छह-छह पैसा चल कलकत्ता

अरविन्द चतुर्वेद
 तीन गांवों को  खरीद कर कलकत्ता उर्फ कोलकाता की नींव डालने वाले जॉब चार्नाक  ने भी कभी यह कल्पना नहीं की होगी कि  तीन सौ साल बाद यह महानगर इतना बड़ा मायावी, इतना बहुरूपिया बन जाएगा। बंगाली बाबुओं का कलकत्ता आजादी के बाद से ही लगातार सिमटता गया है। महानगर की कुछ खास पुरानी बस्तियों-गलियों में मिट्टी के कुल्हड़ में चाय की चुस्कियों के बीच बीड़ी के कश के साथ खांसी की ठक्-ठक् में सांसें नाप रहा है। यह वही कलकत्ता है, जिसकी ताक-झांक राजकमल चौधरी के उपन्यासों-कहानियों में बखूबी दिखाई देती है। दूसरी ओर, हाय महंगाई-हाय बेकारी में ऊभ-चूभ करता एक दूसरा कलकत्ता भी है जो बेकारों या सरकारी-गैर सरकारी कामगारों के रंग-बिरंगे जुलूस के रूप में सड़कों का यातायात जाम करता दिते हबे-दिते हबे (देना होगा-देना होगा) की रट लगाता शहीद मीनार धर्मतल्ला में धर्मघट (जनसभा) किए हुए है। पता नहीं, राजीव गांधी ने कलकत्ता के किस रूप को देखकर यह विवादास्पद टिप्पणी की थी कि कलकत्ता मरता हुआ शहर है। लेकिन इतना निश्चित ही कहा जा सकता है कि वे जो रूप देख सके होंगे, वह बहुरूपिया महानगर की कोई एक खास शक्ल होगी- मौत का इंतजार करते रोगी की। मगर कलकत्ता मर नहीं सकता। काली का यह शहर रक्तबीज है।
कलकत्ता जैसे महानगर तो अमरबेल की तरह होते हैं, जो और भी ज्यादा-ज्यादा फैलते जाते हैं, भले ही वह जिंदगी छीजती चली जाती है जिससे यह अमरबेल रस चूस कर अमर होती है।
कलकत्ता के जन-समुद्र में आबादी का ज्वार ही ज्वार है। वरना महानगर का तट तोड़कर बाड़ी-गाड़ी-बंगला वालों की साल्टलेक सिटी पैदा न होती।
आज दमदम हवाई अड्डा और उससे भी आगे तक फैली नई आबादी की बस्तियां जन-समुद्र में आबादी के ज्वार का ही नतीजा हैं। आबादी का यह ज्वार महानगर के चौतरफा देखा जा सकता है। मेट्रो रेल के चालू होने के बावजूद बसों में भीड़ कम होने के बजाय कुछ ज्यादा ही हुई है। महानगर में आबादी के उफान का अहसास चौबीस परगना और हावड़ा-हुगली जिलों के उपनगरों में रिहायशी जमीन की कीमत से भी किया  जा सकता है। जो जमीन दस-पंद्रह साल पहले चार-पांच हजार रुपए कट्ठा की दर से आसानी से मिल जाती थी, वही जमीन आज साठ-सत्तर हजार रुपए कट्ठा की कीमत पर भी मुश्किल से मिल पाती है।
मगर कलकत्ता इतना भर ही हो तो फिर कलकत्ता क्या! अमरबेल की तरह फैलते कलकत्ता में अगर जिंदगी की छीजन देखनी हो तो फुटपाथों पर, पुलों के नीचे, सरकारी और पुरानी इमारतों के अनुपयोगी बरामदों और कोनों में छितराई-सिमटी स्थाई-अस्थाई फुटपाथी आबादी को देखिए। फुटपाथ पर और खुले आसमान के नीचे जिंदगी बसर करने वालों की तादाद हजारों में नहीं, लाखों में है। खुले पार्कों और वृक्षों के नीचे रहने वाले पॉलिथिन, बोरे और टाट के टुकड़ों से अपना रैन बसेरा बनाए हुए हैं। कूड़े के ढेर से रद्ïदी बीनने वाले, होटलों के जूठन पर पेट पालने वाले, पैंतीस-चालीस की उम्र होने तक बुढ़ा जानेवाले लोगों की यह जिंदगी भले ही क्षण-भंगुर हो, मगर उनका संसार क्षण-भंगुर नहीं है। तमाम सरकारी फाइलें और योजनाएं मुंह चुराती फिरती हैं इस दुनिया से। यह न तो मुख्यमंत्री कामरेड ज्योति बसु का कलकत्ता था और न मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्ïटाचार्य का कलकत्ता है।
सियालदह में ऐसे ही एक फुटपाथ पर रहने वाले लगभग 35 वर्षीय मुकुंद दास ने बताया- भइया, इसी फुटपाथ पर चोर, गुंडे, पाकेटमार, वैगन-ब्रेकर आदि भी पैदा होते हैं, वे लोग तो किसी के लिए किराए पर या गिरोह में काम करते हैं, इसलिए धर-पकड़ होने पर आसानी से छूट जाते हैं, पर मेरे जैसा यदि कोई पेट के लिए मजबूर होकर कुछ करता है तो पिटाई अलग, जेल में ले जाकर ठूंस देते हैं।
