ है और भीड़ व आबादी के समंदर में शहर छटपटा रहे हैं। शहरों में लोगों के पास रहने को घर नहीं हैं। आवास की समस्या कितनी गहरी है, यह शहरों के फुटपाथों, शहर सीमांत की झुग्गी-झोपड़ियों और शहर के भीतर भी किसी कोने-अंतरे में चकत्ते की तरह आबाद अव्यवस्थित रहवास के रूप में देख सकते हैं। एक ताजा सरकारी रिपोटर् के मुताबिक देश के शहरों में पौने दो करोड़ मकानों की कमी है और विडंबना यह भी कि एक करोड़ से ’यादा मकान खाली पड़े हैं, जिनमें कोई रहने वाला नहीं है। यानी इसी को कहते हैं जल बिच मीन पियासी। सरकारी रिपोर्ट बताती है कि शहरों में रहने वाले कुल 8.11 करोड़ परिवारों में से 1.87 करोड़ परिवारों के पास रहने की उचित जगह नहीं है। ऐसे में घरों की कमी से निपटने के लिए दूसरे उपायों के अलावा केंद्रीय आवास मंत्रालय ने सभी रा’य सरकारों को सलाह दी है कि अगर किसी के पास एक से अधिक मकान हैं और वे लगातार खाली रहते हैं तो उन मकानों के मालिक से टैक्स अथवा लेवी वसूल की जाए। आवास मंत्रालय द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति की रिपोटर् में बताया गया है कि देश में करीब एक करोड़ 10 लाख मकान बंद पड़े हैं, जिनमें लंबे समय से कोई नहीं रहता है। केंद्रीय आवास एवं शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्री कुमारी शैलजा का कहना है कि सरकार किसी को दूसरा, तीसरा या चौथा मकान खरीदने से तो नहीं रोक सकती और न ऐसा चाहती ही है, लेकिन अगर किसी के पास एक से अधिक मकान हैं तो उन्हें खाली न रखा जाए। यानी कि मकान मालिक या उसका परिवार उसमें नहीं रहता तो उसे किराए पर दे दे, ताकि मकानों की कमी से एक हद तक निपटा जा सके। यदि कोई फालतू यानी अतिरिक्त मकान खाली ही रख रहा है तो उस पर राज्य सरकारें टैक्स या लेवी लगाकर हासिल पैसे का इस्तेमाल गरीबों के लिए मकान बनाने में कर सकती हैं। प्रोफेसर अमिताभ कुंडू की अध्यक्षता वाली विशेषज्ञ समिति का अनुमान है कि अगली पंचवर्षीय योजना 2012-17 में देश में करीब एक करोड़ 87 लाख 80 हजार मकानों की कमी रहेगी। इसमें से 56.2 फीसदी कमी ईडब्लूएस यानी आर्थिक रूप से पिछड़ी श्रेणी में रहेगी, जबकि एलआईजी में 39.5 प्रतिशत और एमआईजी में 4.3 प्रतिशत मकानों की कमी का अंदाजा लगाया गया है। विशेषज्ञ समिति के अनुसार अभी के हालात में देशभर में एक करोड़ से भी ज्यादा जो मकान यों ही बंद अथवा खाली पड़े हुए हैं, उनमें से उत्तर प्रदेश में 8.79 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 19.04 प्रतिशत तो पश्चिम बंगाल में 4.80 प्रतिशत हैं। इसी तरह आंध्र प्रदेश में 5.53 प्रतिशत, तमिलनाडु में 6.44 प्रतिशत, बिहार में 1.55 प्रतिशत और राजस्थान में 5.79 प्रतिशत मकानों में कोई रहने वाला नहीं है और वे खाली पड़े हुए हैं। विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट का ध्यान देने लायक पहलू यह भी है कि जिन राज्यों के शहरों में मकान खाली पड़े रहने के आंकड़े दिए गए हैं, उन्हीं राज्यों में कुल मकानों की कमी का 60 प्रतिशत हिस्सा आता है। मालूम हो कि शहरों में मकानों की कमी से निपटने के लिए केंद्र रा’य सरकारों को राजीव आवास योजना के तहत किराए के मकान बनाने के लिए आर्थिक मदद दे रहा है। यही नहीं, रा’यों से कहा गया है कि वे अपने यहां मॉडल रेंट कंट्रोल एक्ट बनाएं, जिसे किराए के मकानों पर लागू किया जाए। कुल मिलाकर तस्वीर यही है कि आजादी के इतने वषों बाद भी रोटी, कपड़ा और मकान की बुनियादी चुनौती बरकरार है।
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