अरविंद चतुर्वेद
अपनी भोली श्रद्धा और अटूट आस्था लेकर जो धर्मभीरू-धर्मप्राण लोग हजारों-लाखों की तादाद में किसी धार्मिक स्थल पर अपनी प्रार्थना निवेदित करने जाते हैं और उनमें से कुछ लोग धरम-धक्के में जान गंवा बैठते हैं, उनके लिए अफसोस ही तो जताया जा सकता है। यह समझ में नहीं आता कि हमारे तीथों, मंदिरों अथवा दूसरे धार्मिक स्थलों के जो कर्ता-धर्ता होते हैं, वे ऐसी सुचारू व्यवस्था क्यों नहीं बना पाते कि वहां पहुंचने वाले भक्तों और श्रद्धालुओं में भेड़ियाधसान की नौबत ही न आए। अलबत्ता कोई दुर्घटना या हादसा हो जाने के बाद जितनी तरह की बातें की जाती हैं या बनाई जाती हैं, उनमें केवल बच निकलने के बहाने होते हैं या अपना दोष किसी और पर टालने की कोशिश नजर आती है। अब चाहे मथुरा के बरसाना स्थित राधारानी मंदिर में मची भगदड़ में दो महिलाओं के जान गंवाने का मामला हो या फिर उसके अगले ही दिन झारखंड के देवघर में प्रतिष्ठित धर्मगुरू ठाकुर अनुकूल चंद्र के आश्रम में उनकी 125वीं जयंती पर जुटे अनुयायियों की भीड़ में पिसकर नौ वृद्ध जनों के प्राण निकलने और दर्जनों के घायल होने का हादसा हो, इनके पीछे दोनों जगहों पर कमोबेश एक जैसी वजहें सामने आ रही हैं। देवघर वाले मामले में यह कहना कि पहले से अंदाजा नहीं था कि इतनी बड़ी तादाद में अनुयायी उमड़ पड़ेंगे, यह जिम्मेवारी को नजरअंदाज करने का बहुत ही हास्यास्पद और अविश्वसनीय बहाना लगता है। आखिर यह ठाकुर अनुकूल चंद्र की 125वीं जयंती का आयोजन था और उनकी जयंती पर पहले से ही हर साल आयोजन होते आ रहे हैं तो आयोजकों को भीड़ संभालने के मामले में अनाड़ी के बजाय अनुभवी होना ही चाहिए। आश्रम के कर्ता-धर्ता अच्छी तरह जानते हैं कि अनुकूल ठाकुर के अनुयायी पश्चिम बंगाल और ओड़िशा से लेकर असम, झारखंड व बिहार में और इसके बाहर भी फैले हुए हैं। असली बात तो यह है कि धामर्कि स्थलों, मंदिरों, तीथों के कर्ता-धर्ता लोगों का ध्यान दान-दक्षिणा, भेंट-चढ़ावा आदि पर ज्यादा रहता है, वहां जुटने वाले भक्तों की भीड़ को संभालने, व्यवस्थित करने और उन्हें अनुकूल सुविधाएं-सहूलियतें देने पर कम रहता है। कहना नहीं होगा कि धर्मस्थलों या आश्रमों के व्यवस्थापक मानकर चलते हैं कि विशेष अवसरों पर जुटने वाले भक्तों की भीड़ को संभालना स्थानीय प्रशासन का काम है। यही वजह है कि इन हादसों में अपनों को खो चुकी आंखों में आंसुओं के साथ-साथ पुलिस और प्रशासन के लिए गुस्सा है। जैसी कि खबर है देवघर के ठाकुर अनुकूल चंद्र आश्रम में प्रार्थना के दौरान भगदड़ की घटना तड़के ही हो गई थी। हर साल ठाकुर की समाधि पर लगने वाले मेले के दौरान इस बार सत्संग में दो लाख से ’यादा लोग जुट गए थे। बताया जा रहा है कि जिस जगह सत्संग हो रहा था, वहां का दरवाजा काफी छोटा होने की वजह से धक्कामुक्की और भगदड़ की नौबत आई। इसी तरह बरसाने के राधारानी मंदिर में भी राधाष्टमी पर हजारों भक्तों का हुजूम उमड़ पड़ा था, जिसे दर्शन-पूजन के दौरान संभाला नहीं जा सका और धक्के खाकर ऊंचाई पर स्थित मंदिर की सीढि.यों से लुढ़क कर दो महिलाओं ने प्राण गंवाए तो कुछ लोग घायल भी हो गए। लेकिन दोनों ही हादसों की जवाबदेही से बचने के लिए दोनों जगह के प्रशासन की बातें कुछ वैसी ही हैं, जैसे भुखमरी से हुई मौतों के मामले में प्रशासन कहता है कि मौत भूख से नहीं बीमारी से हुई है। यानी प्रशासन का कोई दोष नहीं, वह तो भक्तों की अनियंत्रित अधीरता और उत्साह ही था, जो धरम-धक्के के बाद भगदड़ में बदल गया। सवाल तो धर्मस्थलों के कर्ता-धर्ता लोगों से भी है कि हजारों-लाखों अनुयायियों के बावजूद वे कुछ सौ वालेंटियर क्यों नहीं तैयार कर लेते, जो खास आयोजनों पर सुचारू व्यवस्था बनाएं और भीड़ को नियंत्रण में रखें!
