अरविंद चतुर्वेद :
हर साल एक तारीख आती है : 14 सितम्बर, जिसे हिन्दी दिवस कहते हैं। सालभर तक पता नहीं क्या करते रहने वाले सरकारी दफ्तरों के राजभाषा विभाग और उनके कर्ता-धर्ता हिन्दी दिवस व सप्ताह वगैरह मनाने में जुट जाते हैं। एक राजभाषा अधिकारी मित्र की कही हुई बात याद आ रही है। उन्होंने कहा था- सच पूछिए तो चाहता ही कौन है कि हिन्दी वास्तव में लागू हो जाए। अगर ऐसा हो गया तो फिर राजभाषा विभागों और हिन्दी अधिकारियों की जरूरत क्या रहेगी? उन्होंने यह बात मजाक में भले ही कही हो, लेकिन यह एक गंभीर संकेत भी है।
इस बात को दूसरी तरफ से देखें। क्या यह सच नहीं है कि अगर हिन्दुस्तान से अंग्रेजी और अंग्रेजियत का खात्मा हो जाए तो बहुतेरे लोग मुश्किल में पड़ जाएंगे? असल में हमारी समूची नौकरशाही निचले दर्जे के कर्मचारियों समेत जनता पर अंग्रेजी में ही तो रोब झाड़ती है। भारतीय भाषाओं में रोब झाड़ना आसान नहीं है। वहां रोब झाड़ने का तर्क देना पड़ेगा और तुरंत जवाब भी सुनना पड़ जाएगा। इस तरह अपने देश के संदर्भ में अंग्रेजीदां लोगों को अंग्रेजी तर्क या बहस से बचने की सहूलियत तो देती ही है, वह उन्हें जवाबदेही से भी बचाती है। यानी कि मनमानी के मौके मुहैया कराती है। चाहे देश के इतिहास, भूगोल, प्रकृति, संपदा, कला, संस्कृति, विज्ञान आदि के बारे में रत्ती भर जानकारी न हो, लेकिन यदि एक भाषा अंग्रेजी आती हो तो अपने को न सिर्फ विद्वान गिनाया जा सकता है, बल्कि बड़े-बड़े विद्वानों की पंूछ मरोड़ी जा सकती है। उन्हें नकेल पहनाई जा सकती है। तमाम संस्थानों-प्रतिष्ठानों और प्रकल्पों-उपक्रमों को देख लीजिए, क्या ऐसा नहीं हो रहा है। आखिर एक लोकतांत्रिक देश में लोक भाषाओं को धकिया कर अंग्रेजियत की अल्पसंख्यक जिद बनाए रखने की तुक ही क्या है?
अब अंग्रेजी के भारतीय हमददों के तर्क पर गौर करें। उनका पहला तर्क यही होता है कि भारत जैसे बहुभाषी देश में अंग्र्रेजी एकसूत्रता का काम करती है- सबको जोड़ती है। दूसरे, वह विश्वभाषा है और इसके जरिए हम दुनिया के संपर्क में रहते हैं। और तीसरे, यह कि विज्ञान और टेक्नोलॉजी में अंग्रेजी के बगैर हम तरक्की नहीं कर सकते-पिछड़ जाएंगे। पर इन तकों की असलियत क्या है? क्या अंग्रेजी इसलिए अलग-अलग भाषा-भाषियों को जोड़ती है कि वह किसी की भाषा नहीं है और इसे सीखकर अलग-अलग भाषा-भाषियों को आपस में संवाद करना पड़ता है। फिर संवाद कायम करने की जरूरत के तहत भारतीय भाषाएं या हिन्दी क्यों नहीं सीखी जा सकती? क्या यह जरूरी है कि दो बिल्लियों में बराबर-बराबर बांटने के बहाने सारी रोटियां बंदर के ही हाथ लगें।
असल में ऐसा है भी नहीं। कोलकाता व बंगाल और मुंबई व महाराष्ट्र के कल-कारखानों में काम करने वाले, व्यापार-कारोबार करने वाले ज्यादातर लोग अंग्रेजी सीखकर तो नहीं ही गए हैं और न रास्ता-बाजार में हर जगह टकराने वाला आम बंगाली या मराठी अंग्रेजी जानता है। फिर भी सबकुछ चल रहा है। ऐसा ही चेन्नई, अहमदाबाद, सूरत, हैदराबाद, नागपुर, गुवाहाटी और चंडीगढ़ में भी है। संवाद की जरूरत तो जीवनयापन और सामाजिकता