अरविन्द चतुर्वेद :
कहते हैं कि यह ग्लोबल समय है और सूचना क्रांति के चलते दुनिया सिमट कर बहुत छोटी हो गई है। अपने देश ने भी कम ग्लोबल तरक्की नहीं की है और सूचना तकनीक के मामले में तो कहा जाता है कि हमने दुनियाभर में झंडे गाड़ दिए हैं और परचम फहरा रहे हैं। लेकिन विडम्बना देखिए कि दिल्ली में बैठी हमारी सरकार को ऊबड़-खाबड़ भूगोल वाले अपने देश में कुल कितने जिले और जिला पंचायतें हैं, इसकी ठीक-ठीक और ठोस जानकारी नहीं है। इसी को कहते हैं चिराग तले अंधेरा। और वह भी ऐसा चिराग कि जिसकी रोशनी का तो गांवों में पता नहीं है मगर उसके नीचे अंधेरा ही अंधेरा फैला हुआ है। आखिर कहां है वह सुपर कम्प्यूटर और महान सूचना प्रौद्योगिकी, जो इतनी मोटी जानकारी भी मुहैया नहीं करा पाती। लेकिन नहीं, यह कमी सूचना प्रौद्योगिकी की नहीं, बल्कि हमारे कामकाज करने के तरीके की है। इस बात पर तो सिर्फ माथा ही पीटा जा सकता है कि केंद्र सरकार के पंचायती राज मंत्रालय को यह नहीं मालूम है कि अपने देश में कुल कितनी जिला पंचायतें हैं। ग्रामीण विकास से सम्बंधित संसद की स्थाई समिति ने पंचायती राज मंत्रालय के बारे में अपनी रिपोर्ट में आश्चर्य जताया है कि मंत्रालय को पता ही नहीं है कि देश में आज की तारीख में कुल कितनी जिला पंचायतें हैं। भारतीय जनता पार्टी की वरिष्ठ सांसद सुमित्रा महाजन की अध्यक्षता वाली इस समिति की रिपोर्ट लोकसभा में पेश की गई, तब पंचायती राज मंत्रालय की इस मासूमियत का सच सामने आया। पंचायती राज मंत्रालय का कहना है कि पंचायतों की संख्या के सम्बंध में जो सूचना है, वह 2007-08 के दौरान प्रदेश पंचायतों पर हुए एक शोध के परिणामों के आधार पर है, जबकि जिलों और ग्रामों की संख्या के बारे में जानकारी पेयजल आपूर्ति विभाग से ली गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सुपर कनेक्टिविटी और सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में मंत्रालय अब भी उन्हीं सूचनाओं का अचार डाले हुए है, जो तीन साल पुरानी हैं यानी 2007-08 के दौरान यह जुटाई गई थीं। हमारे विभिन्न मंत्रालयों में परस्पर कितना तालमेल और आदान-प्रदान होता है, यह भी इसी से पता चल जाता है कि पंचायती राज मंत्रालय के मुताबिक देश में 608 जनपद हैं, जबकि ग्रामीण विकास मंत्रालय ने ठीक एक साल पहले यानी 1 अपै्रल 2009 तक के आधार पर बताया है कि देश में कुल 619 ग्रामीण जिले हैं। यह मामला संख्या गिनने और गणित-ज्ञान बढ़ाने का कतई नहीं है, बल्कि इससे बेहद गम्भीर और संवेदनशील चूक उजागर होती है, क्योंकि ठोस तथ्यों और सूचनाओं के आलोक में ही तो योजनाएं और कार्यक्रम बनाकर उन पर अमल किया जा सकता है। आखिर अंधेरे में तो विकास के तीर नहीं चलाए जा सकते! यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि पंचायती राज मंत्रालय की लापरवाही या उदासीनता या फिर काहिली ऐसे वक्त की चीज है, जब वर्ष 2009-10 को "ग्राम सभा वर्ष" घोषित करके पंचायती राज व्यवस्था को अधिक सक्षम, सुचारू और प्रभावकारी बनाने का संकल्प लिया गया था। ऐसी लचर स्थिति में जाहिर है कि संसद की स्थाई समिति ने मंत्रालय की न सिर्फ खिंचाई की है, बल्कि यह भी कहा है कि प्रदेशों को ग्राम सभा बैठकें आयोजित करने के लिए सर्कुलर जारी करने और महज "ग्राम सभा वर्ष" घोषित करने से ही मंत्रालय को दिए गए पंचायती राज व्यवस्था के काम और दायित्व पूरे नहीं हो जाते। इस इकलौते प्रसंग को ही आईना बनाएं तो आसानी से समझ सकते हैं कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज का सपना आजादी के छह दशक बाद भी क्षत-विक्षत क्यों है। हम चाहे ग्राम सभा वर्ष मना लें या फिर महात्मा गांधी के "हिंद स्वराज" की शताब्दी मना लें, लेकिन अगर संकल्प और सदूइच्छाओं को पूरा करने की सजगता और पराक्रम हमारे भीतर नहीं होगा तो सबकुछ धरा का धरा रह जाएगा। आखिर जिसे पाखंड कहते हैं, वह इससे अलग कोई चीज तो नहीं होती है, न!
2 comments: on "इसे कहते हैं चिराग तले अँधेरा!"
पहले चिराग तले अँधेरा होता था
और
अब
बल्ब के ऊपर अँधेरा होता है
इस इकलौते प्रसंग को ही आईना बनाएं तो आसानी से समझ सकते हैं कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज का सपना आजादी के छह दशक बाद भी क्षत-विक्षत क्यों है।
बिल्कुल सही !!
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