अरविन्द चतुर्वेद
गोया वहां धरती की हथेलियाँ खाली थीं और उन पर रखने के लिए उनके पास पत्थर के सिवा कुछ न था ! सो, उन्होंने पत्थर को आकर दिया - रूप दिए और वह अमूल्य कलानिधि धरती की हथेलियों पर रख दिया, जिसे दुनिया खजुराहो के मंदिर-मूर्ति शिल्प के नाम से जानती है. कौन थे वे लोग ? मंदिरों के शिखर पर चंदेल राजाओं के कलाप्रेम की पताका फहरा रही है और मंदिरों का नख-शिख देहद्युति बिखेरती हजारों छोटी-बड़ी मूर्तियों के माध्यम से उन अनाम कला साधकों की प्रतिभा और पौरुष का बखान कर रहा है.
खजुराहो के मंदिर-शिल्पियों और मूर्तिकारों की आँखों में बसा सौन्दर्य मंदिरों के भूरे, बादामी बदन पर उत्कीर्ण मूर्तियों की शत-शत भंगिमाओं में अपरूप बनकर सदियों से अपनी छटा बिखेर रहा है. लोच, लास्य, लालित्य साकार है इन प्रस्तर प्रतिमाओं में. खजुराहो के मंदिरों के वास्तु में जो भव्यता है, वह मन को उदात्त बनाती है और ऊर्ध्वमुखी करती है. सुदीर्घ चबूतरों पर निर्मित उत्तुंग शिखर वाले इन मंदिरों के द्वार अपेक्षाकृत छोटे और संकरे हैं. इनमे प्रवेश करते हुए लग सकता है कि अपने ही मन के किसी अजाने दरवाजे से गुजर रहे हैं. और मंदिरों के बहिरंग पर उत्कीर्ण मूर्तियों का तो कहना ही क्या ! आकुलता के आवेग में एक-दूसरे में समाने को आतुर प्रसन्न बदन प्रतिमाएं देवी - देवताओं की भी हो सकती हैं, यक्ष-यक्षिणियों, अप्सराओं अथवा प्रणय निवेदक सामान्य नायक - नायिकाओं की भी. देह के इस अनंत उल्लास में कालिदास से लेकर जयदेव-विद्यापति से होते हुए रीतिसिद्ध कवि बिहारी तक कि सौन्दर्य चेतना और श्रृंगार बोध देख सकते हैं. ये मूर्तियाँ स्वयं में एक-दूसरे के लिए आश्रय भी हैं, आलंबन और उद्दीपन भी. हर मंदिर के बहिरंग पर शत-शत मूर्तियाँ और शत-शत भाव भंगिमाएं. कहीं बांकी चितवन तो कहीं चकित नयन. कहीं केश विन्यास करती, वेणी बांधती, कहीं अंगराग लगाती, कहीं आँखें आँजती, कहीं आभूषण-अलंकरण में निमग्न तो कहीं अपने ही रचित रूप पर रीझती दर्पण देखती, कहीं द्वार के ओट से झांकती तो कहीं चौखट से सर टिकाये द्वार पर खड़ी प्रतीक्षारत - नायिकाएं ही नायिकाएं. होठों की मंद स्मिति से लेकर मुख मंडल के भोलेपन तक ऐसा कोई सूक्ष्म भाव नहीं, जो खजुराहो के कला साधकों से छूटा हो. नृत्यान्गनाओं और वादकों की मूर्तियाँ ही नहीं, तमाम मूर्तियों की देहयष्टि में ऐसी लयात्मकता है मानो उनमें नृत्य-संगीत का समागम हो.
पत्थरों पर लिखी इन्हीं कला की इबारतों की इबादत में चित्रगुप्त मंदिर के सामने मुक्ताकाशी मंच पर हर साल आयोजित होता आ रहा है खजुराहो नृत्य महोत्सव. २५ फरवरी से ३ मार्च तक हर साल आयोजित होने वाले नृत्योत्सव के २८ वें आयोजन को देखने-सुनने का अवसर मुझे मिला था. मध्य प्रदेश कला परिषद् के प्रतिष्ठा पूर्ण इस नृत्योत्सव में अब तक भारतीय शास्त्रीय नृत्य शैलियों के लगभग सभी ख्यात कलाकार उपस्थित हो चुके हैं. सात दिनों तक संगीत की स्वर लहरियां मानो मंदिर-शिखरों को छूने की होड़ लेती रहीं और वे तमाम भाव-भंगिमाएं जो मंदिरों की प्रस्तर-प्रतिमाओं में हैं, गोया वहां से निकल-निकल कर मंच पर नृत्यान्गनाओं की भाव मुद्राओं और अंग संचालन में जीवंत होती रहीं. दूसरे नृत्योत्सव से खजुराहो का उत्सव इस मायने में भिन्न और विशिष्ट है कि मंदिर कला के सौन्दर्य और मूर्तियों के लास्य-लालित्य के प्रभाव से कलाकारों को एक ऐसा बना-बनाया वातावरण मिल जाता है, जिससे मिलकर उनका नृत्य-संगीत दर्शकों पर सहज ही जादुई असर डालता है और अपने आवेग में बहा ले जाता है.
एक बात और. नृत्य शैलियों के व्याकरण और विस्तार में न जाकर इतना कहना जरूरी है कि नृत्य-संगीत जगत में आज भी कवि जयदेव के गीत गोविन्द की अष्टपदियों का जादू चलता है, मध्यकालीन भक्ति-श्रृंगार की काव्य-रागात्मकता छाई हुई है और मच्छ शंकराचार्य से लेकर कालिदास तक के शिव - गौरी - गणेश स्तवन के बिना तो जैसे नृत्यकारों का काम ही नहीं चल सकता. यह सब देखते-सुनते नृत्योत्सव से लौटते हुए लगा था कि हमारे आधुनिक काव्य और समूची आधुनिकता के पास जबरदस्त बौद्धिकता है, बौद्धिकता का तनाव और बेचैनी है, लेकिन रागात्मकता शायद कहीं पीछे छूट गयी है !
4 comments: on "खजुराहो की खासियत"
very nice sir
bahut unda bhav...nice
bahut hikhubsurat
अच्छी रचना !!
Post a Comment