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केहि विधि रहना!
ऐसा नहीं है कि खाइं सिर्फ गांवों और शहरों के बीच ही है। खुद शहरों में भी आबादियों के बीच गहरी खाइयां हैं और अनेक परतें हैं। मध्यकाल के किसी संत कवि ने एक सवाल उठाया था- ऐसी नगरिया केहि विधि रहना, लेकिन रहने की मुश्किलें आज भी कम नहीं हैं। यह सवाल आम शहरी से लेकर सरकार के लिए भी बड़ी चुनौती बना हुआ है। गांवों के विकास का चाहे जितना कीर्तन करें और ग्रामीण रोजगार बढ़ने का ढोल पीटें, लेकिन हकीकत यह है कि आज भी गांवों से शहरों की ओर आबादी का जबरदस्त खिंचाव बना हुआ है और भीड़ व आबादी के समंदर में शहर छटपटा रहे हैं। शहरों में लोगों के पास रहने को घर नहीं हैं। आवास की समस्या कितनी गहरी है, यह शहरों के फुटपाथों, शहर सीमांत की झुग्गी-झोपड़ियों और शहर के भीतर भी किसी कोने-अंतरे में चकत्ते की तरह आबाद अव्यवस्थित रहवास के रूप में देख सकते हैं। एक ताजा सरकारी रिपोटर् के मुताबिक देश के शहरों में पौने दो करोड़ मकानों की कमी है और विडंबना यह भी कि एक करोड़ से ’यादा मकान खाली पड़े हैं, जिनमें कोई रहने वाला नहीं है। यानी इसी को कहते हैं जल बिच मीन पियासी। सरकारी रिपोर्ट बताती है कि शहरों में रहने वाले कुल 8.11 करोड़ परिवारों में से 1.87 करोड़ परिवारों के पास रहने की उचित जगह नहीं है। ऐसे में घरों की कमी से निपटने के लिए दूसरे उपायों के अलावा केंद्रीय आवास मंत्रालय ने सभी रा’य सरकारों को सलाह दी है कि अगर किसी के पास एक से अधिक मकान हैं और वे लगातार खाली रहते हैं तो उन मकानों के मालिक से टैक्स अथवा लेवी वसूल की जाए। आवास मंत्रालय द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति की रिपोटर् में बताया गया है कि देश में करीब एक करोड़ 10 लाख मकान बंद पड़े हैं, जिनमें लंबे समय से कोई नहीं रहता है। केंद्रीय आवास एवं शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्री कुमारी शैलजा का कहना है कि सरकार किसी को दूसरा, तीसरा या चौथा मकान खरीदने से तो नहीं रोक सकती और न ऐसा चाहती ही है, लेकिन अगर किसी के पास एक से अधिक मकान हैं तो उन्हें खाली न रखा जाए। यानी कि मकान मालिक या उसका परिवार उसमें नहीं रहता तो उसे किराए पर दे दे, ताकि मकानों की कमी से एक हद तक निपटा जा सके। यदि कोई फालतू यानी अतिरिक्त मकान खाली ही रख रहा है तो उस पर राज्य सरकारें टैक्स या लेवी लगाकर हासिल पैसे का इस्तेमाल गरीबों के लिए मकान बनाने में कर सकती हैं। प्रोफेसर अमिताभ कुंडू की अध्यक्षता वाली विशेषज्ञ समिति का अनुमान है कि अगली पंचवर्षीय योजना 2012-17 में देश में करीब एक करोड़ 87 लाख 80 हजार मकानों की कमी रहेगी। इसमें से 56.2 फीसदी कमी ईडब्लूएस यानी आर्थिक रूप से पिछड़ी श्रेणी में रहेगी, जबकि एलआईजी में 39.5 प्रतिशत और एमआईजी में 4.3 प्रतिशत मकानों की कमी का अंदाजा लगाया गया है। विशेषज्ञ समिति के अनुसार अभी के हालात में देशभर में एक करोड़ से भी ज्यादा जो मकान यों ही बंद अथवा खाली पड़े हुए हैं, उनमें से उत्तर प्रदेश में 8.79 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 19.04 प्रतिशत तो पश्चिम बंगाल में 4.80 प्रतिशत हैं। इसी तरह आंध्र प्रदेश में 5.53 प्रतिशत, तमिलनाडु में 6.44 प्रतिशत, बिहार में 1.55 प्रतिशत और राजस्थान में 5.79 प्रतिशत मकानों में कोई रहने वाला नहीं है और वे खाली पड़े हुए हैं। विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट का ध्यान देने लायक पहलू यह भी है कि जिन राज्यों के शहरों में मकान खाली पड़े रहने के आंकड़े दिए गए हैं, उन्हीं राज्यों में कुल मकानों की कमी का 60 प्रतिशत हिस्सा आता है। मालूम हो कि शहरों में मकानों की कमी से निपटने के लिए केंद्र रा’य सरकारों को राजीव आवास योजना के तहत किराए के मकान बनाने के लिए आर्थिक मदद दे रहा है। यही नहीं, रा’यों से कहा गया है कि वे अपने यहां मॉडल रेंट कंट्रोल एक्ट बनाएं, जिसे किराए के मकानों पर लागू किया जाए। कुल मिलाकर तस्वीर यही है कि आजादी के इतने वषों बाद भी रोटी, कपड़ा और मकान की बुनियादी चुनौती बरकरार है।
