मेरे गांव की कहानी- दो : कलहवा गांव में कत्ल

अरविंद चतुर्वेद :
मेरे गांव का नाम कलहवा गांव इसलिए, क्योंकि बाभनों में पटूटीदारी की लाग-डांट बराबर बनी रहती थी और बात-बात पर गाली-गलौज के साथ लाठियां निकलती रहती थीं। यह कलह तीन बार जब अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंची तो रामप्यारे चौबे, रामखेलावन चौबे और कुबेर चौबे की जान लेकर थमी। लम्बे अंतराल में आजादी के बाद चौथी हत्या नलराजा के पास वाले नाले के किनारे बच्चा चौबे की शाम के पांच बजे नरोत्तमपुर वालों ने कर दी। बच्चा सेमरिया से आ रहे थे। घात लगाकर नाले में छिपे, पिता की हत्या के बदले की आग में जल रहे, नरोत्तमपुर के पांडे भाइयों ने अचानक बच्चा को घेर लिया। बच्चा ने भागने की कोशिश की। कहते हैं कि अपनी ही धोती में फंसकर अगर वे गिर न गए होते तो शायद उनकी जान बच गई होती। बच्चा के गिरते ही हमलावर उन पर टूट पड़े थे और तब तक लाठियां बरसाते रहे, जब तक उन्हें यकीन नहीं हो गया कि बच्चा के प्राण पखेरू उड़ गए हैं। फिर पांचवीं और अंतिम हत्या हुई गांव से बाहर, एक किलोमीटर दूर, नहर की पटरी पर, गेना चौबे की- दिन के दस बजे। घर से खाना खाकर गेना चौबे साइकिल से रामगढ़ बाजार के लिए निकले थे। नहर के किनारे खेत में छिपे हमलावरों के सामने से जैसे ही साइकिल गुजरी, तेजी से निकल कर पहले तो उन सबने उनकी साइकिल गिरा दी। गेना को संभलने और भागने का जरा भी मौका नहीं मिला। लाठियों से पीटने के बाद हमलावरों ने गंड़ासे से गेना चौबे के हाथ-पैर काटकर अलग कर दिए। कहते हैं कि जब उनका शव गांव लाया गया तो धड़ के साथ हाथ-पैर बटोर कर लाना पड़ा था। गेना चौबे को मारने वाले इमलिया डीह के एक कोइरी के लड़के थे, जिसको गेना चौबे ने अपने भाइयों के साथ मिलकर मार डाला था। उन्हीं लड़कों ने, जब जवान हो गए तो गेना को मारकर बाप की हत्या का बदला ले लिया।
गेना चौबे की जिंदगी एक किसान के व्यापारी बनने की असफल कोशिश की भी कहानी है। युवावस्था में अपने दूर के एक रिश्तेदार की प्रेरणा से वे कलकत्ता कमाने चले गए थे। उनके कलकत्ता प्रवास के बारे में कई किंवदंतियां प्रचलित हैं। मसलन, गेना ने वहां शुरू-शुरू में हाथरिक्शा चलाया। फिर बड़ाबाजार में दूध बेचने का काम करने लगे। दूध बेचने के दौरान एक हलवाई से सम्पर्क हुआ तो दूध बेचना छोड़कर उसकी दूकान पर काम करने लगे और धीरे-धीरे मिठाइयां बनाने की कारीगरी सीखी। वहां से पांव उखड़े तो किसी मारवाड़ी के कपड़े की दूकान पर काम करने लगे। कहते हैं कि एक रोज जब दूकान का मालिक कहीं गया हुआ था तो गेना चौबे ने दिनभर की बिक्री-बटूटा का पैसा समेटते हुए गल्ले पर हाथ साफ किया और हावड़ा से मुगलसराय वापसी की ट्रेन पकड़ ली। एक किंवदंती यह भी है कि गेना चौबे कलकत्ता में किसी ट्रांसपोर्टर के यहां थे और उसका ट्रक चलाते थे। मगर इस दूसरी किंवदंती से उनकी जिंदगी की संगति नहीं मिलती, क्योंकि कलकत्ता से लौटने के बाद गेना चौबे