अरविन्द चतुर्वेद :
पश्चिम बंगाल में 15वीं लोकसभा के चुनावों के पहले से ही बदलाव की जो बयार बह रही है, उसका रूख किसी भी प्रकार से मोड़ पाने या दूसरी ओर घुमा सकने की सत्तारूढ़ वाममोर्चा की कोई भी कोशिश कामयाब होती नहीं दिखाई दे रही है। पहले त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव, फिर लोकसभा के आम चुनाव, इसके बाद खाली हुई विधानसभा सीटों के उपचुनाव और अब नगर निकायों के चुनाव तक यही देखने को मिला है कि सीपीएम की अगुवाई वाला लेफ्ट फ्रंट वाकई फ्रंट से बैकफुट पर है। यही हाल रहा तो अगले साल होनेवाले विधानसभा के आम चुनावों में शायद वह आखिरी दीवार भी ढह जाएगी, जिससे पीठ टिकाए सत्तारूढ़ वाममोर्चा किसी तरह खड़ा है। यह सही है कि वाममोर्चा त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और केरल सरीखे तीन राज्यों तक ही सत्ता की दौड़ में सिमटा रहा है, लेकिन इसके बावजूद उसे भारतीय राजनीति में अगर क्षेत्रीय दलों जैसा नहीं देखा गया तो इसका सबसे बड़ा कारण उसकी विचारधारा रही है, जो जनता के जनवादी अधिकारों और जनतांत्रिक मूल्यों पर आधारित है। लेकिन यह कहना ही पड़ता है कि अच्छे से अच्छे विचार और सिद्धांत अगर अमल में न लाए जाएं और उन्हें सिर्फ बहस-मुबाहिसे के औजार के तौर पर इस्तेमाल किया जाए- सिद्धांत और व्यवहार में उत्तरी-दक्षिणी ध्रुव जैसा फर्क हो तो नतीजा वही होता है, जो पश्चिम बंगाल में विभिन्न स्तरीय चुनावों में इधर देखने में आया है। आखिर पश्चिम बंगाल की वही जनता लेफ्ट फ्रंट को पटखनी पर पटखनी देती जा रही है, जिस जनता के भले की बड़ी-बड़ी बातें और लम्बे-चौड़े तर्क-वितर्क सीपीएम के नेता मंचों पर करते रहते हैं। राजधानी कोलकाता के दशकों से अविजित नगर निगम और साल्टलेक सिटी की नगर पालिका से सीपीएम का लाल पताका उतार कर जिस तरह से ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस का झंडा लहराया है, उसने वास्तव में लेफ्ट फ्रंट के सिपहसालारों की बोलती बंद कर दी है। नगर निकाय चुनावों के नतीजों पर मुख्यमंत्री बुद्धदेव भटूटाचार्य द्वारा कुछ भी बोलने से इनकार कर दिए जाने के दो ही अर्थ हो सकते हैं- या तो वे सचमुच बहुत हताश हो चुके हैं, या फिर साढ़े तीन दशक की सत्ता का वह दम्भ है,जो सहजता और विनम्रता पूर्वक जनादेश को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करके ममता बनर्जी को बधाई देने से उन्हें रोक देता है! बुद्धदेव या फिर बिमान बोस वैसे ही ममता बनर्जी को बधाई देते हुए हार स्वीकार कर सकते थे, जैसा कि कभी ममता के राजनीतिक गुरू रहे प्रणब मुखर्जी ने कांग्रेस की ओर से स्वीकार की। लेकिन नहीं, राजनीतिक शिष्टाचार और बड़प्पन की बात तो छोड़ दीजिए, अभी भी वाम खेमे के नेतागण अपने मुताबिक तर्क-तीर संधान करते नजर आ रहे हैं। जबकि इतने झटके खा चुकने के बाद सत्तारूढ़ वाममोर्चा और इसके नेताओं को जनता के मनोभाव के अनुरूप अपने और सरकार के तौर-तरीके बदलना-सुधारना इस समय पहली जरूरत है। अब तक तो यही देखा गया है कि वाममोर्चा की अगुवाई करनेवाली सीपीएम खुद मोर्चे के अपने सहयोगियों फारवर्ड ब्लाक, आरएसपी और सीपीआई के साथ दादागीरी करती आई है। सीपीएम और वाममोर्चा में " दुर्नीति का रोग " लगा हुआ है और पार्टी में " गलत व स्वार्थी तत्व " आ गए हैं, जिनकी सफाई की जरूरत है, यह विरोधी नहीं, स्वयं सीपीएम के जिम्मेदार लोग कह चुके हैं। लेकिन यक्ष प्रश्न तो यह है कि हार को भी सहजता से न लेने वाले वाममोर्चा के पास विधानसभा चुनाव तक खुद को सुधारने का वक्त ही कहां है?
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