गगन घटा घहरानी
अरविन्द चतुर्वेद
क्या मुश्किल है कि आसमान में बादल धरती वालों को ठेंगा दिखाकर चले जाएं, तब भी रोना और अगर घटाएं झूम के बरस जाएं, तब भी मुसीबत। हमने विकास का जो रास्ता चुन लिया है, उसने हमें इस कदर कुदरत विरोधी बना दिया है कि बरसात को ही लीजिए तो या तो हम उसके लायक नहीं हैं या फिर बरसात ही हमारे लायक नहीं रही है। गरमी की झुलसाती तपिश के बाद मानसून के बादल दो दिन झूमकर क्या बरसे कि चारों तरफ से मुसीबत और मुश्किलों की खबरें आ गइं। हमारी नदियां कूड़े-कचरे और गाद से इस कदर अटी-पटी हैं कि बारिश हुई नहीं कि बाढ़ आ जाती है, कटान के चलते गांव-खेत-डबरे जलमग्न हो जाते हैं, बस्तियों-घरों में पानी भर जाता है, कज्जे मकान गिर पड़ते हैं और कई बार कई जगह जान-माल से भी हाथ धोना पड़ता है। बरसात के पहले नदी तटों की भ्रष्टाचार मुक्त मरम्मत कर ली जाए, तटबंधों को दुरूस्त व पुख्ता कर लिया जाए और दिन-ब-दिन छिछली होती नदियों के पेटे में बरसों से जमी गाद निकाल ली जाए तो जल प्रवाही नदियां हमारी कोई दुश्मन नहीं हैं, जो बाढ़ बनकर हम पर यों टूट पड़ें। असल में नदियों के साथ जैसा बुरा सुलूक हम सालों-साल करते हैं, बरसात में मौका मिलने पर हमारी कारस्तानी का सूद समेत खामियाजा चार महीने में बाढ़ के रूप में नदियां हमें लौटा देती हैं। हम चीखते-चिल्लाते हैं, हाथ-पांव मारते हैं, फिर भी कोई सबक नहीं सीखते। दूसरे, नदियों से कम प्रदूषित हमारा प्रशासनिक तंत्र और सियासी पेचोखम नहीं है- राज्य सरकारें केंद्र पर तो केंद्र सरकार राज्यों पर नदियों के मामले में दांव खेलती रहती हैं और प्रशासनिक तंत्र तो खैर कागजों में ही सबकुछ चुस्त-दुरूस्त कर लिया करता है। आखिर नदियां और नहरें भी तो कमाई के अच्छे स्रोत हैं! मसलन, उत्तर प्रदेश के ही सुलतानपुर में सिंचाई विभाग के एक इंजीनियर साहब ने कागज में ही कई किलोमीटर लंबी नहर का काम तमाम करके लाखों रूपए का वारा-न्यारा कर लिया है। अब इस मामले की जांच भी हो रही है और साथ ही कहते हैं कि इसे दबाने की कोशिश भी चल रही है। बहरहाल, हर साल की तरह शुरूआती बरसात ने ही उत्तर प्रदेश में सरकारी कामकाज की पोल-पटूटी खोलकर रख दी है। प्रदेश के जनपदों और दूर-दराज के इलाकों की तो छोड़ ही दीजिए, राजधानी लखनऊ में एक-डेढ़ महीने पहले बनी नई सड़कें तक दो दिन की बरसात में कई जगह धंस गइं- कई जगह उनकी ठठरी निकल आई। समझा जा सकता है कि कितना गुणवत्तायुक्त काम हुआ है और कैसी पैसे की बंदरबांट हुई है। शहर के नाले इसलिए उफना पड़े कि उनकी सफाई ही नहीं हुई। सड़कों पर पानी भर गया, क्योंकि जल निकासी का बेहतर इंतजाम ही नहीं है। शहर में जगह-जगह गडूढे खुदे हुए हैं, मोरम और मलबा पड़ा हुआ है। सारा काम जून में पूरा हो जाना चाहिए था, लेकिन अभी तक लस्टम-पस्टम चल रहा है। खुदे हुए गडूढों में बरसात का पानी भर जाए और किसी की जान भी चली जाए तो बेशर्म प्रशासन को क्या फर्क पड़ता है? फिल्मों में और कविता में बरखा-बहार भले ही बहुत रूमानियत भरी हो, मगर हमारी व्यवस्था का एक बरसाती बीमार चेहरा यह भी है कि बीते बरस की तरह इस बार के मौसम में भी उत्तर प्रदेश में गोदामों की किल्लत के चलते कई जगहों पर करोड़ों रूपए के हजारों कुंतल गेहूं खुले आसमान तले भीगकर सड़ रहे हैं, जो सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए गरीबों का पेट भरते। सार्वजनिक खाद्यान्न की इस बर्बादी का दोषी कौन है- हमारी सड़ी व्यवस्था या बेचारी यह बरसात?
