मेरे गाँव की कहानी/दस : अकाल में अनहोनी

अरविन्द चतुर्वेद :
वे सालभर पहले आए थे " बारहगांवा " के इस हेकड़ीबाज गांव में। इलाके भर के बारह गांवों में लोग पीठ पीछे कहा करते थे- यह गांव तो हरहा सांड़ है, भइया! किसी के भी खेत में मुंह मारता फिरता है, और मना करो तो ऊपर से सींग भी चलाता है। लेकिन क्या मजाल कि मुंह पर " पालागी चौबेजी "  के अलावा कोई कुछ मीन-मेख निकाल सके। अब की बात और है। आज हवा इस इलाके के महुआ के पेड़ों को झिंझोड़ने लगी है, हर आदमी के बगल में बाल उग रहे हैं, तब बात कुछ और ही थी।
झकू झकू अकाल। कर्मनाशा नदी की ठठरी निकल आई है। महुआ-वन में पेड़ों के नीचे चुर्र-मुर्र करते सूखे पत्ते। खेतों में फसल पियराते-पियराते दम तोड़ चुकी है। मवेशियों के झुंड खुला छोड़कर खेतों में हांक दिए जाते हैं। घर में एक दाना नहीं आना है तो मवेशियों का ही पेट भरे। नहर के दोनों किनारे की फसलें शायद थोड़ी-बहुत बचाई जा सकती थीं, लेकिन नगवा बांध का पानी दूसरी नहर से मंत्री जी के गांव-इलाके की ओर दौड़ाया जा रहा है। दूर-दूर तक सुखाड़ ही सुखाड़। बारहगांवा का यह हरहा गांव अकाल में पैर टूटे सांड़ की तरह थौंसकर बैठ गया है। काम-धाम, मेहनत-मजूरी कुछ नहीं बची गांव में। सारी बभनई निकल गई मालिक टोला की।
महीने भर से सुना जा रहा है, सरकारी टेस्ट वर्क शुरू होगा। मगर वह जब होगा, तब होगा। पेट का गडूढा तो रोज-रोज भरना पड़ता है। सुबह होते-होते समूची दलित बस्ती खाली हो जाती है। दुसाध, चेरो, धोबी, कहार, सबके सब पहर भर रात रहते जंगल में घुसते हैं तो शाम को सूरज का मुंह फूंककर ही गांव में पैर रखते हैं। जंगल में भी क्या मिलेगा? कर्मनाशा की मछलियां, नदी में मिलने वाले सूखे जंगली नालों के मुहाने पर जमीन खोदने पर सूरन-ओल जैसी जंगली गठिया, कभी-कभी खरगोश, पाकड़ के फूल, गूलर, पीपल और बरगद के पके-अधपके फल...थोड़ा-बहुत महुआ का सहारा है... यही सब उबाल कर, भूनकर पेट का गडूढा भरो। बार-बार भूख लगे तो पानी पीयो। कोई-कोई जलावन की लकड़ियों का गटूठर सिर पर लादे रामगढ़ बाजार निकल जाते हैं- वहां भी ठीक से पैसा तो क्या मिलेगा, औने-पौने दाम पर या पेटभर रोटी-भात के बदले भी लोगों के दरवाजे गटूठर पटक देते हैं। चार रोटी के बदले कोई घंटा-दो घंटा, थोड़ी-बहुत बेगार भी करा ले तो कर देते हैं।
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ब्लॉक ऑफिस से खबर मिली है कि अकाल राहत का सरकारी राशन आ गया है। गांव में हर भूमिहीन परिवार में कुल कितने मेंबर हैं, उसी के हिसाब से खैरात बांटी जाएगी। रजिस्टर में सबका नाम लिखकर पूरी लिस्ट बनाकर ब्लॉक पर जमा करना है।
मालिकों के बाभन टोला में, प्रधान जी ने अपने दरवाजे से ही पड़ोसी रघुवीर पंडित को हांक लगाई- हे रघुवीर...! अरे, कहां हरदम घर में घुसे रहते हैं। जरा इधर आइए, न!
