अरविन्द चतुर्वेद
मरियम यहां रांची शहर से कोई पच्चीस-तीस किलोमीटर दूर तमाड़ इलाके के किसी गांव की रहने वाली है। पहली बार उसे छह महीने पहले देखा था, जब इस मकान के एक हिस्से में किराएदार बनकर रहने आया। जब मैं मकान मालिक से बात कर रहा था तो घर के भीतर से एक ट्रे में पानी के गिलास और चाय के कप लेकर मरियम ही आई थी। वह गाढ़े हरे रंग की घरेलू सूती साड़ी में थी। उसने टेबल पर पानी के गिलास और चाय के कप रखे और फिर चली गई। फिर बातचीत के बाद मकान मालिक ने आवाज देकर मरियम को बुलाया और किराए वाले हिस्से के घर की चाबी देकर मुझे कमरे दिखा देने को कहा। घर देखते समय मैंने अटूठारह-उन्नीस साल की मरियम से पूछा- आप गुप्ता जी की बहन हैं या बेटी? वह धीरे से हंसी और बोली-नहीं, मैं इनके घर में काम करती हूं।
कमरे देख लेने के बाद गुप्ता जी को जब मैं एक महीने का किराया, ढाई हजार रूपए बतौर एडवांस, दे रहा था, तब घर के भीतर से गुप्ता जी की पत्नी अपनी
बेटी के साथ बाहर वाले कमरे में आइं। गुप्ता जी ने उनसे परिचय कराया। गुप्ता जी का परिवार छोटा है, बस कुल चार जन- पति-पत्नी, यह बेटी सुमन जो हाई स्कूल में पढ़ती है और इंटर में पढ़ने वाला बेटा सुशांत, जो अभी कॉलेज से लौटा नहीं था।
अगले दिन से आ जाने की बात कहकर मैं होटल लौट गया था। मैं अपने अखबार के यहां से छपने वाले नए संस्करण का समाचार सम्पादक होकरआया हूं। अखबार के कामकाज और तैयारी के चलते पंद्रह दिन तक तो घर खोजने की फुरसत ही नहीं मिल पाई थी। लिहाजा जैसे ही मकान मिला, दूसरे दिन सुबह नौ बजे गुप्ता जी के घर में रहने चला आया। तब तक गुप्ता जी अपने ऑफिस के लिए निकल चुके थे और उनके दोनों बज्जे भी स्कूल-कॉलेज जा चुके थे। मेरे पहुंचने से पहले ही मरियम कमरों की साफ-सफाई कर चुकी थी। एक कमरे में चौकी और दो कुर्सियां व टेबल पहले से पड़े हुए थे। बिस्तर और कपड़ों का बैग लेकर मैं बनारस से आया ही था। सो जरूरत की थोड़ी-बहुत शुरूआती चीजें- बाल्टी-मग, झाड़ू, चटाई और कुछ बरतन वगैरह बाजार से लेता आया। चीजें रखने-जमाने में मरियम ने मदद कर दी। जो जग मैं खरीद कर लाया था, मरियम उसमें पीने का पानी भरकर ले आई और गिलास के साथ उसे टेबल पर रख दिया। मैंने पहले से तय कर रखा था कि हफ्ते भर में चाय-नाश्ता और कम से कम एक वक्त का खाना बनाने-खाने का इंतजाम घर में ही रखूंगा।
गुप्ता जी की पत्नी निहायत घरेलू महिला हैं। वे भीतर कहीं घर में थीं, शायद किचेन में। वहीं से उन्होंने आवाज देकर मरियम को बुलाया। वह गई तो हाथ में एक कप चाय लेकर लौटी और जैसा कि नए किराएदार से कुछ मकान मालिक कहते हैं, बोली- सुमन की अम्मा कह रही हैं कि किसी चीज की जरूरत होगी तो नि:संकोच कहिएगा। मुझे चाय की तलब नहीं थी लेकिन चूंकि यह सौजन्यतामूलक व्यवहार था, सो मैंने चाय पी ली। थोड़ी देर बाद नहा-धोकर घर में ताला लगाकर मैं निकला और होटल में खाना खाते हुए दो बजे तक ऑफिस पहुंच गया।
अखबार का काम ऐसा कि देर रात लौटना और सुबह देर तक सोकर उठने के
बाद चाय बनाकर पीते हुए जब मैं अखबार पढ़ने बैठता था, तब तक गुप्ता जी और उनके बज्जे घर से निकल चुके होते थे। उन सब से मेरी मुलाकात रविवार या फिर बीच-बीच में पड़ने वाली छुटिूटयों के दिन ही हो पाती थी। कुछ दिनों बाद यह भी तय हो गया कि मरियम ही मेरे घर में भी झाड़ू-पोछा
कर दिया करेगी और बरतन भी साफ कर देगी, आखिर एक आदमी के बरतन ही कितने होते हैं!
