गाँव कहानी/नौ : लौट के बुद्धू घर को आया

अरविन्द चतुर्वेद :
बुद्धू चेरो जब से गांव लौटा है, उदास-उदास रहता है। लोग पूछते हैं, क्यों अब ओबरा कब जाओगे? बुद्धू जवाब देता है, चार महीने गांव पर ही रहेंगे, बरसात बाद सोचेंगे कि ओबरा ही जाना है कि दुद्धी या रेनूकूट। सालभर बाद ओबरा से बुद्धू आया है। उसका एक ममेरा भाई ओबरा में रहकर रिक्शा चलाता है, उसी ने नलराजा के मेले में बुद्धू को टोका था- गांव में रक्खा ही क्या है? एक तो बारहो महीने काम नहीं मिलता- चार महीने बैठना पड़ता है, दूसरे, काम भी करो तो वही घास-भूसा, धूल-माटी और कीचड़ में- ऊपर से मजूरी भी पूरी नहीं मिलती। बुद्धू को बात लग गई और मेले से लौटकर अगले दिन वह भी अपने ममेरे भाई के साथ रिक्शा चलाने ओबरा चला गया था। वहां सब ठीकठाक ही चल रहा था, दिन मजे में कट रहे थे, कि तभी एक हादसा हो गया, नहीं तो बुद्धू ओबरा छोड़ने वाला नहीं था। किराए का रिक्शा, एक्सीडेंट में इतना बुरी तरह टूट गया कि दिन-रात की मेहनत से कमाकर उसने जो थोड़े-बहुत पैसे बचाए थे, सब रिक्शा बनवाने में चले गए। वह तो "चेरो  बाबा" की बड़ी भारी कृपा थी जो जान बच गई। बुद्धू का जी उचट गया। और, अब तो वह ओबरा शायद ही जाए। हां, सालभर वहां रहकर बुद्धू ने इतना सीख लिया है कि रिक्शा ही चलाना है तो ओबरा में रहो चाहे दुद्धी या रेनूकूट, बात एक ही है।
अभी भी वह हादसा बुद्धू की आंखों में तैरता रहता है, इस तरह :
जब तक ट्रक का मालिक अपने ड्राइवर और खलासी के साथ पुलिस चौकी पहुंचा, उसके पहले ही बुद्धू दीवान से अपनी बात कह चुका था। इसलिए ट्रक वालों के वहां पहुंचने पर बड़ी बेतकल्लुफी के साथ दीवान ने दफ्तर की ओर इशारा करते हुए कहा- चलो, उधर चलो, और पैजामे पर खाकी कमीज चढ़ाते, ढक्कनदार जेब में कलम खोंसते, बीड़ी मुंह से लगा ली।
थाने के बाहर खड़ी तमाशबीन भीड़ में एक्सीडेंट की चर्चा थी। पहाड़ी के पास वाले मोड़ पर ट्रक से रिक्शे को धक्का लगा था, जिससे रिक्शे का दाहिनी तरफ का पिछला पहिया चूर-चूर हो गया था। बुद्धू को हल्की-फुल्की
खरोंच भर लगी थी। वह मौत के मुंह में जाते-जाते बाल-बाल बच गया था।
दफ्तर में पहुंचते ही दीवान ने एक सरसरी, मगर तेज निगाह ड्राइवर, ट्रक मालिक और बुद्धू पर फेंकते हुए पूछा- हां, तो मामला क्या है? बुद्धू ने गला साफ करते हुए कहा- सरकार, मैं पहाड़ी की चढ़ाई पर, जहां घुमाव है, आ रहा था। गाड़ी पीछे से आई और साइड से रिक्शे को धक्का...
बीच में ही बुद्धू की बात काटते हुए दीवान ने अपनी बात शुरू की- तुम पढ़े-लिखे हो?
- नहीं सरकार, पढ़ा-लिखा होता तो रिक्शा खींचता।
- जितना पूछा जाए, उतने का ही जवाब दो। ज्यादा काबिलियत मत बघारो। समझे?
- समझा सरकार।
- क्या समझे, कौन तुम्हारी दरख्वास्त लिखेगा?
बुद्धू दीवान का मुंह ताकने लगा।
- मुंह क्या देखते हो? जाओ, किसी से दरख्वास्त लिखाकर लाओ। फलां नंबर की गाड़ी से धक्का लगा, इतना-इतना नुकसान हुआ, और जो कुछ तुम कह रहे हो-जाओ, जल्दी से आना, नहीं तो फिर मैं नहीं जानता।
अब दीवान गाड़ीवालों की ओर मुखातिब हुआ- गाड़ी का कागज कहां है?
- गाड़ी में है, दीवान जी। अभी मंगवाते हैं। ट्रक मालिक ने ड्राइवर से कहा- जाओ जी, गाड़ी का कागज ले आओ।
- ड्राइवर नहीं, खलासी को भेजो। ड्राइवर पर नजर गड़ाते हुए दीवान ने हिदायत दी।
खलासी के जाने के बाद दीवान ने ड्राइवर से पूछा- तुम्हारा लाइसेंस है?
- ग्-ग्-गाड़ी में है, साहब। थूक निगलते हुए ड्राइवर हकलाया।
- देखो, मेरे बाल ऐसे ही सफेद नहीं हुए हैं। पढ़ा रहे हो? दीवान ने घुड़की दी।
अब ड्राइवर चुप हो गया।
इतने में खलासी के आते ही "लाओ, इधर लाओ" कहते हुए दीवान ने हाथ बढ़ाकर कागज ले लिया। कागज उलटते-पुलटते कुछ क्षणों के मौन के बाद बोला- कागज तो ठीक है। मगर, एक्सीडेंट तो हुआ ही। फिर ड्राइवर का लाइसेंस भी नहीं है। देखो, ड्राइवर को बंद करेंगे। गाड़ी लाकर थाने के अहाते में खड़ी कर दो।
दीवान की आवाज में रौब और बुलंदी दोनों थी। उसने कुछ पढ़ने के अंदाज में ट्रक मालिक की ओर देखा।
ट्रक मालिक खंखारते हुए, बगल में रखी कुर्सी के हत्थे पर हाथ टिकाकर थोड़ा झुक गया। चेहरे पर और आवाज में मुलायमियत लाते हुए उसने कहा- दीवान जी, आपके ही क्षेत्र की गाड़ी है। ड्राइवर ने क्रेक भी मारा, गाड़ी को
साइड से काटा भी। लेकिन, गाड़ी मोड़ पर थी। रिक्शा पूरी सड़क पर था। बॉडी से तनिक-सा धक्का लगा है, साहब। हम उसका रिक्शा बनवा देते हैं, दीवान जी।
- हुंह, हम बताएं कितना धक्का लगा है? देखो, उल्टी-सीधी बात मत करो। रिक्शा बनवाना था तो थाने क्यों आए? सीधी-सीधी बात करो।
- तो आप ही कोई रास्ता निकालिए, दीवान जी।
दीवान थोड़ा नरम हुआ।
- देखो, मामला रफा-दफा कराने की बात हो तो पांच सौ रूपए निकालो। उसका रिक्शा बनवाने की भी बात है। लोग खामखा पुलिस को बदनाम करते फिरते हैं।
- तो रफा-दफा कर दीजिए। ट्रक मालिक ने दीवान को "हरी पत्ती" थमा दी।
वर्दी की ढक्कनदार जेब में इत्मीनान से नोट डालते हुए दीवान ने अपनी फाइल उलटी। फिर फाइल से एक सादा कागज निकाल कर ड्राइवर को करीब आने का इशारा करते हुए कागज उसकी तरफ सरका दिया।
कुछ मिनटों में कागजी खानापूरी हो गई। ड्राइवर से कागज-कलम लेते हुए दीवान बोला- अब तुम लोग, बस निकल लो।
थाने से बाहर निकल कर ट्रक मालिक और ड्राइवर ने लंबी सांस छोड़ी। उनके चेहरे पर थोड़ी तसल्ली, थोड़ी खीझ से मिलीजुली मुस्कराहट फैल गई।
उनके जाने के दस मिनट बाद ही बुद्धू फुलस्केप कागज पर दरख्वास्त लिखा कर हाजिर हो गया- लिखा लाया हुजूर!
- क्या लिखा लाए? दीवान अपना सिर खुजलाते हुए झुंझलाया।
उसने अपनी त्यौरियां बदलीं- झट से थाने में रपट लिखाने चले आए। तुम छोटे दिमाग के आदमी, बड़ी बात सोच ही नहीं सकते। उतनी बड़ी लोड गाड़ी, वह भी मोड़ पर। पलट जाती तो क्या होता? जाओ, आगे से संभल कर साइड से चला करो। दरख्वास्त इधर लाओ।
बुद्धू के हाथ से दरख्वास्त लेकर देखते हुए दीवान ने कहा- ठीक है, और उस पर बुद्धू के अंगूठे का निशान लेकर बीस रूपए देते हुए बोला- जाओ, कार्रवाई कर दिया है।
बुद्धू के थाने से बाहर निकलते ही दीवान ने दरख्वास्त के टुकड़े-टुकड़े कर खिड़की से बाहर हवा में उछाल दिया।
बुद्धू अपने अंगूठे पर लगी रोशनाई देखता थाने का अहाता पार कर सड़क पर आ गया। जान बचाने के लिए मन ही मन उसने एक बार फिर "चेरो बाबा" को याद किया था।
इस घटना के अगले ही दिन बुद्धू ओबरा से गांव चला आया।....जारी
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गाँव कहानी/आठ : वनरक्षक मुच्छड़ तिवारी

