मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा!

अरविंद चतुर्वेद
सृष्टि की सर्वोत्तम रचना होकर भी पुरूष रंगों के मामले में प्रकृति से कई हाथ पीछे है। प्रकृति हमसे कहीं ज्यादा रंगीन है। उसके खजाने में रंग ही रंग हैं। आदमी ने रंगों के आचरण का पहला पाठ भी प्रकृति से ही पढ़ा होगा। यानी रंगों की पाठशाला में प्रकृति की भूमिका शिक्षक की है और पुरूष की महज एक छात्र की। भांति-भांति के पशु-पक्षी हमसे ज्यादा रंग-बिरंगे हैं और तितलियां तो खैर उड़ते-थिरकते रंग ही हैं। हालांकि ये सब न फैशन शो लगाते हैं और न कैटवाक करते हैं। इसकी जरूरत हमें पड़ती है, क्योंकि जैसे-जैसे आदमी के भीतर के रंग गायब होते जाते हैं, वैसे-वैसे वह बाहर ही बाहर रंग तलाशने लगता है। मन न रंगायो, रंगायो जोगी कपड़ा! लेकिन यह जरा दार्शनिक किस्म की बात हो गई, इसलिए इसे यहीं छोड़ते हैं।
फिर भी होली का त्यौहार है- रंगों का उत्सव, तो भीतरी रंग के लिए कबीर को याद करना ही पड़ेगा- लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल/ लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल। ऐसी सम्पूर्ण रंगीनी क्यों नहीं है हमारे मिजाज में? पहले थी लेकिन आज क्यों नहीं है। एक तरफ तो आदमी के भीतर के रंग सूखते जा रहे हैं और दूसरी ओर वे राजनीति और साम्प्रदायिकता के शिकार होते गए हैं। एक सम्प्रदाय हरे रंग का दीवाना है तो दूसरा केशरिया रंग ले उड़ा है। जिसे दोनों सम्प्रदायों की राजनीति करते हुए अपनी रोटी सेंकनी है, वह दुरंगा हो गया है। एक मोहतरमा तो नीले रंग पर कब्जा जमाकर नीलिमा ही बन बैठी हैं। इस बदरंग परिदृश्य में भीतर के रंग सूखगें नहीं तो क्या होगा?
हाय, कहां हो नीलांजना! होली का त्यौहार है और तुम उदास खोई-खोई-सी बैठी हो? वेलेंटाइल डे जैसे प्रेम दिवस को पानी पी-पीकर कोसने वाले संस्कृति के वीर बांकुड़े होली के हास-उल्लास, रंग-उमंग और रस रंग को बनाए रखने के लिए क्या कर रहे हैं? राग फाग गाते हुए, अबीर गुलाल उड़ाते हाथों में रंग पिचकारी लिए सबको रंगों में सराबोर कर देने के लिए क्या उनकी टोलियां सड़कों पर निकलेंगी? उनके मन में वेलेंटाइन के प्रति केवल घृणा भरी है, विद्वेष और उन्माद ही भरा है या होलिकोत्सव के लिए वह राग-अनुराग भी है, जो सबको प्रेम के रंग में सराबोर कर दे! कहीं उनकी होली की तैयारी क्यों नहीं है, जो ढोल-मंजीरा बजाते हुए फाग गा सकते हैं। अधिक से अधिक यही होगा कि होली पर फिल्मों के गाने बजेंगे-होली आई रे कन्हाई या फिर रंग बरसे, भीजे चुनर वाली..., थोड़ा हुल्लड़ होगा, कुछ लोग रंग में भंग करेंगे और होली की जैसे-तैसे रस्म अदा कर दी जाएगी। सच्चाई तो यह है कि दूसरे लोकोत्सवों और तीज-त्यौहारों की तरह होली पर भी हमारी पकड़ ढीली पड़ती जा रही है।
दरअसल, रंगों का त्यौहार होली हो या दूसरे लोकोत्सव हों, सभी प्रकृति के सहचार में उपजी संस्कृति के ही अंग हैं। चूंकि आज हम प्रकृति विरोधी हो गए हैं इसलिए तीज-त्यौहारों की संस्कृति भी हमसे गाहे बगाहे छूटती जा रही है। गांवों के विनाश की कीमत पर जिस शहरी संस्कृति का हमने विकास किया है, उसमें प्रकृति का तो कोई स्थान है नहीं, लिहाजा हमारे तीज-त्यौहार या तो उसमें अनफिट हो जाते हैं या फिर उनका स्वरूप विकृत हो जाता है। हम जितने बड़े शहर में रहते हैं, तीज-त्यौहारों से हमारी दूरी भी उतनी ही बढ़ जाती है। उसकी आत्मा, उसका मन, जीवन के राग, उमंग, उल्लास सभी उससे विदा ले लेते हैं। आदमी महज एक कामकाजी मशीन बनकर रह जाता है और त्यौहार प्रकृति की छांह से अनाथ होकर आदमी के लिए आनंदोत्सव के बजाय पीड़ादायक अनुभूति बन जाते हैं। लाखों की भीड़ में जहां आदमी इतना अकेला हो गया है कि एक पड़ोसी दूसरे पड़ोसी को पहचानता तक नहीं, जहां लोक ही नहीं बसता, वहां लोकोत्सव कैसे जीवित रह सकते हैं? आज हम यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे महानगरों की सभ्य सड़कों पर होली मनाने वाले अलमस्तों की टोली ढोलक-मंजीरे की ताल पर रंग-गुलाल उड़ाते, फाग