भ्रष्टाचार के भवन में

अरविन्द चतुर्वेद :
क्या पूरा देश ही भ्रष्टाचार के भवन में बदलता जा रहा है? छोटे-मोटे भ्रष्टाचार की तो बात ही छोड़ दीजिए, समय-समय पर इतने बड़े-बड़े भ्रटाचारों का भेद खुलता है, जिनकी जांच और चर्चा कई महीनों तक छाई रहती है। दिलचस्प यह भी है कि एक घोटाले की चर्चा तब मद्धिम पड़ती है, जब उसको पीछे ठेलकर कोई नया घोटाला सीना ताने सामने आ खड़ा होता है। अब जैसे सत्यम वाले रामलिंगा राजू की चर्चा कोई नहीं करता, क्योंकि उनके घोटाले को पीछे धकेल कर झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा का हजारों करोड़ का घोटाला सामने आ गया। इस घोटाले की जांच अभी भी चल रही है, लेकिन इसी बीच मधु कोड़ा की चर्चा को पीछे धकेलकर कामनवेल्थ खेलों के आयोजन और उससे सम्बंधित निर्माण कायों में हुआ महा घोटाला सामने आ गया। खेल खतम हुए तो अब खेलों के पीछे हुए खेल की जांच हो रही है। सरकार की पांच-पांच एजेंसियां अंधों के हाथी की तरह प्रसिद्ध दार्शनिक सत्य की तरह इस महा भ्रष्टाचार की जांच में लगी हैं। अब देखना यह है कि कौन पूंछ को सत्य बताता है, कौन कान को और कौन सूंड़ को। बहरहाल, भ्रष्टाचार का भवन बन चुके देश में राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान हुई वित्तीय अनियमितताओं और घोटालों की जांच के सिलसिले में तीन सौ आयकर अधिकारियों ने देशभर में एक साथ 50 स्थानों पर छापे मारे हैं। ये छापे खेलों से सम्बंधित चार ठीकेदार कंपनियोें के दफ्तरों-परिसरों में मारे गए हैं। केंद्रीय सतर्कता आयोग यानी सीवीसी राष्ट्रमंडल खेलों के एक शीर्ष अधिकारी द्वारा दो सौ करोड़ की धांधली से संबंधित शिकायत की जांच कर रहा है। यह वही अधिकारी हैं, जिन्हें आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी का करीबी सहयोगी माना जाता है। गौरतलब है कि राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़ी अलग-अलग निर्माण परियोजनाओं में आर्थिक अनियमितताओं से संबंधित कुल 22 शिकायतों की जांच सीवीसी कर रहा है। भ्रष्टाचार की यह एक अकेली चादर ही कितनी देशव्यापी है, इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि छापेमारी राजधानी दिल्ली समेत बंगलुरू, मुंबई, जमशेदपुर, कोलकाता में तो की ही गई है, अकेले राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में करीब 50 स्थानों पर मारकर बड़ी संख्या में खेलों से सम्बंधित दस्तावेज जब्त किए गए हैं। क्या दिलचस्प बात है कि आयकर विभाग की जांच के घेरे में आई कंपनियों को इन अंतरराष्ट्रीय खेलों के बाबत राजधानी दिल्ली के सौंदर्यीकरण और स्ट्रीट लैम्पों को बदलने आदि का ठेका दिया गया था, लेकिन इन लोगों ने सौंदर्यीकरण के बहाने कालिख पोत दिया और स्ट्रीट लैम्पों के उजाले की आड़ में अंधेरगर्दी मचाकर रख दी। देश वासियों की गाढ़ी कमाई के पैसे से देश की इज्जत और शान की खातिर कराए गए राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी के बहाने लूट-खसोट मचाने वालों को क्या देशभक्त कहा जा सकता है? असल में भ्रष्टाचारी पैसे के पिशाच होते हैं, जो सिर्फ देश और देशवासियों का खून चूसना जानते हैं। चूंकि इस महा भ्रष्टाचार की जांच प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई, केंद्रीय सतर्कता आयोग के साथ ही