अरविन्द चतुर्वेद
देश की राजधानी दिल्ली और उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में शहरी कायाकल्प को लेकर एक कश-म-कश देखी जा सकती है और कहना नहीं होगा कि नगर विकास की अंधाधुंध कार्रवाइयों के चलते दोनों जगह की सरकारें नागरिकों के निशाने पर हैं। दिल्ली में अवैध कॉलोनियों के नियमितीकरण को लेकर पक्ष-विपक्ष की राजनीति तो सरगर्म रहती ही है-मामले अदालत तक पहुंच जाते हैं। इसी तरह रिहायशी इलाकों में बड़े पैमाने पर जगहों के व्यावसायिक कारोबारी इस्तेमाल की शिकायत पर भी अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ा और काफी हीला-हवाली व ढीलेढालेपन के बावजूद ऐसी जगहें सील की गइं। ये तो खैर बीते प्रसंग हैं, लेकिन फिलहाल राष्ट्रीय राजधानी में आगामी राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी और तत्सम्बंधी निर्माण कायों को लेकर सरकार के पसीने छूट रहे हैं और सांस फूल रही है। उस दौरान आनेवाले मेहमानों, खिलाड़ियों और खेलसंघों के पदाधिकारियों को कहां ठहराया जाएगा, विभिन्न खेलों के आयोजन स्थल कहां-कैसे होंगे और ठहरने वाली जगह से तमाम देशों के खिलाड़ी अबाधित यातायात के जरिए कैसे खेल-स्थल पर पहुंचेंगे, आदि-आदि सवालों की गम्भीर चिंता में भारी-भरकम आबादी में ऊभचूभ करती दिल्ली के कर्ता-धर्ताओं की नींद हराम है।
यह उदाहरण सिर्फ इसलिए कि जिस तरह के केंद्रीकृत शहरी विकास की राह पर हम चल रहे हैं, ऐसी कितने ही किस्म की समस्याओं से आएदिन दो-चार होना पड़ता है। तो क्या हमारी यह नियति ही बन गई है और इसे झेलने-भोगने के लिए हम अभिशप्त हो चुके हैं? आखिर विकेंद्रीकरण के सपने और समेकित विकास का क्या हुआ? हकीकत यह है कि विकसित देशों के कुछेक शहरों मसलन टोकियो-न्यूयार्क आदि को छोड़ दिया जाए तो सर्वाधिक आबादी वाले दैत्याकार महानगर विकासशील और तीसरी दुनिया के देशों में ही हैं। मेक्सिको में मेक्सिको सिटी, शंघाई चीन में, कराची पाकिस्तान में और ढाका जैसा महानगर गरीब बांग्लादेश में है। जहां तक अपने देश भारत का सवाल है, तो दुनिया के तीन-तीन बड़े महानगर हमारे पास हैं- दिल्ली, कोलकाता और मुंबई। 2001 की जनगणना के मुताबिक दिल्ली की आबादी एक करोड़ 27 लाख 91 हजार 458 थी। इसका मतलब हुआ कि आबादी की जो रफ्तार है और लोगों को अपनी ओर खींचने के लिए हमारे महानगर जैसे चुम्बक बन गए हैं, उसके हिसाब से 2009 में दिल्ली की आबादी कम से कम एक करोड़ 35 या 37 लाख पर तो पहुंच ही रही होगी। इसी तरह मुंबई महानगर की आबादी 2001 की जनगणना के मुताबिक एक करोड़ 63 लाख 68 हजार 84 और कोलकाता की एक करोड़ 32 लाख 16 हजार 454 थी। जाहिर है कि बीते आठ सालों में इन महानगरों की जनसंख्या में लाख-दो लाख का इजाफा तो हुआ ही होगा। इसके अलावा चेन्नई है, जिसकी आबादी इस समय 65 लाख से ऊपर पहुंच रही है तो बंगलुरू तेजी से 60 लाख का आंकड़ा छू लेना चाहता है। अहमदाबाद की जनसंख्या 45 लाख से ऊपर पहुंच चुकी है तो हैदराबाद इससे भी दस कदम आगे है यानी 55 लाख से ज्यादा लोग शहर को आबाद किए हुए हैं। 