गाते, नाचते-झूमते निकले और सबको रंग-उमंग से सराबोर कर दे! हां, यह जरूर है कि महानगरों की उन बस्तियों में जहां आज भी गांवों का बचा-खुचा हस्तक्षेप है, तीज-त्यौहार के मौके पर एक चहल-पहल हो जाया करती है। दिल्ली-मुंबई और कोलकाता जैसे महानगरों में ये इलाके शहर सीमांत पर या पुरानी बस्तियों के रूप में हैं। वरना शहरीकरण की प्रक्रिया में पनपी अपदूषण की संस्कृति में लोक उत्सव और लोकगीतों की जगह ही कहां है। भौतिकता में ऊभचूभ करती शहरी संस्कृति में हर चीज उत्पादन और खरीद-फरोख्त के दायरे में है, सो इस उत्पादक और बाजार मनोवृत्ति की छाया में तीज-त्यौहारों का रूप भी बदला और विकृत हुआ है। होली में प्राकृतिक रंगों की जगह वार्निश, रासायनिक रंग, पिचकारियों के स्थान पर रंग भरे गुब्बारे फें क कर दूसरे को रंग देना और लोकरंग में सराबोर फाग के रसिया की जगह शोर भरे फिल्मी गानों के कैसेट पर फूहड़ ढंग से कूल्हे लचकाकर उछल-कूद करते युवक - आम शहरी होली की यही तस्वीर है। असल में प्रकृति की सहचारिता को छोड़कर भौतिकता का बीमार आदमी जो इकतरफा खेल खेल रहा है, उसमें लोकजीवन की उष्मा और आत्मा को बचाया ही नहीं जा सकता। महानगरों की बात छोड़ भी दें तो लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद, कानपुर, पटना, रांची, जबलपुर जैसे मंझोले दर्जे के शहरों में भी गांवों के लोक जीवन का हस्तक्षेप दिन-प्रतिदिन तेजी से घटता गया है। इन शहरों का स्वभाव भी ग्रामोन्मुखी न होकर महानगरोन्मुखी होता गया है। इसीलिए इन शहरों में भी दस बरस पहले होली के राग-रंग में जो स्वाभाविता और अंतरंगता दिखाई पड़ती थी, उसकी जगह अब फूहड़ कृत्रिमता और प्रदर्शनप्रियता की झलक मिलती है। चूंकि त्यौहार सामाजिकता की अभिव्यक्ति होते हैं और शहर में आदमी का सामाजिक होना आधुनिकता के लिहाज से पिछड़ापन है, इसलिए होली जैसे उन्मुक्तता और उमंग के उत्सव में असामाजिकता का शहरों में भयानक ढंग से प्रवेश हुआ है। शायद होली ही हमारा एक ऐसा पर्व है जिसमें स्त्रियों की भागीदारी सबसे कम होती है। विश्वविद्यालयों और शिक्षा संस्थाओं में होली के चार-पांच दिन पहले से ही लड़कियों का आना बंद हो जाता है। यह त्यौहार उनके लिए आक्रामक होता है। होली के अवसर पर स्त्रियों के अंगों का बखान करने वाले जिस तरह के द्विअर्थी गीत-संगीत के कैसेट नंगी भाषा में सार्वजनिक तौर पर पेश किए जाते हैं, वे इस हद तक स्त्री विरोधी होते हैं कि उन्हें सुनने और झेलने का साहस कोई स्त्री जुटा ही नहीं सकती। क्या हम होलिकात्सव में आई विकृतियों को दूसरे प्रदूषणों की तरह ही दूर करने की चिंता के साथ एक स्वस्थ सुंदर जीवन-पर्यावरण रचने का सांस्कृतिक पराक्रम नहीं दिखा सकते? तनी हुई रस्सी पर नट-खेल की अभ्यासी हमारी कसी हुई दिनचर्या के तनाव को ढीला कर हमें उन्मुक्त और अनौपचारिक बनाकर राग-अनुराग और उमंग-उल्लास से भर देने वाला रंगोत्सव दस्तक दे रहा है। आइए, सारी कुंठाएं मिटाकर हम इसका स्वागत करें और अपने को इसके योग्य बनाएं।
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घुटना टेक रहकर कैसे होंगे हाई टेक

अरविंद चतुर्वेद
देश के पुलिस प्रशासन और सुरक्षा बलों में वांछित गुणात्मक बदलाव के लिए देशभर के पुलिस प्रमुखों के सम्मेलन में गृह मंत्री पी चिदंबरम ने जैसी तीखी टिप्पणी की और पुलिस मुखियाओं से जैसे सवाल किए, उन पर अगर किसी ने जवाब देने के बजाय सिर झुकाकर चुप्पी साध ली तो इससे हमारे पुलिस तंत्र की वास्तविकता का पता ही चलता है। वैसे भी पुलिस तंत्र के कामकाज का ढंग-ढरर सबको मालूम है। सबकुछ खुला खेल फर्रूखाबादी है। चिदंबरम ने कोई नया रहस्योदूघाटन तो किया नहीं- यही न कहा कि पुलिस अफसर राज्य सरकारों के लिए फुटबाल बन गए हैं और पूछा कि अपने दिल में झांक कर जवाब दीजिए कि एक एसपी अथवा थानेदार की एक जगह तैनाती की औसत अवधि क्या होनी चाहिए? अटपटे-से लगने वाले इस सवाल पर पुलिस प्रमुखों को गालिब का शेर याद आया होगा- हम भी मुंह में जबान रखते हैं, काश पूछो कि मुदूदआ क्या है!


