अरविन्द चतुर्वेद :
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आसपास के बारह गांवों का सरगना कहा जाता है, यह गांव। सरगना, केवल इसलिए कि अंगरेज कलक्टर उल्ढन साहेब ने इसी गांव के लोगों के साथ कर्मनाशा के जंगल में शिकार खेलना पसंद किया था। सरगना, केवल इसलिए कि नलराजा के मेले में इस गांव के पहलवानों ने पूरे जसौली परगना और बाकी ग्यारह गांवों के पहलवानों को धूल चटाई थी।
एक जमाने तक इस गांव के पंडित लोग विद्या-विरहित थे, क्योंकि पढ़ना-लिखना इस गांव में सहता नहीं था-
" अशगुन" था। और, जब बाद में इधर-उधर स्कूल खुले और गांव के लड़के "पटरी-बोरिका" के साथ रवाना हुए तो कई बातें हुइं। नम्बर एक, ददई सुकुल इस्कूल न जाकर बीच में ही मोटी मेड़ के किनारे झरबेरियों की झाड़ के ओट में विश्राम-लाभ करने लगे। नम्बर दो, बिसेस्सर चौबे ने कर्मनाशा के किनारे महुआ (के फूल) बीनने में गणित का ज्ञान बढ़ाना बेहतर समझा। नम्बर तीन, काशी चौबे पर हेड मास्टर की बेंत का ऐसा असर पड़ा कि दूसरे ही दिन स्कूल न जाकर कर्मनाशा के जंगल में अपना गुस्सा कुल्हाड़ी के साथ लकड़ियों पर उतारने लगे। नम्बर चार, शिवनाथ को "सूरज निकला, चिड़ियां बोलीं..." मजाक करने जैसा लगा और उन्होंने सूरज निकलते ही भैंस चराने का काम संभाल लिया। बाकी बचे गेना चौबे। वे कोलकाता चले गए और पांच साल बाद जब गांव लौटे तो अजब रंग में, अजब वेश में नजर आए। कोलकाता में चूड़ीदार पाजामा पहनने की प्रेरणा उन्हें कहां से मिली और किसने दी, यह तो नहीं पता, लेकिन अब उनका भी मन न जाने क्यों कोलकाता से उचट गया था और जुबान पर कोलकाता का नाम केवल कहानी-किस्सों के लिए रह गया।
तो भाइयो! जमाना तो रूकेगा नहीं। बैलगाड़ी पर लदी नींद भी जब खुलती है तो आप अपने को ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर पाते हैं। नहीं तो, सामने से कोई जीप के अंदर से हार्न बजाता, चेहरे पर गुस्सा टांगे, होठों पर गालियां उछालते, काले चश्मे वाला चेहरा झांकता नजर आता है। तब आप क्या करते हैं? आंखें मलते हुए बैल की पीठ पर सड़ासड़, और नींद खुल जाती है। जमाने की चाल है, भई! नींद हड़बड़ी में ही खुलेगी, और, जो खुलेगी तो फिर कभी आने का नाम न लेगी।
गेना चौबे की नींद खुल गई थी। हार्न की आवाज से जो नींद खुली तो सामने जीप देखकर उनकी जान ही सूख गई। मगर, जीप ब्लाक आफिस की नहीं है, यह देखकर अप्रत्याशित डर की ही तरह उन्हें अप्रत्याशित खुशी हुई। जीप सररहट के साथ गुजर गई थी। अब उन्होंने बैलों को पुचकारा और जमाने को एक भदूदी गाली देते हुए जम्हाई ली, देह तोड़कर चौकस हो गए। गाड़ी जरा तेज की। बैल अब तेज चलने लगे। रेलवे स्टेशन नजर आ रहा था। राजा साहेब का च्सलीमाहाल’ दूर से ही चमक रहा था। मंजिल करीब आ गई थी। "सुकउआ" (शुक्र तारा) उगते ही, वे गांव से रापटगंज के लिए चल दिए थे। उनके हिसाब से अगर ग्यारह-बारह बजे तक महुआ बिक गया तो वे शाम सात-आठ बजे तक गांव वापस पहुंच जाएंगे।
गेना चौबे के मन में अब थोड़ी हलचल हुई और वे गोला में जल्दी महुआ बिक जाने के बारे में सोचने लगे। गोले का दलाल कम से कम दो रूपए तो लेगा ही। नहीं तो, साला टरका देगा। और, ऐसा करने से ऐसा भी हो सकता है कि आज महुआ न बिके। यहां रात भर रूकना बेकार होगा। खाने-पीने में खर्च लगेगा और बैलों के सानी-भूसा की अलग परेशानी होगी। सो, हर हालत में दलाल को खुश करना ही होगा। वैसे भी दलाल जानता तो है, मगर रूपए पाने के बाद ही आदमी को पहचानता है।