अरविन्द चतुर्वेद :
पुजारी बाबा बोले- हम लोगों के लड़कपन में कर्मनाशा के जंगल में घों-घों करते सूअर, भालू और तेंदुआ का बराबर डर बना रहता था। एक बार तो बाघ भी आ गया था। पहली बार विजयगढ़ के राजा साहब का मचान नलराजा के नाले के किनारे गूलर के पेड़ पर बांधा गया था। तीन गांव के लोगों ने मिलकर पच्छिम, दक्खिन और पूरब से हांका चलाया था। दिनभर हांका चला, लेकिन बाघ का कोई पता नहीं। बाघ निकला शाम को चार बजे, उसी नाले से। ठायं-ठायं गोलियां चलीं। बाघ दहाड़ कर उछला, लेकिन फिर गिर गया। नलराजा के मेले में जितनी भीड़ लगती है, उससे कम आदमी नहीं जुटे थे बाघ देखने। मैंने भी जिंदगी में वही एक बार बाघ देखा है।
- बाघ-भालू तो छोड़िए, अब साले सियार भी चिंता का कारण बन गए। लड़के-बच्चों का अकेले इधर-उधर निकलना ठीक नहीं है। बड़ा खराब टाइम आ गया है। शिव प्रसाद ने कहा।
- अरे, पहिले के जमाने में मजाल था कि कोई अकेले कर्मनाशा के जंगल में चला जाए। जाना भी होता था तो चार-छह आदमी एकसाथ निकलते थे, लाठी-डंडा, कुल्हाड़ी-टंगारी लेकर। अब तो खाली हाथ झुलाए कोई भी नलराजा तक चला जाता है। पुजारी बाबा ने कहा।
पहलू बोला- जंगल-झाड़ी रह कहां गए, यहां से वहां तक सब तो साफ हो गया। सियार रहेंगे भी तो कहां? वन नहीं है, खाली वन विभाग है।
- जंगलात वालों को जेब भरने से ही फुरसत नहीं है। बड़े-बड़े पेड़ कटवा कर खुद ही लकड़ियां बेच देते हैं और कोई जलावन के लिए भी दो-चार गटूठर सूखी लकड़ी-टहनी बीन ले तो वनरक्षक को चढ़ावा दो, नहीं तो लगाओ थाने का चक्कर। पंचम कोइरी ने कहा।
- सीधी उंगली से घी कहां निकलता है? या तो दिलावर की हिकमत अपनाओ, टाइम-टाइम पर बोतल से वनरक्षक का गला तर करो और जितनी लकड़ी काटनी है, काट लाओ, नहीं तो चौखड़ा वालों की तरह हिम्मत दिखाओ तो वनरक्षक का भूत भी झांकने नहीं आएगा। पहलू बोला।
पंचम ने पूछा, क्या किया चौखड़ा वालों ने?
- अब लीजिए, आपको पता नहीं है? किस दुनिया में रहते हैं? अरे, यह पूछिए कि क्या नहीं किया!
शिव प्रसाद ने बीच में ही बात लपक ली। बोले, पंचम को कैसे पता चलेगा, औरत की बीमारी को लेकर पंद्रह दिन से तो बेचारे बनारस में अस्पताल में पड़े थे। इसी बीच का तो मामला है चौखड़ा का, पर है बड़ा मजेदार मामला।
आप तो जानते ही हैं उधर का वह मुच्छड़ वनरक्षक तिवारी, साला है तो लम्पट आदमी, ऊपर से कड़क मिजाज भी दिखाता है। एक दिन रामकरन बढ़ई जैसे ही जंगल से जलावन की एक गटूठर लकड़ी लेकर निकला, तिवारी
ने उसे पकड़ लिया। लकड़ी भी रखवा ली और कुल्हाड़ी भी जब्त कर ली। रामकरन की एक नहीं सुनी। इसके पहिले भी तिवारी दो-चार लोगों के साथ ऐसा कर चुका था। गांव-घर की बहू-बेटियों पर बुरी निगाह भी रखता था वह। सो उस समय तो रामकरन चुपचाप गांव लौट आया। लेकिन पांच लोगों ने मिलकर एक प्लान बनाया। तीन दिन बाद सब एक साथ जंगल गए। साथ में रामकिशुन की औरत भी गई। सबने जंगल में लकड़ी इकटूठी की और अपना-अपना गटूठर भी बांध लिया। लेकिन सब जान-बूझकर प्लान के मुताबिक पीछे रह गए और रामकिशुन की औरत को आगे कर दिया। हरामी तिवारी की पहले से ही उस पर बुरी नजर थी। देखा कि वह अकेले आ रही है तो तिवारी उसके पीछे लग गया। धमका कर और साथ ही लकड़ी का लालच देकर जैसे ही उसका हाथ पकड़ा कि तभी पीछे से चार लोग आ गए। तिवारी तो एकदम से हड़बड़ा गया। बेटा की सब हेकड़ी गायब। सबने तिवारी को दबोच लिया और हाथ-पांव रस्सी से बांधकर सखुआ के पेड़ से जकड़ कर बांध दिया। रामकिशुन की औरत तो पहले ही चली आई। बाकी सबने तिवारी के कपड़े उतार कर साले की सब इज्जत उतार दी।
- एकदम से नंगा कर दिया क्या? पंचम ने पूछा।
शिव प्रसाद बोले- अरे सुनिए तो। एकदम से नंगा नहीं किया। गंजी और जांघिया में छोड़ दिया। तिवारी गिड़गिड़ाने लगा, बोला कि अब किसी को नहीं पकड़ेगा। लेकिन किसी ने नहीं सुनी, सबने अपना-अपना गटूठर उठाया और गांव चले आए। इसके घंटाभर बाद लकड़ी का गटूठर लिए उधर से निकला रामकरन बढ़ई, जैसे उसे कुछ मालूम ही न हो। हैरानी जताते हुए पूछा, अरे तिवारी जी, आप? यह क्या हुआ? कैसे हुआ, महाराज?
तिवारी क्या बोलता, उसकी हालत तो भीगी बिल्ली जैसी हो रही थी। मुच्छड़ का पानी उतर गया था। खंखारते हुए अटक-अटक कर बोला- रामकरन भाई, जरा सोचिए! मैं भी तो पेट के लिए नौकरी करता हूं। साहब साला कूकुर की
तरह जंगल-जंगल दौड़ाता है। नहीं तो क्या जंगल मेरे बाप का है या किसी से कोई दुश्मनी है?
- चलिए, रस्सी तो मैं खोल देता हूं लेकिन तिवारी जी! सब नहीं, कोई-कोई कूकुर ही कटखना होता है।
- अब भाई रामकरन, चाहे कूकुर कहो चाहे सियार, इस मुसीबत से छुड़ाओ, अब मैं इधर झांकने भी नहीं आऊंगा।
रामकरन बढ़ई ने तिवारी की रस्सियां खोल दीं। तिवारी ने जल्दी-जल्दी कपड़े पहने। रामकरन को गांजा पिलाया और जंगल के डीह बाबा की कसम खिलाई- यह बात किसी से कहना मत, बड़ी बेइज्जती की बात है।....जारी 
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गाँव कहानी/सात : विजयी-सियार संग्राम

अरविन्द चतुर्वेद :
पूस के महीने में एक ठंडी सुबह जब विजय कुमार चौबे उर्फ विजयी की नींद खुली तो रोजाना की तरह बदन में गरमाहट लाने वाली गांजे की तलब ने इतना जोर मारा कि उन्होंने झटपट बिस्तर छोड़ा और जो पैजामानुमा पैंट पहन कर सोए थे, उसके ऊपर शर्ट चढ़ाई और चादर ओढ़कर बगल के गांव पकरहट के लिए चल पड़े। लंबे-छरहरे विजयी लंबे-लंबे डग भरते नहर की पटरी पकड़े अभी मुश्किल से फलांग भर सफर तय किए होंगे कि तभी पके धान के खेत से एक सियार निकला और तेजी से विजयी की ओर लपका। सियार भी हमलावर हो सकता है, इस अप्रत्याशित एहसास के साथ किंचित विस्मित विजयी ने पैर से चप्पल निकाल कर सियार पर फेंका, सियार जरा ठिठका जरूर, लेकिन जब चप्पल का निशाना चूक गया तो वह और तेजी से झपट कर विजयी के पैरों से लिपट गया। विजयी का बायां पैर पैंट समेत सियार के जबड़े में था और उसने अपने नुकीले दांत टखने के ऊपर मांस में बुरी तरह गड़ा रखे थे। विजयी की चीख निकल गई। आत्मरक्षा में स्वत: उनके बाएं हाथ ने सियार के थूथन पर पकड़ बनाई और दाएं हाथ में दाहिने पैर का चप्पल लिए वे सियार की पीठ पर जोर-जोर से प्रहार करने लगे। लेकिन सियार इस तरह भिड़ा था कि उसने अपने जबड़े जरा भी ढीले नहीं किए। विजयी की चीख-चिल्लाहट इस बीच दिसा-फरागत से निवृत्त होकर पुल पर बैठे पहलू दुसाध के कानों में पड़ी। वह लोटा लेकर ही दौड़ पड़ा। लोटे के दनादन प्रहार से सियार बिलबिला उठा। उसने विजयी का पैर छोड़ दिया। मगर वे तबतक सियार का थूथन पकड़े रहे, जब तक वह अधमरा होकर गिर नहीं पड़ा। अब तक विजयी का छोटा भाई रामू लाठी लेकर पहुंच चुका था। इस तरह लाठी के चार-छह प्रहार के बाद सियार की इहलीला समाप्त हुई। मरे हुए सियार को घसीट कर सूखी नहर में फेंक दिया गया।
यह विजयी-सियार संग्राम पंद्रह मिनट तक चला था। पहलू दुसाध का सस्ते अल्मुनियम का लोटा बुरी तरह पिचक कर खराब हो चुका था। बदहवास विजयी पकरहट न जाकर लंगड़ाते हुए लौट आए और अब पुल पर बैठे थे।
यह सर्वथा असाधारण और अभूतपूर्व घटना थी, जब किसी को सियार ने काटा हो। लेकिन जब तक यह सनसनीखेज खबर पूरे गांव में फैलती और लोग पुल पर पहुंच कर साक्षात विजयी के मुंह से इस रोमांचक घटना का बयान सुनतेे, इसी बीच बच्चन कोइरी मोटरसाइकिल से रामगढ़ के लिए निकला तो गांव के पूर्व प्रधान शिव प्रसाद की सलाह पर विजयी सूई लगवाने और जरूरी मरहम-पटूटी के लिए उसके साथ निकल गए। अब पुल पर पहुंच रहे लोगों की जिज्ञासा शांत करने के लिए विजयी-सियार संग्राम के वर्णन की जिम्मेदारी पहलू दुसाध पर आ गई थी।
पहलू उवाच : सियार साला था बड़ा मोटा-तगड़ा, झबरा कुत्ते से भी बड़ा और तंदुरूस्त। तीन-चार कुत्ते भी मिलकर उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते थे। छह-सात लोटा जब दनादन उसकी पीठ पर पड़े, तब तो साले ने विजयी का पैर छोड़ा। गनीमत यही थी कि विजयी ने उसका थूथन जो पकड़ा तो छोड़ा ही नहीं।
- फिर क्या हुआ?
- तब तक रामू लाठी लेकर पहुंच गए। तीन लाठी कचकचा कर पड़ी, तब वह बेदम होकर गिरा। मगर सांस तब भी चल रही थी।
- फिर?
- फिर रामू से लाठी लेकर विजयी ने उसका कपार और मुंह कंूच दिया।
शिव प्रसाद : लेकिन सोचिए कि कितना उल्टा जमाना आ गया- कहां सियार आदमी को देखते ही भागते थे और कहां सियार ही आदमी से भिड़ जा रहा है!
पुजारी बाबा बोले - कुछ नहीं, यह सब ग्रहदशा का फेर है। विजयी पर शनीचर सवार है। मैं तो कहता हूं, उनको ग्रहशांति का उपाय करना चाहिए। आखिर विजयी को ही सियार ने क्यों काटा, और वह भी सवेरे-सवेरे?
पहलू दुसाध : अगर विजयी की ग्रहदशा खराब है तो सियार की ग्रहदशा कौन अच्छी थी? वह भी तो सवेरे-सवेरे मारा गया कि नहीं?
पुजारी बाबा निरूत्तर हो गए। और, पहलू पर नाराज भी। झुंझलाते हुए बोले- सबकुछ तुम्हारी समझ में नहीं आएगा, तुम तो बस बकरी चराओ।
शिव प्रसाद समेत पुल पर आ जुटे लोगों को यह अच्छा नहीं लगा कि इतनी सनसनीखेज घटना का रोमांच इतना जल्दी खत्म हो जाए और बात सियार से बकरी पर आ जाए। सो पहलू कुछ और बोलता कि बात को घुमाते हुए शिव प्रसाद बोले- ग्रहदशा की बात तो मैं नहीं जानता, लेकिन पुजारी बाबा की बात में थोड़ा दम जरूर है कि अगर गोहत्या का पाप आदमी को लगता है और बिल्ली मारने पर भी प्रायश्चित करना पड़ता है तो सियार-हत्या का कुछ तो निदान विजयी को जरूर करना चाहिए। मेरे ख्याल से सोमवार को सत्यनारायण की कथा सुन लेने में कोई हर्ज नहीं है।
शिव प्रसाद से समर्थन पाकर पुजारी बाबा थोड़ा सहज हुए, बोले- मेरे कहने का मतलब यही था कि यह एक अनहोनी है, इसलिए कुछ तो पूजा-पाठ या दान-पुन्य कर ही लेना चाहिए।
इस बीच इमिलिया डीह के पंचम कोइरी भी पुल पर आ गए थे। सियार प्रसंग जानने के बाद बोले- अरे, हो न हो, यह वही पगला सियार हो जिसने चार दिन पहले परसियां में सिद्धू गोसाइं के लड़के को काट लिया था और अभी दो दिन पहले हमारे गांव के खेलावन की झोपड़ी में घुसकर उसकी लड़की पर हमला कर दिया। खेलावन की औरत डंडा लेकर झपट पड़ी, तब तो लड़की की जान बची और सियार भागा। फिर भी बेचारी लड़की का बायां हाथ पूरा नोच-बकोट लिया।
अभी दस दिन भी नहीं हुआ, कैथी में सियारों ने जो किया, मालूम है कि नहीं? हमारे यहां मेहमान आए थे। बता रहे थे, दिन-दोपहर गांव के दक्खिन सिवान में चार सियार एक साथ दिखाई पड़े। कुत्तों की नजर पड़ी तो भौंकते हुए सियारों को नहर के उस पार तक खदेड़ आए। लेकिन यह कोई खास बात नहीं थी, ऐसा तो होता ही रहता है। बड़ी बात तो दूसरे और तीसरे दिन हुई। अगले दिन उसी टाइम दस-बारह सियारों का झुंड आ गया। कुत्ते भौंकने लगे, मगर थोड़ी दूर से-सहमे हुए। उतने सियारों पर झपटने की कुत्तों में हिम्मत नहीं थी। उधर सियारों पर कुत्तों के भौंकने का कोई असर नहीं, अराम से धीरे-धीरे घूमते हुए सियार घंटेभर बाद जिधर से आए थे, उधर निकल गए। गजब तो हुआ तीसरे दिन। एक ही टाइम पर भेड़-बकरी की तरह कोई पच्चीस-तीस सियारों का झुंड सिवान में आ गया। गांवभर के कुत्तों ने इकटूठा होकर जैसे ही भूंकना शुरू किया, भागना तो दूर, उल्टे सियार ही कुत्तों की ओर झपटे। आखिर कुत्ते ही दुम दबाकर गांव भाग आए।
अब यह नई मुसीबत। जितना अचरज, उतनी ही चिंता। उसी दिन दरख्वास्त लेकर प्रधानजी वन दफ्तर गए। पहले तो फारेस्टर को विश्वास ही नहीं हो रहा था। लेकिन अगले दिन तीन फारेस्ट गार्ड लेकर वे दोपहर तक कैथी पहुंच गए। गांवभर के लोगों के साथ दक्खिन के सिवान में पूरा मजमा लग गया। दो बजे के करीब सियारों का वही बड़ा झुंड जैसे ही नहर के इस पार खेतों में उतरा, वैसे ही फारेस्टर ने एक पर एक दो गोलियां दागी। फिर सब लोग लाठी-डंडा लेकर हल्ला मचाते हुए सियारों की ओर दौड़ पड़े। अचानक के इस हमले से सियार घबरा गए और हड़बड़ा कर जिधर से आए थे, उधर तेजी से भाग चले। धंधरौल बंधा तक सियारों को खदेड़ा गया। इस बीच फारेस्टर ने दो गोलियां और दागी। एक सियार मारा गया। इस तरह तो कैथी वालों का सियारों से पीछा छूटा।...जारी
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गाँव कहानी/छः - शादी कब होगी, पुजारी बाबा

