जलसों के बीच जख्म नहीं दिखते

« अरविंद चतुर्वेद « 
दिल्ली में कामनवेल्थ खेलों का जलसा, बिहार में विधान सभा चुनावों के जरिए लोकतंत्र के महापर्व का जलसा और पश्चिम बंगाल में अगले साल होनेवाले विधान सभा चुनावों की तैयारियों का जलसा। इन जलसों के बीच किसी को जख्म कहां दिखाई दे रहे हैं? खेलों के जलसे में बाढ़ की बर्बादी का जख्म सरकार को नहीं दिखाई देता। स्वास्थ्य मंत्रालय को दिल्ली से पटना तक फैले डेंगू का जख्म नहीं दिखता। जख्म और भी हैं। अभी कुछ ही दिनों पहले बिहार में जमुई जिले के कजरा जंगल में पुलिस से मुठभेड़ के बाद माओवादियों ने जिन पुलिस कर्मियों को बंधक बनाने के बाद एक लुकस टेटे को मारकर नीतीश कुमार के चेहरे पर हवाइयां उड़ा दी थीं, उसी जमुई के संथाली गांवों में एक तरह से मुनादी करते हुए नक्सलियों ने हर घर से लड़ने लायक एक-दो नौजवानों को अपने हवाले करने की मांग की है। जैसी कि खबर है, यह माओवादियों का अपने संगठन में लोगों की भर्ती का तरीका है। हो सकता है कि कुछ डर से और कुछ लाचारी-बेरोजगारी से ग्रामीण नौजवान माओवादियों को मिल भी जाएं, क्योंकि वे उन्हें विस्फोट और खून-खराबे की नौकरी दे देंगे। ऐसे ही तो उनका संगठन और कारोबार चल रहा है। यह एक जख्म के गहराते जाने की निशानी है, मगर बंधक पुलिसकर्मियों की मुक्ति के बाद चुनावी जलसे के रोमांच में डूबे मुख्यमंत्री नीतीश और उनके मुकाबिल लालू एक-दूसरे पर जबानी जंग लड़ते हुए कविता की पैरोडी फेंक रहे हैं। विधान सभा के चुनावी अभियान में माओवादियों के दिए जख्म और मरहम की चर्चा कोई दल और कोई नेता नहीं करना चाहता।
बंगाल का तो और बुरा हाल है। चुनाव में अभी सालभर बाकी है और उसकी तैयारियों में लगे मुख्यमंत्री बुद्धदेव भटूटाचार्य और उनके मुकाबिल ममता-प्रणब की सभाओं व उदूघाटन-शिलान्यास के जलसों में एक-दूसरे को राज्य के दुखों का उत्पादक बताया जा रहा है, मगर जनता के जख्म कोई नहीं देखता। अभी चार दिन पहले झाड़ग्राम जिला मुख्यालय से महज तीन किलोमीटर दूर राधानगर के सेवायतन में एक माध्यमिक स्कूल के चौबीस वर्षीय युवा शिक्षक श्रीकांत मंडल को छात्रों का भेस बनाए तीन किशोर माओवादियों ने घेरकर गोलियों से भून डाला। यह माओवादियों की बच्चा-ब्रिगेड थी, जिसने दिन-दोपहर श्रीकांत मास्टर को उनके मां-बाप की आंखों के सामने स्कूल से लौटते समय छात्र-छात्राओं के बीच गोलियां तड़तड़ाकर मार डाला। आसपास जो स्कूली छात्र-छात्राएं थीं, चीखते-चिल्लाते अपने बस्ते फेंककर भागे। असल में स्कूल में ही श्रीकांत मास्टर को नजर रख रहे बच्चा माओवादियों पर शक हुआ तो स्कूल से निकलने से पहले उसने अपने मां-बाप को फोन करके बुला लिया था। बच्चा माओवादियों के सामने श्रीकांत मास्टर के मां-बाप जान बख्शने के लिए हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते रहे, लेकिन उनपर कोई असर नहीं पड़ा। श्रीकांत मंडल को महज दो साल पहले स्कूल मास्टरी मिली थी, तब जाकर घर की माली हालत थोड़ी ठीक हुई थी, वरना इस नौकरी के पहले तक उसका बाप रिक्शा चलाता था। अब भी घर-परिवार की गाड़ी ठीकठाक से चलाने के लिए उसे लोगों के घरों में रंगाई-पुताई का काम करना पड़ता था। श्रीकांत मास्टर का कसूर यह था कि वह सरकारी पार्टी माकपा में था और गांव में रात में रोजाना दिए जा रहे पहरे में अपनी बारी आने पर पहरा दिया करता था।
यह कहने की तो खैर जरूरत ही नहीं है कि माओवादी जो क्रांति कर रहे हैं, उसमें रिक्शा चालक के बेटे श्रीकांत मंडल जैसे ज्यादातर गरीब ग्रामीण और आदिवासी मारे जा रहे हैं। सच्चाई यही है कि बिहार, झारखंड, बंगाल और छत्तीसगढ़ में रोजाना कहीं न कहीं माओवादी हिंसा के फोड़े फूटकर जख्म या नासूर बन रहे हैं, मगर उनके लिए मरहम खोजने के बजाय सरकारें और सियासी पार्टियां तरह-तरह के जलसों में डूबी हुई हैं। सियासत के इस मिजाज पर रामधारी सिंह दिनकर की ये पंक्तियां याद कर सकते हैं-

तेरी क्रीड़ा और करूणा का जवाब नहीं,
मरहम वहां लगाते हो, जहां घाव नहीं।
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