आत्मीय एक छवि तुम्हें नित्य भटकाएगी
कवि मुक्तिबोध की पांच चरणों में लिखी कविता का पहला और अंतिम हिस्सा प्रस्तुत है। जिंदगी क्या आत्मीयता की तलाश में एक पुलक भरा भटकाव है? क्या यह भटकाव ही हमें अनुभव सम्पन्न नहीं बनाता? इस भटकाव में ही जिंदगी को अर्थवत्ता मिलती है...
पता नहीं.../मुक्तिबोध
पता नहीं, कब कौन कहां किस ओर मिले
किस सांझ मिले, किस सुबह मिले!!
यह राह जिंदगी की
जिससे जिस जगह मिले
हैं ठीक वहीं, बस वहीं अहाते मेंहदी के
जिनके भीतर
है कोई घर
बाहर प्रसन्न पीली कनेर
बरगद ऊंचा, जमीन गीली
मन जिन्हें देख कल्पना करेगा जाने क्या!!
तब बैठ एक
गंभीर वृक्ष के तले
टटोलो मन, जिससे जिस छोर मिले,
कर अपने-अपने तप्त अनुभवों की तुलना
घुलना मिलना!!
.............
अपनी धकधक
में दर्दीले फैले-फैलेपन की मिठास,
या नि:स्वात्मक विकास का युग
जिसकी मानव-गति को सुनकर
तुम दौड़ोगे प्रत्येक व्यक्ति के
चरण-तले जनपथ बनकर!!
वे आस्थाएं तुमको दरिद्र करवाएंगी
कि दैन्य ही भोगोगे
पर, तुम अनन्य होगे,
प्रसन्न होगे!!
आत्मीय एक छवि तुम्हें नित्य भटकाएगी
जिस जगह, जहां जो छोर मिले
ले जाएगी...
...पता नहीं, कब कौन कहां किस ओर मिले।
पता नहीं.../मुक्तिबोध
पता नहीं, कब कौन कहां किस ओर मिले
किस सांझ मिले, किस सुबह मिले!!
यह राह जिंदगी की
जिससे जिस जगह मिले
हैं ठीक वहीं, बस वहीं अहाते मेंहदी के
जिनके भीतर
है कोई घर
बाहर प्रसन्न पीली कनेर
बरगद ऊंचा, जमीन गीली
मन जिन्हें देख कल्पना करेगा जाने क्या!!
तब बैठ एक
गंभीर वृक्ष के तले
टटोलो मन, जिससे जिस छोर मिले,
कर अपने-अपने तप्त अनुभवों की तुलना
घुलना मिलना!!
.............
अपनी धकधक
में दर्दीले फैले-फैलेपन की मिठास,
या नि:स्वात्मक विकास का युग
जिसकी मानव-गति को सुनकर
तुम दौड़ोगे प्रत्येक व्यक्ति के
चरण-तले जनपथ बनकर!!
वे आस्थाएं तुमको दरिद्र करवाएंगी
कि दैन्य ही भोगोगे
पर, तुम अनन्य होगे,
प्रसन्न होगे!!
आत्मीय एक छवि तुम्हें नित्य भटकाएगी
जिस जगह, जहां जो छोर मिले
ले जाएगी...
...पता नहीं, कब कौन कहां किस ओर मिले।
नाम में क्या रखा है!
सोनागाछी में सोने का गाछ यानी पेड़ न कभी था, न आज है। फिर भी नाम सोनागाछी है। कुछ बुजुर्गों का कहना है कि पुराने जमाने में यह जगह सोने के गहने-जेवर बनाने-बेचने की पूर्वी भारत में एक बड़ी मंडी थी और तब के हिसाब से यहां बहुत निपुण स्वर्णकार बसते थे. बृहत्तर सोनागाछी इलाके में आज भी सोना-चांदी की कुछ दूकानें हैं, पर सोने की मंडी के रूप में सोनागाछी कोलकाता महानगर में भी मशहूर नहीं है।
पुराने जमाने की सोने की मंडी बताने वाले बुजुर्गों का खयाल है कि दूर-देहात से आनेवाली भोली और सोने की लोभी सुंदर औरतों को ऐय्याश किस्म के स्वर्णकार और दूसरे लोग बहका लिया करते थे। धीरे-धीरे यह आम बात हुई और सोनागाछी ऐय्याशी की छोटी-मोटी मंडी बन गई। लेकिन कंचन और कामिनी के संयोग से पैदा हुई सोनागाछी के लिए इतिहास की कोई गली नहीं खुलती। इसे लोक-लोक की बात ही कह सकते हैं।
फिर सोनागाछी नाम क्यों पड़ा इस बदनाम बस्ती का? एक थीं देवी सोना गाजी। उनकी सोनागाछी में मजार भी है। वे इतनी मशहूर हुईं कि इस इलाके का नाम ही उनके नाम पर हो गया। यानी सोना गाजी से सोनागाछी। बहरहाल, इतिहास में झांकते हैं तो पाते हैं कि मनोरंजन के आधुनिक साधनों से दूर 18वीं-19वीं सदी के अंग्रेजी भारत में कलकत्ता का मुख्य मनोरंजन केंद्र थी सोनागाछी। पानी के जहाज से आनेवाले सात समुंदर पार के लोगों का भी मन बहलाती थी सोनागाछी। हुगली की लहरों पर चांदनी रात में हिचकोले खाती नौकाओं पर अंग्रेज साहबों का साथ देती थी यह सोनागाछी। बड़े-बड़े जमींदारों, सेठ-साहूकारों, उनके बिगडै़ल लाडलों, रईसों के पहलू में भी थी सोनागाछी। पर तब सोनागाछी आम ग्राहक की नहीं थी, जैसी कि आज नजर आती है।
असल में सोनागाछी के विकास में बंगाल के अकाल, ऐतिहासिक बंगभंग और फिर पूर्वी पाकिस्तान के रूप में एक हिस्से के चले जाने का बड़ा हाथ है. बड़ा हाथ है पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान के आज़ाद मुल्क बंगलादेश बनने का भी.
