दरख्तों के दुश्मन परिंदों के दोस्त नहीं होते!

अरविन्द चतुर्वेद

लखनऊ के बाटेनिकल गार्डन में बरगद का एक विशाल पेड़ है- दो सौ साल पुराना। वह लखनऊ की हरियाली और छांव का बुजुर्ग पुरखा है और बागो-बहार का संगी-साथी और गवाह। बरगद के इस पुराने पेड़ ने जमाने देखे हैं। इसने हुकूमत की हेकड़ी भी देखी है और यह भी देखा है कि कैसे ताजो-तख्त बदल जाया करते हैं। लोहिया पार्क की मनमोहक हरियाली का जब सृजन हुआ था तो राजधानी वासियों सहित इस बुजुर्ग बरगद को भी प्रसन्नता हुई होगी कि चलो, अपना कुनबा बढ़ रहा है। लेकिन, फिलहाल तो यह बुजुर्ग दरख्त देख रहा है कि उसके आगे जन्मे लखनऊ की आबोहवा में झूम-झूमकर बड़े हुए न जाने कितने पेड़ मौजूदा निजाम के सनकी सौंदर्यीकरण के आगे काल कवलित हो गए। नामधारी सुरसा मैदानों, उनकी चहारदीवारियों, पाकों-स्मारकों और उन तक पहुंचने वाली सड़कों के विस्तारवादी विकासी जुनून के चलते देखते ही देखते सैकड़ों-हजारों हरेभरे पेड़ कुल्हाड़ियों और आरे की भेंट चढ़ गए।
हद है कि बहुमत वाली मौजूदा मायावती सरकार प्रदेश की राजधानी लखनऊ को जो शक्लो-सूरत देने में लगी है, उसके सामने सबसे बड़े दुश्मन शहर के दरख्त ही बन गए हैं। लखनऊ की ऐतिहासिक जेल को ध्वस्त करके आजादी के इतिहास के कई पन्नों का पटाक्षेप करने की कोशिश से जुड़ा सवाल तो खैर अपनी जगह है, मगर इस कारगुजारी में हरियाली और पर्यावरण को भी खामियाजा भुगतना पड़ा है। अब दरख्तों के दुर्दिन का नया दौर जेल के पीछे बनी सड़क के एक किनारे आरसीसी की दीवार खड़ी करने की कार्रवाई में दिखाई दे रहा है। जेल के पीछे आबाद कैलाशपुरी, गीतापल्ली जैसी बस्तियों और आसपास के इलाकों के नागरिकों के बीच यह सवाल घूम रहा है कि सैकड़ों हरेभरे पेड़ काटे बिना तो दीवार खड़ी नहीं की जा सकती। तो क्या इस सरकारी दीवार की राह रोके आगे खड़े दरख्तों को बलिदान देना पड़ेगा? हरेभरे पेड़ सरकार को दीवार के आगे प्रश्नचिन्ह जैसे भले न लगें लेकिन एक स्थानीय अधिवक्ता ने हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ में जनहित याचिका के जरिए इन दरख्तों का सवाल उठाया। ये हरे पेड़ सरकारी दीवार के जवाब के मुकाबले ज्यादा बडे. सवाल नजर आए, सो हाईकोर्ट ने इनके काटे जाने पर रोक लगा दी। इसके बावजूद खबर यह है कि वन विभाग के अधिकारियों ने जेल हाउस और ग्रीन बेल्ट की जमीन पर खड़े तमाम हरे पेड़ काट डाले। उलटबांसी शायद इसे ही कहते हैं- यानी सरकार का हुक्म हो तो वन विभाग का काम हरियाली की हिफाजत के बजाय उसका कत्ल करना भी हो सकता है। अब चक्कर यह है कि प्रस्तावित कांशीराम ग्रीन गार्डन की चहारदीवारी बनाने के लिए जेल हाउस तिराहे से कैलाशपुरी जानेवाली सड़क पर नींव की खुदाई शुरू हुई है। इस नींव की सीध में अागे पेड़ खड़े हैं। इन पेड़ों के काटे बगैर नाक की सीध में न नींव खुद सकती है और न नाक की सीध में चहारदीवारी खड़ी हो सकती है। लेकिन सभी जानते हैं कि हाईकोर्ट ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट में भी कोई मामला भले ही विचाराधीन हो, मौजूदा बसपा सरकार जिस चीज को नाक का सवाल बना लेती है, उसके लिए नियम-कानून एक किनारे रख देती है-भले ही अदालतों से फटकार मिले या मुंह की खानी पड़े।
यह जो हरियाली उजाड़ विकास और सौंदर्यीकरण है, इसने तो कालीदास की बेवकूफी के उस किस्से को भी फीका कर दिया है कि वे जिस डाली पर बैठे थे, उसी को काटने में लगे थे। राजधानी लखनऊ में जिस तरह हरियाली का चीरहरण हो रहा है, वह सचमुच लज्जा की बात है। कहां हम प्रकृतिपूजकों की संस्कृति रही है कि वृक्ष को देवता मानते हैं, उसे रोज नहाकर जल चढ़ाते हैं और साल में एकबार परिक्रमा करके रक्षासूत्र बांधते हैं, और कहां अपनी ही आंखों के सामने उनका कत्ल होते देखना पड़ता है!
वृक्षों के प्रति पुरखों का दिया यह पूज्यभाव वाला संस्कार यों ही नहीं है। असल में आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी हिसाब लगाकर यह बताया है कि पचास साल तक जीनेवाला एक पेड़ अपने जीवनकाल में 31 हजार 250 अमेरिकी डालर का ऑक्सीजन देता है, जो इतना प्रदूषण नियंत्रित करता है कि अगर यही काम आदमी को करना पड़े तो 62 हजार अमेरिकी डालर खर्च हो जाएं। इसी तरह मिटूटी का क्षरण रोककर उसे उपजाऊ बनाने, जल के पुनर्चक्रीकरण जीवों को आश्रय देने और उनका सम्बल बनने सहित कुल मिलाकर एक पेड़ पचास साल के जीवनकाल में भारतीय रूपए में कुल मिलाकर कम से कम 78 लाख 50 हजार रूपए का लाभ हमें पहुंचाता है। लेकिन जिन्होंने दरख्तों से दुश्मनी ठानी है, उनकी समझ में आए तब तो! याद रखिएगा, दरख्तों के दुश्मन परिंदों के दोस्त नहीं होते!
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