बसंत वियोग

अरविन्द चतुर्वेद
यही क्या कम है कि उम्र के पचास पार बसंत में बनारस में बैठे-बैठे मन कर्मनाशा के वनों में भटक रहा है. वर्ना शहर में क्या छतों के गमलों में बौने बसंत को उतरते देख मन की कचोट दूर होगी ? कहते हैं कि ऋतुराज है - ऋतुओं का राजा, लेकिन हाय कितना वैभव-विपन्न हो गया है बसंत ! उसकी पीताभ ध्वजा आज धूल धूसरित है. किसे फुर्सत है कि रोजमर्रा की आपाधापी में देखे, गुल से निकलता है गुलाब आहिस्ता - आहिस्ता ! कैसे धीरे-से आमों में बौर निकलने लगे हैं और महुआ-पाकड़ के झंखाड़ वृक्षों के नीचे सूखे पत्तों का चरमर अम्बार लग गया है. वृक्षों की अपत्र हुई डालियों में नव पल्लव किसलय निकल रहे हैं. ठीक है कि खेतों में सरसों के फूलों की पीली चादर बसंती हवा में सरसरा रही है और रह-रहकर धरती के बदन में सिहरन जगा रही है. लेकिन यह सब तो शहर के बाहर है.
शहर में बसंत-बहार है, लेकिन वह मिठाई की दूकान है. वहां न हरियाली है, न फूल हैं. चौराहा है, गाड़ियों का धुंआ है और सड़क पर उड़ती धूल है. देखिये कि थोड़ा-सा बसंत दबे पावँ क्वींस कालेज के परिसर में खड़े ऊंचे-ऊंचे वृक्षों की फुनगियों पर कैसा ठिठका हुआ है. कशी हिन्दू विश्व विद्यालय का मधुर मनोहर परिसर इसलिए भी अतीव सुन्दर लगता है कि वहां बसंत की दुन्दुभी बजती है, हरियाली झंकृत होती है, नव पल्लव किसलय प्रफुल्लित हैं, आमों की मंजरियाँ दिखती हैं. गुलमोहर और अमलतास में होड़ लगती है, इसलिए रह-रहकर मन के तार भी छेड़ती है बसंती हवा. थोड़ा-सा बसंत काशी विद्यापीठ और संपूर्णानंद संस्कृत विश्व विद्यालय के अहाते में खड़े वृक्षों, फूलों, गुल्मों को अपने बचे-खुचे वैभव से धन्य किये दे रहा है. बाकी तो पूरा शहर इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर हरियाली और छाया से महरूम है.
घर हैं कि इलेक्ट्रानिक जंगल हो गए हैं. बसंती हवा इलेक्ट्रानिक जंगल की हृत्तंत्री को झंकृत नहीं कर सकती. दरअसल, हमने जैसा सलूक बसंत के साथ किया है, वैसा ही सलूक बसंत भी हमारे साथ कर रहा है. अब कहिये टीवी चैनलों से कि बसंत ले आयें और हमारे परिवेश और जीवन में उतार दें !
कभी प्रकृति हमारी सहचरी थी, लेकिन विकास का ऐसा ढांचा हमने अपना लिया है कि दिन-ब-दिन, साल-दर-साल प्रकृति का दामन हमसे छूटता जा रहा है. यह ऐसा नंगा विकास है, जो धूप में झुलस रहा है. इसे शीतल छावं मयस्सर नहीं. पेट्रोल और डीजल के धुंए से इसका दम फूल रहा है. बसंत के फूलों की मादक सुरभि अंगड़ाई पैदा कर दे, इसके नसीब में नहीं. यह इतना खुदगर्ज है कि प्रकृति और पर्यावरण की चिंता वन विभाग और बागवानी विभाग के हवाले कर बाज़ार में मुनाफे का गुणा-गणित हल करने में मुब्तिला है. क्या पता, बाज़ार के खिलाड़ी बसंत की भी मार्केटिंग योजना पर काम कर रहे हों ! सो, जहां इस विकास या बाज़ार की पहुँच कम है, वहां प्रकृति ज्यादा बची हुई है और इसीलिए वहां बसंत के आगमन का एहसास अभी भी ज्यादा गहरा और घना है. बनारस से ज्यादा बसंत सारनाथ में है. चंदौली और सोनभद्र के वनों में बसंत का उत्तरीय फहरा रहा है.
कवि रघुवीर सहाय की पचास साल पुरानी एक छोटी-सी कविता बेसाख्ता याद आ रही है -
वही आदर्श मौसम और मन में कुछ टूटता-सा :
अनुभव से जानता हूँ कि यह बसंत है!   
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