प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त विशेेष समिति भी कर रही है, इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बहुस्तरीय जांच में उन सभी कसूरवारों की गरदन फंसेगी, जो भ्रष्टाचार के समंदर में मगरमच्छ की तरह डुबकी लगाते आए हैं। जांच एजेंसियों के साथ ही सरकार से भी आम नागरिक की यही अपेक्षा है कि इस महाघोटाले में दूध का दूध और पानी का पानी होने तक पूरी मुस्तैदी बनाए रखे। ऐसा न हो कि चार-छह महीने में कोई नया घोटालेबाज भ्रष्टाचारी सामने आ जाए और कामनवेल्थ खेलों में हुए घोटाले को धकेलकर पीछे कर दे। वैसे भी अगर कामनवेल्थ खेल देश की प्रतिष्ठा से जुड़े हुए थे, जैसा कि सरकार ने कहा था तो यह भी सरकार की ही जवाबदेही है कि इसके आयोजन में गड़बड़ियां और वित्तीय घपलेबाजी करने वालों की प्रामाणिक तौर पर पहचान करके उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दिलाए , चाहे वे कितने भी ऊंचे रसूख वाले लोग हों। यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि इतने बड़े पैमाने पर कराई जा रही बहुस्तरीय जांच की साख का मामला है। यह भ्रष्टाचार एक देश विरोधी कार्य है, जिसमें लिप्त लोगों को सजा मिलनी ही चाहिए।
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ऊँट के मुंह में जीरा

अरविन्द चतुर्वेद : 
हालांकि किसान ऊंट नहीं हैं, वे देश के अन्नदाता हैं और उन्हीं की बदौलत यह देश आज भी बहुतायत में कृषि प्रधान बना हुआ है। मगर यह किसानों के साथ-साथ देश का भी दुर्भाग्य कहेंगे कि बात-बात पर किसानों को ऊंट की तरह सरकार का मुंह देखना पड़ता है। सरकार खेती के हर सीजन के पहले जरूरी उपज के प्रोत्साहन के लिए हर साल न्यूनतम समर्थन मूल्य का एलान किया करती है और मानना चाहिए कि किसान रवी की खेती की तैयारी करें, उसके पहले गेहूं व सरसों समेत दालों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की सरकार ने घोषणा की है। लेकिन सरकार ने गेहूं और सरसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य महज 20 रूपए बढ़ाकर ऊंट के मुंह में जीरा वाली कहावत को चरितार्थ कर दिया है। खेती के साल-दर-साल बढ़ते खर्च के आगे न्यूनतम समर्थन मूल्य की यह बढ़त किसानों के जले पर नमक छिड़कने वाली है और उपज के लिए प्रोत्साहित करने के बजाय यह किसानों को हतोत्साहित ही करेगी। क्या सरकार ने गेहूं का समर्थन मूल्य इसलिए मामूली तौर पर बढ़ाया है कि उसके गोदामों में गेहूं रखने की जगह नहीं है और पहले से जो स्टाक पड़ा हुआ है, वह सड़कर सरकार की भदूद पिटवा चुका है? कितना शर्मनाक है कि एक तरफ देश में भुखमरी व कुपोषण का रोना है और दूसरी ओर सरकार किसानों को प्रोत्साहित करने के बजाय हतोत्साहित करने पर आमादा है। गौरतलब है कि प्रति क्विंटल 1. 8 प्रतिशत की मामूली बढ़ोतरी के साथ गेहूं का समर्थन मूल्य जहां सरकार ने 1120 रूपए प्रति क्विंटल किए हंै, वहीं उसने केंद्रीय कर्मचारियों के वेतन में औसतन दस प्रतिशत की बढ़ोतरी की थी। यानी खरीदने वालों की जेब भारी हो, भले ही किसानों का हाल ठन ठन गोपाल हो। देश में चूंकि दालों का उत्पादन जरूरत भर नहीं हो पाता, इसलिए दालों के उत्पादन को प्रोत्साहन देने के मकसद से सरकार ने मसूर और चने की दालों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 