मेरा काम करते एक महीना पूरा हुआ तो मैंने मरियम से पूछा- तुम्हें कितने पैसे दे दूं?
- जो ठीक समझिए, दे दीजिए।’ मरियम बोली।
मैंने कहा- काम तो तुम करती हो, तुम्हें ही बताना चाहिए कितने पैसे लोगी।’
मरियम कुछ नहीं बोली। हंसने लगी। डेढ़ सौ रूपए दिए तो रख ली। बोली, ठीक है। साथ ही जोड़ा- चार महीने बाद सरहुल का त्यौहार है, उस टाइम कपड़े दिलवा दीजिएगा।
मैंने कहा- सरहुल तो मुंडा लोगों का त्यौहार है, तुम लोग तो क्रिश्चियन हो! मरियम बोली- इससे क्या? त्यौहार तो त्यौहार है। हम लोग हैं तो मुंडा क्रिश्चियन! सब लोग सरहुल मनाते हैं।
गुप्ता जी के मकान के पिछले हिस्से की छत खपरैल की है। पिछला ओसारा चहारदीवारी से घिरे एक बड़े कज्जे आंगन में खुलता है। आंगन में थोड़ी-बहुत फूल-पत्तियां। खपरैल वाले लम्बे ओसारे की छत पर एक हिस्से में लौकी और दूसरे हिस्से में सेम की लतरें फैली हैं। आंगन के एक तरफ चहारदीवारी से लगे इंट के दो पक्के अधबने कमरे हैं। अभी छत नहीं ढाली गई है। उसी
एक अधबने कमरे में मरियम अपने कपड़े-लत्ते रखती है। उसका टीन का एक पुराना बक्सा भी वहीं रहता है, जिसे साथ में लेकर वह गुप्ता जी के यहां काम करने आई रही होगी। दिन में खाली समय में घंटे-दो घंटे मरियम बिना दरवाजे के उस अधबने कमरे में आराम करती है, उसकी कच्ची फर्श को लीप-पोतकर उसने साफ-सुथरा कर रखा है। रात को घर के ओसारे में गुप्ता जी द्वारा मुहैया कराई गई चटाई और एक मामूली बिस्तर पर वह सोती है। दिन में उसका बिस्तर उसी अधबने कमरे में रहता है। कमरे की एक दीवार पर कील गाड़कर एक छोटा-सा आईना और दूसरी कील में प्लास्टिक से मढ़ा हुआ ईसा मसीह का चित्र उसने टांग रखा है।
शाम को चार-साढ़े चार बजे तक गुप्ता जी के घर का कामकाज निबटाने के बाद हाथ-मुंह धोकर अपनी तरह से थोड़ा सज-धजकर मरियम रोजाना घंटेभर के लिए चर्चरोड वाले चर्च में प्रार्थना करने जाती है। उस समय उसके गले में क्रास वाला लाकेट रहता है। सबके बीच रहते हुए भी जैसे हर आदमी की अपनी एक अलग दुनिया होती है, या कि वह बनाना चाहता है- वैसा ही मरियम के साथ भी है। कुछ दिनों बाद ही मुझे इसका एहसास भी हो गया था। इस तरह गुप्ता जी की गृहस्थी से ठीकठाक तालमेल रखने के बावजूद मरियम थोड़ा अलग, बल्कि कहिए कि एक अजनबीयत के साथ रहती थी। हालांकि उनके बीच कोई टकराहट नहीं थी और न किसी को किसी से कोई शिकायत थी।
एक रविवार की सुबह मैं कुछ ज्यादा ही देर से सोकर उठा। चाय बनाकर पीते हुए अखबार पढ़ रहा था, तभी गुप्ता जी की बेटी ने आकर बताया- मरियम नहीं है। मम्मी ने कहा, बता दूं- उसके आसरे मत रहिएगा।
- क्यों, क्या हुआ? कहां गई वह?