के तकाजे से है। और, यह काम आपस में भारतीय भाषाभाषी ही मिलजुल कर कर सकते हैं, करते आ रहे हैं। अलबत्ता अंग्रेजी की वकालत करने वालों से यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि क्या अंग्रेजों के भारत आने से पहले भारतीयों का आपसी संपर्क नहीं था? या अंग्रेज ही जब आए तो उन्होंने भारतीयों से कैसे संवाद कायम किया? कम से कम अंग्रेजों के भारत आने से पहले तो यहां अंग्रेजी नहीं ही आई थी। इसी के साथ अंग्रेजी के विश्वभाषा होने और अंग्रेजी के बगैर विज्ञान-टेक्नोलॉजी में पिछड़ जाने के तर्क का भी मुआयना किया जा सकता है। विकास का अर्थ अगर मनुष्य व संपदा के विकास और प्रकृति की समृद्धि से है तो तुलनात्मक दृष्टि से भारतीय अंग्रेजों के आने से पहले उनसे पिछड़े हुए नहीं, बल्कि ज्यादा विकसित थे। और, इससे भी काफी पहले श्रीलंका, बर्मा, थाइलैंड, चीन, जापान आदि देशों तक बौद्ध धर्म-दर्शन का प्रचार-प्रसार भी अंग्रेजी के जरिए नहीं हुआ था। आज भी दुनिया में ऐसे तमाम देश हैं, जहां की भाषा यानी संपर्क भाषा अंग्रेजी नहीं है फिर भी वे दुनिया की मुख्य धारा में शामिल हैं और उन्होंने ब्रिटेन से कुछ कम तरक्की नहीं की है। कई तो उससे आगे भी हैं- चीन और जापान को अपनी तरक्की के लिए अंग्रेजी की बैसाखी नहीं टेकनी पड़ी है। यह जग-जाहिर है।
वास्तविकता यह है कि अंग्रेजी भारत के अलग-अलग भाषा-समाजों के बीच पर्दा गिराने और दीवार खड़ी करने का काम कर रही है। यहां तक कि लोक और तंत्र के बीच खाई खोदने का काम भी इसने किया है, जिसके कारण देश में लोकतंत्र अपने सही अर्थ में फलीभूत नहीं हो पा रहा है और तमाम जनवादी मूल्य पानी भर रहे हैं। स्वाधीनता दिवस की पूर्व संध्या पर राजधानी दिल्ली में एक कवि सम्मेलन या मुशायरा आयोजित कर-करा देने से राजभाषा या राष्ट्रभाषा का दायित्व पूरा नहीं हो जाता। असल में हमारे पास न कोई सुस्पष्ट भाषानीति है, न साफ सांस्कृतिक दृष्टि और न ही मजबूत इच्छा-शक्ति। हिन्दी ही नहीं, कोई भी भाषा महज शब्दावली, व्याकरण या तकनीक भर नहीं होती। वह अपने बोलने वाले समाज की जीवन शैली, उसके सपने और उन सपनों को पूरा करने की इच्छाओं व कोशिशों का वाहक होती है। यही होकर अंग्रेजी सारी खुराफातों की जड़ है और यही न होने देकर हिन्दी की राह में रोड़े अटकाए जाते हैं।
लेकिन इतना तो मानना पड़ेगा कि तमाम रूकावटों और उपेक्षाओं के बावजूद हिन्दी का दायरा अपनी तरह से बढ़ता गया है। दूसरी भारतीय भाषाओं और उनके बोलने वालों के संपर्क में आने के कारण एक सहज रासायनिक प्रक्रिया में हिन्दी का शब्द भंडार काफी बढ़ा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक खास अंचल की खड़ी बोली जिसे आज कीहिन्दी के रूप में हम जानते हैं, उसने तमाम बोलियों व प्रादेशिक भाषाओं के साहचर्य से बहुत कुछ अर्जित किया है। आज की हिन्दी में 10 से लेकर 75 फीसदी तक ऐसे शब्द मिल जाएंगे, जो देशभर की बोलियों और भाषाओं में मौजूद हैं। और ऐसा हुआ है तो इसलिए नहीं कि राजभाषा विभाग ने कोई तीर मारा है। हिन्दी का विकास तो इसलिए हुआ और हो रहा है कि संचार के साधनों, भाषा-व्यवहार के माध्यमों और यातायात के साधनों का देशभर में तेज विस्तार हुआ है। अलग-अलग भाषाभाषी रोजगार और कारोबार के लिए देश में इधर से उधर स्थाई तौर पर जा बसे हैं, या फिर उनका आना-जाना यहां से वहां तक लगा रहता है। हिन्दी की अग्रगामिता और गुणधर्मिता यहीं देखी जा सकती है।