380 रूपए प्रति क्विंटल तक की बढ़ोतरी की है। न्यूनतम समर्थन मूल्य वह कीमत होती है, जो सरकार किसानों से उनकी उपज खरीदने के लिए भुगतान करती है। लेकिन सरकारी खरीद के लिए भी क्रय केंद्रों पर किसानों को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, यह बेचारा किसान ही जानता है। उसे अपनी उपज बेचने के एवज में जो चेक मिलते हैं, वे भी कई बार महीनों बाद कमीशन ले-देकर भुनाए जा पाते हैं। ऐसी लचर और धांधली पूर्ण व्यवस्था में गेहूं और सरसों के समर्थन मूल्य में महज पौने दो फीसदी प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी वाकई जले पर नमक छिड़कने वाली ही कही जाएगी। जहां तक दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन का मामला है तो अपेक्षाकृत कुछ बेहतर समर्थन मूल्य जरूर घोषित किए गए हैं, लेकिन एक तो दालों वाली फसलें समान रूप से हर जगह पैदा नहीं हो पातीं, दूसरे कई बार इनका उत्पादन प्रतिकूल मौसम की मार का शिकार होकर किसानों की कमर तोड़ देता है। मसूर दाल का समर्थन मूल्य 380 रूपए और चने की दाल का 340 रूपए बढ़ाया गया है। सरकार ने इस साल दालों के उत्पादन को प्रोत्साहन देने और आयात पर निर्भरता घटाने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य में यह इजाफा किया है। असल में भारत दुनिया का सबसे बड़ा दाल उत्पादक देश तो है, फिर भी घरेलू मांग को पूरा करने के लिए सालाना 35 से 40 लाख टन दालों का आयात करना पड़ता है। तिलहन उत्पादों का भी समर्थन मूल्य कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की सिफारिशों के मदूदेनजर कुछ बढ़ा दिया गया है। लेकिन असल सवाल तो यह है कि जब सरकार और प्रधानमंत्री खुद कह चुके हैं कि देश को एक और हरित क्रांति की जरूरत है तो क्या उसकी जरूरतें इसी तरह के समर्थन मूल्यों के ऐलान से पूरी हो जाएंगी। सच्चाई तो यह है कि किसान हितैषी होने की बातें तो खूब दोहराई जाती हैं, लेकिन कृषि और किसान के समग्र विकास के लिए प्रभावी तौर पर सरकारें कुछ खास कर नहीं रही हैं- केंद्र हो या राज्य सरकारें।
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विकास की चुभन

अरविन्द चतुर्वेद :
विकास के नाम पर अपने देश में विकसित पूंजीवादी देशों, खासकर अमेरिकी उतरन को जिस तरह आदर्श मानकर अंधाधुंध अपनाते जाने की आदत है और इसके जो नतीजे सामने आ रहे हैं, लगता है कि अब वे खुद प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को भी चुभने लगे हैं। तभी तो हैदराबाद में एकेडमी ऑफ साइंसेज फार द डेवलपिंग वल्र्ड की वाष्रिक बैठक का उदूघाटन करते हुए उन्होंने कहा है कि औद्योगिक राष्ट्रों द्वारा अपनाए गए विकास मॉडल विकासशील देशों के अस्तित्व के लिए खतरनाक हो सकते हैं और जरूरत इस बात की है कि इनसे सतर्क रहते हुए विकास के लिए प्रगति के अधिक स्थाई उपाय खोजे जाएं। यही नहीं, प्रधानमंत्री ने भारत जैसे विकासशील देश की पारिस्थितिकी का खास तौर पर जिक्र किया और कहा कि हम दरअसल उष्णकटिबंधीय इलाकों में पैदा होनेवाली बीमारियों से लड़ने के साथ-साथ परम्परागत खेती-बारी में बदलाव और प्राकृतिक आपदाओं से निपटने जैसी साझा चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। असल में हमारी सरकारें भी और तमाम बड़े-छोटे गैर-सरकारी औद्योगिक कम्पनियां