इसी तरह सियालदह इलाके में ही फुटपाथ पर, मगर दिन के उजाले में नहीं, रात के अंधेरे में रहने वाली अस्थाई फुटपाथी लड़कियां शांति, विमला और वंदना ने काफी झिझक और ना-नुकुर के बाद यह कबूल किया कि वे देह का धंधा करती हैं। बहूबाजार में सड़क के नुक्कड़ पर वे शाम को खड़ी हो जाती हैं तो रातभर में सौ-डेढ़ सौ रुपए या कभी-कभी इससे ज्यादा भी कमा लेती हैं। कारण वही गरीबी, छोटे-छोटे भाई-बहन और बूढ़े-बीमार मां-बाप। चौबीस परगना जिले के देहात की हैं ये लड़कियां। पुलिस की वसूली और वजह-बेवजह तंग किए जाने की शिकायत इन्हें भी है। महानगर के जीवन की छीजन की यह आखिरी परत है। मगर एक परत और भी है, जिसे सोनागाछी, मुंशीगंज, बहूबाजार आदि देह व्यापार की बड़ी मंडियों के रूप में देखा जा सकता है।
बहरहाल, यह तो अकेले कोलकाता की ही नहीं, मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों की भी साझा त्रासदी है। मगर कोलकाता की सर्वाधिक मार्मिक और कारुणिक तसवीर तो वह है, जो उत्तर प्रदेश और बिहार की तरफ से होकर आनेवाली रेलगाडिय़ों की कोख से पैदा होती है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर, इलाहाबाद, जौनपुर, आजमगढ़, बलिया, गाजीपुर, गोरखपुर और बिहार के आरा, छपरा, गया, सिवान, पटना, भागलपुर आदि जिलों के गांवों-कस्बों से कोलकाता कमाने आए लाखों परदेसियों की व्यथा-कथा इन जिलों के देहात में लोकगीत बनकर जैसे औरतों के कंठहार बन गई है। कोलकाता महानगर अपने परदेसी की प्रतीक्षा में दिन गुजारने वाली औरतों के लिए एक टीस है- किसी सौत से कम नहीं है। अकेले महानगर में रहने वाले भोजपुरी भाषा-भाषियों की तादाद पंद्रह लाख से ऊपर पहुंचती है। उत्तर प्रदेश और बिहार के जातियों की बेड़ी में जकड़े इन सामंती जिलों के नौजवान-अधेड़ और बूढ़े हर साल सूखा और बाढ़ की मार खाकर ट्रेनों में टिड्डियों के दल की भांति चढ़ते हैं और हावड़ा का पुल पार करके महानगर की मायावी गुफा में समा जाते हैं।
अच्छा कमाएंगे, चार पैसा जुटाएंगे और फिर घर वापस लौट जाएंगे- का सपना लेकर आनेवालों के सपने रास्ते में ही ट्रेन की भीड़भाड़ और धक्कामुक्की में जो दबना-कुचलना शुरू होते हैं तो महानगर में पहुंचते-पहुंचते लहूलुहान हो जाते हैं। कठिन मेहनत-मशक्कत से सालभर में कमाकर, कलेजे पर पत्थर रखे, पेट काटे किसी भोजपुरी मजदूर की जेब वापसी में अगर मोकामा पैसेंजर में कट जाए और वह बुक्का फाड़कर माई गे-बाबू गे की दुहाई देता हुआ रो पड़े तो उस महाकरुणा की गिरफ्त में आने से बच पाना किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए मुश्किल हो जाता है।
कोलकाता के मोटिया मजदूर, होटल-रेस्तराओं में पानी भरते, बर्तन धोते, झालमुड़ी बेचते, पार्कों में चलती-फिरती अंगीठियों में गरम चाय बेचते, खोमचा लगाते, ठेला खींचते, पीठ पर माल ढोते-माल उतारते और हावड़ा-सियालदह के प्लेटफार्म पर आधे बांह की लाल कमीज पहने कुलियों के रूप में यूपी-बिहार के ये भोजपुरी लोग मिल जाएंगे। उजड्ïड-गंवार की हिकारत झेलकर, कनपटी का पसीना पोंछ मुस्करा देनेवाले इस भोजपुरी बिहारी को पता नहीं कब लागा झुलनिया का धक्का, बलम कलकत्ता निकल गए। इन लाखों भोजपुरी भाषियों के लिए रवींद्र सदन, अकादमी ऑफ फाइन आर्ट्स, सिनेमा का सरकारी पे्रक्षागृह नंदन आदि कोई अर्थ नहीं रखते। रामऔतार उपाध्याय नामक तोता-भविष्य वाचक एक ज्योतिषी, जो चौरंगी के फुटपाथ पर बरसों से बैठते आ रहे हैं, बताते हैं कि वे पहली बार जब कलकत्ता आए थे तब उनकी उम्र पंद्रह साल थी, आज वे छप्पन साल के हैं। बीस साल पहले उनकी कमाई अच्छी थी, मगर अब दिनभर में पचास रुपए भी मिल जाएं तो गनीमत है। फिर भी कहते हैं- जब सारी उमर इसी कलकत्ते में कट गई तो अब अंत में कहां जाएंगे, बचवा?
पता नहीं, ऐसे कितने रामऔतार इस कोलकाता में होंगे, जो भिखारी ठाकुर के बिदेसिया का सच ढो रहे हैं-
छह रे महीना कहि के गइले कलकतवा,
बीति गइले बारह बरिस रे बिदेसिया...
अब कोयला इंजन वाली ट्रेन का जमाना तो रहा नहीं और न छह पैसे का एक आनेवाला, लेकिन उसी जमाने से यूपी-बिहार के लोग परदेसी बनकर कोलकाता खाने-कमाने आते रहे हैं। यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। उनको ढोनेवाले इंजन की छुक-छुक्, छक्-छक् भोजपुरी इलाकों के देहात में बच्चों के रेल के खेल का छह-छह पैसा चल कलकत्ता बन गया है। देखिए कि आदमी अपने विषाद को भी कैसे विनोद में बदल देता है!

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