अरविन्द चतुर्वेद :

पुजारी बाबा बुजुर्ग हैं लेकिन चिर कुमार हैं, बाल ब्रहमचारी। और, असली नाम भी है पवन कुमार। बचपन में मां-बाप मर गए और उनसे बड़े दोनों भाइयों ने तो शादी-ब्याह करके अपना घर बसा लिया, इकलौती बहन की भी शादी हो गई मगर भाइयों-भौजाइयों का मुंह ताकते रह गए बेचारे यथा नाम पवन कुमार। अब तो खैर जिंदगी की ढलती शाम है मगर उम्र की दोपहरी तक जब कोई उनकी शादी का जिक्र छेड़ता था, किंचित सकुचाते हुए भी उनके चेहरे पर प्रत्याशा का एक भाव खेल जाता था। उनके मन के एकांत कोने में दबी विवाह की इच्छा चेहरे को झरोखा बनाकर झांकने लगती थी। शायद उनको लगता था कि विवाह को लेकर हंसी-मजाक करने वाले कभी न कभी उस निण्रायक बिंदु पर पहुंच जाएंगे कि भाइयों से अलग कर दिए गए पवन कुमार को अकेले चूल्हा फूंकते बहुत हुआ, अब इनका घर भी बस ही जाना चाहिए।
गांव में किसी युवक के शादी-ब्याह की तैयारी होती तो बारात में जाने के लिए पवन कुमार दूसरे लोगों की बनिस्बत सज-धज की कुछ अतिरिक्त तैयारी करते। वे रामगढ़ बाजार निकल जाते, जूते और कपड़े-लत्ते खरीदते। इकलौते सैलून में करीने से बाल कटवाते। मूछें सफाचट करा देते। नहाते वक्त कोशिश करते कि खेती-बारी का देह पर लिपटा सारा मटियालापन महकदार साबुन से रगड़-रगड़ कर छुड़ा दें। कपड़ों पर इत्र, बालों में गमकौवा तेल और चेहरे पर क्रीम-पाउडर लगाकर जब बारात में पवन कुमार निकलते तो उनकी पूरी कोशिश होती कि दूल्हे के छोटे भाई जैसे दिखें। मगर अच्छी कद-काठी और कसे हुए बदन के बावजूद आखिर उम्र भी तो कोई चीज होती है, शुरू-शुरू के चार-छह साल के बाद वह बुरी तरह चुगली करने लगी। अपनी ऐसी हर कोशिश में वे बहुरूपिया जैसे लगने लगे।
दस साल बीतते न बीतते पवन कुमार हताश हो गए। अब उन्होंने पूजा-पाठ पर ध्यान देना शुरू किया। सांवले-से माथे पर इस कनपटी से लेकर उस कनपटी तक चारो उंगलियों से सफेद चंदन की चार लकीरें खींचने लगे। यह पवन कुमार का नया अवतार था, जो पुजारी बाबा कहलाने लगा। लेकिन इस नए अवतार की स्वीकृति उन्हें सहजता से नहीं मिली। असल में तब तलक पवन कुमार की शादी की ललक और अधीरता गांव के सयानों पर ही नहीं, लड़कों पर भी इस कदर उजागर हो चुकी थी कि लड़के मजाक में सवाल करने लगे- शादी कब होगी पुजारी बाबा? पुजारी खिसिया जाते, उनका जवाब होता- जाओ, अपनी मौसी से पूछो, उसी से शादी करेंगे।
पुजारी बाबा हर साल अगहन के महीने में अपनी बहन के यहां सरगुजा निकल जाया करते और तीन महीने बाद फागुन लगने पर गांव लौटते। गांव वालों को हर बार यही लगता कि अबकी बार पुजारी सरगुजा से जरूर किसी औरत के साथ लौटेंगे, लेकिन हर बार उन्होंने गांव वालों को निराश ही किया।
फिर भी गांव की ठहरी हुई जिंदगी में पुजारी बाबा की सरगुजा-वापसी एक अतिरिक्त आकर्षण बन जाया करती थी। नहर के पुल पर उन्हें घेरकर गांव वाले बैठ जाया करते और सामान्य हालचाल के बाद कुछ विशेष पूछने-जानने का सिलसिला इस तरह शुरू होता :
- तो पुजारी बाबा, चोला-पानी तो बड़ा चकाचक बन गया है...
- हां, वहां चूल्हा तो फूंकना नहीं था। सवेरे-सवेरे भांजा लोग उठा देते थे। मामा, जल्दी से हाथ-मुंह धोकर नाश्ता कर लीजिए। अपने तो सब चाय-पकौड़ी, पराठा खाते थे लेकिन मैं चाय तो पीता नहीं और प्याज-लहसुन वाली पकौड़ी-पराठा भी नहीं खा सकता था, सो मेरे लिए बहुएं घी में हलवा बना देतीं और एक गिलास दूध-यही नाश्ता होता था।
- इसका मतलब खूब तर माल काटकर लौटे हैं पुजारी बाबा, है न!
- हां भाई, सो तो है। मगर यह नहीं समझ में आता कि तीन-तीन महीने तक एक जगह किसी का मन कैसे लग जाता है?
- अरे वहां खाली बैठने की फुरसत ही कहां मिलती है। सात गांव में तो जजमानी फैल गई है। दोपहर में यहां खाने का न्यौता तो शाम को उस गांव में। पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा सब ऊपर से, पुजारी बताते हैं।
- लेकिन पुजारी बाबा, कुछ लेकर तो लौटते नहीं। जो झोला लेकर जाते हैं, वही लटकाए चले आते हैं?
- तो क्या सरगुजा यहां है, कौन ढोएगा इतना बोझ? बीस-पच्चीस मन तो अनाज-पानी हो जाता है, सब भांजा लोगों के पास रखवा देते हैं। इस बार तो तीन जजमानों ने गाय और दो जजमानों ने दो भैंसे दान में दे दी। भांजा लोगों ने गाय-भैंस रखने से मना कर दिया। कौन झंझट पाले? बड़ी मुश्किल में पड़ गया। आखिर एक जगह से मिली गाय-भैंस दूसरे जजमान को देकर किसी तरह सलटाना पड़ा। लोग आसानी से तैयार भी नहीं थे, आखिर गुरू को मिली चीज चेले कैसे रख लेते। लेकिन जैसे-तैसे रख लिए।
एक आदमी बोला- अच्छा, अगली बार मैं आपके साथ चला चलूंगा और सब गाय-भैंस हांक ले आऊंगा। बस, एक भैंस या गाय आप मुझे दे दीजिएगा।
- आपको क्यों दे दूंगा? आपने मेरे लिए किया ही क्या है? भूल गए, अभी पिछले साल आपने ही न मेरे खेत में पानी आने से रोका था। बड़ा चालाक बन रहे हैं, आपको तो मरा हुआ चूहा भी नहीं दूंगा। पुजारी बाबा बोले।
गाय-भैंस के जवाब में मरे हुए चूहे के जिक्र से पुल पर एक हंसी तैर गई। वह आदमी पुजारी को कोई जवाब देता, इसके पहले उसके घर से बुलावा आ गया। वह उठा और घर की ओर चल पड़ा।
एक आदमी ने सबका ध्यान पुजारी के नए जूतों पर दिलाया- जूता तो बड़ा नक्शेदार है, पुजारी बाबा?
- असली पम्प शू है, रामगढ़ में नहीं मिल सकता। पुजारी बोले, अम्बिकापुर बाजार गया था। एक जजमान की जूता-चप्पल की दुकान है। उन्होंने नाश्ता-पानी कराया। कुशल-क्षेम के बाद चलने को हुआ तो देखा कि मेरा पुराना कपड़े वाला जूता गायब है और उसकी जगह यही पम्प शू रखा हुआ है। मुझे अपने जूते के लिए परेशान देखकर जजमान ने कहा, अरे महाराज, काहे उस पुराने-धुराने जूते के लिए परेशान हैं। वह नया जूता पहन लीजिए।
मैंने देखा कि दुकान का नौकर भी हंस रहा है। असल में जजमान बड़े मजाकिया आदमी हैं, उन्होंने ही नौकर से मेरे जूते हटवा कर ये नए जूते रखवा दिए थे।
पुजारी बाबा द्वारा सरगुजा की उदारता और जजमानी के साल-दर-साल फैलाव का किया जाने वाला वर्णन असल में परोक्ष रूप से गांव वालों की कृपणता, स्वार्थपरता, आपसी धोखेबाजी और रोजमर्रा की छोटी-मोटी खटपट के खिलाफ एक तरह की जवाबी कार्रवाई थी- देखो, तुम लोग कितने क्षुद्र प्राणी हो! इसीलिए उनकी सरगुजा-गाथा अतिशयोक्तिपूर्ण हुआ करती थी। तीन-चार साल की सरगुजा-परिक्रमा में उनकी काल्पनिक अतिशयोक्तियां इतनी अविश्वसनीय हो गईं  कि बेवकूफ से बेवकूफ आदमी भी पुजारी को झूठा और परम गप्पी मानने लगा। पुजारी के अनुसार सरगुजा के एक बैंक में उनके पचास हजार रूपए जमा हो गए थे, सौ बीघा जमीन हो गई थी और गाय-भैंसों की तादाद हर साल बढ़ते-बढ़ते पूरे तीन दर्जन तक पहुंच गई थी।
लेकिन पुजारी की सरगुजा-परिक्रमा छह साल से ज्यादा नहीं चल सकी। बहन के निधन के बाद उन्होंने सरगुजा जाना छोड़ दिया। हां, इस दौरान इतना जरूर हुआ कि उनका पूजा-पाठ काफी बढ़ गया और गांव के गैर ब्राहमणों के बीच वे विशेष रूप से सबसे प्रामाणिक और सच्चे  पंडित के रूप में प्रतिष्ठित हो गए।.....जारी 
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मेरे गाँव की कहानी/पांच : बांके, सिपहिया से डर लागे!

