मोहन कुजूर का चाकू

अरविन्द चतुर्वेद :
हेड ऑफिस के सामने वाले लॉन में मेन गेट के ठीक बायीं ओर सस्ते नीले जींस की पैंट और गहरे लाल रंग की बनियान पहने वह जो एक काला-कलूटा तंदुरूस्त-सा लड़का बैठा हुआ है- वह है मोहन कुजूर। आप उसकी उम्र के बारे में क्या सोचते हैं- चौबीस-पच्चीस साल? आप धोखा खा गए, न! दरअसल, उसकी उम्र मुश्किल से सत्रह-अटूठारह साल है। यह जो पठारी आदिवासी इलाका है, झारखंड के छोटा नागपुर का, यहां आदमी, जंगल, पठार और कई दूसरी चीजों के बाबत आप दस तरह के धोखे खा सकते हैं- अगर आप आदिवासी नहीं हैं या आदिवासी जिंदगी को आपने करीब से नहीं देखा है। यह दिक्कत उन लोगों के साथ ज्यादा है, जिन्हें पटना-लखनऊ-दिल्ली से सरकार द्वारा काबिलियत देखकर यहां किसी कारखाना, प्रोजेक्ट या दूसरे महकमों में भेजा जाता है।
रांची शहर, अपनी कम्पनी और खुद के बारे में आप ठीक ही सोचते हैं। इस पठारी शहर का क्लायमेट तंदुरूस्ती के लिए बहुत अच्छा है। कम्पनी में अगर आपका परफारमेंस बहुत अच्छा रहा तो आपकी गुडविल बनते देर नहीं लगेगी। आप और ऊपर पहुंच सकते हैं। बस, कम्पनी को मुनाफा देते जाइए या अपनी तरह से मुश्किलों की रिपोर्ट करते हुए घाटा पहुंचाइए। कोई फर्क नहीं पड़ता। अव्वल तो आपकी शिकायत यहां से दिल्ली तक पहुंच नहीं सकती, वैसे भी दिल्ली से इस जंगल पहाड़ में बार-बार आने की कोई जहमत उठाएगा नहीं। आपका बेटा अगर इस छोटी-सी जगह में रहते हुए कभी बोर होने की शिकायत करे तो आप उसे समझा सकते हैं कि यहां से फ्लाइट पकड़ो और चंद घंटों में दिल्ली-मुम्बई-कोलकाता, जहां जी चाहे, जाकर दस-पांच दिन घूम-फिरकर आ सकते हो। आपकी मेम साहब को यहां का क्लायमेट कुछ ज्यादा ही अच्छा लग रहा हो तो कोई अच्छी-सी जगह देखकर बंगला बनवा लीजिए। यहां आप क्या नहीं कर सकते? सब कुछ तो आपके हाथ में है।
मिस्टर नरेंद्र मल्होत्रा का भी कुछ ऐसा ही ख्याल था, शुरू-शुरू में यहां के बारे में। आने के साथ ही यहां के मौसम और माहौल को उन्होंने काफी खुशगवार पाया था। दिल्ली से चलते वक्त नई जगह को लेकर उनके दिमाग में जो एक स्वाभाविक तनाव था, वह यहां पहुंचने के साथ ही काफूर हो गया। उन्होंने चैन की सांस ली थी और यह सोचकर खुश हो गए कि दिल्ली जैसे महानगर की चिल्लपों, भागदौड़ और धक्कामुक्की से उन्हें निजात मिल गई। उन्हें जो बड़ा-सा बंगला, लॉन, गैरेज, नौकरों के क्वार्टर वगैरह मिले थे, उसमें अनको जीवन की तमाम उपलब्धियां आराम से पसरी हुई नजर आई थीं। उन्होंने महसूस किया था कि दिल्ली में रहते हुए किस तरह वे एक मशीन हो गए थे। और, इसे यहीं आकर महसूस भी किया जा सकता था।
हेड ऑफिस को अपने मुताबिक बनाने में मिस्टर नरेंद्र मल्होत्रा को कोई झंझट नहीं झेलनी पड़ी थी। ठीक उसी तरह से, जैसे एक चेयरमैन-कम-मैनेजिंग डायरेक्टर को होना चाहिए था, वे हुए। सबने उनका सहज ढंग से स्वागत किया। वे एक ऐसे जहाज के कप्तान थे जिसकी बागडोर उनके हाथ में थी और उसे अपनी तरह से जिधर चाहे, वे ले जा सकते थे। अलबत्ता, यह समुद्र उनका जाना-पहचाना नहीं था लेकिन जहाज तो उनका अपना था और इस पर उन्हें पूरा भरोसा था।
मल्होत्रा साहब ने पिछले तीन साल यहां बड़े मजे में गुजारे हैं- तनाव मुक्त, स्वतंत्र और उल्लासपूर्ण। लेकिन, इधर पिछले चंद महीनों से उनके मन में एक अव्यक्त-सी बेचैनी ने घर बना लिया है।