इसके समांतर खेद के साथ कहना पड़ता है कि जहां राजभाषा विभाग हिन्दी के मामले में अपनी अटपटी नियमावलियों में उलझे और जकड़े हुए हैं, वहीं दूसरी ओर हिन्दी भाषा-साहित्य की शिक्षा देनेवाले विश्वविद्यालय और कालेजों के हिन्दी विभागों का पाठूयक्रम बहुत हद तक लकीर का फकीर, पुराना-धुराना और अजीबोगरीब किस्म की शास्त्रीयता में जकड़ा हुआ है। यह पाठूय क्रम सुधारों और परिवर्तनों के बावजूद सृजन के बहुआयामी समकालीन परिदृश्य से 25 से लेकर 40 साल पीछे है। ऐसा कहने का अर्थ यह नहीं है कि हिन्दी के छात्रों को इसकी परंपरा और अतीत की जानकारी न दी जाए। लेकिन यह भी जरूरी है कि वे अपने भाषा-साहित्य की मौजूदा स्थिति और स्वभाव के बारे में भी तो जानें। वरना भाषा-साहित्य के भविष्य-संकेत व चुनौतियां को वे कैसे जान-समझ पाएंगे। जहां तक राजभाषा विभाग और इसके हिन्दी अधिकारियों का सवाल है, स्थिति कुछ ज्यादा ही विकट है। हिन्दी को देश की संपर्क भाषा बनाने के मकसद से आजादी के बाद सरकार ने इसे राजभाषा का संवैधानिक दर्जा देकर इसकी तरक्की के लिए अपने तमाम संस्थानों और औद्योगिक प्रतिष्ठानों में राजभाषा विभाग खोले। सभी मंत्रालयों की राजभाषा समितियां भी हैं, केंद्रीय हिन्दी निदेशालय है, भाषा प्रशिक्षण केंद्र हैं, और भी बहुत कुछ है। इन विभागों के तमाम कागज-पत्र, बही-खाता, सम्मेलन-रिपोर्ट, फाइल-दफ्तर वगैरह तामझाम को देखकर लगता है कि राजभाषा विभाग हिन्दी के लिए जैसे कोई पहाड़ तोड़ रहे हों। लेकिन हकीकत में ऐसा है नहीं। अगर ये विभाग, इनके अफसर और अमले सचमुच पहाड़ तोड़ रहे होते और हिन्दी का माहौल बनाने का काम कर रहे होते तो क्या आजादी के इतने बरसों बाद भी राजभाषा के मामले में संविधान की ऐसी-तैसी होती? कौन नहीं जानता कि अंग्रेजी की अठखेलियां सबसे ज्यादा सरकारी दफ्तरों में ही हैं और अफसरशाही की अंग्रेजी हेकड़ी भी।
इस विभाग की अपनी कोई भाषा नीति होगी तो जरूर ही। लेकिन इनके लोगों ने अंग्रेजी से अनुवाद की जैसी सरकारी हिन्दी पैदा की, उससे मुठभेड़ हो जाए तो अच्छी-खासी हिन्दी जानने वालों के भी छक्के छूट जाएं। पता नहीं क्यों और किस भाषा वैज्ञानिक आधार पर सरकारी हिन्दी की शब्दावली में तत्सम यानी संस्कृत के अप्रचलित शब्दों को रखने की रूझान अधिक दिखाई पड़ती है। हिन्दी के मानक रूप का मतलब संस्कृत की तत्सम शब्दावली ही होती है, ऐसा किस भाषा विज्ञान और वैज्ञानिक की मान्यता है? नतीजा यह है कि इस शुद्धतावाद और अंग्रेजी के सरकसी अनुवाद में राजभाषा विभाग हिन्दी की फजीहत कर रहा है। इससे तो यही लगता है गोया हिन्दी को कठिन व दुरूह बनाए रखने और अप्रचलित कर देने की कोई सुनियोजिज योजना हो। हिन्दी के सरकारी सेवकों को शायद हिन्दी की ग्रहणशीलता पर भरोसा नहीं है। वरना अंग्रेजी, पुर्तगाली, अरबी, फारसी से लेकर देश की तमाम बोलियों और प्रादेशिक भाषाओं के शब्दों को हिन्दी ने पचाया है-उन्हें अपना बनाया है। यह प्रक्रिया लगातार जारी है।