अरविन्द चतुर्वेद :
बांके यानी बांकेलाल! उनका असली नाम क्या है, यह उनके घरवालों को ही पता होगा। बांके नाम गांववालों ने दिया है जिसे उन्होंने सिर झुकाकर स्वीकार कर लिया है और इस हद तक स्वीकार कर लिया है कि अगर कोई उनके असली नाम से पुकार ले तो खुद बांकेलाल चौंक पड़ेंगे। बांकेलाल में कोई बांकपन नहीं है, बल्कि इसके उलट वे काफी ढीलेढाले, अलसाए-से इंसान हैं। उनके होठों पर हमेशा एक हल्की-सी मुस्कराहट खेलती रहती है। लोग तो यहां तक कहते हैं कि बांके नींद में भी मुस्कराते रहते हैं। और, जब उनके पिता और छोटे भाई की कुछ दिनों के बुखार के बाद मृत्यु हुई तब भी वे मुस्करा रहे थे। बांके खुद पर हंसते हैं, लोगों पर हंसते हैं या दुनिया-जहान पर हंसते हैं, यह कह पाना मुश्किल है। बांकेलाल को उदास, चिंतित, रूआंसा या क्रोध में कभी नहीं देखा गया। उनके दो ही शौक हैं- महुए की शराब और मछली। और, ये दोनों शौक पूरा करने में बांकेलाल स्वावलंबी हैं। गांव में किसी के यहां काम करते हैं तो कोशिश यही रहती है कि मजदूरी में अनाज और पैसे के अलावा दो-चार किलो महुआ मिल जाए। बांकेलाल की पत्नी और लड़के-लड़कियां तो नियमित मजदूरी करते हैं, लेकिन खुद वे तभी मजदूरी करने निकलते हैं, जब महुए का स्टाक खत्म हो जाता है। काम के लिए अव्वल तो ऐसे किसान को चुनते हैं जिसके यहां मजदूरी का एक हिस्सा महुआ मिल जाए और अगर ऐसा नहीं हुआ तो मजबूरी में कभी-कभार महुआ खरीदते भी हैं। सुबह गांव के सारे लोग जब कामकाज पर खेतों की ओर निकलते हैं तो बांके गांव के पोखरे का रास्ता पकड़ते हैं। पोखरे के एकांत दक्षिणी भीटे पर इमली के पेड़ की ठंडी छाया में पानी में तीन-चार बंसी लटकाए बांके को सुबह से शाम तक मछली उपलब्धि साधना में लीन देखा जा सकता है।
फिर भी गांव वालों की चर्चा के केंद्र में बांकेलाल महुआ और मछली के शौक के कारण नहीं, बल्कि अपने उस भय के कारण हैं, जो उनके मन में पुलिस की खाकी वर्दी को लेकर स्थाई भाव बन चुका है। विचित्र बात यह है कि बचपन से लेकर आजतक बांकेलाल ने न पुलिस-पिटाई का कोई लोमहर्षक दृश्य देखा है और न कभी किसी पुलिस वाले से उनका साबका पड़ा है, तब भी डर है कि खाकी वर्दी पहन कर उनके मन में बैठा हुआ है।
किस्सा बांकेलाल के लड़के की शादी के वक्त का है। कहते हैं कि समधी बने बांकेलाल पेशाब करने के बहाने ऐन उस वक्त अपने लड़के के विवाह-मंडप से भाग खड़े हुए थे, जब वहां खाकी वर्दी में एक होमगार्ड नमूदार हुआ। शादी-ब्याह की गहमागहमी और व्यस्तता में तत्काल तो किसी का ध्यान बांके पर नहीं गया लेकिन जब थोड़ी देर बाद बांके की खोज होने लगी और पेशाब करके न लौटने पर हैरानी जताई जा रही थी, तभी बांकेलाल के बड़े भाई का ध्यान वहां मौजूद होमगार्ड पर गया। माजरा समझते उन्हें देर नहीं लगी। माथे का पसीना पोंछते हुए वे खुद भी निश्चिंत हुए और सभी को निश्चिंत करते हुए बताया- चिंता की कोई बात नहीं है। बांके को मैंने ही बारात लौटने की
तैयारी के लिए गांव भेज दिया है।
पता चला कि होमगार्ड लड़की का मामा है। अपने रूआब का प्रदर्शन करने के लिए खाकी वर्दी में आ गया था। विवाह कार्य सम्पन्न होने के बाद उसने बांके के बड़े भाई को गांजे की चिलम थमाते हुए अफसोस जताया कि समधी जी होते तो कितना मजा आता।
इधर बांकेलाल कर्मनाशा का छह किलोमीटर लंबा जंगली रास्ता पार कर जब आधी रात को अकेले गांव लौटे तो उनकी पत्नी समेत घर पर मौजूद सभी महिलाएं हैरान रह गईं । बांकेलाल की पत्नी ने अलग ले जाकर उनसे पूछा- का बात होइ गई?
बांके मुस्कराते रहे। बोले- कुछ नहीं।
-उहां कुछ गड़बड़ हुआ का? बांके की पत्नी ने फिर पूछा।
अबकी बार बांके झल्ला उठे, बोले- उहां सब ठीकठाक चल रहा है। भइया सब संभाले हुए हैं। हमको बड़ी भूख लगी है, कुछ खाना है तो दो।
आखिर दो-चार बची-खुची पूड़ियां और गुड़ खाकर बांकेलाल ने रात काटी। सुबह उनकी नींद दुल्हन के साथ लौटी बारात की हलचल से टूटी।

दूसरी बार पुलिस की वर्दी के डर से बांके का सामना तब हुआ, जब गांव में पंचायत के चुनाव के लिए मतदान हुआ था। गांव का प्रइमरी स्कूल मतदान केंद्र बनाया गया था। वहां की व्यवस्था की निगरानी और किसी प्रकार की गड़बड़ी न होने देने के लिए आधा दर्जन सिपाहियों को लगाया गया था। उनके साथ एक दारोगा भी था। मतदान केंद्र और उसके इर्दगिर्द लोगों का मजमा लगा था। लेकिन अगर उस भीड़ में कोई नहीं था तो वह थे बांकेलाल। जाहिर है, उनके लिए सबसे ज्यादा परेशान वह उम्मीदवार था, जिसे बांकेलाल का वोट मिलना था।
बांके के गायब होने का माजरा भी सब समझ ही रहे थे। आखिर बांके की खोजाई शुरू हुई, तब उनकी सबसे छोटी लड़की ने सुराग दिया कि बाबू कोठे पर उत्तर तरफ कोने में जहां अंधेरा है और भूसा रखा हुआ है, वहीं बैठे हैं और थोड़ी देर पहले ही मैं उन्हें पानी देकर आई हूं। आखिर भूसा झाड़-पोंछ कर बांकेलाल को कोठे से उतारा गया। अब समस्या यह थी कि पुलिस वालों के सामने से होकर बांकेलाल को मतदान केंद्र तक कैसे ले जाया जाए। काफी माथापच्ची के बाद तय हुआ कि मतदान केंद्र के पीछे वाले रास्ते से इमली के पेड़ के पास से उन्हें वहां ले जाया जाए और चार आदमी उनके साथ-साथ चलें। ऐसा ही किया गया। जब पुलिस वालों को बांकेलाल के डर के बारे में बताया गया तो वे भी मुस्कराने लगे। मतदान कक्ष के ऐन दरवाजे पर तैनात सिपाही को आखिरकार चाय पिलाने के बहाने जब थोड़ा किनारे ले जाया गया तभी बांकेलाल अंदर जाकर अपना वोट दे पाए।
बांकेलाल का यही डर गांव वालों के मनोरंजन का माध्यम बन गया है। यों इस एक बात को छोड़ दिया जाए तो बांकेलाल क्या नहीं कर सकते? वे भरी बरसात में उफनाई कर्मनाशा नदी तैरकर पार कर सकते हैं। ऊंचे से ऊंचे पेड़ पर चढ़ सकते हैं। गहरे कुएं में उतर कर पानी में डुबकी लगाकर तलहटी से बाल्टी निकाल सकते हैं। रात में भी घना जंगल पार कर गांव लौट सकते हैं। तेज बारिश में भीगते हुए या कड़ी धूप में पसीने में नहाए हुए खेत में काम करते रह सकते हैं। यहां तक कि किसी की मरनी-करनी पर जब लोग रो रहे हों तो बांकेलाल मुस्कराते रह सकते हैं। लेकिन बांकेलाल निर्मम नहीं हैं। उनके मन और स्वभाव में महुआ की मिठास भरी हुई है और देह जिगिना के उस मरजीवड़े वृक्ष की तरह है, जो बरसात का पानी पाते ही लहलहा उठता है.। ... जारी    
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मेरे गाँव की कहानी/चार : नहर के पुल पर अड्डा

अरविन्द चतुर्वेद :
पीपल के विशाल पुराने वृक्ष की छाया में नहर के पुल के दोनों किनारों पर गांव के दस-बीस लोग अक्सर आमने-सामने बैठे खाली वक्त गुजारते मिल जाते हैं। इनमें नौजवान लड़के भी होते हैं और बड़े बुजुर्ग भी। हां, अक्सर यह होता है कि नौजवान पुल के किसी छोर पर बुजुगों से जरा हट कर बैठें। हालांकि इसका कतई यह मतलब नहीं कि उनकी बातों में किसी प्रकार की गोपनीयता होती है, बल्कि होता यह है कि कई बार बुजुगों की बातें नौजवानों के कान में पड़ती हैं और नौजवानों की बातें बुजुगों के कान में और फिर धीरे-धीरे सब एक किस्म के सार्वजनिक-सामूहिक बातचीत में शामिल हो जाते हैं। इस तरह पुल पर लगने वाला दैनिक अडूडा अपनी तरह से सामाजिकता का एक प्रशिक्षण केंद्र भी है। यहीं से दोस्तियां बनती हैं और दुश्मनी के द्वार भी खुलते हैं।
पुल पर होने वाली बातों का कोई ओर-छोर नहीं होता। बुजुगों की बातें संस्मरणात्मक और किस्सागोई के अंदाज में होती हैं, जबकि नौजवानों और लड़कों की बातें निकट व्यतीत की घटना परक और सूचनात्मक होती हैं। अलग-अलग आदमी की बातों में उसके अनुभव की कुछ खास विशिष्टता नजर नहीं आती, लेकिन बहुत ध्यान दिया जाए तो वक्ता की रूचि और स्वभाव की हल्की-सी झलक जरूर पाई जा सकती है। अनुभव की एकरूपता के दो कारण समझ में आते हैं- एक तो सबकी जीवनस्थितियां करीब-करीब एक-सी हैं, दूसरे, इस ग्रामीण जिंदगी का दायरा बहुत सीमित है, यानी खेत-खलिहान से निकल कर आसपास के गांवों, नाते-रिश्तेदारियों से होते हुए ज्यादा से ज्यादा जिला मुख्यालय राबर्टूसगंज या फिर हारी-बीमारी में एकाध बार के बनारस-सफर तक। इसलिए होता यह है कि बातचीत का प्रवाह कभी-कभी अचानक थम जाता है और एक लम्बे विराम के बाद वक्ता बदल जाता है। कभी-कभी ऊब और खीझ भी पैदा होती है। ऐसे अवसर के लिए गांवों में लोग अक्सर अपने बीच से कुछ पात्रों को खोजे रखते हैं, जिनकी प्रसिद्ध बेवकूफियों की चर्चा करके मजा लिया जा सके, जो जल्दी से चिढ़ जाते हों, वहमी और सनकी हों, झेंप जाते हों या खटूटी-मीठी गालियां देना शुरू कर देते हों। ऐसे विलक्षण पात्र प्राय: हर गांव में एक-दो होते ही हैं। इस गांव में ऐसे दो लोग हैं- एक बांके चेरो, दूसरे पुजारी बाबा उर्फ पवन
कुमार चौबे। नाम से लगता है पवन कुमार चौबे नई उमर की नई फसल होंगे, लेकिन ऐसा है नहीं- वे गांव के बडे. बुजुगों में हैं, सचमुच बाबा हैं। बांके उम्र के लिहाज से गांव की मंझली पीढ़ी से आते हैं और अपने भाइयों में भी मंझले हैं। ...जारी
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मेरे गाँव की कहानी : तीन - मछली-भात और नींबू के पत्ते

