अरविन्द चतुर्वेद :
पूस के महीने में एक ठंडी सुबह जब विजय कुमार चौबे उर्फ विजयी की नींद खुली तो रोजाना की तरह बदन में गरमाहट लाने वाली गांजे की तलब ने इतना जोर मारा कि उन्होंने झटपट बिस्तर छोड़ा और जो पैजामानुमा पैंट पहन कर सोए थे, उसके ऊपर शर्ट चढ़ाई और चादर ओढ़कर बगल के गांव पकरहट के लिए चल पड़े। लंबे-छरहरे विजयी लंबे-लंबे डग भरते नहर की पटरी पकड़े अभी मुश्किल से फलांग भर सफर तय किए होंगे कि तभी पके धान के खेत से एक सियार निकला और तेजी से विजयी की ओर लपका। सियार भी हमलावर हो सकता है, इस अप्रत्याशित एहसास के साथ किंचित विस्मित विजयी ने पैर से चप्पल निकाल कर सियार पर फेंका, सियार जरा ठिठका जरूर, लेकिन जब चप्पल का निशाना चूक गया तो वह और तेजी से झपट कर विजयी के पैरों से लिपट गया। विजयी का बायां पैर पैंट समेत सियार के जबड़े में था और उसने अपने नुकीले दांत टखने के ऊपर मांस में बुरी तरह गड़ा रखे थे। विजयी की चीख निकल गई। आत्मरक्षा में स्वत: उनके बाएं हाथ ने सियार के थूथन पर पकड़ बनाई और दाएं हाथ में दाहिने पैर का चप्पल लिए वे सियार की पीठ पर जोर-जोर से प्रहार करने लगे। लेकिन सियार इस तरह भिड़ा था कि उसने अपने जबड़े जरा भी ढीले नहीं किए। विजयी की चीख-चिल्लाहट इस बीच दिसा-फरागत से निवृत्त होकर पुल पर बैठे पहलू दुसाध के कानों में पड़ी। वह लोटा लेकर ही दौड़ पड़ा। लोटे के दनादन प्रहार से सियार बिलबिला उठा। उसने विजयी का पैर छोड़ दिया। मगर वे तबतक सियार का थूथन पकड़े रहे, जब तक वह अधमरा होकर गिर नहीं पड़ा। अब तक विजयी का छोटा भाई रामू लाठी लेकर पहुंच चुका था। इस तरह लाठी के चार-छह प्रहार के बाद सियार की इहलीला समाप्त हुई। मरे हुए सियार को घसीट कर सूखी नहर में फेंक दिया गया।
यह विजयी-सियार संग्राम पंद्रह मिनट तक चला था। पहलू दुसाध का सस्ते अल्मुनियम का लोटा बुरी तरह पिचक कर खराब हो चुका था। बदहवास विजयी पकरहट न जाकर लंगड़ाते हुए लौट आए और अब पुल पर बैठे थे।
यह सर्वथा असाधारण और अभूतपूर्व घटना थी, जब किसी को सियार ने काटा हो। लेकिन जब तक यह सनसनीखेज खबर पूरे गांव में फैलती और लोग पुल पर पहुंच कर साक्षात विजयी के मुंह से इस रोमांचक घटना का बयान सुनतेे, इसी बीच बच्चन कोइरी मोटरसाइकिल से रामगढ़ के लिए निकला तो गांव के पूर्व प्रधान शिव प्रसाद की सलाह पर विजयी सूई लगवाने और जरूरी मरहम-पटूटी के लिए उसके साथ निकल गए। अब पुल पर पहुंच रहे लोगों की जिज्ञासा शांत करने के लिए विजयी-सियार संग्राम के वर्णन की जिम्मेदारी पहलू दुसाध पर आ गई थी।
पहलू उवाच : सियार साला था बड़ा मोटा-तगड़ा, झबरा कुत्ते से भी बड़ा और तंदुरूस्त। तीन-चार कुत्ते भी मिलकर उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते थे। छह-सात लोटा जब दनादन उसकी पीठ पर पड़े, तब तो साले ने विजयी का पैर छोड़ा। गनीमत यही थी कि विजयी ने उसका थूथन जो पकड़ा तो छोड़ा ही नहीं।
- फिर क्या हुआ?
- तब तक रामू लाठी लेकर पहुंच गए। तीन लाठी कचकचा कर पड़ी, तब वह बेदम होकर गिरा। मगर सांस तब भी चल रही थी।
- फिर?
- फिर रामू से लाठी लेकर विजयी ने उसका कपार और मुंह कंूच दिया।
शिव प्रसाद : लेकिन सोचिए कि कितना उल्टा जमाना आ गया- कहां सियार आदमी को देखते ही भागते थे और कहां सियार ही आदमी से भिड़ जा रहा है!
पुजारी बाबा बोले - कुछ नहीं, यह सब ग्रहदशा का फेर है। विजयी पर शनीचर सवार है। मैं तो कहता हूं, उनको ग्रहशांति का उपाय करना चाहिए। आखिर विजयी को ही सियार ने क्यों काटा, और वह भी सवेरे-सवेरे?
