महंगाई की बारिश में समर्थन मूल्य की छतरी

अरविन्द चतुर्वेद : 
मानसून की  आहट मिल चुकी  है और सरकार ने हर साल की  तरह खरीफ की  फसलों के समर्थन मूल्य घोषित कर दिए हैं। यह अलग बात है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की छतरी महंगाई की तूफानी बारिश में किसानों समेत देश के उपभोक्ताओं को  भीगने और गलने से कितना बचा पाती है। इंद्रदेव से प्रार्थना कीजिए  कि मानसून की कृपा  बनी रहे ताकि खेती -किसानी अच्छी  हो जाए। इसके दो फायदे होंगे- एक  तो पैदावार अच्छी होगी तो किसानों और ग्रामीन  भारत को राहत मिलेगी, दूसरे सरकार को  अब तक  महंगाई के लिए खराब मौसम की  बहानेबाजी का  मौका नहीं मिलेगा। फिर  भी ऐसा हो सकता है कि अगर महंगाई बनी ही रहती है तो अपने कृषि  मंत्री शरद पवार और अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह मिलजुल कर कोई नई अर्थशास्त्रीय बहानेबाजी खोज ही लेंगे। प्रधानमंत्री की  अध्यक्षता  में संसद की  आर्थिक  समिति ने दाल-दलहन की  आसमान छूती कीमतों को  ध्यान  में रखते हुए इस बार खरीफ की  दलहन फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में जबरदस्त बढ़ोतरी करते हुए कीर्तिमान ही कायम कर डाला है। सरकार के  फैसले के  मुताबिक  अरहर, मूंग और उड़द के  न्यूनतम समर्थन मूल्य में 380 से 700 रुपए कुंतल  की  वृद्धि कर दी गई है। अब अरहर दाल का न्यूनतम समर्थन मूल्य 3000 रुपए कुंतल होगा, जबकी  मूंग का  न्यूनतम समर्थन मूल्य  410 रुपए बढ़ाकर 3,170 रुपए और उड़द का  380 रुपए बढ़ाकर 2,900 रुपए प्रति-कुंतल कर दिया गया है। सरकार की  तरफ  से यह भी कहा गया है कि अनाजों दाम किसानों को  मंडियों में फसल के आने के  दो महीने के  भीतर मिल जाएगा। बताया गया है कि कृषि लागत और कीमत आयोग की सिफारिशों को  ध्यान  में रखते हुए सरकार ने समर्थन मूल्य बढ़ाए हैं, बल्कि  सिफारिशों से कुछ ज्यादा ही समर्थन मूल्य घोषित किया है। दलहन फसलों के अलावा धान का  न्यूनतम समर्थन मूल्य भी 50 रुपए बढ़ाकर हजार रुपए कुंतल कर दिया गया है। दलहन फसलों पर प्रति किलो  पांच रुपए की अतिरिक्त प्रोत्साहन राशि देने की भी सरकार ने बात कही है। सरकार का मकसद शायद  यह हो कि किसानों को खेती की लागत से ज्यादा मूल्य दिया जाए ताकि  उत्साहित  होकर देश भर के किसान दलहन फसलों की  खेती में ज्यादा दिलचस्पी लें और दलहन खेती का रकबा बढ़ जाए। शायद यह इसलिए भी जरूरी है कि देश को  खिलाने भर के  लिए दाल का  पर्याप्त उत्पादन  न होने के कारण हर साल सरकार को करीब 40 लाख टन दालों का  आयात करना पड़ता है। लेकिन क्या  समर्थन मूल्य में यह बढ़त खेती के घाटे को पाटने में सक्षम साबित हो सकेगी? यह याद रखना होगा कि  डीजल की आसमान छूती कीमतें, महंगी रासायनिक  खाद व महंगे कीटनाशकों समेत महंगाई के ही अनुरूप खेत मजूरी में वृद्धि -- कुल  मिलाकर अपने देश में किसानों को घाटे की  खेती हताश और हतोत्साहित किये  रहती है। फिर  इस बात की गारंटी कौन दे सकता है कि किसानों को उनकी उपज का पूरा मूल्य बिचौलियों और कमीशनखोरों के बीच में आए बगैर ही मिल जाएगा? समर्थन मूल्य में बढ़त का बहाना लेकर आढ़तियों से लेकर अनाज बाजार के  छोटे-बड़े कारोबारी अनाजों के दाम बढ़ाकर क्या  आम उपभोक्ताओं की माली हालत और पतली नहीं करेंगे? बात-बात पर अमेरिका को आदर्श मानने वाली हमारी सरकार आखिर किसानों को  खेती पर न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने के बजाय अधिकतम सब्सिडी  देने के बारे में क्यों  नहीं सोचती!
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