अरविंद चतुर्वेद
देश के पुलिस प्रशासन और सुरक्षा बलों में वांछित गुणात्मक बदलाव के लिए देशभर के पुलिस प्रमुखों के सम्मेलन में गृह मंत्री पी चिदंबरम ने जैसी तीखी टिप्पणी की और पुलिस मुखियाओं से जैसे सवाल किए, उन पर अगर किसी ने जवाब देने के बजाय सिर झुकाकर चुप्पी साध ली तो इससे हमारे पुलिस तंत्र की वास्तविकता का पता ही चलता है। वैसे भी पुलिस तंत्र के कामकाज का ढंग-ढरर सबको मालूम है। सबकुछ खुला खेल फर्रूखाबादी है। चिदंबरम ने कोई नया रहस्योदूघाटन तो किया नहीं- यही न कहा कि पुलिस अफसर राज्य सरकारों के लिए फुटबाल बन गए हैं और पूछा कि अपने दिल में झांक कर जवाब दीजिए कि एक एसपी अथवा थानेदार की एक जगह तैनाती की औसत अवधि क्या होनी चाहिए? अटपटे-से लगने वाले इस सवाल पर पुलिस प्रमुखों को गालिब का शेर याद आया होगा- हम भी मुंह में जबान रखते हैं, काश पूछो कि मुदूदआ क्या है!
आखिर क्या करें बेचारे पुलिस प्रमुख? अपने उत्तर प्रदेश का उदाहरण लीजिए तो पाएंगे कि जब अपने इलाके के थानेदार से खुद मंत्री जी या सत्तारूढ़ दल के एमएलए-एमपी च्डील’ करते हैं तो बेचारे पुलिस प्रमुख क्या कर सकते हैं? एसपी का हाल यह है कि अगर किसी थानेदार को बदलना चाहे तो वह दनदनाता हुआ अपने ऊपर वाले सरकारी आका के पास पहुंच कर कप्तान साहब को उनकी औकात बता देता है। कमाऊ थानों की बोली लगती है। थाने वसूली के अडूडे बन गए हैं- नीचे से ऊपर की ओर उल्टी गंगा बह रही है। फिर कहां से बढ़ेगा पुलिस का मनोबल। वह बेचारी घुटना-टेक बनी हुई है। कभी सरकारी पार्टी की रैली में भीड़ जुटाने के पवित्र काम में उसे लगा दिया जाता है तो कभी जन्मदिन के चंदा उगाही में उसे अपने पराक्रम की परीक्षा देनी पड़ती है। हाल-फिलहाल के दौर में तो यही देखने में आया है। जब राज्य के पुलिस प्रमुख मुख्यमंत्री की जन्मदिन-पार्टी में उन्हें केक का टुकड़ा खिलाते हुए बड़े मुदित भाव से फोटो खिंचवाते हों तो आखिर उनके मातहत कैसी प्रेरणा ले सकते हैं?
निचले स्तर के पुलिस कर्मियों का चेहरा कुछ ज्यादा ही दयनीय नजर आता है। बेचारे साहब के बज्जे को स्कूल लाने-ले जाने से लेकर उनका कुत्ता टहलाने और घर में साग-सब्जियां पहुंचाने तक क्या-कुछ नहीं करते। ऊपर से बात-बात पर झिड़कियां खाने से उनका मिजाज इतना चिड़चिड़ा हो चुका होता है कि उनकी सारी झल्लाहट आम आदमी पर निकलती रहती है। बेचारे होमगाडों की तो पूछिए मत- उनकी हालत पुलिस महकमे के बंधुआ मजदूर सरीखी है, दिहाड़ी मजदूर तो वे हैं ही। डKूटी पाने के लिए उन्हें क्या-कुछ नहीं करना पड़ता! हमारी पुलिस के हाथ में जो डंडा है, उसे अंग्रेजों के जमाने से उन्होंने पकड़ रखा है और पुलिस जवानों के कंधे से जो बंदूक लटकी रहती है, वह भी एक प्रकार का डंडा ही है क्योंकि उसे देखकर तो नहीं लगता कि उसकी सर्विसिंग भी कभी होती है। क्या पता, जरूरत पड़ने पर वह चल भी सकती है या नहीं? ऐसी पुलिस जनता का कितना मित्र हो सकती है, किसी कमजोर की कितनी रक्षा कर सकती है, जो भीड़ में या बाजार की चहल-पहल के दौरान किसी किनारे उसी तरह खड़ी रहती है जैसे फसल की रखवाली के लिए कोई किसान खेत की मेड़ पर बिजूका खड़ा कर देता है।
आजादी के 62 साल बाद भी हमारी पुलिस दोहरे स्तर पर अंग्रेजों के जमाने वाला चरित्र व स्वभाव लेकर चल रही है। पुलिस अफसरों में सामंती ऐंठ मौजूद है और वे खुद मुख्तार बने हुए हैं तो निचले स्तर के पुलिस कर्मी सोचते हैं कि च्रियाया’ को डंडे के बल पर हांका जा सकता है। आखिर आज भी गुनाह कबूल कराने के लिए थानों में उत्पीड़न करने वाली थर्ड डिग्री किस चीज की निशानी है? क्या हमारी पुलिस पर नागरिकों के मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों की फेहरिस्त हनुमान की पूंछ की तरह दिन-प्रतिदिन बढ़ती नहीं गई है?
इसलिए जब हमारे प्रधानमंत्री पुलिस प्रमुखों के सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए संसाधन, प्रशिक्षण और तकनीक की बदौलत पुलिस ढांचे को आधुनिक बनाए जाने की जरूरत पर जोर देते हैं और भारतीय पुलिस का भी वैसा ही चेहरा देखना चाहते हैं, जैसा कि विकसित देशों की पुलिस का है तो इसके लिए पहली जरूरत तो यही है कि पुलिस के कंधे पर लदी बेताल के शव जैसी अंग्रेजी मानसिकता उतार फेंकी जाए। पुलिस तंत्र को इस तरह प्रशिक्षण और काम करने का माहौल दिया जाए कि वह महसूस कर सके कि वह सत्ता-सरकार चलाने वालों का जर-खरीद चाकर नहीं, बल्कि आजाद व लोकतांत्रिक मुल्क के नागरिकों व कानून व्यवस्था की हिफाजत करने के लिए है। साथ ही पुलिस हाई-टेक हो, यह तो जरूरी है ही।
2 comments: on "घुटना टेक रहकर कैसे होंगे हाई टेक"
bahut hi sundar likha hai apne
nice
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