भी तेजी से तरक्की करने और कम खर्च में अधिक से अधिक उत्पादन व मुनाफा कमाने के चक्कर में ऐसी हड़बड़ी का विकासवादी रास्ता अपनाती हैं, जो स्थाई भी नहीं होता और प्रकृति-पर्यावरण के तमाम अंगों समेत सामान्य जन के जीवन में भी मुश्किलें पैदा करता है। सबको पता है कि स्थानीय पारिस्थितिकीय जरूरतों और सीमाओं को नजरअंदाज करते हुए हम जिन विकास परियोजनाओं को अबतक अमलीजामा पहनाते आए हैं, उन्होंने इस हद तक पर्यावरणीय असंतुलन पैदा किया है कि आए दिन हमें प्राकृतिक विभीषिकाओं व आपदाओं का शिकार होना पड़ता है। इनसे होनेवाले व्यापक नुकसान की भरपाई क्या दस औद्योगिक परियोजनाएं भी मिलकर पूरी कर सकती हैं? उदाहरण के लिए अगर हम गंगा और यमुना सरीखी दो नदियों की ओर ही देखें तो औद्योगिक और तटवर्ती शहरी विकास का कचरा ढोते-ढोते ये इस कदर प्रदूषित हो चुकी हैं कि अबतक अरबों रूपए खर्च करने के बावजूद इन्हें स्वच्छ नहीं बनाया जा सका है। बिना सोचे-बिचारे अंधाधुंध विकास के कारण जंगलों और पहाड़ों का भी हुआ है। दरअसल, नदियां-पहाड़ और जंगल प्रकृति-पर्यावरण व जीवन की सुरक्षा के ऐसे गार्ड हैं, जिनकी बर्बादी की कीमत पर किया जानेवाला विकास हमेशा घाटे का सौदा ही साबित होता है। कौन नहीं जानता कि न तो हम नदियां बना सकते हैं और न पहाड़, मगर इसके बावजूद विकास का वही मॉडल अपनाए हुए हैं, जो सबसे ज्यादा चोट इन्हीं चीजों को पहुंचाता आ रहा है। नतीजा यह है कि मौजूदा विकास मॉडल एक बड़ी आबादी के जीवन को तहस-नहस करता आ रहा है, उन्हें विस्थापित करता आ रहा है और इसीलिए ऐसे विकास को बहुतेरे लोग स्वाभाविक ही सत्यानाशी कहते हैं। अब अगर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने वैश्विक अनुभव और अभिज्ञता के हवाले से कहा है कि हमने देखा है कि किस तरह औद्योेगिक राष्ट्रों द्वारा अपनाए गए विकास के रास्ते हमारे अस्तित्व और जिंदगी के लिए खतरनाक हैं, तो शायद हम सतर्क होकर अपने लिए विकास का उपयुक्त और उपादेय मॉडल अपनाएं। क्योंकि अभी भी कोई बहुत देर नहीं हुई है। अगर हम ऐसा कोई रास्ता खोज निकालते हैं जो बेवजह हमारी क्षमताओं पर दबाव नहीं डालता और विकास की मूलभूत चुनौतियों से निपटने में सक्षम होता है तो उसका हम अपने खुद के हित में उपयोग कर सकेंगे। अच्छी बात यही है कि भारत समेत दूसरे विकासशील देश भी इस दिशा में सचेत हुए हैं और बेहतर फ्रेमवर्क के तहत समुद्री अनुसंधान, कृषि, जलवायु परिवर्तन और नैनो तकनीक सहित विज्ञान व तकनीक में सामूहिक गतिविधियों की oृंखला चल निकली है। अंधानुकरण के बजाय अपना रास्ता हमेशा बेहतर होता है।
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गंगा प्रदूषकों पर चाबुक

अरविन्द चतुर्वेद :
उत्तर भारत की जीवन रेखा और तकरीबन 45 करोड़ भारतीयों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अन्न-जल दे-दिलाकर उनका भरण-पोषण करने वाली गंगा नदी की लगातार बिगड़ती सेहत दुरूस्त करना केंद्र से लेकर सम्बंधित राज्य सरकारों के लिए कई दशकों से लगातार एक चुनौती है। पौराणिक काल से लेकर आज की उत्तर आधुनिक इक्कीसवीं सदी में भी गंगा का धार्मिक व सांस्कृतिक प्रवाह भारतीय जनमानस में अविरल भले ही हो, लेकिन भौतिक सच्चाई तो यही है कि बुरी तरह प्रदूषित इस पवित्र नदी का पानी आचमन लायक नहीं रह