इसकी वजह है, मोहन कुजूर। वही मोहन कुजूर, जो इस समय लॉन में चुपचाप टांगें पसारे अपने आप में गुमसुम बैठा है। आप सोच रहे होंगे कि भला इतने बड़े अफसर की निश्चिंत-सी जिंदगी में मोहन कुजूर जैसा अदना-सा टेम्परेरी चपरासी क्या खलल पैदा करेगा? लेकिन नहीं, अगर आप ऐसा सोचते हैं तो फिर धोखा खा रहे हैं, जैसे उसकी उम्र के बारे में अभी खा चुके हैं।
अब यही देखिए कि इस वक्त साढ़े दस बज रहे हैं, हेड ऑफिस खुल गया है तो इस समय मोहन कुजूर को इस तरह लॉन में तो नहीं बैठे होना चाहिए था। होना यह चाहिए था कि वह किसी काम में मशगूल होता। अगर किसी बाबू या साहब का पान-सिगरेट लेने गया होता, तब भी ठीक था। और नहीं तो, उसे कम से कम इस बात के लिए चौकन्ना तो रहना ही चाहिए था कि हेड ऑफिस के सबसे बड़े बॉस के आने का यही टाइम है।
मोहन कुजूर की नीली जींस और लाल बनियान दूर से ही सब पहचान लेते हैं। इसकी कोई खास वजह नहीं है। दरअसल, उसके पास यही एक ठीकठाक कपड़ा है, जिसे पहन कर वह ऑफिस आ सकता है। कम से कम इस बारे में किसी को आज तक ऑफिस में धोखा नहीं हुआ है कि नीली जींस पैंट और लाल बनियान वाला लड़का मोहन कुजूर के अलावा और भी कोई हो सकता है।
मल्होत्रा साहब की कार आई तो दरबान ने झटपट गेट खोल दिया। कार गेट से अंदर होते हुए जरा धीरे हुई और फिर मुड़कर अपनी सही जगह पर खड़ी हो गई। मल्होत्रा साहब ने गौर किया कि उनके आने पर सभी अपने ढंग से सावधान हो गए हैं, केवल मोहन कुजूर को छोड़कर। वह लॉन में उसी तरह अपने आप में गुमसुम निश्चिंत बैठा है। मल्होत्रा साहब की निगाह उसकी तरफ पड़ी तो उनके मन की सोई बेचैनी जाग गई। माथे पर हल्की-सी शिकन
उभरी मगर उसे उन्होंने झटक दिया। वे अपने चेम्बर में दाखिल हो गए।
रामदेव प्रसाद बाबू ऑफिस रूम से निकल कर बरांडे में आए तो मोहन कुजूर को लॉन में देखा। उन्होंने मोहन कुजूर को आवाज देकर बहन की एक भदूदी-सी गाली दी और बुलाया। उन्हें पान की तलब हो रही थी और ऑफिस के लिए चाय भी मंगानी थी।
मोहन कुजूर आहिस्ता से उठा और रामदेव प्रसाद बाबू के सामने पहुंच कर चुपचाप खड़ा हो गया।
- साला, मुंह क्या देखता है। जा, साहब के चेम्बर में टेबुल पर एक गिलास पानी रख दे।’ रामदेव बाबू ने कहा और जेब से दस रूपए का मुड़ा-तुड़ा नोट निकाल कर उसकी तरफ बढ़ा दिया- कैंटीन में ऑफिस के लिए चाय बोलकर मेरा पान लेते आना, समझा! जरा जल्दी से।’ और, इस बार रामदेव बाबू ने मोहन कुजूर की च्मां को याद’ किया, जो कब की स्वर्ग सिधार चुकी थी।
मोहन कुजूर ने चुपचाप पैसा लिया और चल दिया। मल्होत्रा साहब के चेम्बर में जब वह पानी भरा गिलास लेकर दाखिल हुआ तो उन्होंने फाइल से नजर उठाकर मोहन कुजूर के चेहरे पर गड़ा दी, मगर वहां कुछ न था। मोहन कुजूर ने अपनी आदत के मुताबिक उन्हें सलाम नहीं किया था। मल्होत्रा साहब ने उसकी आंखों में झांककर कुछ पढ़ना चाहा, मगर उन्हें उसकी ठंडी आंखों की गहराई अथाह लगी। तब तक मोहन कुजूर पानी भरा गिलास टेबुल पर रख चुका था। फिर वह चेम्बर से बाहर निकल गया। मोहन कुजूर की आंखें इतनी गहरी क्यों हैं? उसका चेहरा इतना निर्विकार क्यों है? सोचते हैं, मल्होत्रा साहब। अब उनका मन फाइल में नहीं लगता। वे फाइल बंद कर देते हैं और गिलास उठाकर पानी पीने लगते हैं।