आखिर क्या करें बेचारे पुलिस प्रमुख? अपने उत्तर प्रदेश का उदाहरण लीजिए तो पाएंगे कि जब अपने इलाके के थानेदार से खुद मंत्री जी या सत्तारूढ़ दल के एमएलए-एमपी च्डील’ करते हैं तो बेचारे पुलिस प्रमुख क्या कर सकते हैं? एसपी का हाल यह है कि अगर किसी थानेदार को बदलना चाहे तो वह दनदनाता हुआ अपने ऊपर वाले सरकारी आका के पास पहुंच कर कप्तान साहब को उनकी औकात बता देता है। कमाऊ थानों की बोली लगती है। थाने वसूली के अडूडे बन गए हैं- नीचे से ऊपर की ओर उल्टी गंगा बह रही है। फिर कहां से बढ़ेगा पुलिस का मनोबल। वह बेचारी घुटना-टेक बनी हुई है। कभी सरकारी पार्टी की रैली में भीड़ जुटाने के पवित्र काम में उसे लगा दिया जाता है तो कभी जन्मदिन के चंदा उगाही में उसे अपने पराक्रम की परीक्षा देनी पड़ती है। हाल-फिलहाल के दौर में तो यही देखने में आया है। जब राज्य के पुलिस प्रमुख मुख्यमंत्री की जन्मदिन-पार्टी में उन्हें केक का टुकड़ा खिलाते हुए बड़े मुदित भाव से फोटो खिंचवाते हों तो आखिर उनके मातहत कैसी प्रेरणा ले सकते हैं?

निचले स्तर के पुलिस कर्मियों का चेहरा कुछ ज्यादा ही दयनीय नजर आता है। बेचारे साहब के बज्जे को स्कूल लाने-ले जाने से लेकर उनका कुत्ता टहलाने और घर में साग-सब्जियां पहुंचाने तक क्या-कुछ नहीं करते। ऊपर से बात-बात पर झिड़कियां खाने से उनका मिजाज इतना चिड़चिड़ा हो चुका होता है कि उनकी सारी झल्लाहट आम आदमी पर निकलती रहती है। बेचारे होमगाडों की तो पूछिए मत- उनकी हालत पुलिस महकमे के बंधुआ मजदूर सरीखी है, दिहाड़ी मजदूर तो वे हैं ही। डKूटी पाने के लिए उन्हें क्या-कुछ नहीं करना पड़ता! हमारी पुलिस के हाथ में जो डंडा है, उसे अंग्रेजों के जमाने से उन्होंने पकड़ रखा है और पुलिस जवानों के कंधे से जो बंदूक लटकी रहती है, वह भी एक प्रकार का डंडा ही है क्योंकि उसे देखकर तो नहीं लगता कि उसकी सर्विसिंग भी कभी होती है। क्या पता, जरूरत पड़ने पर वह चल भी सकती है या नहीं? ऐसी पुलिस जनता का कितना मित्र हो सकती है, किसी कमजोर की कितनी रक्षा कर सकती है, जो भीड़ में या बाजार की चहल-पहल के दौरान किसी किनारे उसी तरह खड़ी रहती है जैसे फसल की रखवाली के लिए कोई किसान खेत की मेड़ पर बिजूका खड़ा कर देता है।

आजादी के 62 साल बाद भी हमारी पुलिस दोहरे स्तर पर अंग्रेजों के जमाने वाला चरित्र व स्वभाव लेकर चल रही है। पुलिस अफसरों में सामंती ऐंठ मौजूद है और वे खुद मुख्तार बने हुए हैं तो निचले स्तर के पुलिस कर्मी सोचते हैं कि च्रियाया’ को डंडे के बल पर हांका जा सकता है। आखिर आज भी गुनाह कबूल कराने के लिए थानों में उत्पीड़न करने वाली थर्ड डिग्री किस चीज की निशानी है? क्या हमारी पुलिस पर नागरिकों के मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों की फेहरिस्त हनुमान की पूंछ की तरह दिन-प्रतिदिन बढ़ती नहीं गई है?

इसलिए जब हमारे प्रधानमंत्री पुलिस प्रमुखों के सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए संसाधन, प्रशिक्षण और तकनीक की बदौलत पुलिस ढांचे को आधुनिक बनाए जाने की जरूरत पर जोर देते हैं और भारतीय पुलिस का भी वैसा ही चेहरा देखना चाहते हैं, जैसा कि विकसित देशों की पुलिस का है तो इसके लिए पहली जरूरत तो यही है कि पुलिस के कंधे पर लदी बेताल के शव जैसी अंग्रेजी मानसिकता उतार फेंकी जाए। पुलिस तंत्र को इस तरह प्रशिक्षण और काम करने का माहौल दिया जाए कि वह महसूस कर सके कि वह सत्ता-सरकार चलाने वालों का जर-खरीद चाकर नहीं, बल्कि आजाद व लोकतांत्रिक मुल्क के नागरिकों व कानून व्यवस्था की हिफाजत करने के लिए है। साथ ही पुलिस हाई-टेक हो, यह तो जरूरी है ही।
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एक खेल का नाम है छुपम छुपाई

एक खेल का नाम है छुपम छुपाई. छोटे बच्चों में बहुत लोकप्रिय है. हो सकता है बचपन में आपने भी खेला हो. एक बच्चा छुप जाता है और बाकी बच्चे उसे खोजते हैं. छिपा हुआ बच्चा कई तरह से चकमा देता है - आवाज़ निकाल कर या कोई चीज इधर- उधर फेंककर. लेकिन समाज और राष्ट्र के जीवन में नागरिक यही अपेक्षा करते हैं कि बड़े होकर लोग बचपन का यह खेल न खेलें - खासकर वे लोग जो सार्वजनिक जीवन में हैं, सत्ता-व्यवस्था के पुर्जे हैं या फिर सीधे-सीधे सियासत कि बागडोर जिनके हाथ में है. ऐसे लोगों से जनता यही चाहती है कि मेहरबानी करके छुपम छुपाई का खेल बच्चों के लिए ही रहने दिया जाए. क्योंकि बड़े लोग जब खेलते हैं तो लोकतंत्र आहत होता है, इन्साफ को चोट पंहुचती है और जनता के कष्ट बढ़ते हैं. वह धोखा खाती है - छली जाती है. लेकिन इसका क्या किया जाए कि कुछ लोग बूढ़े हो जाते हैं मगर छुपम छुपाई खेलने की उनकी आदत नहीं जाती.