गया है। ैकहीं-कहीं नदी का पानी इस कदर प्रदूषित हो चुका है कि आदमी नहाए तो उसे चर्मरोग हो जाए। प्रदूषित गंगा नदी अपने जल-जीवों को भी जीवन दे पाने में कई स्थानों पर फेल साबित हुई है। यह ऐसी कड़वी सच्चाई है, जो गंगा को देवी और मां मानने वाले सरल हृदय धार्मिक लोगों को भी कष्ट पहुंचाती है और प्रकृति व पर्यावरण से प्रेम करने वाले आधुनिक, पढ़े-लिखे लोगों को भी। लेकिन जिस तरह कहीं न कहीं हमारे जंगलात के महकमे में एक बेईमानी है कि वनों की सुरक्षा और संवर्द्धन पर हर साल करोड़ों रूपए उड़ाने के बावजूद जंगल खत्म होते गए, कुछ उसी तरह गंगा समेत कई दूसरी नदियां भी प्रदूषण नियंत्रण की तमाम हवाई कसरत के बावजूद अपना प्राकृतिक स्वास्थ्य हासिल नहीं कर पाइं। केवल गंगा और यमुना की ही बात की जाए तो अबतक एक्शन प्लान के नाम पर हजारों करोड़ रूपए पानी में बहाए जा चुके हैं, मगर यहां भी एक बेईमानी है कि इन नदियों का प्रदूषण कम होने के बजाय बढ़ता गया है। हमारी संस्कृति और जीवन से जुड़ी ये नदियां दिन पर दिन प्रदूषित क्यों होती गइं और हजारों करोड़ रूपए बहा देने के बाद भी इन्हें स्वच्छ क्यों नहीं बनाया जा सका, दरअसल इसमें कोई गूढ़ रहस्य नहीं है। ऐसा सिर्फ इसलिए हुआ है कि इन दोनों नदियों को प्रदूषित करने वाले सफाई करने वालों पर लगातार भारी पड़ते रहे हैं। राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हों या फिर केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड, गंगा-यमुना में रात-दिन कचरा उगलने वाली औद्योगिक इकाइयों की अनदेखी करके या उनको चेतावनी देकर और बहुत हुआ तो आर्थिक दंड देकर अबतक बख्शती आई हैं। इसका नतीजा ढाक के पात रहा है। अब जाकर मनमानी करने वाली औद्योगिक इकाइयों पर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने चाबुक चलाया है। कड़ा रूख अख्तियार करते हुए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने ऐसी चार प्रदूषक औद्योगिक इकाइयों को बंद करा दिया है। इसके अलावा एक औद्योगिक इकाई को बंद कर देने का नोटिस दिया है। उदूगम से लेकर मंजिल तक गंगा के समूचे क्षेत्र को तो छोड़िए, केंद्रीय प्रदूषण निगरानी संस्था ने उत्तर प्रदेश में कन्नौज से वाराणसी के बीच पांच सौ किलोमीटर की लंबाई में गंगा के प्रदूषण पर सघन निगरानी के बाद तीन हफ्तों में यह कार्रवाई की है। इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि अपने समूचे सफर के दौरान औद्योगिक से लेकर अन्य प्रकार के कितने प्रदूषणों की मार हमारी यह पूज्य पवित्र नदी झेल रही होगी। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पहली बार पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम 1986 की धारा पांच को लागू करते हुए गंगा के अपराधियों पर यह चाबुक चलाया है। यही नहीं, पर्यावरण मंत्री के निर्देश पर गंगा की स्वच्छता सुनिश्चित करने के लिए कानपुर की 402 चमड़ा इकाइयों की भी जांच होनी है। असल में अब इन नदियों को दुर्गति से उबारने के लिए चाबुक चलाने के अलावा कोई रास्ता भी नहीं है।
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इकहरे चेहरे से लोगों का काम ही नहीं चलता

अरविन्द चतुर्वेद