गेना चौबे सोचते हैं- शंकर सेठ के बारे में। अभी दस साल पहले शंकर के पास कुछ नहीं था। मगर, उसने खूब ब्योपार किया। अब तो वह सबसे ज्यादा चंदा देता है- मंदिर में, धरम-किर्तन में, नाच मंडली में, साहब-सुबहा को और नेता लोगों को। शंकर सेठ पूरा सेठ है। गेना चौबे के दिमाग में यह बात नहीं समझ में आई कि सेठ खुद तो पुराना जनसंघी है, मगर कांगरेस वालों की आवभगत भी उसके यहां कुछ कम नहीं है। सोशलिस्ट वाले भी पर्चा छपाने और मीटिंग करने का, माइक वगैरह का खर्च शंकर सेठ से ही लेते हैं। राजनीति भी साली भांड़-मंडली से कम नहीं। कोई भी सरकार हो, उनको लगता है शंकर सेठ, शंकर सेठ ही रहेगा।
गेना चौबे को अपने पर ही गुस्सा आ गया। वे रह-रहकर बेकार में बहक जाते हैं। आए हैं महुआ बेचने और लगे देस-दुनिया की पड़ताल करने। अब वे बाजार में आ गए थे। सोचना बंद किया और गाड़ी को मुस्तैदी से सड़क की बायीं बगल में कर लिया।
गोले में पहुंच कर उन्होंने देखा कि बहोरनपुर के पंडित पुरूषोत्तम तिवारी का दो ट्रैक्टर गल्ला आया है और ट्रैक्टरों की ट्राली के पास गोले के सारे पल्लेदार जमा हैं। तिवारी जी सेठ के बराबर में गदूदी पर बैठे हैं। अभी-अभी दौड़कर सेठ का नौकर उनके लिए पान लाया है। गेना चौबे ने उदासीन नजर से उनकी ओर देखा। फिर, खुद ही बैलों के कंधे से गाड़ी का जुआ उतारा। यह जानकर भी कि पहले तिवारी जी का माल बिकेगा, वे दलाल की ओर बढ़ गए। दलाल फटकार भी दे तो उन्हें ग्लानि नहीं होगी। बाहर में शर्म और ग्लानि पर विजय उन्होंने कलकत्ते में ही सीख ली थी। गांव के पटूटीदारों के बीच जरूर वे हल्का नहीं साबित होना चाहते।
आज की साइत अच्छी थी कि दलाल के सामने उन्हें ज्यादा चिरौरी नहीं करनी पड़ी। तीन रूपए पाकर उसने चार पल्लेदारों से गाड़ी पर लदा महुआ उतरवा दिया। तीन रूपए गोले का खर्च कट गया। इस तरह पचास रूपए का महुआ चालीस रूपए में बेचकर वे थोड़ा नून-तेल और सौदा-सुलुफ के बाद गांव के लिए चल दिए। जेब में बाकी कुल बीस रूपए रह गए।
बाजार बाहर आकर गेना चौबे थोड़ा निश्चिंत हुए। एक बज रहा होगा, मगर धूप नहीं है। मौसम अच्छा है। आसमान में बादलों के उड़ते हुए टुकड़े यहां-वहां बिखरे हुए हैं, मगर उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया। अच्छी बात लगी तो केवल यही कि जैसे भी हो, धूप नहीं लग रही है। अब उनके मन में थोड़ा-सा डर केवल रामगढ़ पहुंचने में है। दो जगहें बचाकर उन्हें निकल जाना है- एक तो ब्लॉक ऑफिस और दूसरी त्रिलोकी कपड़ा भंडार। दो महीने पहले उन्होंने एक धोती, गंजी और लड़कों के लिए कमीज का कपड़ा लिया था। दस-पांच दिनों के लिए तो लेन-देन चलती है, मगर अभी तक जुगाड़ बैठ नहीं सका था। सेठ के पंद्रह रूपए बाकी रह गए हैं। फिर भी कोई बड़ी बात नहीं। असल में उन्हें डर है तो ब्लॉक ऑफिस का। अब वे सोचते हैं कि सोसायटी से रूपए लेकर उन्होंने बहुत बड़ी गलती की। भैंस का दूध बेचकर देते-देते, तो भी, बारह सौ रूपयों में सूद-बाकी लेकर अभी भी चार सौ देने रह गए हैं। इस बीच तीन बार तो तलबी हो चुकी। दो बार घर के पिछवाड़े से खिसक गए और कहलवा दिया कि घर पर नहीं हैं। मगर, तीसरी बार सामना हो ही गया था। सोचने पर अब भी उन्हें ग्लानि होती है, मन बेचैन हो उठता है।
