अरविन्द चतुर्वेद :
बांके यानी बांकेलाल! उनका असली नाम क्या है, यह उनके घरवालों को ही पता होगा। बांके नाम गांववालों ने दिया है जिसे उन्होंने सिर झुकाकर स्वीकार कर लिया है और इस हद तक स्वीकार कर लिया है कि अगर कोई उनके असली नाम से पुकार ले तो खुद बांकेलाल चौंक पड़ेंगे। बांकेलाल में कोई बांकपन नहीं है, बल्कि इसके उलट वे काफी ढीलेढाले, अलसाए-से इंसान हैं। उनके होठों पर हमेशा एक हल्की-सी मुस्कराहट खेलती रहती है। लोग तो यहां तक कहते हैं कि बांके नींद में भी मुस्कराते रहते हैं। और, जब उनके पिता और छोटे भाई की कुछ दिनों के बुखार के बाद मृत्यु हुई तब भी वे मुस्करा रहे थे। बांके खुद पर हंसते हैं, लोगों पर हंसते हैं या दुनिया-जहान पर हंसते हैं, यह कह पाना मुश्किल है। बांकेलाल को उदास, चिंतित, रूआंसा या क्रोध में कभी नहीं देखा गया। उनके दो ही शौक हैं- महुए की शराब और मछली। और, ये दोनों शौक पूरा करने में बांकेलाल स्वावलंबी हैं। गांव में किसी के यहां काम करते हैं तो कोशिश यही रहती है कि मजदूरी में अनाज और पैसे के अलावा दो-चार किलो महुआ मिल जाए। बांकेलाल की पत्नी और लड़के-लड़कियां तो नियमित मजदूरी करते हैं, लेकिन खुद वे तभी मजदूरी करने निकलते हैं, जब महुए का स्टाक खत्म हो जाता है। काम के लिए अव्वल तो ऐसे किसान को चुनते हैं जिसके यहां मजदूरी का एक हिस्सा महुआ मिल जाए और अगर ऐसा नहीं हुआ तो मजबूरी में कभी-कभार महुआ खरीदते भी हैं। सुबह गांव के सारे लोग जब कामकाज पर खेतों की ओर निकलते हैं तो बांके गांव के पोखरे का रास्ता पकड़ते हैं। पोखरे के एकांत दक्षिणी भीटे पर इमली के पेड़ की ठंडी छाया में पानी में तीन-चार बंसी लटकाए बांके को सुबह से शाम तक मछली उपलब्धि साधना में लीन देखा जा सकता है।
फिर भी गांव वालों की चर्चा के केंद्र में बांकेलाल महुआ और मछली के शौक के कारण नहीं, बल्कि अपने उस भय के कारण हैं, जो उनके मन में पुलिस की खाकी वर्दी को लेकर स्थाई भाव बन चुका है। विचित्र बात यह है कि बचपन से लेकर आजतक बांकेलाल ने न पुलिस-पिटाई का कोई लोमहर्षक दृश्य देखा है और न कभी किसी पुलिस वाले से उनका साबका पड़ा है, तब भी डर है कि खाकी वर्दी पहन कर उनके मन में बैठा हुआ है।
किस्सा बांकेलाल के लड़के की शादी के वक्त का है। कहते हैं कि समधी बने बांकेलाल पेशाब करने के बहाने ऐन उस वक्त अपने लड़के के विवाह-मंडप से भाग खड़े हुए थे, जब वहां खाकी वर्दी में एक होमगार्ड नमूदार हुआ। शादी-ब्याह की गहमागहमी और व्यस्तता में तत्काल तो किसी का ध्यान बांके पर नहीं गया लेकिन जब थोड़ी देर बाद बांके की खोज होने लगी और पेशाब करके न लौटने पर हैरानी जताई जा रही थी, तभी बांकेलाल के बड़े भाई का ध्यान वहां मौजूद होमगार्ड पर गया। माजरा समझते उन्हें देर नहीं लगी। माथे का पसीना पोंछते हुए वे खुद भी निश्चिंत हुए और सभी को निश्चिंत करते हुए बताया- चिंता की कोई बात नहीं है। बांके को मैंने ही बारात लौटने की
तैयारी के लिए गांव भेज दिया है।
पता चला कि होमगार्ड लड़की का मामा है। अपने रूआब का प्रदर्शन करने के लिए खाकी वर्दी में आ गया था। विवाह कार्य सम्पन्न होने के बाद उसने बांके के बड़े भाई को गांजे की चिलम थमाते हुए अफसोस जताया कि समधी जी होते तो कितना मजा आता।
इधर बांकेलाल कर्मनाशा का छह किलोमीटर लंबा जंगली रास्ता पार कर जब आधी रात को अकेले गांव लौटे तो उनकी पत्नी समेत घर पर मौजूद सभी महिलाएं हैरान रह गईं । बांकेलाल की पत्नी ने अलग ले जाकर उनसे पूछा- का बात होइ गई?