मोहन कुजूर का बाप इसी हेड ऑफिस में अभी पिछले साल तक दरबान था। उसकी साध थी कि किसी तरह पेट काटकर भी वह मोहन को पढ़ाए-लिखाए और कम से कम उसे बाबू बनता हुआ देख ले। मगर वैसा कुछ नहीं हुआ। मोहन कुजूर ने मैट्रिक पास तो कर लिया मगर डेढ़ साल की ठोकरों ने उसे जमाने भर की ऊंच-नीच दिखा दी। गांव भर में वह तेज-तररर, समझदार और निर्भीक लड़का माना जाता था। उसने अपने इलाके के रिजर्व सीट वाले एमएलए के चुनाव में श्रीमती उर्मिला बरपेटा के लिए क्या नहीं किया था। रात-दिन एक करके उसने पोस्टर चिपकवाए। खुद छोकरों की टोली लेकर गांव-गांव जाकर दीवारों पर चुनाव चिन्ह बनाए और नारे लिखे। उसे पूरी उम्मीद थी कि श्रीमती बरपेटा जीतने के बाद अगर नौकरी नहीं दिलाएंगी तो कम से कम पच्चीस हजार रूपए वाला सरकारी कर्ज दिलाकर रोजगार का कोई न कोई जुगाड़ जरूर बना देंगी।
मगर, जब बेरोजगार मोहन कुजूर को पच्चीस हजार रूपए का शिक्षित बेरोजगारों को स्वावलम्बी बनाने वाला सरकारी कर्ज भी नहीं मिला तब गांव-देहात में उसकी बड़ी भदूद हुई। गांव में उसका मन नहीं लगा। आखिर में कोई रास्ता न देखकर रिटायर होते वक्त उसके बाप ने रामदेव प्रसाद बाबू के सामने हाथ जोड़कर कहा- इस आवारा छोकरे का उद्धार करा दीजिए, हजूर!
मोहन कुजूर ने अपने बूढ़े बाप के साथ तब पहली बार रामदेव प्रसाद बाबू को देखा था- मिचमिची आंखों और चिकनी खोपड़ी वाले, रामदेव बाबू को। बाप के कहे मुताबिक मोहन कुजूर ने तब जो पहला काम किया था, वह यह था कि लपक कर रामदेव बाबू का पान ले आया था।
उसके बाद से मोहन कुजूर लगातार रामदेव बाबू से अपनी मां और बहन के अंगों के बखान के साथ गाली का आशीर्वाद पाते हुए पान और चाय ला रहा है, जिन अंगों को उसने देखा नहीं। अपनी गालियों में रामदेव बाबू उन अंगों का जिक्र करते हुए जैसा खाका खींचते हैं, उस सबको सुनकर मोहन कुजूर के तन-बदन में आग जलने लगती है। मगर कुछ भी बोले बिना वह चुपचाप चाय-पान लेने चल देता है, जैसे इस समय चला गया।
मोहन कुजूर की चुप्पी और गुमसुम रहने वाले स्वभाव के कारण ऑफिस के सभी बाबुओं का मौखिक रूप से मोहन कुजूर की मां और बहन पर हक हो गया है। उसको यह नौकरी कतई पसंद नहीं है। वह गांव लौट जाना चाहता है या यूं ही शहर में आवारा बन जाना चाहता है। अगर वह ऐसा नहीं कर पा रहा है तो इसकी सिर्फ एक ही वजह है कि सबेरे-सबेरे ऑफिस में झाड़ू लगाने वाली लड़की इतवारी अकेली पड़ जाएगी। उसने अपनी आंखों से एक दिन यह देखा था कि रामदेव बाबू ने इतवारी को झाड़ू लगाते वक्त दबोच लिया था और उसे बाथरूम की ओर घसीटने की कोशिश कर रहे थे। मोहन कुजूर के अचानक वहां पहुंच जाने से हालांकि इतवारी उस दिन छूट गई थी, मगर जब-जब मोहन कुजूर नौकरी छोड़ने का इरादा बनाता है, तब-तब उसकी आंखों के सामने वही दृश्य घूम जाता है और वह भीतर ही भीतर ध्वस्त हो जाता है। जब से मोहन कुजूर ने वह दृश्य देखा है, तब से उसके ऊपर चुप्पी का साया और गहरा हो गया। उसकी मां-बहन को याद करते वक्त ऑफिस के सभी बाबू उसे आदमी की शक्ल में भेड़िया नजर आते हैं। वह सोचता है, सभी रामदेव बाबू हैं। ऑफिस में उन सबके बीच रहते हुए उसका दम घुटने लगता है। लगता है कि दिमाग की नसें फट जाएंगी। उसे हर वक्त श्रीमती उर्मिला बरपेटा एमएलए पर गुस्सा आता है। अगर वे मोहन कुजूर को पच्चीस हजार रूपए वाला कर्ज दिलाकर कोई रोजगार करा देतीं तो उसे यह सब न देखना-सुनना पड़ता। वह सोचता है, बेचारी इतवारी...।