लेकिन नहीं, हिन्दी के सरकारी सेवक टाइपराइटर को टंकक, टाइप को टंकण, नोट या नोटिंग करने को टिप्पण, ड्राफ्ट को प्रारूप और ड्राफ्टिंग को प्रारूपण ही लिखेंगे। इसी तरह डॉक्टर, मास्टर, स्कूल, कॉलेज, टीचर, इंस्पेक्टर, सुपरवाइजर, एसपी या पुलिस कप्तान कहने में क्या हर्ज है। अंग्रेजी के ये शब्द हिन्दी में घुलमिल गए हैं और अपने स्वभाव के मुताबिक हिन्दी ने इनका बहुवचन-डाक्टरों, मास्टरों, टीचरों, स्कूलों, कालेजों, इंस्पेक्टरों, सुपरवाइजरों वगैरह बनाया है। क्या कोई कह सकता है कि अंग्रेजी शब्दों के ये बहुवचन भी अंग्रेजी हैं? असल में यह हिन्दी की अपनी गतिशीलता और ग्रहणशीलता की पहचान है।
भाषा की शुद्धता और शास्त्रीयता का राग अलापने वाले हिन्दी की गतिशीलता के इस प्रवाह और ग्रहणशीलता के इस गहरे प्रभाव पर चाहे जितना बिदकें और नाक-भौं सिकोड़ें, लेकिन महज तत्सम शब्दों और संस्कृत के उपसर्ग-प्रत्यय लगाकर बनाई गई शब्दावली से इसे नहीं रोक पाएंगे। आप अधिशासी, अधीक्षक, निरीक्षक, अभियंता, अधिकर्ता, धारक, यंत्री वगैरह लिख-छापकर कागज काला करते रहिए,, मोटी-मोटी पोथियां छापिए, अनुदान लीजिए, तरक्की पाइए- लेकिन इससे कुछ होने-जाने का नहीं है। जनता तो इनके प्रचलित अंग्रेजी शब्द एक्जिक्यूटिव, सुपरिटेंडेंट, इंस्पेक्टर इंजीनियर, एजेंट, ओवरशियर आदि ही बोलेगी। क्योंकि इन शब्दों को हिन्दी पचा चुकी है। क्योंकि हिंदी को आज नहीं तो कल सचमुच समूचे भारत की जीवंत संपर्क भाषा होना है। क्योंकि इसी ग्रहणशीलता के बल पर वह ऐसा कर भी सकती है।
सरकारी हिन्दी का तो यह हाल है कि एक विभाग की शब्दावली जानने वाला अधिकारी दूसरे विभाग की शब्दावली का बहुत आसानी से मायने तक नहीं बता सकता है। भरोसा न हो तो किसी सरकारी हिन्दी सेवक से पूछकर देखिए कि भारत के भाषाजात अल्प भाषा-भाषियों के आयुक्त का कार्यालय कहां है? बशर्ते वह हिन्दी अधिकारी इसी विभाग में काम न करता हो और यह हिन्दी उसने खुद ईजाद न की हो। ऊटपटांग सरकारी हिन्दी के ऐसे बेशुमार उदाहरण दिए जा सकते हैं।
फिर अंग्रेजी ही क्यों? बांग्ला, मराठी, गुजराती, पंजाबी, असमिया, ओड़िया आदि के संपर्क-साहचर्य में आकर भी हिन्दी ने बहुत सारे शब्द और अभिव्यंजना-कौशल इन भाषाओं से ग्रहण किया है। यह हिन्दी की कमजोरी या भाषा-प्रदूषण नहीं है। यह हिन्दी की शक्ति और अपना स्वभाव है। इस शक्ति और स्वभाव को राजस्थान की मीरा, पंजाब के नानक, ब्रज के सूर, अवधी के तुलसी-जायसी, पूरबी के कबीर, मैथिली के विद्यापति, बुंदेलखंड के जगनिक ही नहीं, चंद बरदाई से लेकर अमीर खुसरो और नामदेव-रैदास सरीखे कितनों ने बनाया है-पुख्ता किया है। और, इसीलिए भारतीय संदर्भ में इस भाषा के साथ गैर-हिन्दीभाषी शब्द बेमानी हो जाता है। असल में इस देश में जो भी जिस अंदाज और लहजे में हिन्दी बोलता है, बोलने की प्रक्रिया में है, सीख रहा है या समझ लेता