गांव के बीचोबीच कुएं के सामने मचिया पर ब्लॉक का साहेब, उसका सहायक, दो सिपाही और सभापति बैठे थे। बार-बार भागते-फिरते पांचवीं बार जोखू और इंद्रपाल पकड़ में आ ही गए। वे लोग सिर झुकाए बैठे थे। साहब उन्हीं का इंतजार कर रहा था। सोसायटी वालों के आने का उन्हें पहले से पता नहीं चल सका। जैसे ही राम प्रकाश के पिछवाड़े की गली से वे सामने आए कि साहब ने उन्हें देख लिया। उनका जी धकू से कर गया। चेहरे का रंग फीका पड़ गया। एक बार तो उनके मन में आया कि पीछे मुड़कर दौड़ जाएं। मगर ऐसा न हो सका और साहब तपाक से बोल उठा- "आइए, आइए चौबे जी! आपका ही इंतजार है।"
वही जानते हैं कि भारी ग्लानि और भय से उनके मन की पूरी सांसत हो गई थी। उन्होंने मुस्कराने की भरपूर कोशिश की, लेकिन ठीक से वे मुस्करा नहीं सके। तो भी, उन्होंने झूठ-मूठ में कह दिया था कि दोपहर में ही नौडीहा चले गए थे और तब के गए-गए अभी लौटे हैं। यह घटना अपने पूरे विस्तार में उनकी आंखों के सामने उनके मन में तरतीब से है।
गेना चौबे, उस समय केवल साहब को और उससे भी ज्यादा अपने आप को देखते रहे। उन्होंने कहा- "आपने बेकार कष्ट किया। मैं तो खुद ही कल आने वाला था।" उन्होंने देखा कि साहब की आंखों में उनकी बात का रत्ती भर विश्वास नहीं है। उन्होंने फिर कहा- "अच्छा, मैं अभी घर से पैसे लेकर आता हूं। आज ही रसीद कटवा लेता हूं।" उन्हें तब और भी अपमानजनक स्थिति लगी, जब साहब ने अविश्वास पूर्वक कहा- "देर मत कीजिएगा" और साथ ही सिपाही भी भेज दिया।
उस समय घर के सभी प्राणी घनघोर आशंका में डूबे हुए थे। सबके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं। घर में घुसते ही, उन्होंने समय जाया करना बेकार समझा और पिछवाड़े के रास्ते से दक्खिन तरफ वाले ताल की ओर तेजी से दौड़ते हुए भाग चले। घर का पिछवाड़ा पूरा सुरक्षित था। जनानखाना होने और घर में नई बहू तथा जवान लड़की होने के कारण सिपाही उधर नहीं जा सकता था। उनके भागने के बाद उनकी पत्नी को जरूर थोड़ा-बहुत अपमान सहना पड़ा था। मगर ब्लॉक में च्बंद’ होने से वे साफ-साफ बच गए थे। डर-हदस, अपमान और ग्लानि के मारे, बारह बजे रात से पहले वे घर नहीं लौटे थे। और, लौटे भी तो पिछवाड़े के रास्ते से ही।
गेना चौबे ने सोचा, यह खतरे का दिन कभी भी आ सकता है। रामगढ़ करीब आ गया था। धीरे-धीरे शाम का अंधेरा भी गहराता जा रहा था, मगर तब भी उनके मन में ढांढ़स नहीं बंध पा रहा था। जैसे-जैसे रामगढ़ बाजार करीब आता गया, उनके भीतर का बवंडर तेज होता गया। उन्होंने निर्णय लिया कि अगर आज ब्लॉक ऑफिस पार कर गए तो भैंस जरूर शिवजतन यादव के हाथ बेचकर ब्लॉक से निजात पा लेंगे।
रामगढ़ आ गया। उनकी धौंकनी तेजी से चलने लगी। धुंधलके में ब्लॉक ऑफिस के बरांडे में बिजली का लटूटू चमक रहा है। गेना चौबे को आज शायद रातभर नींद न आए।
1 comments: on "बैलगाड़ी पर लदी नींद"
very nice sir
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