आजकल इकहरे चेहरे से लोगों का काम ही नहीं चलता, और फिर राजनीति में तो पूछना ही क्या! पारदर्शिता की बातें तो खूब की जाती हैं, लेकिन चेहरे पर चेहरा चढ़ा रहता है। कमाल यह कि राजनीति करने वाले अपने हर चेहरे को असली चेहरे की तरह पेश करते हैं। अभी कल तक कांग्रेस के प्रवक्ता रहे अभिषेक मनु सिंघवी को ही लीजिए। उनका एक चेहरा पार्टी के प्रवक्ता के अलावा नामी वकील का भी है और जाहिर है कि वकील होने के नाते वे अपने किसी भी मुवक्किल के साथ कोर्ट में खड़े हो सकते हैं- उसके बचाव में दलीलें भी दे सकते हैं। लेकिन ठीक इसी जगह यदि वही वकील किसी राजनीतिक दल का प्रवक्ता या प्रतिनिधि चेहरा भी होता है तो उससे अगर पारदर्शिता और नैतिकता की अपेक्षा न भी की जाए तो कम से कम पार्टी के सिद्धांतों और नीतियों के लिए प्रतिबद्धता की अपेक्षा तो रहती ही है। अभिषेक मनु सिंघवी का यही वकील वाला चेहरा केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस के लिए अचानक इतना असुविधा जनक और धर्म संकट में डालने वाला साबित हुआ है कि उन्हें पार्टी प्रवक्ता क ी भूमिका से बेदखल कर दिया गया। वैसे दो चेहरे रखने वाले सिंघवी एक तरह से न घर के हुए, न घाट के। क्योंकि केरल में भूटान लॉटरी के एक घोटालेबाज एजेंट की तरफ से केरल सरकार के खिलाफ मुकदमा लड़ने का मामला जब उजागर हुआ और सिंघवी पर दबाव पड़ा तो एक ओर तो उन्होंने मुकदमे से अपने को पीछे खींच लिया, दूसरी ओर जब कांग्रेस की केरल इकाई की ओर से पार्टी आला कमान पर दबाव बढ़ा तो धर्म संकट की हालत में सिंघवी की कांग्र्रेस के प्रवक्ता पद से भी छुटूटी हो गई। इसी को कहते हैं- दुविधा में दोऊ गए, माया मिली न राम। जरा याद कीजिए कि कांग्रेस के प्रवक्ता के बतौर अभिषेक मनु सिंघवी पत्रकारों को शेर ओ शायरी, कानून की धाराओं का हवाला देकर तर्कसंगत ढंग से विभिन्न मुदूदों पर कितनी कुशलता व प्रखरता से जवाब देते थे और पार्टी का पक्ष रखते थे। मगर उन्होंने वकील के बतौर जो कुछ किया, उसे कांग्रेस पचा नहीं सकती थी। एक आदमी भारत के सबसे घनिष्ठ मित्र व छोटे-से देश भूटान की लॉटरी का भारत में ठेका लेता है और देखते ही देखते एक छोटे-से दुकानदार से भूटान को ठग कर खरबपति बन जाता है और जब भूटान सरकार केरल उच्च न्यायालय में उसके खिलाफ मामला दायर करती है तो बचाने के लिए भारत सरकार का नेतृत्व कर रही पार्टी का प्रवक्ता अपने वकील चेहरे में सामने आ जाता है। जैसी कि खबर है वकील सिंघवी की फीस 20 करो.ड रूपए तय हुई थी, लेकिन पैसे का पता नहीं उन्हें मिले या नहीं, हां चेहरे पर चेहरा रखने की दुविधा में उनकी राजनीति जरूर ध्वस्त हो गई। दिवंगत लक्ष्मीमल सिंघवी सरीखे संविधान के बड़े जानकार वकील और सादगी पूर्ण ढंग से रहने वाले शख्स के बेटे अभिषेक मनु सिंघवी को असल में उनका शानो-शौकत में डूबा अहंकार पूर्ण दोहरा व्यक्तित्व ही ले डूबा। आखिर केरल सरकार की शिकायत को प्रधानमंत्री कार्यालय ने गंभीरता से लिया और केरल में अगले वर्ष होनेवाले चुनाव में फजीहत को टालने की लाचारी में कांग्रेस आला कमान को अभिषेक मनु सिंघवी की प्रवक्ता पद से छुटूटी करनी पड़ी। इस संदर्भ में अगर कोई याद करना चाहे तो देश के दूसरे बड़े वकील राम जेठमलानी को भी याद कर सकता है, जिनका वकील और राजनेता वाले दोनों चेहरे भाजपा को पर्याप्त धर्म संकट में डालते आए हैं।
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