है, वह हिन्दीभाषी ही है। सुविधा के लिए अगर कहना ही चाहें तो बांग्ला-हिन्दीभाषी, मराठी-हिन्दीभाषी, असमिया-हिन्दी भाषी, तमिल-तेलगू-मलयालम-हिन्दीभाषी कह सकते हैं। आखिर कोलकाता में हिन्दी का स्थानीय कलकतिया रूप और मुंबई में हिन्दी का मुंबइया मिजाज है या नहीं। मुंबई में मराठी के संपर्क-साहचर्य में जो बिंदास हिन्दी बोली-बतियाई जाती है, उसे आप खाली-पीली नहीं कह सकते और न कलकतिया हिन्दी में जो बांग्ला ढुक गई है, उसे निकाल सकते हैं- बूझे कि नहीं। भाषा के मामले में बोका बनने से नहीं चलेगा। इसी तरह गुवाहाटी में असमिया के संपर्क-साहचर्य से जो हिन्दी लाहे-लाहे पसर रही है, उसे कबूल करना होगा। नहीं तो बनारसी लहजे में कहें तो आप घोंचू रह जाएंगे।
कहना नहीं होगा कि अहिंदी भाषी कहे जानेवाले राज्यों की राजधानियों -कोलकाता, गुवाहाटी, मुंबई, चंडीगढ़ और नागपुर आदि शहरों से छपकर अपने-अपने इलाके में पढ़ जा रहे हिन्दी के दैनिक-साप्ताहिक अखबार ही भविष्य की हिन्दी का स्वरूप व चरित्र बनाएंगे। क्योंकि वे सीधे पाठकों के हाथ पहुंचते हैं और उनसे सीधा संवाद बनाते हैं। हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिहाज से फिल्म, टीवी व रेडियो जैसे दृश्य-श्रव्य माध्यमों की भूमिका भी झुठलाई नहीं जा सकती। यह जरूर है कि सांस्कृतिक स्तर पर येे माध्यम कई बुराइयां भी फैला रहे हैं।
लेकिन, हिन्दी के सामने असली खतरा दूसरा ही है। डर इस बात से लगता है कि इतिहास में जो दुर्घटना संस्कृत जैसी अत्यंत समृद्ध भाषा या पालि के साथ घटी, वैसी ही दुर्घटना का शिकार हिन्दी न हो जाए। अगर राम जैसे चरित्र को साम्प्रदायिक बनाने की कोशिश की जा सकती है, तुलसी जैसे लोकनायक महाकवि को साम्प्रदायिकता के घेरे में लाने की कोशिश की जा सकती है तो क्या ताज्जुब कि साम्प्रदायिकता की राजनीति हिन्दी को भी अपनी जद में लेने-लाने की कोशिश न करे? अगर ऐसा कभी हुआ तो यह हिन्दी का दुर्भाग्य होगा। क्योंकि कालिदास, बाण, भवभूति, चरक, सुश्रुत जैसी प्रतिभाओं के बावजूद संस्कृत पर पंडितों और कर्मकांडियों की धार्मिक-साम्प्रदायिक भाषा होने का ठप्पा लगते ही बौद्धौं की पालि भाषा ने इसे उखाड़ फेंका। इसी तरह बौद्ध मठों के अनाचार और हीनयानियों के दुराचरण के चलते पालि भाषा को मिटूटी पलीद होते देर नहीं लगी। तब फिर हिन्दी के साथ ऐसा अघट क्यों नहीं घट सकता?
हिन्दी का भला चाहने वालों को इसके प्रति ही ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है। ताकि हिन्दी के जरिए जोड़ने के बजाय तोड़ने की कोशिश न की जा सके।
1 comments: on "हिन्दी का हाल और कुछ सवाल"
हिंदी दिवस न आए तो कई छुटभैये हिंदी कवियों, लेखकों की कमाई मारी जाएगी। सरकारी उत्सव मनाने वाले ये हिंदी साहित्यकार, जो ज्यादातर पत्रकार भी होते हैं, कभी ईमानदारी से हिंदी के उत्थान की बात करते भी नहीं हैं। हुंआ-हुंआ की इस तथाकथित प्रजाति पर आपकी लेखनी चली तो पढ़कर सुखकर लगा मगर उनपर कोई फर्क पड़ेगा जो इसी उत्सव के इंतजार में रहते हैं ?
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