रघुवीर अपने ओसारे में रामधनी के साथ चिलम जगा रहे थे। ऊंची आवाज में जवाब दिया- बस चच्चा, पांच मिनट में आते हैं।
प्रधान जी की लिखापढ़ी का सारा काम दसवीं फेल रघुवीर ही करते हैं और रामधनी उनका अपना आदमी है। दोनों आ गए तो प्रधान जी रजिस्टर लेकर उनके साथ अपनी बैठक में चले गए। सरकारी खैरात बांटने को लेकर रघुवीर पंडित और रामधनी के साथ बात-विचार शुरू हुआ। रामधनी प्रधान का अपना ही आदमी है, सो खुलकर बात होने लगी।
- पहिले तो अपने आदमी-जन का नाम लिख लिया जाए। रघुवीर पंडित ने कहा।
प्रधान जी ने टोका- बात समझते नहीं हैं, फट से बोल देते हैं। अरे भाई, राशन पूरे गांव में बंटना है। साथ में ब्लॉक का कोई सरकारी मुलाजिम भी रहेगा। कौन अपने घर से जा रहा है? गड़बड़ नहीं होना चाहिए। राशन बंटते समय कोई हल्ला-गुल्ला हो, यह अच्छी बात थोड़े है।
- तब एक किनारे से शुरू किया जाए।
- हां। पहिले पूरब की दलित बस्ती, फिर चेरवान, दुसधान, धोबी-कहार-नाई, छूटे-छटके सबको लिखते जाइए।
- तो ठीक है, रामधनी बोलते जायं, मैं लिखता जाता हूं।
- हां, मगर ऐसा भी नहीं कि हजार नाम का पोथी-पतरा तैयार कर दीजिए। बस, परिवार के मुखिया का नाम लिखिए और उसके आगे लिख दीजिए परिवार में चार मेंबर कि छह मेंबर। अब जैसे रामधनी अपने आदमी हैं तो परिवार में पांच मेंबर लिखिए चाहे आठ मेंबर, इतना चलेगा। इसी तरह रामधनी का एक और भाई शिवधनी और रामगोपाल के भाई शिवगोपाल का परिवार दिखा दीजिए। इसमें कोई हर्ज नहीं।
- मगर राशन लेते समय शिवधनी और शिवगोपाल कहां से आएंगे? रघुवीर पंडित ने पूछा।
प्रधान ने कहा- पढ़-लिखकर भी रह गए घामड़ के घामड़। अरे, दोनों के बड़े लड़के क्या उनके भाई नहीं हो सकते? लड़के जब बड़े हो जाते हैं तो बाप के भाई ही हो जाते हैं! वही दोनों शिवधनी और शिवगोपाल के परिवार का राशन ले लेंगे।
तीसरे दिन प्रधान जी के दरवाजे पर मेला-सा लग गया। नाश्ता-पानी के बाद ब्लाक के मुलाजिम के साथ कुर्सी लगाकर प्रधान जी बैठ गए। रघुवीर पंडित रजिस्टर से एक-एक नाम पुकारते और लोग सामने आ जाते। रामधनी और रामगोपाल बोरे से राशन निकाल कर हर परिवार के मेंबर के हिसाब से तौलकर देते जा रहे थे।
चेरो टोले के लोगों की ओर से थोड़ी हलचल हुई :
एक आदमी बोला- ई तो खुला अन्याव हो रहा है। छह परानी पर दस किलो पंद्रह दिन। राशन है कि हींग-जीरा की छौंक!
- का हो रामधनी, एही लिए नेता भए हो?
- वाह रे रामधनी!
- हाय बप्पा!
आखिर ब्लॉक से आया मुलाजिम बोल पड़ा- हल्ला नहीं, हल्ला नहीं। सब सरकार का नियम-कायदा है। भीड़ मत लगाओ। अपना- अपना राशन लेकर यहां से एक-एक आदमी निकलते जाओ।
दोपहर दो बजे तक खैरात बांटी जा चुकी थी। जलते-भुनते, बड़बड़ाते सब अपने-अपने घर चले गए। दलित बस्ती से लेकर चेरवान और दुसधान तक सब जगह एक साथ चूल्हे जल रहे हैं। एक साथ छप्परों के ऊपर धुआं उठ रहा है।
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वाह रे धरती! वाह रे अकास!
एक घड़ी दिन और होगा, नहीं, आधा घड़ी। शाम हो रही है। इससे क्या? मामला गरम है। स्साला रामधनी नेता बना है। भगवंती के घर के पास खाली जगह में लोग बैठे हैं। सारा दुसधान और चेरवान रामधनी पर जल-भुन रहा है।
- सब गुन रामधनी का है।
- रघुवीर से मिलकर लगता है परधान से कुछ गांठ लिया है।
- चलो अब जो मिला, उसी पर संतोख करो। शिवबरन बुढ़ऊ बोले।
- कइसा संतोख? छह परानी का पेट है, संतोख-फंतोख कइसा? भगवंती का बाप रामवचन झुंझला उठा।
- अच्छा, ई रामधनी जंगल क्यों नहीं जाता? कौन सरग से थैली गिरती है इसके आंगन में?
- बस कुछ नहीं, एक बार बलभर कुटम्मस कर दो। नेतागीरी का सारा नशा उतर जाएगा!
