खेल से दूर सदाबहार खेल

अरविन्द चतुर्वेद :
जो खेल होता हुआ दिखता है चाहे वह हॉकी हो या क्रिकेट, उससे अलग एक और सदाबहार खेल चलता रहता है, जो वास्तविक खेलों, उनकी तैयारियों और उनको संचालित-आयोजित करने वाले खेलते रहते हैं। इस सदाबहार खेल के कई रंग हो सकते हैं- पैसे का, भ्रष्टाचारी कारोबार का, काहिली का और लालफीताशाही का भी। क्रिकेट का तो खैर जिक्र करने की ही जरूरत नहीं है, क्योंकि आजकल थरूर के इस्तीफे और ललित मोदी के इकबाल से आईपीएल के कमाल के बारे में वैसे ही बहुत कुछ कहा-सुना जा रहा है और जांच-पड़ताल चल रही है। खेलों से अलग जो सदाबहार खेल चलता रहता है, उसने भारत की विश्वविजयी हॉकी को आज किस गर्त में पहुंचा दिया है, यह भी सभी जानते हैं। लेकिन जरा सोचिए कि जिन राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन को राष्ट्रीय प्रतिष्ठा से जोड़ दिया गया है, उनकी तैयारियों का क्या हाल है? एक साल पहले से ही कहा जा रहा था कि इन खेलों की तैयारियों से जुड़ी विभिन्न एजेंसियों में जैसा तालमेल होना चाहिए, वैसा नहीं है, बल्कि इसके उलट एक एजेंसी दूसरी एजेंसी पर सहयोग न करने की तोहमत लगाने और अड़ंगेबाजी में ज्यादा लगी हुई हैं। ऐसे कामकाजी माहौल में जैसी मंथर गति से राष्ट्रमंडल खेलों के लिए निर्माण कार्य चल रहे थे, उसके मदूदेनजर आशंका जताई जाती रही है कि शायद ही समय से सारी तैयारियां पूरी हो सकें। लेकिन तब राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबान यानी दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित बार-बार यही कहती रहीं कि सबकुछ समय से हो जएगा। लेकिन अब यह सच्चाई सामने आ गई है और सरकार द्वारा आधिकारिक तौर पर कबूल कर लिया गया है कि अक्टूबर से शुरू हो रहे राष्ट्रमंडल खेलों के आधारभूत संरचना का निमार्ण कार्य पूरी गति से आगे बढ़ाए जाने के दावों के बावजूद परियोजनाओं को पूरा करने में देरी हुई है और आवंटित धन का पूरा उपयोग नहीं हो पा रहा है। मानव संसाधन मंत्रालय से जुड़ी स्थाई संसदीय समिति की रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रमंडल खेल से जुड़ी आधारभूत संरचना के निर्माण कार्य में विभिन्न निकायों के बीच समन्वय में और इसे पूरा करने के निध्रारित कार्यक्रम के प्रति प्रतिबद्धता में कमी पाई गई है। समिति ने कहा है कि राष्ट्रमंडल खेल शुरू होने में काफी कम समय रह जाने के चलते जल्दबाजी में निर्माण कार्य किए जाने से अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता के स्तर की गुणवत्ता से समझौता किया जा सकता है। यही नहीं, खिलाड़ियों के अभ्यास, भोजन और उपकरणों आदि से जुड़ी सुविधाओं का विकास भी समय से पीछे चल रहा है। समिति ने अलग-अलग खेलों के आयोजन स्थलों के निर्माण कार्य की मौजूदा स्थिति की बाकायदा जो जानकारी दी है, उसके मुताबिक औसतन 80-90 फीसदी तक काम पूरे हुए हैं। हालत यह है कि राष्ट्रमंडल खेल प्रतियोगिताओं में भाग लेनेवाले हमारे खिलाड़ियों को भी निर्माण में हो रही देरी के चलते अलग-अलग जगहों पर प्रैक्टिस करनी पड़ रही है और उनकी खेल तैयारी जैसे-तैसे चल रही है। संसदीय समिति ने यह भी उजागर किया है कि परियोजनाओं को पूरा करने में देरी के कारण उनकी लागत भी काफी बढ़ गई है। कुल मिलाकर संसदीय समिति की इस सरकारी हिन्दी पर न जाकर यही समझिए कि अंतरराष्ट्रीय स्तर के इस प्रतिष्ठापूर्ण खेल आयोजन की तैयारियों में भी वही परम्परागत सदाबहार खेल खेला जा रहा है, जिसमें पानी की तरह पैसे तो बह जाते हैं लेकिन काम घटिया ढंग का होता है। जहां तक समय का सवाल है तो अगर मंत्री के स्वागत में किसी चमत्कार की तरह रातोरात सड़क बन जाया करती है तो तैयारी भी हो ही जाएगी!   
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1 comments: on "खेल से दूर सदाबहार खेल"

Unknown said...