अब जैसे कांग्रेसी नेता रहे दिल्ली से पूर्व सांसद सज्जन कुमार को ही लीजिये !1984 के सिख विरोधी दंगे में उनका जैसा क्रूर कर्म रहा, उसने उनको नाम के ठीक उलट दुर्जन साबित किया और जिसके चलते बीते लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें टिकट देकर जनप्रतिनिधि बनाने से मना कर दिया. वही सज्जन कुमार आजकल अदालत और सीबीआई  से छुपम छुपाई खेलने में लगे हैं. अदालत ने उनके खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी किया, लेकिन क्या मजाल कि सीबीआई अदालत को उनका दीदार करा देती! सीबीआई ने अदालत से कहा कि चार बार तो हमने उनके घर पर छापा मारा, लेकिन वे ऐसे छुपे हुए हैं कि मिलते ही नहीं. सो बेहतर हो कि अदालत ऐसे सज्जन को भगोड़ा घोषित कर दे ! अदालत सीबीआई की इस आत्मसमर्पणकारी असमर्थता पर झल्ला गई. उसने सीबीआई के तौर-तरीके पर असंतोष जाहिर किया और अब दुबारा गैर जमानती वारंट जारी करके सीबीआई के निदेशक को निर्देश दिया है कि अदालत के आदेश के अनुपालन की वे खुद निगरानी करें. उधर सज्जन कुमार के वकील ने कहा कि उनका मुवक्किल भाग नहीं रहा है, बल्कि ऊपर की अदालत में जाने के लिए यथा संभव संवैधानिक रास्तों की तलाश में लगा है.
लेकिन क्या छुपम छुपाई खेलने वाले सज्जन कुमार अकेले खिलाड़ी हैं ? पश्चिम बंगाल से लेकर झारखंड तक विचरण करने वाले माओवादियों के मोस्ट वांटेड मोबाइल नेता किशन जी भी तो गजब का छुपम छुपाई खेल रहे हैं. वे मिडिया वालों से फोन पर बात करते हैं, प्रेस कांफ्रेंस करते रहते हैं, अपना मोबाइल नंबर भी इधर सार्वजनिक किया है, लेकिन वे किसी खुफिया एजेंसी या सुरक्षा एजेंसी की पकड़-पहुँच के बाहर हैं. वे सीधे गृह मंत्री चिदंबरम से छुपम छुपाई खेल रहे हैं.
याद होगा कि अभी कुछ ही दिनों पहले भोपाल में ऊंचे ओहदे वाले आई ए एस दम्पति के छुपम छुपाई का भेद तब खुला था, जब उनके घर से करोड़ों रूपये का अम्बार मिला. ऐसी ही कुछ कारस्तानी छत्तीसगढ़ के एक ऊंचे अफसर की भी सामने आई थी, जिसने एक पूरे गाँव के लोगों के नाम से बैंक खाता खोलकर पासबुक बनवा रखी थी और इनके जरिये करोड़ों रूपये छिपा रखा था. इस प्रतिभाशाली खिलाड़ी ने एक तरफ गावं वालों के साथ तो दूसरी ओर सरकार के साथ छुपम छुपाई खेला. अपने उत्तर प्रदेश और राजस्थान समेत कई राज्यों में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में प्रादेशिक स्तर पर छुपम छुपाई का खेल चल रहा है. पारदर्शिता की गुहार और अदालतों की फटकार के बावजूद अगर यह नहीं रुक रहा तो क्या इसे राष्ट्रीय खेल न मान लिया जाये ! वैसे कहते हैं कि सचमुच के खेलों की राष्ट्रीय टीम के चयन में भी छुपम छुपाई खेली जाती है. छुपम छुपाई सुपर खेल है भाई !!!
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खजुराहो की खासियत

अरविन्द चतुर्वेद      

गोया वहां धरती की हथेलियाँ खाली थीं और उन पर रखने के लिए उनके पास पत्थर के सिवा कुछ न था ! सो, उन्होंने पत्थर को आकर दिया - रूप दिए और वह अमूल्य कलानिधि धरती की हथेलियों पर रख दिया, जिसे दुनिया खजुराहो के मंदिर-मूर्ति शिल्प के नाम से जानती है. कौन थे वे लोग ? मंदिरों के शिखर पर चंदेल राजाओं के कलाप्रेम की पताका फहरा रही है और मंदिरों का नख-शिख देहद्युति बिखेरती हजारों छोटी-बड़ी मूर्तियों के माध्यम से उन अनाम कला साधकों की प्रतिभा और पौरुष का बखान कर रहा है.