नजीर के तौर पर १९८०-८१ में सोनागाछी आई संध्या दे की दास्ताँ ही देखें. बंगलादेश के जैसोर जिले में केशवपुर थाने के तहत एक गाँव है- मध्यकुल ग्राम. संध्या इसी गाँव की बेटी है. जब वह १३-१४ साल की हुई तो उसके पिता सुधीर दे को डर लगा कि बेटी की इज्जत खतरे में है. कभी भी कोई उसे छीनकर ले जा सकता है. संध्या के पिता ने उसे उत्तर चौबीस परगना के हाबरा में नाना-नानी के पास पहुंचा दिया.
एक दिन शेफाली दी नाम की महिला ने गाँव की सीधी-सादी संध्या को कलकत्ता घुमाने का बहाना बनाया और पहुंचा दिया उसे सोनागाछी. संक्षेप में संध्या के सोनागाछी पहुँचने की यही दास्ताँ है. ऐसी सैकड़ों-हज़ारों संध्याओं से अटी पड़ी है सोनागाछी. और, अभी तो सोनागाछी की हालत नो वैकेंसी या हाउस फुल जैसी है.
इतिहास की पगडण्डी पर और पीछे चलते हैं तो १९११ की मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट बताती है कि तब कलकत्ता में १४ हज़ार २७१ महिलायें जिस्म के पेशे में थीं. इस रिपोर्ट के मुताबिक़ तब कलकत्ता की कुल स्त्रियों में से जिनकी उम्र २०-४० साल की है, हर १२ वीं स्त्री जिस्म बेचती है. १२ से २० साल तक की उम्र की लड़कियों में हर सौ में छः लड़कियाँ इस जलालत भरे पेशे में हैं. यह रिपोर्ट कहती है कि १०९६ वेश्या लड़कियों की उम्र दस साल से भी कम है और यों ९० फीसदी वेश्याएं हिन्दू हैं.
सोनागाछी का मतलब है- इस आग के दरिया में डूब ही जाना है...!
पुराने जमाने की सोने की मंडी बताने वाले बुजुर्गों का खयाल है कि दूर-देहात से आनेवाली भोली और सोने की लोभी सुंदर औरतों को ऐय्याश किस्म के स्वर्णकार और दूसरे लोग बहका लिया करते थे। धीरे-धीरे यह आम बात हुई और सोनागाछी ऐय्याशी की छोटी-मोटी मंडी बन गई। लेकिन कंचन और कामिनी के संयोग से पैदा हुई सोनागाछी के लिए इतिहास की कोई गली नहीं खुलती। इसे लोक-लोक की बात ही कह सकते हैं।
फिर सोनागाछी नाम क्यों पड़ा इस बदनाम बस्ती का? एक थीं देवी सोना गाजी। उनकी सोनागाछी में मजार भी है। वे इतनी मशहूर हुईं कि इस इलाके का नाम ही उनके नाम पर हो गया। यानी सोना गाजी से सोनागाछी। बहरहाल, इतिहास में झांकते हैं तो पाते हैं कि मनोरंजन के आधुनिक साधनों से दूर 18वीं-19वीं सदी के अंग्रेजी भारत में कलकत्ता का मुख्य मनोरंजन केंद्र थी सोनागाछी। पानी के जहाज से आनेवाले सात समुंदर पार के लोगों का भी मन बहलाती थी सोनागाछी। हुगली की लहरों पर चांदनी रात में हिचकोले खाती नौकाओं पर अंग्रेज साहबों का साथ देती थी यह सोनागाछी। बड़े-बड़े जमींदारों, सेठ-साहूकारों, उनके बिगडै़ल लाडलों, रईसों के पहलू में भी थी सोनागाछी। पर तब सोनागाछी आम ग्राहक की नहीं थी, जैसी कि आज नजर आती है।
असल में सोनागाछी के विकास में बंगाल के अकाल, ऐतिहासिक बंगभंग और फिर पूर्वी पाकिस्तान के रूप में एक हिस्से के चले जाने का बड़ा हाथ है. बड़ा हाथ है पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान के आज़ाद मुल्क बंगलादेश बनने का भी.
नजीर के तौर पर १९८०-८१ में सोनागाछी आई संध्या दे की दास्ताँ ही देखें. बंगलादेश के जैसोर जिले में केशवपुर थाने के तहत एक गाँव है- मध्यकुल ग्राम. संध्या इसी गाँव की बेटी है. जब वह १३-१४ साल की हुई तो उसके पिता सुधीर दे को डर लगा कि बेटी की इज्जत खतरे में है. कभी भी कोई उसे छीनकर ले जा सकता है. संध्या के पिता ने उसे उत्तर चौबीस परगना के हाबरा में नाना-नानी के पास पहुंचा दिया.