बांके मुस्कराते रहे। बोले- कुछ नहीं।
-उहां कुछ गड़बड़ हुआ का? बांके की पत्नी ने फिर पूछा।
अबकी बार बांके झल्ला उठे, बोले- उहां सब ठीकठाक चल रहा है। भइया सब संभाले हुए हैं। हमको बड़ी भूख लगी है, कुछ खाना है तो दो।
आखिर दो-चार बची-खुची पूड़ियां और गुड़ खाकर बांकेलाल ने रात काटी। सुबह उनकी नींद दुल्हन के साथ लौटी बारात की हलचल से टूटी।
दूसरी बार पुलिस की वर्दी के डर से बांके का सामना तब हुआ, जब गांव में पंचायत के चुनाव के लिए मतदान हुआ था। गांव का प्रइमरी स्कूल मतदान केंद्र बनाया गया था। वहां की व्यवस्था की निगरानी और किसी प्रकार की गड़बड़ी न होने देने के लिए आधा दर्जन सिपाहियों को लगाया गया था। उनके साथ एक दारोगा भी था। मतदान केंद्र और उसके इर्दगिर्द लोगों का मजमा लगा था। लेकिन अगर उस भीड़ में कोई नहीं था तो वह थे बांकेलाल। जाहिर है, उनके लिए सबसे ज्यादा परेशान वह उम्मीदवार था, जिसे बांकेलाल का वोट मिलना था।
बांके के गायब होने का माजरा भी सब समझ ही रहे थे। आखिर बांके की खोजाई शुरू हुई, तब उनकी सबसे छोटी लड़की ने सुराग दिया कि बाबू कोठे पर उत्तर तरफ कोने में जहां अंधेरा है और भूसा रखा हुआ है, वहीं बैठे हैं और थोड़ी देर पहले ही मैं उन्हें पानी देकर आई हूं। आखिर भूसा झाड़-पोंछ कर बांकेलाल को कोठे से उतारा गया। अब समस्या यह थी कि पुलिस वालों के सामने से होकर बांकेलाल को मतदान केंद्र तक कैसे ले जाया जाए। काफी माथापच्ची के बाद तय हुआ कि मतदान केंद्र के पीछे वाले रास्ते से इमली के पेड़ के पास से उन्हें वहां ले जाया जाए और चार आदमी उनके साथ-साथ चलें। ऐसा ही किया गया। जब पुलिस वालों को बांकेलाल के डर के बारे में बताया गया तो वे भी मुस्कराने लगे। मतदान कक्ष के ऐन दरवाजे पर तैनात सिपाही को आखिरकार चाय पिलाने के बहाने जब थोड़ा किनारे ले जाया गया तभी बांकेलाल अंदर जाकर अपना वोट दे पाए।
बांकेलाल का यही डर गांव वालों के मनोरंजन का माध्यम बन गया है। यों इस एक बात को छोड़ दिया जाए तो बांकेलाल क्या नहीं कर सकते? वे भरी बरसात में उफनाई कर्मनाशा नदी तैरकर पार कर सकते हैं। ऊंचे से ऊंचे पेड़ पर चढ़ सकते हैं। गहरे कुएं में उतर कर पानी में डुबकी लगाकर तलहटी से बाल्टी निकाल सकते हैं। रात में भी घना जंगल पार कर गांव लौट सकते हैं। तेज बारिश में भीगते हुए या कड़ी धूप में पसीने में नहाए हुए खेत में काम करते रह सकते हैं। यहां तक कि किसी की मरनी-करनी पर जब लोग रो रहे हों तो बांकेलाल मुस्कराते रह सकते हैं। लेकिन बांकेलाल निर्मम नहीं हैं। उनके मन और स्वभाव में महुआ की मिठास भरी हुई है और देह जिगिना के उस मरजीवड़े वृक्ष की तरह है, जो बरसात का पानी पाते ही लहलहा उठता है.। ... जारी
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