खजुराहो के मंदिर-शिल्पियों और मूर्तिकारों की आँखों में बसा सौन्दर्य मंदिरों के भूरे, बादामी बदन पर उत्कीर्ण मूर्तियों की शत-शत भंगिमाओं में अपरूप बनकर सदियों से अपनी छटा बिखेर रहा है. लोच, लास्य, लालित्य साकार है इन प्रस्तर प्रतिमाओं में. खजुराहो के मंदिरों के वास्तु में जो भव्यता है, वह मन को उदात्त बनाती है और ऊर्ध्वमुखी करती है. सुदीर्घ चबूतरों पर निर्मित उत्तुंग शिखर वाले इन मंदिरों के द्वार अपेक्षाकृत छोटे और संकरे हैं. इनमे प्रवेश करते हुए लग सकता है कि अपने ही मन के किसी अजाने दरवाजे से गुजर रहे हैं. और मंदिरों के बहिरंग पर उत्कीर्ण मूर्तियों का तो कहना ही क्या ! आकुलता के आवेग में एक-दूसरे में समाने को आतुर प्रसन्न बदन प्रतिमाएं देवी - देवताओं की भी हो सकती हैं, यक्ष-यक्षिणियों, अप्सराओं अथवा प्रणय निवेदक सामान्य नायक - नायिकाओं की भी. देह के इस अनंत उल्लास में कालिदास से लेकर जयदेव-विद्यापति से होते हुए रीतिसिद्ध कवि बिहारी तक कि सौन्दर्य चेतना और श्रृंगार बोध देख सकते हैं. ये मूर्तियाँ स्वयं में एक-दूसरे के लिए आश्रय भी हैं, आलंबन और उद्दीपन भी. हर मंदिर के बहिरंग पर शत-शत मूर्तियाँ और शत-शत भाव भंगिमाएं. कहीं बांकी चितवन तो कहीं चकित नयन. कहीं केश विन्यास करती, वेणी बांधती, कहीं अंगराग लगाती, कहीं आँखें आँजती, कहीं आभूषण-अलंकरण में निमग्न तो कहीं अपने ही रचित रूप पर रीझती दर्पण देखती, कहीं द्वार के ओट से झांकती तो कहीं चौखट से सर टिकाये द्वार पर खड़ी प्रतीक्षारत - नायिकाएं ही नायिकाएं. होठों की मंद स्मिति से लेकर मुख मंडल के भोलेपन तक ऐसा कोई सूक्ष्म भाव नहीं, जो खजुराहो के कला साधकों से छूटा हो. नृत्यान्गनाओं और वादकों की मूर्तियाँ ही नहीं, तमाम मूर्तियों की देहयष्टि में ऐसी लयात्मकता है मानो उनमें नृत्य-संगीत का समागम हो.
पत्थरों पर लिखी इन्हीं कला की इबारतों की इबादत में चित्रगुप्त मंदिर के सामने मुक्ताकाशी मंच पर हर साल आयोजित होता आ रहा है खजुराहो नृत्य महोत्सव. २५ फरवरी से ३ मार्च तक हर साल आयोजित होने वाले नृत्योत्सव के २८ वें आयोजन को देखने-सुनने का अवसर मुझे मिला था. मध्य प्रदेश कला परिषद् के प्रतिष्ठा पूर्ण इस नृत्योत्सव में अब तक भारतीय शास्त्रीय नृत्य शैलियों के लगभग सभी ख्यात कलाकार उपस्थित हो चुके हैं. सात दिनों तक संगीत की स्वर लहरियां मानो मंदिर-शिखरों को छूने की होड़ लेती रहीं और वे तमाम भाव-भंगिमाएं जो मंदिरों की प्रस्तर-प्रतिमाओं में हैं, गोया वहां से निकल-निकल कर मंच पर नृत्यान्गनाओं की भाव मुद्राओं और अंग संचालन में जीवंत होती रहीं. दूसरे नृत्योत्सव से खजुराहो का उत्सव इस मायने में भिन्न और विशिष्ट है कि मंदिर कला के सौन्दर्य और मूर्तियों के लास्य-लालित्य के प्रभाव से कलाकारों को एक ऐसा बना-बनाया वातावरण मिल जाता है, जिससे मिलकर उनका नृत्य-संगीत दर्शकों पर सहज ही जादुई असर डालता है और अपने आवेग में बहा ले जाता है.
एक बात और. नृत्य शैलियों के व्याकरण और विस्तार में न जाकर इतना कहना जरूरी है कि नृत्य-संगीत जगत में आज भी कवि जयदेव के गीत गोविन्द की अष्टपदियों का जादू चलता है, मध्यकालीन भक्ति-श्रृंगार की काव्य-रागात्मकता छाई हुई है और मच्छ शंकराचार्य से लेकर कालिदास तक के शिव - गौरी - गणेश स्तवन के बिना तो जैसे नृत्यकारों का काम ही नहीं चल सकता. यह सब देखते-सुनते नृत्योत्सव से लौटते हुए लगा था कि हमारे आधुनिक काव्य और समूची आधुनिकता के पास जबरदस्त बौद्धिकता है, बौद्धिकता का तनाव और बेचैनी है, लेकिन रागात्मकता शायद कहीं पीछे छूट गयी है !  
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बानगी बनारस की (दो)

- अरविन्द चतुर्वेद -
वे सिंह हैं, उपाध्याय हैं, राय हैं कि जायसवाल हैं, लेकिन हैं काशीनाथ! कचौड़ीगली जाते हैं तो काशीफल की तरकारी और कचौड़ी के लिए मुंह में पानी आ जाता है. बाज़ार जाते हैं सब्जी का थैला लेकर तो कुछ खरीदें या नहीं, मगर गोल, चिपटे, हरित-पीताभ कोंहड़े से मुंह नहीं फेर सकते. बहुत सारी सब्जियां हैं, जो फल ही हैं - लौकी है, परवल है, करेला है, टमाटर है, कटहल है. लेकिन कोई इन्हें फल नहीं कहता. ये सब रह गईं तरकारी की तरकारी. हाँ, बनारसी आदमी का जिस चीज से लगाव हो जाए, उसे महिमा के ऊंचे आसन पर बैठाना वाह खूब जानता है. वर्ना लद्धड-सा, बेडौल शक्ल वाला कुम्हड़ा काशीवासियों की रसोई में पहुँच कर काशीफल का दर्ज़ा न पा जाता! है दिल्ली, मुम्बई और कोलकाता वालों में कूबत कि किसी तरकारी को दिल्लीफल, मुम्बईफल और कोलकाताफल बना दें ? सो, काशीनाथ कोई सिंह हों या उपाध्याय - काशीफल से तृप्त होने के बाद बनारसी की दूकान पर कभी भी पान घुलाते मिल जायेंगे. मथुरा राय, अयोध्यानाथ, हरिद्वार पांडे और ऋषिकेश को अपवाद ही समझिये. नाम के मामले में बनारसी दास और काशीनाथ का कुनबा ही बड़ा है और अखिल भारतीय भी.