एक दिन शेफाली दी नाम की महिला ने गाँव की सीधी-सादी संध्या को कलकत्ता घुमाने का बहाना बनाया और पहुंचा दिया उसे सोनागाछी. संक्षेप में संध्या के सोनागाछी पहुँचने की यही दास्ताँ है. ऐसी सैकड़ों-हज़ारों संध्याओं से अटी पड़ी है सोनागाछी. और, अभी तो सोनागाछी की हालत नो वैकेंसी या हाउस फुल जैसी है.
इतिहास की पगडण्डी पर और पीछे चलते हैं तो १९११ की मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट बताती है कि तब कलकत्ता में १४ हज़ार २७१ महिलायें जिस्म के पेशे में थीं. इस रिपोर्ट के मुताबिक़ तब कलकत्ता की कुल स्त्रियों में से जिनकी उम्र २०-४० साल की है, हर १२ वीं स्त्री जिस्म बेचती है. १२ से २० साल तक की उम्र की लड़कियों में हर सौ में छः लड़कियाँ इस जलालत भरे पेशे में हैं. यह रिपोर्ट कहती है कि १०९६ वेश्या लड़कियों की उम्र दस साल से भी कम है और यों ९० फीसदी वेश्याएं हिन्दू हैं.
सोनागाछी का मतलब है- इस आग के दरिया में डूब ही जाना है...!
गुनाह और पनाह
अरविन्द चतुर्वेद
जिस्म, जाम और जान की बाजी- तीन खेल से सोनागाछी...। जी हां, सोनागाछी के ये तीन खास खेल हैं। मसलन 1992 में सोनागाछी जिस्म बाजार के एक अड्ïडे से कोलकाता पुलिस के ही एक जवान की लाश मिली थी। कभी-कभार जान लेने-देने के ऐसे हादसे हो जाते हैं तो चंद दिनों के लिए सोनागाछी में तूफान-सा आ जाता है- पुलिस की छापेमारियां, लड़कियों-दलालों की धर-पकड़, काली गाड़ी में सबको लादकर थाने ले जाना। लेकिन वहां भी कबतक रखेंगे? एक-आध दिन में ले-देकर जमानत हो जाती है। फिर सबकुछ पहले जैसा।बड़ी पुरानी कहावत है कि कंचन-कामिनी और मदिरा की तिकड़ी भी अपने आप बन जाती है। जिस्म की दूकान पर मौज-मस्ती के लिए बेफिक्र बनाने में जाम शायद मददगार साबित होता होगा। यह भी हो सकता है कि दो घूंट गले से उतरने के बाद गलत काम का अपराध बोध काफूर हो जाता हो। या फिर बेपर्दगी का सामना करने के लिए शराब पीकर पर्देदार लोग अपनी झिझक व शर्म भगाते हों और हिम्मत जुटाते हों।
मसलन, दलाल के साथ गली से गुजरते हुए एक बेफिक्र अधेड़ और उसके साथ लडख़ड़ाते हुए चल रहे 25-26 साल के युवक के बीच की बातचीत गौर करने लायक है-
- अमां यार, घबड़ाने की क्या बात थी? साला, मूड खराब हो गया। बेकार तुमको दारू पिलाया।
- नेई, ये बात नेई। हमको वो जंची ही नेई। मेरा सर चक्कर खा रहा था, साला।
- तेरे चक्कर में हमारा भी मजा खराब हो गिया। हम अब्बी और दारू पिएगा।
- ठीक है, हम आपको दारू पिलाएगा। बाकी आपको कसम, अब्बा को बिल्कुल खबर न चले।
- हम तुम्हारा दारू नेई पिएगा। तुमको हमारा यकीन नेई? क्या समझता, हमारे पास पैसा नेई?
वह अधेड़ आदमी नशे के सुरूर में नौजवान पर उखड़ गया। नौजवान नशे में लडख़ड़ाती आवाज में अधेड़ साथी को मनाने की कोशिश में मिमियाने लगा। गरमी कुछ खास नहीं थी, फिर नौजवान का चेहरा पसीने से तर-ब-तर क्यों था- घबराहट और डर की वजह से, या तेज नशे में खाए पान के किमाम व जर्दे की वजह से?
