अरविन्द चतुर्वेद
उत्तर प्रदेश में नोएडा-आगरा एक्सप्रेस वे के 168 किलोमीटर की लम्बाई में उसके लिए अधिग्रहीत की जानेवाली इर्दगिर्द की जमीन और उस जमीन के लिए किसानों को दिए जानेवाले मुआवजे को लेकर इस पूरे दायरे में सभी राजनीतिक दलों की सियासत तेज हो गई है। राजनीतिक दलों की प्रतिस्पद्धा और प्रतियोगिता ऐसी कि कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता। सभी चाहते हैं कि वही किसानों के असली हमदर्द दिखें। अबकी बार चूंकि प्रदेश में सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी के हाथ जले हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से उसे दबाव में रखकर सभी कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। जबकि असलियत यह है कि देशभर में विकास योजनाओं की दुहाई देकर उद्योग-धंधे और दूसरे निर्माण कायों के लिए विभिन्न दलों की राज्य सरकारें किसानों-आदिवासियों की जमीनें अधिगृहीत करती आ रही हैं। अभी लोगों को पिछले बरसों में पश्चिम बंगाल के सिंगूर और नंदीग्राम में किसानों की जमीन के अधिग्रहण और उग्र आंदोलनों के बाद जमीन वापसी और टाटा की विदाई की घटना भूली नहीं होगी। उड़ीसा में तो भूमि अधिग्रहण के खिलाफ लगातार आंदोलन ही चल रहा है और वहां की सरकार कान में रूई डालकर बैठी हुई है। फिर उड़ीसा ही क्यों, कांग्रेस और भाजपा शासित राज्यों में भी किसानों की जमीनें औने-पौने मुआवजे पर अधिगृहीत की गई हैं और स्थानीय लोगों की मांगों की खूब अनदेखी हुई है।
अगर तुलना ही की जाए तो यूपी सरकार ने हठधर्मिता के बजाय किसानों की मांगों के अनुरूप न सिर्फ तत्परता दिखाई है, बल्कि दोषी अधिकारियों पर कार्रवाई करते हुए प्रदर्शनकारी किसानों का गुस्सा शांत करने की कोशिश भी की है। इसलिए आज जरूरत इस बात की है कि भूमि अधिग्रहण और मुआवजे के मसले को हल करने के लिए समस्या की जड़ों को देखा जाए, न कि टहनियां और पत्ते गिने जाएं। अपने आप में इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि आजादी के 63 साल बाद भी जमीन अधिग्रहण के मामले में अंग्रेजी राज में 1894 में बना भूमि अध्याप्ति अधिनियम लागू है। जाहिर है कि ऐसी सूरत में देश के विभिन्न राज्यों में सत्तारूढ़ दलों की सरकारें अपने-अपने ढंग से जमीनों का अधिग्रहण करती आ रही हैं। यूपी ही नहीं दूसरे राज्यों में भी अलग-अलग काम के लिए अलग-अलग जगहों पर अधिगृहीत जमीन के मुआवजे अलग-अलग रेट पर दिए गए हैं। इस मामले में कोई भी सत्तारूढ़ दल पाक साफ नहीं कहा जा सकता।यूपी के ताजा किसान आंदोलन के बाद राज्य सरकार ने हठधर्मिता के बजाय ऐसे विवादों को सुलझाने के लिए जिला, मंडल और राज्य स्तर पर कमेटियां गठित करने की घोषणा की है। मुख्यमंत्री मायावती ने किसानों की भूमि के अधिग्रहण को लेकर आए दिन हो रहे विवादों व खून खराबे के लिए अगर केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहराया है तो इसे महज आरोप कहकर झुठलाया नहीं जा सकता। उनका यह कहना कतई गलत नहीं है कि बदलते परिवेश में केंद्र सरकार को चाहिए था कि वह भूमि अध्याप्ति अधिनियम में ऐसे संशोधन करती, जिससे किसानों का हित सुरक्षित होता और सार्वजनिक उदूदेश्यों के लिए भूमि अधिग्रहण की आवश्यकताओं की पूíत भी होती। अब केंद्र सरकार ने कहा है कि भूमि अधिग्रहण पर जल्दी ही वह एक व्यापक विधेयक लाएगी। चलिए, अगर आग लगने के बाद ही सही, केद्र सरकार कुआं खोदना चाह रही है तो उसका भी इंतजार किया जा सकता है!
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