यहाँ एक प्रजाति और भी है - हास्य के हुनरमंदों और होनहारों की. पुछल्ले की तरह अगर उनके नाम में बनारसी न लगा होता तो व्यक्तित्व अधूरा रहता. हास्य से अधिक हास्यास्पद होते महफ़िल में वह रंगत न आती, जो बनारसी पूंछ के कारण आती है. भैयाजी और चकाचक की दिवंगत आत्मा क्षमा करे, आजकल उनकी 'बनारसी' पूंछ सांड, चपाचप, धूर्त, बमचक और डंडा जैसे हास्यावतारों ने लगा रखी है. गौर करने की बात है कि जब तक इन्हें अपनी बनारसी पूंछ का ख्याल रहता है, तबतक तो अच्छी हास्य कवितायें लिखते हैं, लेकिन जब-जब भूल जाते हैं कि उनके पास एक गौरवशाली पूंछ भी है, तब - तब हास्यास्पद हो जाते हैं.
ब्रेक के बाद
जिनकी जीवन-आस्था जितनी गहरी है और जो जीवन-संघर्ष में यकीन रखते हैं, उनको विश्वास है कि जब तक पान के पत्ते में हरियाली और चूने-कत्थे में लाली बरकरार है, तब तक बनारसी रंग बना रहेगा. अपने पिया से मेंहदी ले आने की अपील करने वाली खांटी बनारसी स्त्री जानती है - रंग लाती है हिना पत्थर पे घिस जाने के बाद! हर साल सावन आता है बनारसी स्त्री की इस अपील के साथ - ' पिया मेंहदी ले आइ द मोती झील से, जाके साईकिल से ना...!' अब पिया हीरो होंडा से चलने लगे हैं तो जाएँ पितरकुंडा से मेंहदी ले आयें ! एक पिया कार वाले हैं और हुंदाई पर चलते हैं तो उनसे अपील की गयी - ' मेंहदी ले आइ द नतिनियादाई से जाके हुंदाई से ना...!'  लोकरंग की यह अपील जबतक बनी रहेगी तबतक बनारस का बाल बांका नहीं हो सकता. हर हर महादेव का नारा लगाने वाला कालकूट का अनुगामी बनारसी समय की शिला पर हर दौर की कड़वाहट पीसकर पीना जानता है भूमंडलीकरण की फितरत
डाल-डाल तो बनारस की हिकमत पात-पात ! विज्ञजन इसी को बनारसी उत्पात कहते हैं...!
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बानगी बनारस की (एक)

अरविन्द चतुर्वेद
दुनिया भर में बाजारवाद, भूमंडलीकरण की धूम मची है. इक्कीसवीं सदी उसकी दुन्दुभी बजा रही है. लेकिन अपने बनारस शहर का क्या कीजियेगा! इसके मंदिरों के घंटे-घड़ियाल की आवाज़ आज भी मद्धिम नहीं हुई और कभी-कभी तो इतनी तेज सुनाई देती है कि इक्कीसवीं सदी की दुन्दुभी दब जाया करती है. बनारस के कंधे पर पड़ा उत्तरीय रह-रहकर पुराणों में फहराने लगता है, घाट की सीढियों पर खड़ाऊँ की खटपट सुनाई पड़ती है, कई बार मोबाइल कान में लगाते वक्त उसमें पंडित जी का जनेऊ फँस जाता है. बीसवीं-इक्कीसवीं की मुठभेड़ जारी है - कोई उन्नीस नहीं पड़ना चाहता. मुकाबला बराबरी का है. बीसवीं ने रबड़ी-मलाई खाकर, दूध-लस्सी पीकर सेहत बनाई है. चाँद-पुतली की कौव्वाली और हीरा-बुल्लू का बिरहा सुनकर मिजाज बनाया है. आज भी पुरवा बयार के झोंके की तरह मनोज तिवारी और निरहुआ की चुहल उसे मस्ती में सराबोर कर देती है. इक्कीसवीं खाती रहे पिज्जा-बर्गर ! पेप्सी और कोक में दम है तो जरा ले आये किशन महराज का तबला - बजाकर दिखाए बिस्मिल्ला खान साहब की शहनाई ! गिरिजा देवी की गर्वीली आवाज़ कमप्यूटरबाज संगीतकारों को चुनौती देती है - एही ठैयां झुलनी हेरानी हो रामा....ज़रा ढूंढ कर निकालो !