सोनागाछी की गलियों में कई जगह तो जाहिरा तौर पर शराब मिलती है और कई जगह किस्म-किस्म की ऐसी रंग-बिरंगी शीशियों-बोतलों में कि सरसरी तौर पर लगे कहीं यह शरबत या टॉनिक तो नहीं है। प्याजी पकौड़ी की दूकानों पर बाजार की नजाकत से वाकिफ लोगों को गिलास में पानी की जगह पानी के ही रंग वाली देसी दारू भी आसानी से मिल जाती है। कई दूकानों पर चाय-पकौड़ी और दूसरी चीजें बेचना तो महज एक आड़ है। दरअसल इन दूकानों पर बिकती है देसी शराब, जिसे बांग्ला या बांग्लू कहते हैं।
शौकीन ग्राहकों के मांगने पर बाड़ीवाली बऊ दी खुद भी देसी-विदेशी शराब मंगा देती है। लेकिन आम तौर पर धंधे के वक्त लड़कियों के दारू पीने पर मनाही है। शायद इसलिए कि लड़की कहीं धंधे के दौरान ही नशे के सुरूर में बहक कर धंधा चौपट न कर दे। हां, सारी रात के लिए आए और बुक कराए ग्राहक की फरमाइश पर लड़की का दारू-सिगरेट पीना जरूर धंधे का हिस्सा है।
जिस्म बाजार के कई अड्डे किसिम-किसिम के अपराधियों, गुंडे, बदमाशों के पनाहगार भी हैं। क्योंकि वे ग्राहक हैं और ग्राहक के लिए दरवाजा हर वक्त खुले रखना इस बाजार का धर्म है। एक दलाल ने एक दिलचस्प बात बताई कि यहां एक अड्डे पर तो केवल शहर के गुंडे-बदमाश ही आते हैं। यह अड्डा आम ग्राहक के लिए नहीं है। शायद अड्डे की मालकिन ने सब तरह से हिसाब बैठाकर इसे स्पेशल बना रखा है।
..... जारी
बाड़ी वाली बऊ दी उर्फ मौसी
अरविन्द चतुर्वेद
सोनागाछी जिस्म बाजार के संचालन का सारा दारोमदार बाड़ी वाली बऊ दी पर होता है। कुछ तो बऊ दी किस्म की महिलाओं की अपनी बाड़ी है और बहुतेरी बऊ दी मकानों की पुरानी किराएदार हैं। जिस्म बाजार में समय-समय पर पुलिस की होनेवाली छापेमारियों से निपटना, पकड़ी गई लड़कियों को छुड़ाकर वापस लाना, ग्राहकों और गुंडे-बदमाशों की ज्यादतियों से अपनी लड़कियों को बचाना- यह सारा सिरदर्द बऊ दी का है। बऊ दी इस सिरदर्द के बदले में लड़कियों की कमाई में हिस्सा लेती हैं।
यह बताते समय दलाल मंगला प्रसाद के होठों पर बऊ दी के लिए एक व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट चिपकी रहती है। वह कहता है- क्या है कि साहब, ये जो बऊ दी लोग हैं न, इनको भी तो सबकुछ का परेटिकल एक्सपीरियन(प्रैक्टिकल एक्सपीरियंश) होता है, न। किसी बराबर आनेवाले ग्राहक को तजबीज कर उसके साथ एक तरह से घर बसा लेती हैं।
- क्या बऊ दी लोग शादीशुदा होती हैं?
इस सवाल पर ठहाके लगाकर हंस पड़ता है मंगला। हंसते-हंसते कहता है- धत्त तेरे की। अरे, उसे क्या कहेंगे-बऊ दी रखैला रखती हैं, रखैला। कोई टैक्सी वाला होता है, कोई चाय-पान की गुमटी वाला और कोई छोटा-मोटा दुकानदार। सब साला मउगा होता है, साहब। बाकी क्या है कि हफ्ता में एक-दो बार बऊ दी का आदमी जरूर आता है।
सोनागाछी की बऊ दी महिलाओं के बच्चे भी हैं- लड़के-लड़कियां। वे बच्चों को स्कूल भेजती हैं। बाड़ी में मास्टर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने आते हैं। जाहिर है कि बऊ दी के मन में यह इच्छा जरूर है कि उनके बच्चे किसी तरह पढ़-लिखकर सोनागाछी जिस्म बाजार की चौहद्दी पार करके दूसरी बेहतर दुनिया में शामिल हो जाएं।
इस जिस्म बाजार की लड़कियों की हैसियत भी तीन तरह की है। पांच सौ से हजार तक ऐसी लड़कियां हैं, जिन्हें दलाल मंगला प्रसाद हाई क्लास कहता है। इनकी फीस ढाई सौ से तो कतई कम नहीं है और ऊपर हजार-डेढ़ हजार तक जा सकता है. गिफ्ट वगैरह अलग से. हाई क्लास लड़कियां शहर के होटलों में भी जाती हैं, खाली फ़्लैट वाले तनहा गुणग्राहक के घर भी. कुछ ऐसी भी हैं जो किसी की निजी हैं. लेकिन अगर सचमुच वे वफादारी के साथ निजी बनी रहें, तब फिर क्या जिस्म बाज़ार का रिवाज नहीं टूटेगा? बेवफाई और फरेब पर ही तो टिका है यह जिस्म बाज़ार. मंगला बताता है - जब लड़की का परमानेंट आदमी किसी दिन नहीं आता तो महँगी फीस वाला टेम्परेरी ग्राहक भी चल जाता है.