पहलू दुसाध : अगर विजयी की ग्रहदशा खराब है तो सियार की ग्रहदशा कौन अच्छी थी? वह भी तो सवेरे-सवेरे मारा गया कि नहीं?
पुजारी बाबा निरूत्तर हो गए। और, पहलू पर नाराज भी। झुंझलाते हुए बोले- सबकुछ तुम्हारी समझ में नहीं आएगा, तुम तो बस बकरी चराओ।
शिव प्रसाद समेत पुल पर आ जुटे लोगों को यह अच्छा नहीं लगा कि इतनी सनसनीखेज घटना का रोमांच इतना जल्दी खत्म हो जाए और बात सियार से बकरी पर आ जाए। सो पहलू कुछ और बोलता कि बात को घुमाते हुए शिव प्रसाद बोले- ग्रहदशा की बात तो मैं नहीं जानता, लेकिन पुजारी बाबा की बात में थोड़ा दम जरूर है कि अगर गोहत्या का पाप आदमी को लगता है और बिल्ली मारने पर भी प्रायश्चित करना पड़ता है तो सियार-हत्या का कुछ तो निदान विजयी को जरूर करना चाहिए। मेरे ख्याल से सोमवार को सत्यनारायण की कथा सुन लेने में कोई हर्ज नहीं है।
शिव प्रसाद से समर्थन पाकर पुजारी बाबा थोड़ा सहज हुए, बोले- मेरे कहने का मतलब यही था कि यह एक अनहोनी है, इसलिए कुछ तो पूजा-पाठ या दान-पुन्य कर ही लेना चाहिए।
इस बीच इमिलिया डीह के पंचम कोइरी भी पुल पर आ गए थे। सियार प्रसंग जानने के बाद बोले- अरे, हो न हो, यह वही पगला सियार हो जिसने चार दिन पहले परसियां में सिद्धू गोसाइं के लड़के को काट लिया था और अभी दो दिन पहले हमारे गांव के खेलावन की झोपड़ी में घुसकर उसकी लड़की पर हमला कर दिया। खेलावन की औरत डंडा लेकर झपट पड़ी, तब तो लड़की की जान बची और सियार भागा। फिर भी बेचारी लड़की का बायां हाथ पूरा नोच-बकोट लिया।
अभी दस दिन भी नहीं हुआ, कैथी में सियारों ने जो किया, मालूम है कि नहीं? हमारे यहां मेहमान आए थे। बता रहे थे, दिन-दोपहर गांव के दक्खिन सिवान में चार सियार एक साथ दिखाई पड़े। कुत्तों की नजर पड़ी तो भौंकते हुए सियारों को नहर के उस पार तक खदेड़ आए। लेकिन यह कोई खास बात नहीं थी, ऐसा तो होता ही रहता है। बड़ी बात तो दूसरे और तीसरे दिन हुई। अगले दिन उसी टाइम दस-बारह सियारों का झुंड आ गया। कुत्ते भौंकने लगे, मगर थोड़ी दूर से-सहमे हुए। उतने सियारों पर झपटने की कुत्तों में हिम्मत नहीं थी। उधर सियारों पर कुत्तों के भौंकने का कोई असर नहीं, अराम से धीरे-धीरे घूमते हुए सियार घंटेभर बाद जिधर से आए थे, उधर निकल गए। गजब तो हुआ तीसरे दिन। एक ही टाइम पर भेड़-बकरी की तरह कोई पच्चीस-तीस सियारों का झुंड सिवान में आ गया। गांवभर के कुत्तों ने इकटूठा होकर जैसे ही भूंकना शुरू किया, भागना तो दूर, उल्टे सियार ही कुत्तों की ओर झपटे। आखिर कुत्ते ही दुम दबाकर गांव भाग आए।
अब यह नई मुसीबत। जितना अचरज, उतनी ही चिंता। उसी दिन दरख्वास्त लेकर प्रधानजी वन दफ्तर गए। पहले तो फारेस्टर को विश्वास ही नहीं हो रहा था। लेकिन अगले दिन तीन फारेस्ट गार्ड लेकर वे दोपहर तक कैथी पहुंच गए। गांवभर के लोगों के साथ दक्खिन के सिवान में पूरा मजमा लग गया। दो बजे के करीब सियारों का वही बड़ा झुंड जैसे ही नहर के इस पार खेतों में उतरा, वैसे ही फारेस्टर ने एक पर एक दो गोलियां दागी। फिर सब लोग लाठी-डंडा लेकर हल्ला मचाते हुए सियारों की ओर दौड़ पड़े। अचानक के इस हमले से सियार घबरा गए और हड़बड़ा कर जिधर से आए थे, उधर तेजी से भाग चले। धंधरौल बंधा तक सियारों को खदेड़ा गया। इस बीच फारेस्टर ने दो गोलियां और दागी। एक सियार मारा गया। इस तरह तो कैथी वालों का सियारों से पीछा छूटा।...जारी
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