इसी उधेड़बुन में मोहन कुजूर सड़क पर पान वाली गुमटी के सामने खड़ा है। कैंटीन में ऑफिस के लिए चाय बोले उसे पंद्रह मिनट से ज्यादा हो रहे हैं। वह जानता है कि चाय पीने के बाद पान की तलब में रामदेव बाबू उसकी मां-बहन को याद कर रहे होंगे। वह ऐसा मौका नहीं भी दे सकता था, अगर फुटपाथ की दुकान से चाकू न खरीदने लगता। वह पान लेकर लौटते वक्त इस बात से अपने मन को तसल्ली देता है कि बात-बेबात उसकी मां-बहन को याद करना रामदेव बाबू की तो आदत ही बन चुकी है।
वह दाएं हाथ में पान लिए बाएं हाथ से पैंट के पीछे वाली जेब को थपथपाता है, जिसमें चाकू है। मोहन कुजूर इस बार गांव जाएगा तो यह चाकू अपनी बहन को दे देगा। घर में कोई अच्छा चाकू भी नहीं है। उसे याद है कि कभी शिकार वगैरह पकाने से पहले घर में कितनी दिक्कत होती है। शिकार काटने के लिए पड़ोसी से चाकू मांगना पड़ता है।
मोहन कुजूर इत्मीनान के साथ ऑफिस में घुसता है। बंधे हुए पान के साथ बची हुई रेजगारी रामदेव प्रसाद बाबू की टेबुल पर रख देता है। बिना कुछ बोले और बिना कुछ सुनने का इंतजार किए वह लौटता है। रामदेव बाबू उसकी तरफ देखते भर हैं, कुछ बोलते नहीं। वे पान उठाकर मुंह में डालते हैं। मोहन कुजूर बरांडे में आकर खड़ा हो जाता है।
मोहन कुजूर के चाकू पर सबसे पहले रामदेव बाबू की ही नजर पड़ी। वे पान की पीक थूकने के लिए बाहर निकले और थूक कर लौटते वक्त जैसे ही मोहन कुजूर को कुछ कहने को हुए, उसे एक खुले हुए चाकू का मुआयना करते हुए पाया। उनकी मुखाकृति अप्रत्याशित रूप से बदल गई। आंखों में अविश्वास का भाव तैर गया। वे कुछ नहीं बोल सके। बस, जरा-सा ठिठके और ऑफिस रूम में घुस गए।
लंच टाइम तक ऑफिस में मोहन कुजूर का चाकू सनसनीखेज ढंग से सबकी जबान का चर्चा बन गया। रामदेव बाबू ने खुद ही मल्होत्रा साहब के चेम्बर में जाकर उन्हें यह खबर दी कि दरअसल मोहन कुजूर कितना खतरनाक आदमी है। लोगों ने कहा- आदिवासी को समझना वाकई आसान नहीं है। एक आदमी बोला- मेरे तो बाल पक गए लेकिन आजतक नहीं समझ सका कि किस बात पर कब एक आदिवासी खुश हो जाएगा और कब किस बात पर गुस्सा हो जाएगा। दूसरा बोला- अखबारों में नहीं पढ़ते, फलां ने अपनी बीवी को मार डाला तो फलां ने अपने बाप का मर्डर कर दिया! ये आदिवासी ऐसे होते ही हैं। बात-बेबात जान लेने-देने पर उतारू हो जाते हैं। तीसरा बोला- मुझे तो यह छोकरा शुरू से ही काफी खतरनाक लगता था। कितना चुप रहता है। हंसता भी नहीं और न किसी को सलाम करता है।
मल्होत्रा साहब ने भी जब मोहन कुजूर के चाकू वाली बात सुनी तो सकते में आ गए। एक तो वैसे ही उसका व्यवहार रहस्यपूर्ण है, दूसरे उसने चाकू खरीद लिया है- जरूर वह अनसोशल एलीमेंट है। अब इस टेम्परेरी चपरासी के बारे में सीरियसली सोचना होगा- मल्होत्रा साहब सोचते हैं। मान लो, अगर उसे नौकरी से निकाल ही दिया जाए तो? नहीं-नहीं, यह और भी खतरनाक होगा। तब तो मोहन कुजूर के मन में जरूर ही बदले की आग भड़क उठेगी! क्या उसकी नौकरी परमानेंट करके उसे खुश नहीं किया जा सकता? दिमाग में यह बात आते ही मल्होत्रा साहब का तनाव थोड़ा कम होता है। वे टेबुल पर रखी घंटी बजा देते हैं। उनका अर्दली आता है तो बोलते हैं- जरा मोहन कुजूर को भेजो तो!