सोनागाछी की हाई क्लास लड़कियों के पास एक-एक साफ़-सुथरे अच्छे कमरे हैं और टीवी-वीडियो जैसी मनोरंजन की सुविधाएं भी. खाना बनाने, खिलाने के लिए नौकरानी भी है. बाज़ार से रोजमर्रा की खरीदारी के लिए नौकर भी. ये लड़कियां उत्तर प्रदेश के आगरा और आसपास के इलाके की हैं. कह सकते हैं कि ये जानबूझ कर पेशेवर बनी हैं. मंगला बताता है- ये लड़कियां मां-बाप, भाई-बहनों के लिए अपने देस मनिआर्दर और बैंक ड्राफ्ट के जरिये पैसे भेजती हैं. बीच-बीच में इनसे मिलने घरवाले भी आया करते हैं. सोनागाछी की हाई क्लास लड़कियां कम-से-कम हाई स्कूल तक जरूर पढ़ी-लिखी हैं. इन्होने अपनी कमाई के पैसे कुछ दूसरे कारोबार में भी लगा रखा है. मसलन, कुछ हाई क्लास लड़कियों की महानगर में टैक्सियाँ भी चलती हैं.
..... जारी
सोनागाछी जिस्म बाजार के संचालन का सारा दारोमदार बाड़ी वाली बऊ दी पर होता है। कुछ तो बऊ दी किस्म की महिलाओं की अपनी बाड़ी है और बहुतेरी बऊ दी मकानों की पुरानी किराएदार हैं। जिस्म बाजार में समय-समय पर पुलिस की होनेवाली छापेमारियों से निपटना, पकड़ी गई लड़कियों को छुड़ाकर वापस लाना, ग्राहकों और गुंडे-बदमाशों की ज्यादतियों से अपनी लड़कियों को बचाना- यह सारा सिरदर्द बऊ दी का है। बऊ दी इस सिरदर्द के बदले में लड़कियों की कमाई में हिस्सा लेती हैं।
यह बताते समय दलाल मंगला प्रसाद के होठों पर बऊ दी के लिए एक व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट चिपकी रहती है। वह कहता है- क्या है कि साहब, ये जो बऊ दी लोग हैं न, इनको भी तो सबकुछ का परेटिकल एक्सपीरियन(प्रैक्टिकल एक्सपीरियंश) होता है, न। किसी बराबर आनेवाले ग्राहक को तजबीज कर उसके साथ एक तरह से घर बसा लेती हैं।
- क्या बऊ दी लोग शादीशुदा होती हैं?
इस सवाल पर ठहाके लगाकर हंस पड़ता है मंगला। हंसते-हंसते कहता है- धत्त तेरे की। अरे, उसे क्या कहेंगे-बऊ दी रखैला रखती हैं, रखैला। कोई टैक्सी वाला होता है, कोई चाय-पान की गुमटी वाला और कोई छोटा-मोटा दुकानदार। सब साला मउगा होता है, साहब। बाकी क्या है कि हफ्ता में एक-दो बार बऊ दी का आदमी जरूर आता है।
सोनागाछी की बऊ दी महिलाओं के बच्चे भी हैं- लड़के-लड़कियां। वे बच्चों को स्कूल भेजती हैं। बाड़ी में मास्टर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने आते हैं। जाहिर है कि बऊ दी के मन में यह इच्छा जरूर है कि उनके बच्चे किसी तरह पढ़-लिखकर सोनागाछी जिस्म बाजार की चौहद्दी पार करके दूसरी बेहतर दुनिया में शामिल हो जाएं।
इस जिस्म बाजार की लड़कियों की हैसियत भी तीन तरह की है। पांच सौ से हजार तक ऐसी लड़कियां हैं, जिन्हें दलाल मंगला प्रसाद हाई क्लास कहता है। इनकी फीस ढाई सौ से तो कतई कम नहीं है और ऊपर हजार-डेढ़ हजार तक जा सकता है. गिफ्ट वगैरह अलग से. हाई क्लास लड़कियां शहर के होटलों में भी जाती हैं, खाली फ़्लैट वाले तनहा गुणग्राहक के घर भी. कुछ ऐसी भी हैं जो किसी की निजी हैं. लेकिन अगर सचमुच वे वफादारी के साथ निजी बनी रहें, तब फिर क्या जिस्म बाज़ार का रिवाज नहीं टूटेगा? बेवफाई और फरेब पर ही तो टिका है यह जिस्म बाज़ार. मंगला बताता है - जब लड़की का परमानेंट आदमी किसी दिन नहीं आता तो महँगी फीस वाला टेम्परेरी ग्राहक भी चल जाता है.
सोनागाछी की हाई क्लास लड़कियों के पास एक-एक साफ़-सुथरे अच्छे कमरे हैं और टीवी-वीडियो जैसी मनोरंजन की सुविधाएं भी. खाना बनाने, खिलाने के लिए नौकरानी भी है. बाज़ार से रोजमर्रा की खरीदारी के लिए नौकर भी. ये लड़कियां उत्तर प्रदेश के आगरा और आसपास के इलाके की हैं. कह सकते हैं कि ये जानबूझ कर पेशेवर बनी हैं. मंगला बताता है- ये लड़कियां मां-बाप, भाई-बहनों के लिए अपने देस मनिआर्दर और बैंक ड्राफ्ट के जरिये पैसे भेजती हैं. बीच-बीच में इनसे मिलने घरवाले भी आया करते हैं. सोनागाछी की हाई क्लास लड़कियां कम-से-कम हाई स्कूल तक जरूर पढ़ी-लिखी हैं. इन्होने अपनी कमाई के पैसे कुछ दूसरे कारोबार में भी लगा रखा है. मसलन, कुछ हाई क्लास लड़कियों की महानगर में टैक्सियाँ भी चलती हैं.
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