अरविन्द चतुर्वेद :
एक समय वह भी था कि वर्षा-जल से नहाए जंगल से होकर जब पुरवा हवा चलती थी तो भीगी वनस्पितियों की मादक महक के झोंके गांव तक आते थे। बरसात ही नहीं, हर मौसम में इस गांव की जिंदगी की निगाहें सहज रूप से पूरब जंगल की ओर उठती थीं, लेकिन जबसे जंगल गायब हुए, तबसे यह गांव पश्चिममुखी हो गया है। वैसे भी पूरब का जंगल गांव का पिछवाड़ा हुआ करता था, गांव का सामना तो पश्चिम तरफ आधा किलोमीटर से भी कम दूरी वाली खलियारी-राबटूर्सगंज रोड है जो इसे दुनिया की आम धारा से जोड़ती है। अब यही सड़क इस गांव का भविष्य है जो नई पीढ़ी को पढ़ाई और रोजगार की तलाश में शहरों की ओर ले जाती है।
ग्रामीण जिंदगी में बदलाव की रफ्तार इतनी धीमी होती है कि बगैर हलचल के चुपके से चीजें गायब होती हैं और आने वाली नई चीजों की आहट भी नहीं सुनाई देती। नई चीजें तक बड़ी खामोशी से जिंदगी में दाखिल होती हैं। मसलन, इस गांव ने कभी गोधूलि वेला भी देखी थी जब सैकड़ों मवेशियों को दिनभर जंगल में चराने के बाद सूर्यास्त के समय चरवाहे उनके साथ गांव लौटते थे।लेकिन जब से गांव में पांच-छह ट्रैक्टर आ गए, तब से हल-बैल और दूसरे मवेशी गायब होते चले गए। जिनके ट्रैक्टर हैं वही नहीं, बल्कि जिनके पास नहीं है, वे भी भाड़े के ट्रैक्टर से खेती कराने लगे हैं। पहले इस गांव में हर किसान अपने संसाधनों से जरूरत भर गोबर की खाद बना लेता था, लेकिन अब तो रासायनिक खाद की मारामारी है। विकास और गतिशीलता का पैमाना अगर चक्र यानी चक्के को माना जाए तो गांव में कम से कम तीन दर्जन से ज्यादा साइकिलें और दर्जन भर मोटर साइकिलें हैं। साइकिलें गांव की जरूरत हैं और मोटर साइकिलें शौक। ज्यादातर मोटर साइकिलें लड़कों को दहेज में मिली हैं। लड़के बेरोजगार हैं और उनकी शादी में मोटर साइकिल लेकर अपना सामाजिक स्तर प्रदर्शित करने वाले अभिभावक मोटर साइकिल के रोज-रोज के पेट्रोल-खर्चे को लेकर परेशान हैं- निकम्मे नौजवानों की आवारगी को मोटर साइकिलों ने रफ्तार दे दी है। वे खेती-किसानी के काम में अपने अभिभावकों का हाथ भी नहीं बंटाते और घर से खाना खाकर मोटर साइकिल से रामगढ़-रावर्टूसगंज के बाजारों में दिनभर भटकने के बाद रात को नौ-दस बजे खाना खाने और सोने के लिए लौटते हैं। मोटर साइकिल है तो मोबाइल फोन भी सबके हाथ में है, जबकि दरअसल उनकी ग्रामीण जिंदगी में इन चीजों की कुछ खास उपयोगिता नहीं है। इस तरह जो पैसा खाद-बीज और खेती की दूसरी जरूरतों में खर्च होता, वह आवारा लड़कों की मोटर साइकिल और मोबाइल फोन पर जाया हो रहा है।
गांव का एकमात्र प्रवेश द्वार पश्चिम में नहर का पक्का और पर्याप्त चौड़ा पुल है। नहर और पुल से सटा गांव का इकलौता तालाब धीरे-धीरे नष्ट हो चला है। तालाब के पूरबी भीटे पर इक्का-दुक्का परिवार बसे होने के कारण वह सुरक्षित तो है, लेकिन उधर से तालाब को थोड़ा पाट लिया गया है। बाकी तीन तरफ के किनारे कट-फटकर क्षत-विक्षत हैं। इस तालाब में पानी नहर से बरसात के मौसम में आता है, लेकिन चूंकि दशकों से तालाब की तलहटी की सफाई नहीं हुई है, इसलिए अब यह तालाब उथला होकर एक मामूली पोखर में तब्दील हो गया है। हर साल गरमियों में अब यह सूख जाता है और बेहया के हरे-भरे जंगल से पट जाया करता है। यह वही तालाब है, जिसमें कभी लगभग सालभर ही पानी रहा करता था और बरसात से लेकर जाड़े के मौसम तक पुरइन और कमल के फूल-पत्ते तालाब को सम्मोहक बनाते थे। साल में एक बार बसंत के आसपास सामूहिक रूप से इस तालाब से गांव वाले मछलियां पकड़ते थे और जरूरत के मुताबिक उन्हें तमाम परिवारों में बांट दिया जाता था। वह एक उत्सव जैसा दिन होता था। ब्राrाणों के घर की रसोई में तो मछली पक नहीं सकती थी, लेकिन उनके घरों के बाहरी आंगन के किसी छोर पर अस्थाई चूल्हा जलाया जाता था। पुरानी कड़ाही और कुछेक बरतन धो-मांज कर निकाले जाते थे जो मछली पकाने के लिए ही रखे होते थे। खास तौर पर बच्चों के लिए होता था यह मछली भोज। मगर यह शर्त होती थी कि मछली-भात खाने के बाद नींबू के पत्तों से दांत मांजने होंगे, ताकि मुंह से मछली की महक न आए। ...जारी
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मेरे गांव की कहानी- दो : कलहवा गांव में कत्ल

अरविंद चतुर्वेद :
मेरे गांव का नाम कलहवा गांव इसलिए, क्योंकि बाभनों में पटूटीदारी की लाग-डांट बराबर बनी रहती थी और बात-बात पर गाली-गलौज के साथ लाठियां निकलती रहती थीं। यह कलह तीन बार जब अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंची तो रामप्यारे चौबे, रामखेलावन चौबे और कुबेर चौबे की जान लेकर थमी। लम्बे अंतराल में आजादी के बाद चौथी हत्या नलराजा के पास वाले नाले के किनारे बच्चा चौबे की शाम के पांच बजे नरोत्तमपुर वालों ने कर दी। बच्चा सेमरिया से आ रहे थे। घात लगाकर नाले में छिपे, पिता की हत्या के बदले की आग में जल रहे, नरोत्तमपुर के पांडे भाइयों ने अचानक बच्चा को घेर लिया। बच्चा ने भागने की कोशिश की। कहते हैं कि अपनी ही धोती में फंसकर अगर वे गिर न गए होते तो शायद उनकी जान बच गई होती। बच्चा के गिरते ही हमलावर उन पर टूट पड़े थे और तब तक लाठियां बरसाते रहे, जब तक उन्हें यकीन नहीं हो गया कि बच्चा के प्राण पखेरू उड़ गए हैं। फिर पांचवीं और अंतिम हत्या हुई गांव से बाहर, एक किलोमीटर दूर, नहर की पटरी पर, गेना चौबे की- दिन के दस बजे। घर से खाना खाकर गेना चौबे साइकिल से रामगढ़ बाजार के लिए निकले थे। नहर के किनारे खेत में छिपे हमलावरों के सामने से जैसे ही साइकिल गुजरी, तेजी से निकल कर पहले तो उन सबने उनकी साइकिल गिरा दी। गेना को संभलने और भागने का जरा भी मौका नहीं मिला। लाठियों से पीटने के बाद हमलावरों ने गंड़ासे से गेना चौबे के हाथ-पैर काटकर अलग कर दिए। कहते हैं कि जब उनका शव गांव लाया गया तो धड़ के साथ हाथ-पैर बटोर कर लाना पड़ा था। गेना चौबे को मारने वाले इमलिया डीह के एक कोइरी के लड़के थे, जिसको गेना चौबे ने अपने भाइयों के साथ मिलकर मार डाला था। उन्हीं लड़कों ने, जब जवान हो गए तो गेना को मारकर बाप की हत्या का बदला ले लिया।
गेना चौबे की जिंदगी एक किसान के व्यापारी बनने की असफल कोशिश की भी कहानी है। युवावस्था में अपने दूर के एक रिश्तेदार की प्रेरणा से वे कलकत्ता कमाने चले गए थे। उनके कलकत्ता प्रवास के बारे में कई किंवदंतियां प्रचलित हैं। मसलन, गेना ने वहां शुरू-शुरू में हाथरिक्शा चलाया। फिर बड़ाबाजार में दूध बेचने का काम करने लगे। दूध बेचने के दौरान एक हलवाई से सम्पर्क हुआ तो दूध बेचना छोड़कर उसकी दूकान पर काम करने लगे और धीरे-धीरे मिठाइयां बनाने की कारीगरी सीखी। वहां से पांव उखड़े तो किसी मारवाड़ी के कपड़े की दूकान पर काम करने लगे। कहते हैं कि एक रोज जब दूकान का मालिक कहीं गया हुआ था तो गेना चौबे ने दिनभर की बिक्री-बटूटा का पैसा समेटते हुए गल्ले पर हाथ साफ किया और हावड़ा से मुगलसराय वापसी की ट्रेन पकड़ ली। एक किंवदंती यह भी है कि गेना चौबे कलकत्ता में किसी ट्रांसपोर्टर के यहां थे और उसका ट्रक चलाते थे। मगर इस दूसरी किंवदंती से उनकी जिंदगी की संगति नहीं मिलती, क्योंकि कलकत्ता से लौटने के बाद गेना चौबे ने एक बैलगाड़ी खरीदी थी और भाड़े पर गल्ला ढुलाई का काम करने लगे थे। क्या यह मुमकिन है कि कोई ट्रक ड्राइवर स्टीयरिंग छोड़ने के बाद बैलगाड़ी हांकने लगे? हां, पहले वाली किंवदंती से गेना चौबे की उत्तर-जिंदगी जरूर मेल खाती है। जैसे कि हर साल बसंत पंचमी पर लगने वाले सात दिन के नलराजा मेले में वे मिठाइयों की दूकान लगाते थे। मेला शुरू होने से दस-पंद्रह दिन पहले से घर में मिठाइयां बनने लगती थीं। उनका घर हलवाई का कारखाना बन जाया करता था। उनके घर से आनेवाली सोंधी-मीठी महक उधर से गुजरने वालों के मुंह में पानी ला देती थी। इस तरह गांव के पारंपरिक खेतिहर ब्राह्मणों के बीच गेना चौबे ने अब्राह्मण व्यवसाय’ की शुरूआत की। ईख की खेती करके गुड़ बनाकर बेचने और आलू-प्याज-बैगन आदि सब्जियों की व्यावसायिक खेती जैसे कामकाज की पहल गेना चौबे ने की। शुरू-शुरू में उनकी इन अब्राह्मण गतिविधियों की निंदात्मक आलोचना भी खूब हुई लेकिन उन्होंने कोई परवाह नहीं की। इसके बावजूद उनके किसी प्रयास को मंजिल नहीं मिल सकी। सरकारी कर्ज लेकर खरीदे गए बैलगाड़ी के दो शानदार बैलों में से एक तीन साल बाद मर गया तो गल्ला ढुलाई का काम अपने आप बंद हो गया। एक बरसात के बाद ही महाभारत के टूटे रथ की तरह लुढ़की, पानी खाई बैलगाड़ी औने-पौने दाम में बेच देनी पड़ी थी। दुधारू भैंस के मर जाने से नलराजा के मेले वाली मिठाइयों की दूकान इतनी गरीब हो गई कि अगले साल तक सारा उत्साह काफूर हो गया। फिर गुड़ बनाने वाला कड़ाह चोरी हो गया तो ईख की खेती पर भी पूर्ण विराम लग गया। इस तरह झटके पर झटका खाती गेना चौबे की गृहस्थी जर्जर होती चली गई। बढ़ती उम्र और थकान से शरीर भी शिथिल हो चुका था।
जिस रोज गेना चौबे का कत्ल हुआ था, वे रामगढ़ ब्लॉक पर कोआपरेटिव का कर्ज अदा करने जा रहे थे। पिता का क्रिया-कर्म करने के महीने भर बाद उनका बड़ा पुत्र जो अब तक रामगढ़ में एक दर्जी का शागिर्द बनकर दर्जीगीरी सीख चुका था, पितृ-शोक से काफी दूर लुधियाना कमाने-खाने निकल गया। गेना चौबे की विधवा को अपने छोटे बेटे के साथ घर-गृहस्थी की चकरघिन्नी और खेती-बारी की अतिरिक्त जिम्मेदारी में फिरकी की तरह ऐसा नाचना पड़ा कि पति के शोक में डूबे रहने का लम्बा अवकाश भला उन्हें क्या मिलता! दो-चार दिन रो लिया, दो-चार दिन सुबक लिया- आंसू सूख गए। ऐसा ही होता है। वक्त का रिमूवर इतना असरदार होता है कि जिदूदी से जिदूदी निशान भी मिट जाते हैं। सो, गांव की आंतरिक जिंदगी में अब अतीत के उस रक्तरंजित दौर की कोई छाप बची नहीं है। खून के छींटे मई-जून की धधकती गर्मी में न जाने कब सूख गए और तेज बरसात की बौछारों ने उन्हें धो-पोंछ कर साफ कर दिया। .... जारी
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मेरे गावं की कहानी : एक