जिन्दा लोगों की तलाश! मर्जी आपकी, आग्रह हमारा!!

काले अंग्रेजों के विरुद्ध जारी संघर्ष को आगे बढाने के लिये, यह टिप्पणी प्रदर्शित होती रहे, आपका इतना सहयोग मिल सके तो भी कम नहीं होगा।
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उक्त शीर्षक पढकर अटपटा जरूर लग रहा होगा, लेकिन सच में इस देश को कुछ जिन्दा लोगों की तलाश है। सागर की तलाश में हम सिर्फ सिर्फ बूंद मात्र हैं, लेकिन सागर बूंद को नकार नहीं सकता। बूंद के बिना सागर को कोई फर्क नहीं पडता हो, लेकिन बूंद का सागर के बिना कोई अस्तित्व नहीं है।

आग्रह है कि बूंद से सागर में मिलन की दुरूह राह में आप सहित प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति का सहयोग जरूरी है। यदि यह टिप्पणी प्रदर्शित होगी तो निश्चय ही विचार की यात्रा में आप भी सारथी बन जायेंगे।

हम ऐसे कुछ जिन्दा लोगों की तलाश में हैं, जिनके दिल में भगत सिंह जैसा जज्बा तो हो, लेकिन इस जज्बे की आग से अपने आपको जलने से बचाने की समझ भी हो, क्योंकि जोश में भगत सिंह ने यही नासमझी की थी। जिसका दुःख आने वाली पीढियों को सदैव सताता रहेगा। गौरे अंग्रेजों के खिलाफ भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस, असफाकउल्लाह खाँ, चन्द्र शेखर आजाद जैसे असंख्य आजादी के दीवानों की भांति अलख जगाने वाले समर्पित और जिन्दादिल लोगों की आज के काले अंग्रेजों के आतंक के खिलाफ बुद्धिमतापूर्ण तरीके से लडने हेतु तलाश है।

इस देश में कानून का संरक्षण प्राप्त गुण्डों का राज कायम हो चुका है। सरकार द्वारा देश का विकास एवं उत्थान करने व जवाबदेह प्रशासनिक ढांचा खडा करने के लिये, हमसे हजारों तरीकों से टेक्स वूसला जाता है, लेकिन राजनेताओं के साथ-साथ अफसरशाही ने इस देश को खोखला और लोकतन्त्र को पंगु बना दिया गया है।

अफसर, जिन्हें संविधान में लोक सेवक (जनता के नौकर) कहा गया है, हकीकत में जनता के स्वामी बन बैठे हैं। सरकारी धन को डकारना और जनता पर अत्याचार करना इन्होंने कानूनी अधिकार समझ लिया है। कुछ स्वार्थी लोग इनका साथ देकर देश की अस्सी प्रतिशत जनता का कदम-कदम पर शोषण एवं तिरस्कार कर रहे हैं।

अतः हमें समझना होगा कि आज देश में भूख, चोरी, डकैती, मिलावट, जासूसी, नक्सलवाद, कालाबाजारी, मंहगाई आदि जो कुछ भी गैर-कानूनी ताण्डव हो रहा है, उसका सबसे बडा कारण है, भ्रष्ट एवं बेलगाम अफसरशाही द्वारा सत्ता का मनमाना दुरुपयोग करके भी कानून के शिकंजे बच निकलना।

शहीद-ए-आजम भगत सिंह के आदर्शों को सामने रखकर 1993 में स्थापित-ष्भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थानष् (बास)-के 17 राज्यों में सेवारत 4300 से अधिक रजिस्टर्ड आजीवन सदस्यों की ओर से दूसरा सवाल-

सरकारी कुर्सी पर बैठकर, भेदभाव, मनमानी, भ्रष्टाचार, अत्याचार, शोषण और गैर-कानूनी काम करने वाले लोक सेवकों को भारतीय दण्ड विधानों के तहत कठोर सजा नहीं मिलने के कारण आम व्यक्ति की प्रगति में रुकावट एवं देश की एकता, शान्ति, सम्प्रभुता और धर्म-निरपेक्षता को लगातार खतरा पैदा हो रहा है! हम हमारे इन नौकरों (लोक सेवकों) को यों हीं कब तक सहते रहेंगे?

जो भी व्यक्ति स्वेच्छा से इस जनान्दोलन से जुडना चाहें, उसका स्वागत है और निःशुल्क सदस्यता फार्म प्राप्ति हेतु लिखें :-
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, राष्ट्रीय अध्यक्ष
भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यालय
7, तँवर कॉलोनी, खातीपुरा रोड, जयपुर-302006 (राजस्थान)
फोन : 0141-2222225 (सायं : 7 से 8) मो. 098285-02666
E-mail : dr.purushottammeena@yahoo.in

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