20 लाख से ऊपर की आबादी वाले तो दर्जन भर शहर हैं, जिनमें कानपुर ,लखनऊ, जयपुर, नागपुर, पुणे, सूरत आदि का नाम शुमार है। यह जो तथाकथित विकास, समृद्धि और इक्कीसवीं सदी की आधुनिकता के जगमगाते टापू हैं, क्या एक अरब से ऊपर की आबादी वाले देश के समग्र विकास के प्रतीक और पैमाना हो सकते हैं? इस सवाल को जाने भी दीजिए तो खुद इन शहरों की आंतरिक दशा क्या है? उदाहरण के लिए देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ को ही लीजिए। यह सही है कि कोई भी शहर एकबारगी नहीं, बल्कि बनते-बनते बनता है और लखनऊ तो वैसे भी एक प्राचीन शहर है, जिसकी अपनी ही तरह की एक शानदार सांस्कृतिक परम्परा और जीवनशैली रही है। नवाब काल में फैजाबाद से बदलकर अवध की राजधानी बने लखनऊ को बाग-बगीचों और तालाबों से सजाया-संवारा गया था। गोमती के तट पर बसे शाम-ए-अवध के मुरीदों के इस शहर की शान को अंग्रेजों ने भी बनाए रखा और कोशिश की कि शहर की बनावट और चरित्र में बेवजह गैर-जरूरी छेड़छाड़ न की जाए। मगर आज हालत क्या है? 310 किलोमीटर के दायरे में पसरा आज का लखनऊ अपने भीतर की हरियाली को तो चाटता ही जा रहा है, सुरसा की तरह चौतरफा मुंह फाड़े अपनी परिधि के गांवों को भी निगलता चला जा रहा है। मुख्यमंत्री मायावती के मौजूदा निजाम में हजारों पेड़ काटकर शहर को चिलचिलाती धूप में झुलसने के लिए छोड़ दिया गया है। बस्तियां और गांव विस्तारवादी पाकों और गोमती नगर विस्तार जैसी योजनाओं की भेंट चढ़ा दिए गए। दिन पर दिन भूरे-गुलाबी-धूसर पत्थरों के जरिए दर्प से भरे सिर उठाए स्मारकों को देखिए तो लगता है किसी रेगिस्तानी शहर में आ गए हैं।
दूसरी ओर, टूटा-फूटा पुराना लखनऊ है, जिसकी गलियां गंदी, नालियां बजबजाती, यहां-वहां बिखरा कूड़ा-कचरा और सिर से दो हाथ ऊपर मकड़ी के जाले जैसा उलझे लटकते बिजली के तार। ध्वस्त सीवर सिस्टम और टूटी टोंटियों वाले लार टपकाते नलों के भरोसे लापरवाह-बेतरतीब जलापूर्ति। कुल मिलाकर शहर के भीतर ही दूसरा शहर। एक विकास और देखरेख को तरसता गुरबत का मारा पुराना लखनऊ तो दूसरा गरूर से भरा अपने ही नागरिकों को मुंह चिढ़ाता चमकता-दमकता नया शहर। कुल मिलाकर एक सौतेला विकास, जो राजधानी से लेकर गांवों-कस्बों तक फैला हुआ है। इस सौतेले विकास की मार देखने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं, कुछ ही किलोमीटर दूर चिनहट और बाराबंकी को देख लीजिए। 2001 की जनगणना के मुताबिक जिस लखनऊ की आबादी 22.07 लाख थी, उसके बढ़ने की रफ्तार के मदूदेनजर आज इसके 28 लाख होने का अनुमान किया जाता है और कहते हैं कि यही रफ्तार रही तो 2011 तक 32.26 लाख की आबादी लखनऊ में ऊभचूभ करती मिलेगी। सवाल यह है कि पर्यावरण की अनदेखी करके, हरियाली को उजाड़कर और नागरिकों का जीवन-यापन मुश्किल में डालकर जो सौतेला विकास किया जा रहा है, वह भविष्य में हमें कहां ले जाकर छोड़ेगा? इस तरह का विकास क्या जवाहर लाल नेहरू अरबन रिन्यूअल मिशन की दीर्घकालीन अरबों रूपए की महत्वाकांक्षी योजना की मूल भावना का उपहास नहीं उड़ा रहा है।
गांवों का विकास न होने और कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था को वांछित पर्याप्त मजबूती न मिलने के कारण गांवों से शहरों की ओर पलायन की रफ्तार थम नहीं पा रही है और शहरों की चुम्बक-शक्ति जस की तस बनी हुई है। नतीजा यह है कि शहर सुरसा-बदन की तरह फैलते जा रहे हैं, अपने ही क्लोन से डुप्लीकेट हो रहे हैं : दिल्ली-नई दिल्ली, कोलकाता-नया कोलकाता, मुंबई- नवी मुंबई, भोपाल-नया भोपाल वगैरह। इस सबके बावजूद आबादी का भार ये शहर कहां संभाल पा रहे हैं! दिन पर दिन इनका ढांचा चरमराता जा रहा है- टूटता जा रहा है। समेकित विकास को नजरअंदाज कर केंद्रीकरण की जिस राह पर चल रहे हैं, उसी का नतीजा है यह। यह तो भूल ही जाइए कि कभी किसी ने कहा था- भारत माता ग्राम वासिनी!
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