अरविन्द चतुर्वेद
समय की अपनी फिक्र होती है जो हर आदमी के चेहरे पर लकीरें खींचती रहती है। उसके विशाल परदे पर पुराने दृश्य ओझल होते हुए गायब होते जाते हैं और उनकी जगह नए दृश्य, नए चित्र उभरते हैं। क्या यह रूप-परिवर्तन ही समय-परिवर्तन है?
नहर किनारे बसे इस गांव का वृहत्तर लैंडस्केप वही है, लेकिन हरियाली घटकर आधी रह गई है। बस्ती के उत्तरी छोर पर पश्चिम से पूरब की ओर फैले आम के तीन पुराने बगीचों में से दो लगभग उजड़ चुके हैं। पुराने पेड़ साल-दर-साल कटते गए और उनकी जगह एक भी नया पौधा किसी ने नहीं लगाया। इस तरह दो बगीचे स्मृतिशेष रह गए। गांव के दक्षिण तरफ वाले ताल के भीटे पर भी पेड़ों और झाड़ियों की वह घनी हरियाली नहीं दीखती जो सहज ही अपनी ओर निगाह खींचती थी। ताल के इसी भीटे पर देर शाम के अंधियारे में सियारों का झुंड हुंआता था और जवाब में गांव के कुत्तों की मिली-जुली भूंक का मुकाबला घंटेभर चला करता था। अब ताल के भीटे नंगे हो चुके हैं और नाम भर के लिए ताल कही जानेवाली जमीन पर खेती हो रही है। यही हाल गांव के पूरब का भी है। डीह के नीचे पूरब की ओर क्रमश: एक-दूसरे से लगे पतेर, घटवन और भाठ की पठारी भूमि के बाद दिन में भी अंधेरे से घिरे रहने वाले गहरे नाले के पार नलराजा का जंगल हुआ करता था। इस समूचे वन-प्रांतर के उत्तरी छोर पर पूरब से पश्चिम की ओर बहने वाली कर्मनाशा नदी के दोनों किनारे धवई, साखू, तेंदू, जिगिना और महुआ के बड़े घने और झंखाड़ वृक्षों से लदे-फंदे थे। इन्हीं वृक्षों के बीच-बीच में पीपल, बरगद और गूलर के भी कुछ पेड़ थे जिन पर काले मुंह और लंबी पूंछ वाले हनुमान बंदरों का बसेरा हुआ करता था। वे दिनभर गूलर, पीपल और बरगद के कच्चे-पके फल खाते और प्यास लगने पर कर्मनाशा का ठंडा पानी पीकर यहां से वहां तक धमाचौकड़ी मचाते। कभी पलाश के छोटे-बड़े पेड़ों से भरे अब इस समूचे पठारी इलाके में जंगल नहीं, जंगल की याद भर बची है। बंदर-सियार कहां चले गए, कोई नहीं जानता। जंगल विहीन पठार पर कर्मनाशा विधवा की सूनी मांग की तरह खिंची हुई है। गांव के पूरबी छोर पर खेतों के पार सरकारी पटूटे की जमीन पर उत्तर से दक्षिण दलितों की नई बस्ती बस गई है। इस बस्ती में बंसवारियां खूब हैं। दलितों के इर्दगिर्द ही दक्षिणी छोर पर चेरो जनजाति के दर्जन भर परिवार बसे हैं। बंसवारियां उनके घरों के आसपास भी हैं। ऐसा लगता है कि इस गांव के मूल निवासी यही चेरो आदिवासी ही हैं जिनके आधार पर गांव का नाम चेरो कोना-चेरो कोनवां-चरकोनवां हुआ होगा। इस बात की पुष्टि गांव के बीच वाले बगीचे में स्थापित ग्रामदेवता चेरो बाबा से भी होती है, जो गांव की सभी जातियों द्वारा पूजित हैं। यों गांव में प्रमुखता चौबे यानी चतुर्वेदी ब्राह्मणों की है जिनका पारंपरिक पेशा पूजा-पाठ और पुरोहिताई वगैरह नहीं है, सभी खेतिहर किसान हैं और 90 फीसदी से भी ज्यादा जमीनें इन्हीं की हैं। गांव की बाकी आबादी खेतमजूरी करती है। इन ब्राह्मणों का पुरोहित एक शुक्ल परिवार है, जिसने दो भाइयों में बंटवारे के बाद गांव की पुरोहिताई भी दो हिस्से में बांट रखी है। यों खेतीबारी यह परिवार भी करता है।
इस गांव का अतीत बीसवीं सदी के आरंभ में कुछ ऐसे हादसों से होकर गुजरा कि उनसे जो लकीरें खिंच गइं और उनकी जो छाया पड़ी, वह वक्त के तमाम गर्द-गुबार के बावजूद आज भी महसूस होती है। जैसे कि पड़ोसी गांवों के लोग सुबह-सुबह इस गांव का नाम लेना पसंद नहीं करते। चरकोनवां’ न कहकर चौबेगांव’ या फिर कलहवा गांव’ कहकर सम्बोधित करते हैं। कहते हैं कि सबेरे-सबेरे इस गांव का नाम लेने से उस दिन ठीक से खाना नहीं मिल सकता...
जारी
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दूसरी मरियम

अरविन्द चतुर्वेद

मरियम यहां रांची शहर से कोई पच्चीस-तीस किलोमीटर दूर तमाड़ इलाके के किसी गांव की रहने वाली है। पहली बार उसे छह महीने पहले देखा था, जब इस मकान के एक हिस्से में किराएदार बनकर रहने आया। जब मैं मकान मालिक से बात कर रहा था तो घर के भीतर से एक ट्रे में पानी के गिलास और चाय के कप लेकर मरियम ही आई थी। वह गाढ़े हरे रंग की घरेलू सूती साड़ी में थी। उसने टेबल पर पानी के गिलास और चाय के कप रखे और फिर चली गई। फिर बातचीत के बाद मकान मालिक ने आवाज देकर मरियम को बुलाया और किराए वाले हिस्से के घर की चाबी देकर मुझे कमरे दिखा देने को कहा। घर देखते समय मैंने अटूठारह-उन्नीस साल की मरियम से पूछा- आप गुप्ता जी की बहन हैं या बेटी? वह धीरे से हंसी और बोली-नहीं, मैं इनके घर में काम करती हूं।
कमरे देख लेने के बाद गुप्ता जी को जब मैं एक महीने का किराया, ढाई हजार रूपए बतौर एडवांस, दे रहा था, तब घर के भीतर से गुप्ता जी की पत्नी अपनी
बेटी के साथ बाहर वाले कमरे में आइं। गुप्ता जी ने उनसे परिचय कराया। गुप्ता जी का परिवार छोटा है, बस कुल चार जन- पति-पत्नी, यह बेटी सुमन जो हाई स्कूल में पढ़ती है और इंटर में पढ़ने वाला बेटा सुशांत, जो अभी कॉलेज से लौटा नहीं था।
अगले दिन से आ जाने की बात कहकर मैं होटल लौट गया था। मैं अपने अखबार के यहां से छपने वाले नए संस्करण का समाचार सम्पादक होकरआया हूं। अखबार के कामकाज और तैयारी के चलते पंद्रह दिन तक तो घर खोजने की फुरसत ही नहीं मिल पाई थी। लिहाजा जैसे ही मकान मिला, दूसरे दिन सुबह नौ बजे गुप्ता जी के घर में रहने चला आया। तब तक गुप्ता जी अपने ऑफिस के लिए निकल चुके थे और उनके दोनों बज्जे भी स्कूल-कॉलेज जा चुके थे। मेरे पहुंचने से पहले ही मरियम कमरों की साफ-सफाई कर चुकी थी। एक कमरे में चौकी और दो कुर्सियां व टेबल पहले से पड़े हुए थे। बिस्तर और कपड़ों का बैग लेकर मैं बनारस से आया ही था। सो जरूरत की थोड़ी-बहुत शुरूआती चीजें- बाल्टी-मग, झाड़ू, चटाई और कुछ बरतन वगैरह बाजार से लेता आया। चीजें रखने-जमाने में मरियम ने मदद कर दी। जो जग मैं खरीद कर लाया था, मरियम उसमें पीने का पानी भरकर ले आई और गिलास के साथ उसे टेबल पर रख दिया। मैंने पहले से तय कर रखा था कि हफ्ते भर में चाय-नाश्ता और कम से कम एक वक्त का खाना बनाने-खाने का इंतजाम घर में ही रखूंगा।
गुप्ता जी की पत्नी निहायत घरेलू महिला हैं। वे भीतर कहीं घर में थीं, शायद किचेन में। वहीं से उन्होंने आवाज देकर मरियम को बुलाया। वह गई तो हाथ में एक कप चाय लेकर लौटी और जैसा कि नए किराएदार से कुछ मकान मालिक कहते हैं, बोली- सुमन की अम्मा कह रही हैं कि किसी चीज की जरूरत होगी तो नि:संकोच कहिएगा। मुझे चाय की तलब नहीं थी लेकिन चूंकि यह सौजन्यतामूलक व्यवहार था, सो मैंने चाय पी ली। थोड़ी देर बाद नहा-धोकर घर में ताला लगाकर मैं निकला और होटल में खाना खाते हुए दो बजे तक ऑफिस पहुंच गया।
अखबार का काम ऐसा कि देर रात लौटना और सुबह देर तक सोकर उठने के
बाद चाय बनाकर पीते हुए जब मैं अखबार पढ़ने बैठता था, तब तक गुप्ता जी और उनके बज्जे घर से निकल चुके होते थे। उन सब से मेरी मुलाकात रविवार या फिर बीच-बीच में पड़ने वाली छुटिूटयों के दिन ही हो पाती थी। कुछ दिनों बाद यह भी तय हो गया कि मरियम ही मेरे घर में भी झाड़ू-पोछा

कर दिया करेगी और बरतन भी साफ कर देगी, आखिर एक आदमी के बरतन ही कितने होते हैं!
मेरा काम करते एक महीना पूरा हुआ तो मैंने मरियम से पूछा- तुम्हें कितने पैसे दे दूं?
- जो ठीक समझिए, दे दीजिए।’ मरियम बोली।
मैंने कहा- काम तो तुम करती हो, तुम्हें ही बताना चाहिए कितने पैसे लोगी।’
मरियम कुछ नहीं बोली। हंसने लगी। डेढ़ सौ रूपए दिए तो रख ली। बोली, ठीक है। साथ ही जोड़ा- चार महीने बाद सरहुल का त्यौहार है, उस टाइम कपड़े दिलवा दीजिएगा।
मैंने कहा- सरहुल तो मुंडा लोगों का त्यौहार है, तुम लोग तो क्रिश्चियन हो! मरियम बोली- इससे क्या? त्यौहार तो त्यौहार है। हम लोग हैं तो मुंडा क्रिश्चियन! सब लोग सरहुल मनाते हैं।
गुप्ता जी के मकान के पिछले हिस्से की छत खपरैल की है। पिछला ओसारा चहारदीवारी से घिरे एक बड़े कज्जे आंगन में खुलता है। आंगन में थोड़ी-बहुत फूल-पत्तियां। खपरैल वाले लम्बे ओसारे की छत पर एक हिस्से में लौकी और दूसरे हिस्से में सेम की लतरें फैली हैं। आंगन के एक तरफ चहारदीवारी से लगे इंट के दो पक्के अधबने कमरे हैं। अभी छत नहीं ढाली गई है। उसी
एक अधबने कमरे में मरियम अपने कपड़े-लत्ते रखती है। उसका टीन का एक पुराना बक्सा भी वहीं रहता है, जिसे साथ में लेकर वह गुप्ता जी के यहां काम करने आई रही होगी। दिन में खाली समय में घंटे-दो घंटे मरियम बिना दरवाजे के उस अधबने कमरे में आराम करती है, उसकी कच्ची फर्श को लीप-पोतकर उसने साफ-सुथरा कर रखा है। रात को घर के ओसारे में गुप्ता जी द्वारा मुहैया कराई गई चटाई और एक मामूली बिस्तर पर वह सोती है। दिन में उसका बिस्तर उसी अधबने कमरे में रहता है। कमरे की एक दीवार पर कील गाड़कर एक छोटा-सा आईना और दूसरी कील में प्लास्टिक से मढ़ा हुआ ईसा मसीह का चित्र उसने टांग रखा है।
शाम को चार-साढ़े चार बजे तक गुप्ता जी के घर का कामकाज निबटाने के बाद हाथ-मुंह धोकर अपनी तरह से थोड़ा सज-धजकर मरियम रोजाना घंटेभर के लिए चर्चरोड वाले चर्च में प्रार्थना करने जाती है। उस समय उसके गले में क्रास वाला लाकेट रहता है। सबके बीच रहते हुए भी जैसे हर आदमी की अपनी एक अलग दुनिया होती है, या कि वह बनाना चाहता है- वैसा ही मरियम के साथ भी है। कुछ दिनों बाद ही मुझे इसका एहसास भी हो गया था। इस तरह गुप्ता जी की गृहस्थी से ठीकठाक तालमेल रखने के बावजूद मरियम थोड़ा अलग, बल्कि कहिए कि एक अजनबीयत के साथ रहती थी। हालांकि उनके बीच कोई टकराहट नहीं थी और न किसी को किसी से कोई शिकायत थी।
एक रविवार की सुबह मैं कुछ ज्यादा ही देर से सोकर उठा। चाय बनाकर पीते हुए अखबार पढ़ रहा था, तभी गुप्ता जी की बेटी ने आकर बताया- मरियम नहीं है। मम्मी ने कहा, बता दूं- उसके आसरे मत रहिएगा।
- क्यों, क्या हुआ? कहां गई वह?
- कुछ बताया नहीं। कल शाम को चर्च गई थी, फिर आई ही नहीं।
- अच्छा...! क्या पहले भी ऐसा करती रही है?
- नहीं, अपने यहां डेढ़ साल में कभी ऐसा नहीं किया। पिछले साल सरहुल पर छुटूटी मांगकर चार दिन के लिए गांव गई थी। बड़ा दिन पर दो दिन के लिए यहीं डोरंडा में अपने मामा के यहां गई थी। बीच-बीच में मामा से
मिलने डोरंडा जाती थी, वहां उसका बाप भी गांव से आता रहता है, लेकिन शाम को तो लौट ही आती थी। फिर मम्मी को बिना बताए तो कहीं नहीं जाती थी।
- हो सकता है तुम्हारी मम्मी ने किसी बात पर डांटा-डपटा हो!

- नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। उसका कपड़ा-लत्ता और बक्सा भी यहीं है। रोज की तरह ऐसे ही चर्च गई थी।
- तब कोई बात नहीं। हो सकता है मामा के यहां गई हो, शाम-वाम तक आ जाए।
- देखिए...!
मरियम शाम को नहीं आई। तीसरा दिन-चौथा दिन करते हफ्ता बीत गया। उसके बक्से की तलाशी ली गई। बक्से में उसके कपड़े-लत्ते, सूई-धागा और कुछ बटन, एक कैंची, सस्ती-सी क्रीम और पावडर का डिब्बा, लिपस्टिक, च्हमारे यीशु’, च्सुसमाचार’, च्यीशु के उपदेश’ नामक तीन छोटी पुस्तिकाएं जो शायद चर्च से मिली होंगी और पच्चीस रूपए व कुछ रेजगारियां- सब कुछ जस का तस पड़ा था। इससे इतना तो तय हो गया कि मरियम यहां से भागकर नहीं गई है और न हमेशा के लिए। लेकिन वह गई कहां?
मरियम के लापता हुए पंद्रह-सोलह दिन हो रहे होंगे। एक शाम आठ बजे के करीब दफ्तर में हमारे सिटी रिपोर्टर धर्मराज राय टेलीफोन पर शहर के थानों से रिपोर्ट ले रहे थे। कानों में आवाज पड़ी- च्...क्या नाम बताया, मरियम?’ मैं चौंक उठा। मेरा ध्यान टेलीफोन-वार्ता पर गया :
- कहां से पकड़ी गई?’ राय ने पूछा।
उधर से जवाब आया- च्चाईबासा से बस में आ रही थी। नामकुम में बस से उतरी, तभी पकड़ ली गई।’
जब राय ने टेलीफोन रख दिया तो मैंने उन्हें बुलाया। पूछा- क्या खबर है?
धर्मराज राय ने बताया- सत्रह-अटूठारह साल की मरियम नाम की एक लड़की अभी घंटा भर पहले नामकुम में पकड़ी गई है। डोरंडा थाने के गश्ती दल ने बस स्टैंड से पकड़ा है। उसके साथ दो साल का एक बच्चा था। बस से उतरी तो बच्चा रो रहा था, वह उसे चुप कराने की कोशिश कर रही थी। पुलिस को शक हुआ- मामूली कपड़े वाली काली आदिवासी लड़की की गोद में अच्छे कपड़े पहने गोरा-चिटूटा लड़का! पुलिस को देखकर वह सकपका गई। रिक्शे पर बैठने ही जा रही थी कि तभी पुलिस वालों ने पकड़ लिया। चाईबासा से बच्चा चुराकर लाई थी। उसे पकड़कर डोरंडा थाने लाया गया है।
- क्या यहीं रांची की रहने वाली है?’
- नहीं, रहने वाली तो तमाड़ की है। यहां अपर बाजार मेंएक दुकानदार के घर में नौकरानी का काम करती है।’ राय को थानेवालों ने बताया था।
मरियम! सत्रह-अटूठारह साल की आदिवासी लड़की... तमाड़ की रहने वाली... मेरे मन में अब तक एक तूफान सिर उठा चुका था- यह तो हमारे यहां की मरियम लगती है! अचानक ही गायब हुई थी। हो सकता है अपर बाजार में किसी के यहां काम करने लगी हो! देखने में कितनी सीधी-सादी, लेकिन वह तो बच्चाचोर निकली! बज्जे गायब होने की पहले भी कुछ खबरें आ चुकी हैं। तो क्या मरियम गुपचुप तरीके से किसी बच्चाचोर गिरोह के लिए काम करती है? लगा कि डोरंडा थाने चलकर उससे पूछना चाहिए, ऐसा क्यों किया?
थाना पास में ही था। आधे घंटे में वहां से होकर लौटा जा सकता है। राय के साथ मोटरसाइकिल से निकल पड़ा। रास्ते में सोचता जा रहा था कि अगर हमारे गुप्ता जी के यहां काम करने वाली मरियम हुई तो थानेदार से कहकर उसे छुड़ा लिया जाएगा। अभी भी मेरा मन कह रहा था कि मरियम बच्चा चुराने जैसा काम नहीं कर सकती, जरूर वह धोखे से किसी तरह इस मामले में फंस गई होगी। राय को मैंने बता दिया कि हम लोग थाने पर क्यों चल रहे
हैं।
थाने पहुंचे तो वहां अंधेरा था। अभी-अभी बिजली चली गई थी। थानेदार के दफ्तर में लालटेन जल रही थी। क्राइम की रिपोटिंग करने वाले राय को थानेदार अच्छी तरह पहचानता था। ऐसा होता ही है। रिपोर्टर का थाना-पुलिस

से रोज ही काम पड़ता है। थानेदार ने राय को सम्बोधित करते हुए कहा- आइए-आइए, बैठिए। कैसे आना हुआ?
धर्मराज राय बात बनाने में माहिर आदमी हैं। उन्होंने थानेदार को मेरा परिचय देते हुए बताया- इधर एक काम से निकले थे, सोचा, आपसे मिलता चलूं।
- क्या सेवा की जाय, कुछ चाय-पानी...? थानेदार ने पूछा।
- नहीं, कुछ नहीं। हम लोग जरा जल्दी में हैं। वह जो बच्चा चुराने वाली लड़की है, कहां है? उससे थोड़ी बात करना चाहते हैं।’ राय ने कहा।
थानेदार के दफ्तर के बगल वाले कमरे में मरियम को रखा गया था। एक सिपाही को बुलाकर थानेदार ने उससे हम लोगों को मिला देने को कहा। बरामदे में जल रही लालटेन लिए सिपाही के साथ उस कमरे में जाते समय मेरे मन का तूफान चरम पर था।
हॉलनुमा उस बड़े से कमरे की आखिरी दीवार के पास खाली फर्श पर मरियम घुटनों पर सिर झुकाए बैठी थी। हमारे जाने पर भी उसने सिर नहीं उठाया। सिपाही ने ही जरा कड़ी आवाज में कहा- चेहरा दिखा, साहब लोग कुछ पूछताछ करेंगे!
अब उसने सिर उठाया और हमारी तरफ देखा- ओह, यह तो हमारी मरियम नहीं है!
मन के जंगल में उठी सूखी आंधी उथल-पुथल मचाने के बाद एकबारगी तिरोहित हो गई। माथे पर पसीना चुहचुहा आया था। रूमाल से चेहरा पोंछते हुए मैंने मरियम से पूछा- तुमने बच्चा क्यों चुराया?
उसके सपाट चेहरे पर कोई भाव नहीं था। आंखों में अबूझ सन्नाटा। एक पल की खामोशी के बाद वह बोली, जिनके यहां काम करती है उनके कोई बच्चा नहीं है। उन्होंने हजार रूपए के बदले कहीं से एक बच्चा ला देने को कहा था। चाईबासा में उसकी मौसी जिनके यहां काम करती है, उन्हीं के घर का बच्चा चुपके से वह ले आई थी।
- लेकिन यह तो बड़ा भारी जुर्म है, तुमको तो जेल हो जाएगी!’
अब वह खामोश हो गई और दोबारा घुटनों पर सिर झुका लिया।
मेरे कहने पर राय ने थानेदार से कहा- असली मुजरिम तो इस लड़की की मालकिन है, जिसने हजार रूपए का लालच देकर बच्चा लाने को कहा था। सो पकड़ना तो उसे चाहिए। फिर जब बच्चा मिल गया और अपने मां-बाप के पास पहुंचा दिया गया तो इस लड़की को छोड़ दीजिए। चालान करके जेल भेज देंगे तो इस गरीब की जमानत लेने भी कोई नहीं आएगा। हम लोग अखबार में खबर नहीं छापेंगे।
थानेदार मान गया। बोला- आप कहते हैं तो छोड़ देंगे। लेकिन अभी रात में जाएगी कहां? सवेरे चेतावनी देकर डांटकर भगा देंगे।
हम दोनों लौट आए।
इसके हफ्तेभर बाद एक दोपहर अचानक हमारी मरियम लौटी। वह रिक्शे से थी। गुप्ता जी के घर में न जाकर सीधे मेरे यहां आई। हंस रही थी। मैंने पूछा- कहां अचानक बिना बताए गायब हो गई थी?
उसने बताया- उस रोज चर्च से लौट रही थी, तभी रास्ते में मामा मिल गए। उन्होंने बताया, मेरे छोटे भाई की तबीयत बहुत खराब है। वह मामा के यहां रहकर हाई स्कूल में पढ़ता है। मैं मामा के साथ डोरंडा चली गई। वहीं थी। भाई को पीलिया हो गया था।
फिर गुप्ता जी की ओर इशारा करते हुए उसने जानना चाहा- ये लोग तो बहुत नाराज होंगे! बहुत उल्टा-सीधा बोल रहे होंगे?
- नहीं, ऐसा कुछ खास नहीं। मगर झुंझलाहट तो होगी ही! तुम जाकर मिल लो!
वह बोली- मिलने से क्या फायदा, कौन उनकी चार बात सुने? अब मैं यहां काम नहीं करूंगी। मैं तो अपना सामान लेने आई हूं।

गुप्ता जी की पत्नी दोपहर में दरवाजे बंद करके सो रही थीं। मरियम नहीं चाहती थी कि उनसे उसका सामना हो। वह मेरे घर से होकर चुपके-से पीछे
आंगन में गई और जल्दी-जल्दी अपना सामान समेट कर बक्सा लेकर तुरंत लौट आई।
मैंने कहा- अरे, तुम्हारे आधे महीने के काम के पैसे बनते हैं। वह तो मांग लो!
मरियम बोली- जाने दीजिए, मैं संतोष कर लूंगी। आप बता दीजिएगा, मैं आई थी, अपना सामान ले गई।
मैंने मरियम को दो सौ रूपए दिए। वह ले नहीं रही थी, लेकिन जोर देने पर उसने पैसे रख लिए। वह जल्दी से रिक्शे पर बैठी और निकल गई।
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शहरी कायाकल्प का खामियाजा

