गगन घटा घहरानी

अरविन्द चतुर्वेद
क्या मुश्किल है कि आसमान में बादल धरती वालों को ठेंगा दिखाकर चले जाएं, तब भी रोना और अगर घटाएं झूम के बरस जाएं, तब भी मुसीबत। हमने विकास का जो रास्ता चुन लिया है, उसने हमें इस कदर कुदरत विरोधी बना दिया है कि बरसात को ही लीजिए तो या तो हम उसके लायक नहीं हैं या फिर बरसात ही हमारे लायक नहीं रही है। गरमी की झुलसाती तपिश के बाद मानसून के बादल दो दिन झूमकर क्या बरसे कि चारों तरफ से मुसीबत और मुश्किलों की खबरें आ गइं। हमारी नदियां कूड़े-कचरे और गाद से इस कदर अटी-पटी हैं कि बारिश हुई नहीं कि बाढ़ आ जाती है, कटान के चलते गांव-खेत-डबरे जलमग्न हो जाते हैं, बस्तियों-घरों में पानी भर जाता है, कज्जे मकान गिर पड़ते हैं और कई बार कई जगह जान-माल से भी हाथ धोना पड़ता है। बरसात के पहले नदी तटों की भ्रष्टाचार मुक्त मरम्मत कर ली जाए, तटबंधों को दुरूस्त व पुख्ता कर लिया जाए और दिन-ब-दिन छिछली होती नदियों के पेटे में बरसों से जमी गाद निकाल ली जाए तो जल प्रवाही नदियां हमारी कोई दुश्मन नहीं हैं, जो बाढ़ बनकर हम पर यों टूट पड़ें। असल में नदियों के साथ जैसा बुरा सुलूक हम सालों-साल करते हैं, बरसात में मौका मिलने पर हमारी कारस्तानी का सूद समेत खामियाजा चार महीने में बाढ़ के रूप में नदियां हमें लौटा देती हैं। हम चीखते-चिल्लाते हैं, हाथ-पांव मारते हैं, फिर भी कोई सबक नहीं सीखते। दूसरे, नदियों से कम प्रदूषित हमारा प्रशासनिक तंत्र और सियासी पेचोखम नहीं है- राज्य सरकारें केंद्र पर तो केंद्र सरकार राज्यों पर नदियों के मामले में दांव खेलती रहती हैं और प्रशासनिक तंत्र तो खैर कागजों में ही सबकुछ चुस्त-दुरूस्त कर लिया करता है। आखिर नदियां और नहरें भी तो कमाई के अच्छे स्रोत हैं! मसलन, उत्तर प्रदेश के ही सुलतानपुर में सिंचाई विभाग के एक इंजीनियर साहब ने कागज में ही कई किलोमीटर लंबी नहर का काम तमाम करके लाखों रूपए का वारा-न्यारा कर लिया है। अब इस मामले की जांच भी हो रही है और साथ ही कहते हैं कि इसे दबाने की कोशिश भी चल रही है। बहरहाल, हर साल की तरह शुरूआती बरसात ने ही उत्तर प्रदेश में सरकारी कामकाज की पोल-पटूटी खोलकर रख दी है। प्रदेश के जनपदों और दूर-दराज के इलाकों की तो छोड़ ही दीजिए, राजधानी लखनऊ में एक-डेढ़ महीने पहले बनी नई सड़कें तक दो दिन की बरसात में कई जगह धंस गइं- कई जगह उनकी ठठरी निकल आई। समझा जा सकता है कि कितना गुणवत्तायुक्त काम हुआ है और कैसी पैसे की बंदरबांट हुई है। शहर के नाले इसलिए उफना पड़े कि उनकी सफाई ही नहीं हुई। सड़कों पर पानी भर गया, क्योंकि जल निकासी का बेहतर इंतजाम ही नहीं है। शहर में जगह-जगह गडूढे खुदे हुए हैं, मोरम और मलबा पड़ा हुआ है। सारा काम जून में पूरा हो जाना चाहिए था, लेकिन अभी तक लस्टम-पस्टम चल रहा है। खुदे हुए गडूढों में बरसात का पानी भर जाए और किसी की जान भी चली जाए तो बेशर्म प्रशासन को क्या फर्क पड़ता है? फिल्मों में और कविता में बरखा-बहार भले ही बहुत रूमानियत भरी हो, मगर हमारी व्यवस्था का एक बरसाती बीमार चेहरा यह भी है कि बीते बरस की तरह इस बार के मौसम में भी उत्तर प्रदेश में गोदामों की किल्लत के चलते कई जगहों पर करोड़ों रूपए के हजारों कुंतल गेहूं खुले आसमान तले भीगकर सड़ रहे हैं, जो सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए गरीबों का पेट भरते। सार्वजनिक खाद्यान्न की इस बर्बादी का दोषी कौन है- हमारी सड़ी व्यवस्था या बेचारी यह बरसात?

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