- कुछ बताया नहीं। कल शाम को चर्च गई थी, फिर आई ही नहीं।
- अच्छा...! क्या पहले भी ऐसा करती रही है?
- नहीं, अपने यहां डेढ़ साल में कभी ऐसा नहीं किया। पिछले साल सरहुल पर छुटूटी मांगकर चार दिन के लिए गांव गई थी। बड़ा दिन पर दो दिन के लिए यहीं डोरंडा में अपने मामा के यहां गई थी। बीच-बीच में मामा से
मिलने डोरंडा जाती थी, वहां उसका बाप भी गांव से आता रहता है, लेकिन शाम को तो लौट ही आती थी। फिर मम्मी को बिना बताए तो कहीं नहीं जाती थी।
- हो सकता है तुम्हारी मम्मी ने किसी बात पर डांटा-डपटा हो!
- नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। उसका कपड़ा-लत्ता और बक्सा भी यहीं है। रोज की तरह ऐसे ही चर्च गई थी।
- तब कोई बात नहीं। हो सकता है मामा के यहां गई हो, शाम-वाम तक आ जाए।
- देखिए...!
मरियम शाम को नहीं आई। तीसरा दिन-चौथा दिन करते हफ्ता बीत गया। उसके बक्से की तलाशी ली गई। बक्से में उसके कपड़े-लत्ते, सूई-धागा और कुछ बटन, एक कैंची, सस्ती-सी क्रीम और पावडर का डिब्बा, लिपस्टिक, च्हमारे यीशु’, च्सुसमाचार’, च्यीशु के उपदेश’ नामक तीन छोटी पुस्तिकाएं जो शायद चर्च से मिली होंगी और पच्चीस रूपए व कुछ रेजगारियां- सब कुछ जस का तस पड़ा था। इससे इतना तो तय हो गया कि मरियम यहां से भागकर नहीं गई है और न हमेशा के लिए। लेकिन वह गई कहां?
मरियम के लापता हुए पंद्रह-सोलह दिन हो रहे होंगे। एक शाम आठ बजे के करीब दफ्तर में हमारे सिटी रिपोर्टर धर्मराज राय टेलीफोन पर शहर के थानों से रिपोर्ट ले रहे थे। कानों में आवाज पड़ी- च्...क्या नाम बताया, मरियम?’ मैं चौंक उठा। मेरा ध्यान टेलीफोन-वार्ता पर गया :
- कहां से पकड़ी गई?’ राय ने पूछा।
उधर से जवाब आया- च्चाईबासा से बस में आ रही थी। नामकुम में बस से उतरी, तभी पकड़ ली गई।’
जब राय ने टेलीफोन रख दिया तो मैंने उन्हें बुलाया। पूछा- क्या खबर है?