अब लेते हैं एक छोटा-सा ब्रेक
सुबह के आठ बजे हैं. जिन्दगी नें रफ़्तार पकड़ ली है. स्कूल-कालेज के लड़के-लड़कियां साईकिल से, स्कूटी से, ऑटो रिक्शे से चले जा रहे हैं. मोटर साइकिलें-स्कूटर दौड़ रहे हैं. तभी लहुराबीर चौराहे की तरफ से प्रकट होता है दर्जन भर भैसों का झुण्ड. खरामा-खरामा चली आ रही हैं - पगुराती हुई, बीच सड़क पर. दस - पंद्रह मिनट लगते हैं काले रंग का यह चौपाया जुलूस जगतगंज तिराहे से संस्कृत यूनिवर्सिटी की ओर मुड़ जाता है. इस बीच समूचा यातायात बिलबिला रहा है. लोग दायें-बाएं से निकलने की कोशिश में हैं. एक भैंस ने दूसरी भैंस को रगड़ मारी तो वह ठीक से बीच सड़क पर चलने लगी. वाह, क्या नज़ारा है सुबहे-बनारस का ! मगर सांडों का धैर्य तो देखते ही बनता है. वे जगतगंज से धूपचंडी और काटन मिल कालोनी तक की गलियों में चहलकदमी करते मिल जायेंगे. धीर - गंभीर परम वीर सांड ! उनकी बगल से सब्जी वालों के ठेले गुजरते हैं, बच्चे गुजरते हैं, मोहल्ले वाले आते-जाते हैं, लेकिन गजब है सांडों की शालीनता. किसी को नज़र उठाकर घूरते तक नहीं. चुपचाप सदियाँ पार करते चले आ रहे हैं. इक्कीसवीं सदी के उत्तर-आधुनिक योजनाकारों, बनारस की बीच गली में सांड खड़ा है. इसका क्या करोगे ? 
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सजना है मगर जीवन के लिए

जैसा देश-वैसा भेष...! इस मुहावरे को स्थानांतरित कीजिये और जाइये बाज़ार से एक अच्छा-सा व्यक्तित्व खरीद लाइए. यह अपील न अटपटी लगनी चाहिए, न इसपर चौंकने की जरूरत है. यही हो रहा है. रमैया की दुल्हिन बाज़ार नहीं लूट रही है, बाज़ार उसको लूट रहा है. बल्कि वोह तो बाज़ार पर लट्टू है. १९९४ में सुष्मिता सेन और ऐश्वर्या राय ने सौन्दर्य की देवी का ताज क्या पहना कि एक दशक के भीतर देश के छोटे-बड़े तमाम शहरों में सौन्दर्य प्रतियोगिताओं की होड़-सी लग गयी और देखते ही देखते सौन्दर्य-बाज़ार का चंदोवा पूरे देश पर तन गया. अब फैशन शो महज़ दिल्ली-मुम्बई-कोलकाता जैसे महानगरों के दायरे की चीज नहीं है, बल्कि बेंगलोर, हैदराबाद, अहमदाबाद, चंडीगढ़, जयपुर, लखनऊ आदि से होते हुए टूटी-फूटी सड़कों के रास्ते धूल-धूसरित कानपुर, बनारस और गोरखपुर तक अपनी चमक बिखेर रहा है. नतीजा है कि शहर और कस्बे ब्यूटी पार्लरों, डिजाइनर फैशन की दूकानों और बुटिक आदि से जगमगा रहे हैं. नख-शिख सिंगार की सैकड़ों चीजों के सैकड़ों ब्रांड दूकानों में उपचे पड़े हैं. चेहरे के दाग-धब्बे, खरोंच मिटाकर त्वचा को चिकनी और चमकदार बनाने वाली क्रीमों के साथ ही युवतियों की तरह युवकों को भी गोरा बनाने वाली  चीजें बाज़ार में बिक रही हैं. हाय हैंडसम, यह यूनी सेक्स- यूनी फैशन का ज़माना है!
बाज़ार के इस भव्य चमक-दमक भरे सौन्दर्य अभियान ने एक चीज जो पैदा की है, वह है व्यक्तित्व की एकरूपता. चाहे तो इसे एकरसता कह सकते हैं. जैसे सभी बड़े होटलों के प्रशिक्षित बावर्ची एक जैसा खाना बनाते हैं और हम चाहे दिल्ली में खाना खाएं या भोपाल-आगरा-बनारस में, सभी जगह एक ही स्वाद मिलता है - जायके में अपनी-अपनी विशेषता और विविधता नहीं होती, वैसे ही प्रायोजित और परिष्कृत सौन्दर्य के कारखाने के खांचों से एक जैसी सजधज के युवक-युवतियां कोलकाता से कानपुर तक, बनारस से बेंगलोर तक और गोरखपुर से ग्वालियर तक नज़र आते हैं. कह सकते हैं कि यह ग्लोबल फैशन की ऐसी एकरंगी और अनुकरणवादी प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्तित्व विशिष्टता और अद्वितीयता विसर्जित हो जाती है और तमाम चमक-दमक के बावजूद इकहरे व्यक्तित्व की भीड़ लग जाती है - भेड़ियाधसान पैदा होता है.
इसके बावजूद सौन्दर्य-बाज़ार का यह फैशन अभियान सौन्दर्य की सारी सीढियों को ढहा नहीं पाया है, भले ही वह ऊपर से नीचे उतरता जा रहा हो. साड़ी, सलवार-कुरता, चोली-घाघरा जैसी देसी पोशाकों का परचम आज भी फहरा रहा है. पूर्वोत्तर के मणिपुर, नागालैंड, असम, अरुणाचल की जनजातियों और देश के कई अंचलों लोगों का पारंपरिक सौन्दर्यबोध आज भी जाग्रत है और पर्याप्त आधुनिक शिक्षा-दीक्षा के बावजूद वे अपने व्यक्तित्व की वेशभूषा और श्रृंगार परक विशिष्टताओं को बड़े चाव और लगाव के साथ अपनाए हुए हैं.
