ऊँट के मुंह में जीरा

अरविन्द चतुर्वेद : 
हालांकि किसान ऊंट नहीं हैं, वे देश के अन्नदाता हैं और उन्हीं की बदौलत यह देश आज भी बहुतायत में कृषि प्रधान बना हुआ है। मगर यह किसानों के साथ-साथ देश का भी दुर्भाग्य कहेंगे कि बात-बात पर किसानों को ऊंट की तरह सरकार का मुंह देखना पड़ता है। सरकार खेती के हर सीजन के पहले जरूरी उपज के प्रोत्साहन के लिए हर साल न्यूनतम समर्थन मूल्य का एलान किया करती है और मानना चाहिए कि किसान रवी की खेती की तैयारी करें, उसके पहले गेहूं व सरसों समेत दालों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की सरकार ने घोषणा की है। लेकिन सरकार ने गेहूं और सरसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य महज 20 रूपए बढ़ाकर ऊंट के मुंह में जीरा वाली कहावत को चरितार्थ कर दिया है। खेती के साल-दर-साल बढ़ते खर्च के आगे न्यूनतम समर्थन मूल्य की यह बढ़त किसानों के जले पर नमक छिड़कने वाली है और उपज के लिए प्रोत्साहित करने के बजाय यह किसानों को हतोत्साहित ही करेगी। क्या सरकार ने गेहूं का समर्थन मूल्य इसलिए मामूली तौर पर बढ़ाया है कि उसके गोदामों में गेहूं रखने की जगह नहीं है और पहले से जो स्टाक पड़ा हुआ है, वह सड़कर सरकार की भदूद पिटवा चुका है? कितना शर्मनाक है कि एक तरफ देश में भुखमरी व कुपोषण का रोना है और दूसरी ओर सरकार किसानों को प्रोत्साहित करने के बजाय हतोत्साहित करने पर आमादा है। गौरतलब है कि प्रति क्विंटल 1. 8 प्रतिशत की मामूली बढ़ोतरी के साथ गेहूं का समर्थन मूल्य जहां सरकार ने 1120 रूपए प्रति क्विंटल किए हंै, वहीं उसने केंद्रीय कर्मचारियों के वेतन में औसतन दस प्रतिशत की बढ़ोतरी की थी। यानी खरीदने वालों की जेब भारी हो, भले ही किसानों का हाल ठन ठन गोपाल हो। देश में चूंकि दालों का उत्पादन जरूरत भर नहीं हो पाता, इसलिए दालों के उत्पादन को प्रोत्साहन देने के मकसद से सरकार ने मसूर और चने की दालों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 380 रूपए प्रति क्विंटल तक की बढ़ोतरी की है। न्यूनतम समर्थन मूल्य वह कीमत होती है, जो सरकार किसानों से उनकी उपज खरीदने के लिए भुगतान करती है। लेकिन सरकारी खरीद के लिए भी क्रय केंद्रों पर किसानों को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, यह बेचारा किसान ही जानता है। उसे अपनी उपज बेचने के एवज में जो चेक मिलते हैं, वे भी कई बार महीनों बाद कमीशन ले-देकर भुनाए जा पाते हैं। ऐसी लचर और धांधली पूर्ण व्यवस्था में गेहूं और सरसों के समर्थन मूल्य में महज पौने दो फीसदी प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी वाकई जले पर नमक छिड़कने वाली ही कही जाएगी। जहां तक दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन का मामला है तो अपेक्षाकृत कुछ बेहतर समर्थन मूल्य जरूर घोषित किए गए हैं, लेकिन एक तो दालों वाली फसलें समान रूप से हर जगह पैदा नहीं हो पातीं, दूसरे कई बार इनका उत्पादन प्रतिकूल मौसम की मार का शिकार होकर किसानों की कमर तोड़ देता है। मसूर दाल का समर्थन मूल्य 380 रूपए और चने की दाल का 340 रूपए बढ़ाया गया है। सरकार ने इस साल दालों के उत्पादन को प्रोत्साहन देने और आयात पर निर्भरता घटाने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य में यह इजाफा किया है। असल में भारत दुनिया का सबसे बड़ा दाल उत्पादक देश तो है, फिर भी घरेलू मांग को पूरा करने के लिए सालाना 35 से 40 लाख टन दालों का आयात करना पड़ता है। तिलहन उत्पादों का भी समर्थन मूल्य कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की सिफारिशों के मदूदेनजर कुछ बढ़ा दिया गया है। लेकिन असल सवाल तो यह है कि जब सरकार और प्रधानमंत्री खुद कह चुके हैं कि देश को एक और हरित क्रांति की जरूरत है तो क्या उसकी जरूरतें इसी तरह के समर्थन मूल्यों के ऐलान से पूरी हो जाएंगी। सच्चाई तो यह है कि किसान हितैषी होने की बातें तो खूब दोहराई जाती हैं, लेकिन कृषि और किसान के समग्र विकास के लिए प्रभावी तौर पर सरकारें कुछ खास कर नहीं रही हैं- केंद्र हो या राज्य सरकारें।
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