धर्मराज राय ने बताया- सत्रह-अटूठारह साल की मरियम नाम की एक लड़की अभी घंटा भर पहले नामकुम में पकड़ी गई है। डोरंडा थाने के गश्ती दल ने बस स्टैंड से पकड़ा है। उसके साथ दो साल का एक बच्चा था। बस से उतरी तो बच्चा रो रहा था, वह उसे चुप कराने की कोशिश कर रही थी। पुलिस को शक हुआ- मामूली कपड़े वाली काली आदिवासी लड़की की गोद में अच्छे कपड़े पहने गोरा-चिटूटा लड़का! पुलिस को देखकर वह सकपका गई। रिक्शे पर बैठने ही जा रही थी कि तभी पुलिस वालों ने पकड़ लिया। चाईबासा से बच्चा चुराकर लाई थी। उसे पकड़कर डोरंडा थाने लाया गया है।
- क्या यहीं रांची की रहने वाली है?’
- नहीं, रहने वाली तो तमाड़ की है। यहां अपर बाजार मेंएक दुकानदार के घर में नौकरानी का काम करती है।’ राय को थानेवालों ने बताया था।
मरियम! सत्रह-अटूठारह साल की आदिवासी लड़की... तमाड़ की रहने वाली... मेरे मन में अब तक एक तूफान सिर उठा चुका था- यह तो हमारे यहां की मरियम लगती है! अचानक ही गायब हुई थी। हो सकता है अपर बाजार में किसी के यहां काम करने लगी हो! देखने में कितनी सीधी-सादी, लेकिन वह तो बच्चाचोर निकली! बज्जे गायब होने की पहले भी कुछ खबरें आ चुकी हैं। तो क्या मरियम गुपचुप तरीके से किसी बच्चाचोर गिरोह के लिए काम करती है? लगा कि डोरंडा थाने चलकर उससे पूछना चाहिए, ऐसा क्यों किया?
थाना पास में ही था। आधे घंटे में वहां से होकर लौटा जा सकता है। राय के साथ मोटरसाइकिल से निकल पड़ा। रास्ते में सोचता जा रहा था कि अगर हमारे गुप्ता जी के यहां काम करने वाली मरियम हुई तो थानेदार से कहकर उसे छुड़ा लिया जाएगा। अभी भी मेरा मन कह रहा था कि मरियम बच्चा चुराने जैसा काम नहीं कर सकती, जरूर वह धोखे से किसी तरह इस मामले में फंस गई होगी। राय को मैंने बता दिया कि हम लोग थाने पर क्यों चल रहे
हैं।
थाने पहुंचे तो वहां अंधेरा था। अभी-अभी बिजली चली गई थी। थानेदार के दफ्तर में लालटेन जल रही थी। क्राइम की रिपोटिंग करने वाले राय को थानेदार अच्छी तरह पहचानता था। ऐसा होता ही है। रिपोर्टर का थाना-पुलिस
से रोज ही काम पड़ता है। थानेदार ने राय को सम्बोधित करते हुए कहा- आइए-आइए, बैठिए। कैसे आना हुआ?
धर्मराज राय बात बनाने में माहिर आदमी हैं। उन्होंने थानेदार को मेरा परिचय देते हुए बताया- इधर एक काम से निकले थे, सोचा, आपसे मिलता चलूं।
- क्या सेवा की जाय, कुछ चाय-पानी...? थानेदार ने पूछा।
- नहीं, कुछ नहीं। हम लोग जरा जल्दी में हैं। वह जो बच्चा चुराने वाली लड़की है, कहां है? उससे थोड़ी बात करना चाहते हैं।’ राय ने कहा।
थानेदार के दफ्तर के बगल वाले कमरे में मरियम को रखा गया था। एक सिपाही को बुलाकर थानेदार ने उससे हम लोगों को मिला देने को कहा। बरामदे में जल रही लालटेन लिए सिपाही के साथ उस कमरे में जाते समय मेरे मन का तूफान चरम पर था।
हॉलनुमा उस बड़े से कमरे की आखिरी दीवार के पास खाली फर्श पर मरियम घुटनों पर सिर झुकाए बैठी थी। हमारे जाने पर भी उसने सिर नहीं उठाया। सिपाही ने ही जरा कड़ी आवाज में कहा- चेहरा दिखा, साहब लोग कुछ पूछताछ करेंगे!
अब उसने सिर उठाया और हमारी तरफ देखा- ओह, यह तो हमारी मरियम नहीं है!