ने एक बैलगाड़ी खरीदी थी और भाड़े पर गल्ला ढुलाई का काम करने लगे थे। क्या यह मुमकिन है कि कोई ट्रक ड्राइवर स्टीयरिंग छोड़ने के बाद बैलगाड़ी हांकने लगे? हां, पहले वाली किंवदंती से गेना चौबे की उत्तर-जिंदगी जरूर मेल खाती है। जैसे कि हर साल बसंत पंचमी पर लगने वाले सात दिन के नलराजा मेले में वे मिठाइयों की दूकान लगाते थे। मेला शुरू होने से दस-पंद्रह दिन पहले से घर में मिठाइयां बनने लगती थीं। उनका घर हलवाई का कारखाना बन जाया करता था। उनके घर से आनेवाली सोंधी-मीठी महक उधर से गुजरने वालों के मुंह में पानी ला देती थी। इस तरह गांव के पारंपरिक खेतिहर ब्राह्मणों के बीच गेना चौबे ने अब्राह्मण व्यवसाय’ की शुरूआत की। ईख की खेती करके गुड़ बनाकर बेचने और आलू-प्याज-बैगन आदि सब्जियों की व्यावसायिक खेती जैसे कामकाज की पहल गेना चौबे ने की। शुरू-शुरू में उनकी इन अब्राह्मण गतिविधियों की निंदात्मक आलोचना भी खूब हुई लेकिन उन्होंने कोई परवाह नहीं की। इसके बावजूद उनके किसी प्रयास को मंजिल नहीं मिल सकी। सरकारी कर्ज लेकर खरीदे गए बैलगाड़ी के दो शानदार बैलों में से एक तीन साल बाद मर गया तो गल्ला ढुलाई का काम अपने आप बंद हो गया। एक बरसात के बाद ही महाभारत के टूटे रथ की तरह लुढ़की, पानी खाई बैलगाड़ी औने-पौने दाम में बेच देनी पड़ी थी। दुधारू भैंस के मर जाने से नलराजा के मेले वाली मिठाइयों की दूकान इतनी गरीब हो गई कि अगले साल तक सारा उत्साह काफूर हो गया। फिर गुड़ बनाने वाला कड़ाह चोरी हो गया तो ईख की खेती पर भी पूर्ण विराम लग गया। इस तरह झटके पर झटका खाती गेना चौबे की गृहस्थी जर्जर होती चली गई। बढ़ती उम्र और थकान से शरीर भी शिथिल हो चुका था।
जिस रोज गेना चौबे का कत्ल हुआ था, वे रामगढ़ ब्लॉक पर कोआपरेटिव का कर्ज अदा करने जा रहे थे। पिता का क्रिया-कर्म करने के महीने भर बाद उनका बड़ा पुत्र जो अब तक रामगढ़ में एक दर्जी का शागिर्द बनकर दर्जीगीरी सीख चुका था, पितृ-शोक से काफी दूर लुधियाना कमाने-खाने निकल गया। गेना चौबे की विधवा को अपने छोटे बेटे के साथ घर-गृहस्थी की चकरघिन्नी और खेती-बारी की अतिरिक्त जिम्मेदारी में फिरकी की तरह ऐसा नाचना पड़ा कि पति के शोक में डूबे रहने का लम्बा अवकाश भला उन्हें क्या मिलता! दो-चार दिन रो लिया, दो-चार दिन सुबक लिया- आंसू सूख गए। ऐसा ही होता है। वक्त का रिमूवर इतना असरदार होता है कि जिदूदी से जिदूदी निशान भी मिट जाते हैं। सो, गांव की आंतरिक जिंदगी में अब अतीत के उस रक्तरंजित दौर की कोई छाप बची नहीं है। खून के छींटे मई-जून की धधकती गर्मी में न जाने कब सूख गए और तेज बरसात की बौछारों ने उन्हें धो-पोंछ कर साफ कर दिया। .... जारी
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2 comments: on "मेरे गांव की कहानी- दो : कलहवा गांव में कत्ल"

Anonymous said...

गजब ! चपल रहा ,गुरु !

anonymous said...
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