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लालटेन जल रही है। रघुवीर पंडित कुर्सी पर, प्रधान जी चादर ओढ़े खटिया पर और रामधनी दोनों के सामने दीवार से टेक लगाकर मोढ़े पर बैठा है। वह दिसा-फरागत के लिए शाम को नहर की पटरी की ओर निकला था कि तभी अचानक उस पर हमला हुआ। लात-घूंसे के बाद दो-चार लाठियां भी पड़ीं, लेकिन गिरते-पड़ते किसी तरह वह भाग आया। मारने वालों ने बड़ी चालाकी से काम लिया था। अंधेरे में हमलावरों को रामधनी पहचान नहीं सका। कहीं कोई टूट-फूट तो नहीं हुई मगर भितरचोट गहरी है। देह पर गरम हल्दी पीसकर मलनी पड़ेगी। रामधनी की कराह के साथ ही चुप्पी टूटी, पैर सीधा करने में घुटना चिलक गया।
- मैं देख रहा हूं, रामवचन का दिमाग बहुत चढ़ गया है। रघुवीर की ओर प्रधान ने देखा।
- अभी पाला नहीं पड़ा बच्चू का भले आदमी से। रघुवीर अपने थैले में सुपारी टटोलते हुए बोले। उनके हाथ में सरौता बेचैन हो रहा था।
- आह, मालिक! उसी के घर के सामने शाम को सब बैठे थे, आह...। पहलू बदलते हुए रामधनी बोला।
- ठीक है, ठीक। आधी फसल काम करके छोड़ा था, साला। हम प्रधान चच्चा के एतराज को लेकर सोचते थे। दो दिन में पानी का थाह चल जाएगा। कतरी गई सुपारी में चूना-कत्था मिल चुका था। रघुवीर पंडित ने उसे मुंह में झोंक दिया।
- कुछ न कुछ इंतजाम तो करना ही पड़ेगा। ये अच्छे लच्छन नहीं हैं। प्रधान ने अपनी मुहर मार दी।
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जैसे उड़ि जहाज को पंछी पुनि जहाज पर आवै, हफ्ता भर बाद ही सारी बस्ती फिर जंगल में खो गई।
लकू-लकू दुपहरिया। बस्ती में चिरई का पूत नहीं। सिर्फ उत्तर तरफ वाले बगीचे से पेंड़ुकी की आवाज आ रही है। रामवचन की बड़ी लड़की भगवंती के पेट में भूख के मारे ऐंठन हो रही थी। उसने तीन मुटूठी महुआ उबाल कर थोड़ा खुद खाया और बाकी अपनी दोनों छोटी बहनों को खिलाया। फिर चुटकी भर नमक मिला गरम पानी पीकर लेटी पड़ी रही। उसकी दो छोटी बहनें दरवाजे पर  " घर-घरौना "  खेल रही हैं।
तभी अचानक रघुवीर पंडित को अपने घर की ओर आते देख दोनों बच्चियां  सकपका गइं, लेकिन फिर वे उनकी ओर देखने लगीं। रघुवीर दरवाजे पर आकर खड़े हो गए। उन्होंने अपने गमछे से चार रोटियां निकालीं और बच्चियों को देते हुए पूछा- ए छोकरी, भगवंती कहां है?
दोनों रोटी मुंह में काटते हुए एक साथ बोलीं- भित्तर!
वे भीतर घुस गए। दोनों बच्चियों के हाथ में रोटियां थीं।
भगवंती को अजीब लगा। भूख के मारे उसका सिर चकरा रहा था, तब भी वह किसी तरह उठ बैठी।
- ले, रोटी खाएगी? रघुवीर ने भरी  नजर से उसे जांचा।
- मालिक, सबेरे से पेट में कुछ नहीं गया। बड़ी मेहरबानी है आपकी। भगवंती की निरीह आंखों में जैसे जमाने भर की भूख उतर आई।
- अरे, नहीं-नहीं, ई क्या बोलती हो? गाढ़े समय में अपने ही तो काम आते हैं! कहते हुए रघुवीर उसके पास बैठ गए और गमछा खोलकर रोटियां उसके सामने रख दी।
जैसे ही भगवंती का हाथ रोटी पर गया, रघुवीर ने उसे दबोच लिया। जैसे कोई भेड़िया मेमने पर टूट पड़ा हो, भूख से पस्त भगवंती छटपटाई। फिर उसका शरीर पथरा गया। वह चीखी-चिल्लाई नहीं, सिर्फ आंखों से आंसू बहते रहे।
शाम को उसके मां-बाप जंगल से लकड़ी का गटूठर और कर्मनाशा से कुछ मछलियां लेकर थके-मांदे लौटे तो भगवंती को जिंदा लाश की तरह पाया। देखा कि दो-चार रोटियां उसके पास ही पड़ी हैं। पूछा, क्या हुआ? भगवंती की रूलाई फूट पड़ी। दोनों छोटी बच्चियों ने बताया- रघुवीर पंडित आए थे, उन्होंने उन्हें रोटियां खिलाई।
आधी रात को जब सारा गांव सो रहा था, रामवचन के घर से आग की लपटें उठने लगीं। अड़ोसी-पड़ोसी उठकर आग बुझाने दौड़े। पूरा गांव ही जुट गया। प्रधान जी भी पहुंच गए। नहीं दिखाई पड़े तो केवल रघुवीर पंडित। रामवचन के परिवार का कहीं पता नहीं था।
आज तक कोई नहीं जान पाया कि घर में आग लगाकर रामवचन अपने परिवार के साथ उस रात कहां चले गए। अकाल में यह अनहोनी हुई थी गांव में!  ....... जारी
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