मन के जंगल में उठी सूखी आंधी उथल-पुथल मचाने के बाद एकबारगी तिरोहित हो गई। माथे पर पसीना चुहचुहा आया था। रूमाल से चेहरा पोंछते हुए मैंने मरियम से पूछा- तुमने बच्चा क्यों चुराया?
उसके सपाट चेहरे पर कोई भाव नहीं था। आंखों में अबूझ सन्नाटा। एक पल की खामोशी के बाद वह बोली, जिनके यहां काम करती है उनके कोई बच्चा नहीं है। उन्होंने हजार रूपए के बदले कहीं से एक बच्चा ला देने को कहा था। चाईबासा में उसकी मौसी जिनके यहां काम करती है, उन्हीं के घर का बच्चा चुपके से वह ले आई थी।
- लेकिन यह तो बड़ा भारी जुर्म है, तुमको तो जेल हो जाएगी!’
अब वह खामोश हो गई और दोबारा घुटनों पर सिर झुका लिया।
मेरे कहने पर राय ने थानेदार से कहा- असली मुजरिम तो इस लड़की की मालकिन है, जिसने हजार रूपए का लालच देकर बच्चा लाने को कहा था। सो पकड़ना तो उसे चाहिए। फिर जब बच्चा मिल गया और अपने मां-बाप के पास पहुंचा दिया गया तो इस लड़की को छोड़ दीजिए। चालान करके जेल भेज देंगे तो इस गरीब की जमानत लेने भी कोई नहीं आएगा। हम लोग अखबार में खबर नहीं छापेंगे।
थानेदार मान गया। बोला- आप कहते हैं तो छोड़ देंगे। लेकिन अभी रात में जाएगी कहां? सवेरे चेतावनी देकर डांटकर भगा देंगे।
हम दोनों लौट आए।
इसके हफ्तेभर बाद एक दोपहर अचानक हमारी मरियम लौटी। वह रिक्शे से थी। गुप्ता जी के घर में न जाकर सीधे मेरे यहां आई। हंस रही थी। मैंने पूछा- कहां अचानक बिना बताए गायब हो गई थी?
उसने बताया- उस रोज चर्च से लौट रही थी, तभी रास्ते में मामा मिल गए। उन्होंने बताया, मेरे छोटे भाई की तबीयत बहुत खराब है। वह मामा के यहां रहकर हाई स्कूल में पढ़ता है। मैं मामा के साथ डोरंडा चली गई। वहीं थी। भाई को पीलिया हो गया था।
फिर गुप्ता जी की ओर इशारा करते हुए उसने जानना चाहा- ये लोग तो बहुत नाराज होंगे! बहुत उल्टा-सीधा बोल रहे होंगे?
- नहीं, ऐसा कुछ खास नहीं। मगर झुंझलाहट तो होगी ही! तुम जाकर मिल लो!
वह बोली- मिलने से क्या फायदा, कौन उनकी चार बात सुने? अब मैं यहां काम नहीं करूंगी। मैं तो अपना सामान लेने आई हूं।
गुप्ता जी की पत्नी दोपहर में दरवाजे बंद करके सो रही थीं। मरियम नहीं चाहती थी कि उनसे उसका सामना हो। वह मेरे घर से होकर चुपके-से पीछे
आंगन में गई और जल्दी-जल्दी अपना सामान समेट कर बक्सा लेकर तुरंत लौट आई।
मैंने कहा- अरे, तुम्हारे आधे महीने के काम के पैसे बनते हैं। वह तो मांग लो!
मरियम बोली- जाने दीजिए, मैं संतोष कर लूंगी। आप बता दीजिएगा, मैं आई थी, अपना सामान ले गई।
मैंने मरियम को दो सौ रूपए दिए। वह ले नहीं रही थी, लेकिन जोर देने पर उसने पैसे रख लिए। वह जल्दी से रिक्शे पर बैठी और निकल गई।
1 comments: on "दूसरी मरियम"
bahut sundar
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