अर्दली मल्होत्रा साहब के चेहरे का भाव देखकर यह जानने की कोशिश करता है कि साहब मोहन कुजूर के बारे में क्या फैसला करने वाले हैं। वह चेम्बर से लौटते वक्त सोचता है कि बस, मोहन कुजूर की छुटूटी हो गई।
मोहन कुजूर हमेशा की तरह मल्होत्रा साहब के चेम्बर में दाखिल होता है- हमेशा की तरह चुपचाप, हमेशा की तरह अबूझ और रहस्यपूर्ण।
मल्होत्रा साहब उसे गौर से देखते हैं, मुस्कराते हैं। आत्मीयता पूर्वक पूछते हैं, क्या हाल है, मोहन! मजे में तो हो?
मोहन कुजूर के चेहरे पर कोई भाव नहीं आता। वह सिर्फ एक अक्षर के शब्द में जवाब देता है- हूं।
मल्होत्रा साहब कहते हैं- मोहन, तुम्हें ऑफिस में काम करते छह महीने हो गए। मैंने तुम्हें एक अच्छी खबर देने के लिए बुलाया है। मैं सोचता हूं, तुम्हें अब परमानेंट कर दिया जाए।
मोहन कुजूर के चेहरे पर कोई खुशी का भाव नहीं आता। वह हमेशा की तरह गम्भीर बना रहता है। मल्होत्रा साहब हैरान हो जाते हैं। बोलते हैं- ठीक है, जाओ। मन लगाकर काम करो।
वह चुपचाप चेम्बर से निकल जाता है। मल्होत्रा साहब गौर से देखते हैं, पैंट के पीछे वाली जेब उठी हुई नजर आती है। उसी में वह खतरनाक चाकू है, शायद। मल्होत्रा साहब परेशान हो जाते हैं- कैसा है यह आदमी? इसे परमानेंट होने में भी कोई खुशी नहीं है।
तभी रामदेव बाबू हाथ में फाइल लिए चेम्बर में घुसते हैं। जरूरी कागजों पर दस्तखत करानी है। रामदेव बाबू का इस वक्त आना मल्होत्रा साहब को अच्छा ही लगा। उन्होंने रामदेव बाबू को सामने की कुर्सी पर बैठा लिया।
मल्होत्रा साहब ने सलाह-मशविरे के अंदाज में पूछा- रामदेव बाबू! मोहन को परमानेंट करने के बारे में आपकी क्या राय है?
रामदेव बाबू ने समझा कि वाकई यह कोई आसान मामला नहीं है। उन्होंने बहुत सोच-समझ कर कहा- सर, गलती तो मुझसे शुरू में ही हो गई, जब इसके बाप की प्रार्थना पर इसे रख लिया गया। पहले पता नहीं था कि यह इतना खतरनाक छोकरा होगा। मुश्किल तो यही है कि परमानेंट हो जाने पर परमानेंट खतरा हो जाएगा। मान लीजिए कि आज परमानेंट होने से खुश हो भी जाए तो क्या भरोसा कि कल किसी बात पर नाराज न हो!
- तो क्या सोचते हैं, इसे ऐसे ही टेम्परेरी रहने दिया जाए?
- कोई हर्ज नहीं है, सर। कभी भी निकाला तो जा सकता है।
- हां, ठीक ही कहते हैं। परमानेंट किए जाने की खबर पर भी उसे खुशी नहीं हुई, तब फिर परमानेंट करने का फायदा ही क्या है।
- ये आदिवासी ऐसे ही होते हैं, सर। इन्हें समझना आसान नहीं है।

इनका विश्वास तो किया ही नहीं जा सकता।
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