आँगन के पार द्वार : आज की स्त्री के लिए यह नहीं कहा जा सकता कि सजना है उसे सजना के लिए! गहरी सौन्दर्य-चेतना के कवि जयशंकर प्रसाद का सवाल " हे लाज भरे सौन्दर्य बता दो, मौन बने रहते हो क्यों? " आज की स्त्री के लिए बेमानी है. वह लाजवंती रहकर अपना व्यक्तित्व नहीं बना सकती. अब वह अलस, मंथर,सकुचाये भावों वाली
कामिनी-भामिनी नहीं है. वह स्कूटी से फर्राटा भरते हुए कालेज जाती है, नौकरी करती है, खेल के मैदान में उसने बुलंदियां पाई हैं. इसलिए वह चंचल है, बोल्ड है. आत्मविश्वास से भरा, उद्दाम, सक्रिय, उल्लासपूर्ण व्यक्तित्व है उसका. लेकिन उसका यह आकर्षक व्यक्तित्व कर्म- सौन्दर्य से निखार पाया है - महज फैशन और सौन्दर्य के बाज़ार से नहीं !
- अरविन्द चतुर्वेद
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बसंत वियोग

अरविन्द चतुर्वेद
यही क्या कम है कि उम्र के पचास पार बसंत में बनारस में बैठे-बैठे मन कर्मनाशा के वनों में भटक रहा है. वर्ना शहर में क्या छतों के गमलों में बौने बसंत को उतरते देख मन की कचोट दूर होगी ? कहते हैं कि ऋतुराज है - ऋतुओं का राजा, लेकिन हाय कितना वैभव-विपन्न हो गया है बसंत ! उसकी पीताभ ध्वजा आज धूल धूसरित है. किसे फुर्सत है कि रोजमर्रा की आपाधापी में देखे, गुल से निकलता है गुलाब आहिस्ता - आहिस्ता ! कैसे धीरे-से आमों में बौर निकलने लगे हैं और महुआ-पाकड़ के झंखाड़ वृक्षों के नीचे सूखे पत्तों का चरमर अम्बार लग गया है. वृक्षों की अपत्र हुई डालियों में नव पल्लव किसलय निकल रहे हैं. ठीक है कि खेतों में सरसों के फूलों की पीली चादर बसंती हवा में सरसरा रही है और रह-रहकर धरती के बदन में सिहरन जगा रही है. लेकिन यह सब तो शहर के बाहर है.
शहर में बसंत-बहार है, लेकिन वह मिठाई की दूकान है. वहां न हरियाली है, न फूल हैं. चौराहा है, गाड़ियों का धुंआ है और सड़क पर उड़ती धूल है. देखिये कि थोड़ा-सा बसंत दबे पावँ क्वींस कालेज के परिसर में खड़े ऊंचे-ऊंचे वृक्षों की फुनगियों पर कैसा ठिठका हुआ है. कशी हिन्दू विश्व विद्यालय का मधुर मनोहर परिसर इसलिए भी अतीव सुन्दर लगता है कि वहां बसंत की दुन्दुभी बजती है, हरियाली झंकृत होती है, नव पल्लव किसलय प्रफुल्लित हैं, आमों की मंजरियाँ दिखती हैं. गुलमोहर और अमलतास में होड़ लगती है, इसलिए रह-रहकर मन के तार भी छेड़ती है बसंती हवा. थोड़ा-सा बसंत काशी विद्यापीठ और संपूर्णानंद संस्कृत विश्व विद्यालय के अहाते में खड़े वृक्षों, फूलों, गुल्मों को अपने बचे-खुचे वैभव से धन्य किये दे रहा है. बाकी तो पूरा शहर इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर हरियाली और छाया से महरूम है.
घर हैं कि इलेक्ट्रानिक जंगल हो गए हैं. बसंती हवा इलेक्ट्रानिक जंगल की हृत्तंत्री को झंकृत नहीं कर सकती. दरअसल, हमने जैसा सलूक बसंत के साथ किया है, वैसा ही सलूक बसंत भी हमारे साथ कर रहा है. अब कहिये टीवी चैनलों से कि बसंत ले आयें और हमारे परिवेश और जीवन में उतार दें !
कभी प्रकृति हमारी सहचरी थी, लेकिन विकास का ऐसा ढांचा हमने अपना लिया है कि दिन-ब-दिन, साल-दर-साल प्रकृति का दामन हमसे छूटता जा रहा है. यह ऐसा नंगा विकास है, जो धूप में झुलस रहा है. इसे शीतल छावं मयस्सर नहीं. पेट्रोल और डीजल के धुंए से इसका दम फूल रहा है. बसंत के फूलों की मादक सुरभि अंगड़ाई पैदा कर दे, इसके नसीब में नहीं. यह इतना खुदगर्ज है कि प्रकृति और पर्यावरण की चिंता वन विभाग और बागवानी विभाग के हवाले कर बाज़ार में मुनाफे का गुणा-गणित हल करने में मुब्तिला है. क्या पता, बाज़ार के खिलाड़ी बसंत की भी मार्केटिंग योजना पर काम कर रहे हों ! सो, जहां इस विकास या बाज़ार की पहुँच कम है, वहां प्रकृति ज्यादा बची हुई है और इसीलिए वहां बसंत के आगमन का एहसास अभी भी ज्यादा गहरा और घना है. बनारस से ज्यादा बसंत सारनाथ में है. चंदौली और सोनभद्र के वनों में बसंत का उत्तरीय फहरा रहा है.
कवि रघुवीर सहाय की पचास साल पुरानी एक छोटी-सी कविता बेसाख्ता याद आ रही है -
वही आदर्श मौसम और मन में कुछ टूटता-सा :
अनुभव से जानता हूँ कि यह बसंत है!   
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