अरविन्द चतुर्वेद

देश की राजधानी दिल्ली और उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में शहरी कायाकल्प को लेकर एक कश-म-कश देखी जा सकती है और कहना नहीं होगा कि नगर विकास की अंधाधुंध कार्रवाइयों के चलते दोनों जगह की सरकारें नागरिकों के निशाने पर हैं। दिल्ली में अवैध कॉलोनियों के नियमितीकरण को लेकर पक्ष-विपक्ष की राजनीति तो सरगर्म रहती ही है-मामले अदालत तक पहुंच जाते हैं। इसी तरह रिहायशी इलाकों में बड़े पैमाने पर जगहों के व्यावसायिक कारोबारी इस्तेमाल की शिकायत पर भी अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ा और काफी हीला-हवाली व ढीलेढालेपन के बावजूद ऐसी जगहें सील की गइं। ये तो खैर बीते प्रसंग हैं, लेकिन फिलहाल राष्ट्रीय राजधानी में आगामी राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी और तत्सम्बंधी निर्माण कायों को लेकर सरकार के पसीने छूट रहे हैं और सांस फूल रही है। उस दौरान आनेवाले मेहमानों, खिलाड़ियों और खेलसंघों के पदाधिकारियों को कहां ठहराया जाएगा, विभिन्न खेलों के आयोजन स्थल कहां-कैसे होंगे और ठहरने वाली जगह से तमाम देशों के खिलाड़ी अबाधित यातायात के जरिए कैसे खेल-स्थल पर पहुंचेंगे, आदि-आदि सवालों की गम्भीर चिंता में भारी-भरकम आबादी में ऊभचूभ करती दिल्ली के कर्ता-धर्ताओं की नींद हराम है।
यह उदाहरण सिर्फ इसलिए कि जिस तरह के केंद्रीकृत शहरी विकास की राह पर हम चल रहे हैं, ऐसी कितने ही किस्म की समस्याओं से आएदिन दो-चार होना पड़ता है। तो क्या हमारी यह नियति ही बन गई है और इसे झेलने-भोगने के लिए हम अभिशप्त हो चुके हैं? आखिर विकेंद्रीकरण के सपने और समेकित विकास का क्या हुआ? हकीकत यह है कि विकसित देशों के कुछेक शहरों मसलन टोकियो-न्यूयार्क आदि को छोड़ दिया जाए तो सर्वाधिक आबादी वाले दैत्याकार महानगर विकासशील और तीसरी दुनिया के देशों में ही हैं। मेक्सिको में मेक्सिको सिटी, शंघाई चीन में, कराची पाकिस्तान में और ढाका जैसा महानगर गरीब बांग्लादेश में है। जहां तक अपने देश भारत का सवाल है, तो दुनिया के तीन-तीन बड़े महानगर हमारे पास हैं- दिल्ली, कोलकाता और मुंबई। 2001 की जनगणना के मुताबिक दिल्ली की आबादी एक करोड़ 27 लाख 91 हजार 458 थी। इसका मतलब हुआ कि आबादी की जो रफ्तार है और लोगों को अपनी ओर खींचने के लिए हमारे महानगर जैसे चुम्बक बन गए हैं, उसके हिसाब से 2009 में दिल्ली की आबादी कम से कम एक करोड़ 35 या 37 लाख पर तो पहुंच ही रही होगी। इसी तरह मुंबई महानगर की आबादी 2001 की जनगणना के मुताबिक एक करोड़ 63 लाख 68 हजार 84 और कोलकाता की एक करोड़ 32 लाख 16 हजार 454 थी। जाहिर है कि बीते आठ सालों में इन महानगरों की जनसंख्या में लाख-दो लाख का इजाफा तो हुआ ही होगा। इसके अलावा चेन्नई है, जिसकी आबादी इस समय 65 लाख से ऊपर पहुंच रही है तो बंगलुरू तेजी से 60 लाख का आंकड़ा छू लेना चाहता है। अहमदाबाद की जनसंख्या 45 लाख से ऊपर पहुंच चुकी है तो हैदराबाद इससे भी दस कदम आगे है यानी 55 लाख से ज्यादा लोग शहर को आबाद किए हुए हैं। 20 लाख से ऊपर की आबादी वाले तो दर्जन भर शहर हैं, जिनमें कानपुर ,लखनऊ, जयपुर, नागपुर, पुणे, सूरत आदि का नाम शुमार है। यह जो तथाकथित विकास, समृद्धि और इक्कीसवीं सदी की आधुनिकता के जगमगाते टापू हैं, क्या एक अरब से ऊपर की आबादी वाले देश के समग्र विकास के प्रतीक और पैमाना हो सकते हैं? इस सवाल को जाने भी दीजिए तो खुद इन शहरों की आंतरिक दशा क्या है? उदाहरण के लिए देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ को ही लीजिए। यह सही है कि कोई भी शहर एकबारगी नहीं, बल्कि बनते-बनते बनता है और लखनऊ तो वैसे भी एक प्राचीन शहर है, जिसकी अपनी ही तरह की एक शानदार सांस्कृतिक परम्परा और जीवनशैली रही है। नवाब काल में फैजाबाद से बदलकर अवध की राजधानी बने लखनऊ को बाग-बगीचों और तालाबों से सजाया-संवारा गया था। गोमती के तट पर बसे शाम-ए-अवध के मुरीदों के इस शहर की शान को अंग्रेजों ने भी बनाए रखा और कोशिश की कि शहर की बनावट और चरित्र में बेवजह गैर-जरूरी छेड़छाड़ न की जाए। मगर आज हालत क्या है? 310 किलोमीटर के दायरे में पसरा आज का लखनऊ अपने भीतर की हरियाली को तो चाटता ही जा रहा है, सुरसा की तरह चौतरफा मुंह फाड़े अपनी परिधि के गांवों को भी निगलता चला जा रहा है। मुख्यमंत्री मायावती के मौजूदा निजाम में हजारों पेड़ काटकर शहर को चिलचिलाती धूप में झुलसने के लिए छोड़ दिया गया है। बस्तियां और गांव विस्तारवादी पाकों और गोमती नगर विस्तार जैसी योजनाओं की भेंट चढ़ा दिए गए। दिन पर दिन भूरे-गुलाबी-धूसर पत्थरों के जरिए दर्प से भरे सिर उठाए स्मारकों को देखिए तो लगता है किसी रेगिस्तानी शहर में आ गए हैं।
दूसरी ओर, टूटा-फूटा पुराना लखनऊ है, जिसकी गलियां गंदी, नालियां बजबजाती, यहां-वहां बिखरा कूड़ा-कचरा और सिर से दो हाथ ऊपर मकड़ी के जाले जैसा उलझे लटकते बिजली के तार। ध्वस्त सीवर सिस्टम और टूटी टोंटियों वाले लार टपकाते नलों के भरोसे लापरवाह-बेतरतीब जलापूर्ति। कुल मिलाकर शहर के भीतर ही दूसरा शहर। एक विकास और देखरेख को तरसता गुरबत का मारा पुराना लखनऊ तो दूसरा गरूर से भरा अपने ही नागरिकों को मुंह चिढ़ाता चमकता-दमकता नया शहर। कुल मिलाकर एक सौतेला विकास, जो राजधानी से लेकर गांवों-कस्बों तक फैला हुआ है। इस सौतेले विकास की मार देखने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं, कुछ ही किलोमीटर दूर चिनहट और बाराबंकी को देख लीजिए। 2001 की जनगणना के मुताबिक जिस लखनऊ की आबादी 22.07 लाख थी, उसके बढ़ने की रफ्तार के मदूदेनजर आज इसके 28 लाख होने का अनुमान किया जाता है और कहते हैं कि यही रफ्तार रही तो 2011 तक 32.26 लाख की आबादी लखनऊ में ऊभचूभ करती मिलेगी। सवाल यह है कि पर्यावरण की अनदेखी करके, हरियाली को उजाड़कर और नागरिकों का जीवन-यापन मुश्किल में डालकर जो सौतेला विकास किया जा रहा है, वह भविष्य में हमें कहां ले जाकर छोड़ेगा? इस तरह का विकास क्या जवाहर लाल नेहरू अरबन रिन्यूअल मिशन की दीर्घकालीन अरबों रूपए की महत्वाकांक्षी योजना की मूल भावना का उपहास नहीं उड़ा रहा है।
गांवों का विकास न होने और कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था को वांछित पर्याप्त मजबूती न मिलने के कारण गांवों से शहरों की ओर पलायन की रफ्तार थम नहीं पा रही है और शहरों की चुम्बक-शक्ति जस की तस बनी हुई है। नतीजा यह है कि शहर सुरसा-बदन की तरह फैलते जा रहे हैं, अपने ही क्लोन से डुप्लीकेट हो रहे हैं : दिल्ली-नई दिल्ली, कोलकाता-नया कोलकाता, मुंबई- नवी मुंबई, भोपाल-नया भोपाल वगैरह। इस सबके बावजूद आबादी का भार ये शहर कहां संभाल पा रहे हैं! दिन पर दिन इनका ढांचा चरमराता जा रहा है- टूटता जा रहा है। समेकित विकास को नजरअंदाज कर केंद्रीकरण की जिस राह पर चल रहे हैं, उसी का नतीजा है यह। यह तो भूल ही जाइए कि कभी किसी ने कहा था- भारत माता ग्राम वासिनी!
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दरख्तों के दुश्मन परिंदों के दोस्त नहीं होते!

अरविन्द चतुर्वेद

लखनऊ के बाटेनिकल गार्डन में बरगद का एक विशाल पेड़ है- दो सौ साल पुराना। वह लखनऊ की हरियाली और छांव का बुजुर्ग पुरखा है और बागो-बहार का संगी-साथी और गवाह। बरगद के इस पुराने पेड़ ने जमाने देखे हैं। इसने हुकूमत की हेकड़ी भी देखी है और यह भी देखा है कि कैसे ताजो-तख्त बदल जाया करते हैं। लोहिया पार्क की मनमोहक हरियाली का जब सृजन हुआ था तो राजधानी वासियों सहित इस बुजुर्ग बरगद को भी प्रसन्नता हुई होगी कि चलो, अपना कुनबा बढ़ रहा है। लेकिन, फिलहाल तो यह बुजुर्ग दरख्त देख रहा है कि उसके आगे जन्मे लखनऊ की आबोहवा में झूम-झूमकर बड़े हुए न जाने कितने पेड़ मौजूदा निजाम के सनकी सौंदर्यीकरण के आगे काल कवलित हो गए। नामधारी सुरसा मैदानों, उनकी चहारदीवारियों, पाकों-स्मारकों और उन तक पहुंचने वाली सड़कों के विस्तारवादी विकासी जुनून के चलते देखते ही देखते सैकड़ों-हजारों हरेभरे पेड़ कुल्हाड़ियों और आरे की भेंट चढ़ गए।
हद है कि बहुमत वाली मौजूदा मायावती सरकार प्रदेश की राजधानी लखनऊ को जो शक्लो-सूरत देने में लगी है, उसके सामने सबसे बड़े दुश्मन शहर के दरख्त ही बन गए हैं। लखनऊ की ऐतिहासिक जेल को ध्वस्त करके आजादी के इतिहास के कई पन्नों का पटाक्षेप करने की कोशिश से जुड़ा सवाल तो खैर अपनी जगह है, मगर इस कारगुजारी में हरियाली और पर्यावरण को भी खामियाजा भुगतना पड़ा है। अब दरख्तों के दुर्दिन का नया दौर जेल के पीछे बनी सड़क के एक किनारे आरसीसी की दीवार खड़ी करने की कार्रवाई में दिखाई दे रहा है। जेल के पीछे आबाद कैलाशपुरी, गीतापल्ली जैसी बस्तियों और आसपास के इलाकों के नागरिकों के बीच यह सवाल घूम रहा है कि सैकड़ों हरेभरे पेड़ काटे बिना तो दीवार खड़ी नहीं की जा सकती। तो क्या इस सरकारी दीवार की राह रोके आगे खड़े दरख्तों को बलिदान देना पड़ेगा? हरेभरे पेड़ सरकार को दीवार के आगे प्रश्नचिन्ह जैसे भले न लगें लेकिन एक स्थानीय अधिवक्ता ने हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ में जनहित याचिका के जरिए इन दरख्तों का सवाल उठाया। ये हरे पेड़ सरकारी दीवार के जवाब के मुकाबले ज्यादा बडे. सवाल नजर आए, सो हाईकोर्ट ने इनके काटे जाने पर रोक लगा दी। इसके बावजूद खबर यह है कि वन विभाग के अधिकारियों ने जेल हाउस और ग्रीन बेल्ट की जमीन पर खड़े तमाम हरे पेड़ काट डाले। उलटबांसी शायद इसे ही कहते हैं- यानी सरकार का हुक्म हो तो वन विभाग का काम हरियाली की हिफाजत के बजाय उसका कत्ल करना भी हो सकता है। अब चक्कर यह है कि प्रस्तावित कांशीराम ग्रीन गार्डन की चहारदीवारी बनाने के लिए जेल हाउस तिराहे से कैलाशपुरी जानेवाली सड़क पर नींव की खुदाई शुरू हुई है। इस नींव की सीध में अागे पेड़ खड़े हैं। इन पेड़ों के काटे बगैर नाक की सीध में न नींव खुद सकती है और न नाक की सीध में चहारदीवारी खड़ी हो सकती है। लेकिन सभी जानते हैं कि हाईकोर्ट ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट में भी कोई मामला भले ही विचाराधीन हो, मौजूदा बसपा सरकार जिस चीज को नाक का सवाल बना लेती है, उसके लिए नियम-कानून एक किनारे रख देती है-भले ही अदालतों से फटकार मिले या मुंह की खानी पड़े।
यह जो हरियाली उजाड़ विकास और सौंदर्यीकरण है, इसने तो कालीदास की बेवकूफी के उस किस्से को भी फीका कर दिया है कि वे जिस डाली पर बैठे थे, उसी को काटने में लगे थे। राजधानी लखनऊ में जिस तरह हरियाली का चीरहरण हो रहा है, वह सचमुच लज्जा की बात है। कहां हम प्रकृतिपूजकों की संस्कृति रही है कि वृक्ष को देवता मानते हैं, उसे रोज नहाकर जल चढ़ाते हैं और साल में एकबार परिक्रमा करके रक्षासूत्र बांधते हैं, और कहां अपनी ही आंखों के सामने उनका कत्ल होते देखना पड़ता है!
वृक्षों के प्रति पुरखों का दिया यह पूज्यभाव वाला संस्कार यों ही नहीं है। असल में आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी हिसाब लगाकर यह बताया है कि पचास साल तक जीनेवाला एक पेड़ अपने जीवनकाल में 31 हजार 250 अमेरिकी डालर का ऑक्सीजन देता है, जो इतना प्रदूषण नियंत्रित करता है कि अगर यही काम आदमी को करना पड़े तो 62 हजार अमेरिकी डालर खर्च हो जाएं। इसी तरह मिटूटी का क्षरण रोककर उसे उपजाऊ बनाने, जल के पुनर्चक्रीकरण जीवों को आश्रय देने और उनका सम्बल बनने सहित कुल मिलाकर एक पेड़ पचास साल के जीवनकाल में भारतीय रूपए में कुल मिलाकर कम से कम 78 लाख 50 हजार रूपए का लाभ हमें पहुंचाता है। लेकिन जिन्होंने दरख्तों से दुश्मनी ठानी है, उनकी समझ में आए तब तो! याद रखिएगा, दरख्तों के दुश्मन परिंदों के दोस्त नहीं होते!
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