विकास की चुभन

अरविन्द चतुर्वेद :
विकास के नाम पर अपने देश में विकसित पूंजीवादी देशों, खासकर अमेरिकी उतरन को जिस तरह आदर्श मानकर अंधाधुंध अपनाते जाने की आदत है और इसके जो नतीजे सामने आ रहे हैं, लगता है कि अब वे खुद प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को भी चुभने लगे हैं। तभी तो हैदराबाद में एकेडमी ऑफ साइंसेज फार द डेवलपिंग वल्र्ड की वाष्रिक बैठक का उदूघाटन करते हुए उन्होंने कहा है कि औद्योगिक राष्ट्रों द्वारा अपनाए गए विकास मॉडल विकासशील देशों के अस्तित्व के लिए खतरनाक हो सकते हैं और जरूरत इस बात की है कि इनसे सतर्क रहते हुए विकास के लिए प्रगति के अधिक स्थाई उपाय खोजे जाएं। यही नहीं, प्रधानमंत्री ने भारत जैसे विकासशील देश की पारिस्थितिकी का खास तौर पर जिक्र किया और कहा कि हम दरअसल उष्णकटिबंधीय इलाकों में पैदा होनेवाली बीमारियों से लड़ने के साथ-साथ परम्परागत खेती-बारी में बदलाव और प्राकृतिक आपदाओं से निपटने जैसी साझा चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। असल में हमारी सरकारें भी और तमाम बड़े-छोटे गैर-सरकारी औद्योगिक कम्पनियां भी तेजी से तरक्की करने और कम खर्च में अधिक से अधिक उत्पादन व मुनाफा कमाने के चक्कर में ऐसी हड़बड़ी का विकासवादी रास्ता अपनाती हैं, जो स्थाई भी नहीं होता और प्रकृति-पर्यावरण के तमाम अंगों समेत सामान्य जन के जीवन में भी मुश्किलें पैदा करता है। सबको पता है कि स्थानीय पारिस्थितिकीय जरूरतों और सीमाओं को नजरअंदाज करते हुए हम जिन विकास परियोजनाओं को अबतक अमलीजामा पहनाते आए हैं, उन्होंने इस हद तक पर्यावरणीय असंतुलन पैदा किया है कि आए दिन हमें प्राकृतिक विभीषिकाओं व आपदाओं का शिकार होना पड़ता है। इनसे होनेवाले व्यापक नुकसान की भरपाई क्या दस औद्योगिक परियोजनाएं भी मिलकर पूरी कर सकती हैं? उदाहरण के लिए अगर हम गंगा और यमुना सरीखी दो नदियों की ओर ही देखें तो औद्योगिक और तटवर्ती शहरी विकास का कचरा ढोते-ढोते ये इस कदर प्रदूषित हो चुकी हैं कि अबतक अरबों रूपए खर्च करने के बावजूद इन्हें स्वच्छ नहीं बनाया जा सका है। बिना सोचे-बिचारे अंधाधुंध विकास के कारण जंगलों और पहाड़ों का भी हुआ है। दरअसल, नदियां-पहाड़ और जंगल प्रकृति-पर्यावरण व जीवन की सुरक्षा के ऐसे गार्ड हैं, जिनकी बर्बादी की कीमत पर किया जानेवाला विकास हमेशा घाटे का सौदा ही साबित होता है। कौन नहीं जानता कि न तो हम नदियां बना सकते हैं और न पहाड़, मगर इसके बावजूद विकास का वही मॉडल अपनाए हुए हैं, जो सबसे ज्यादा चोट इन्हीं चीजों को पहुंचाता आ रहा है। नतीजा यह है कि मौजूदा विकास मॉडल एक बड़ी आबादी के जीवन को तहस-नहस करता आ रहा है, उन्हें विस्थापित करता आ रहा है और इसीलिए ऐसे विकास को बहुतेरे लोग स्वाभाविक ही सत्यानाशी कहते हैं। अब अगर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने वैश्विक अनुभव और अभिज्ञता के हवाले से कहा है कि हमने देखा है कि किस तरह औद्योेगिक राष्ट्रों द्वारा अपनाए गए विकास के रास्ते हमारे अस्तित्व और जिंदगी के लिए खतरनाक हैं, तो शायद हम सतर्क होकर अपने लिए विकास का उपयुक्त और उपादेय मॉडल अपनाएं। क्योंकि अभी भी कोई बहुत देर नहीं हुई है। अगर हम ऐसा कोई रास्ता खोज निकालते हैं जो बेवजह हमारी क्षमताओं पर दबाव नहीं डालता और विकास की मूलभूत चुनौतियों से निपटने में सक्षम होता है तो उसका हम अपने खुद के हित में उपयोग कर सकेंगे। अच्छी बात यही है कि भारत समेत दूसरे विकासशील देश भी इस दिशा में सचेत हुए हैं और बेहतर फ्रेमवर्क के तहत समुद्री अनुसंधान, कृषि, जलवायु परिवर्तन और नैनो तकनीक सहित विज्ञान व तकनीक में सामूहिक गतिविधियों की oृंखला चल निकली है। अंधानुकरण के बजाय अपना रास्ता हमेशा बेहतर होता है।
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