अरविन्द चतुर्वेद
वाकई एक तिलस्म है सोनागाछी. यहाँ की बदनाम बस्तियों में जिस्म के खरीदार ग्राहक के लिए भी बहुत आसान नहीं है इस तिलस्म का खुल जा सिमसिम. इस तिलस्म को खोलकर ठिकाने तक ले जाने का काम करते हैं समस्तीपुर के मंगला ( पूरा नाम मंगला प्रसाद ), बीरभूम के बोनू और राधा ( पूरा नाम राधाचरण ) जैसे दलाल .
सोनागाछी के मायावी जिस्म बाज़ार के विस्तार का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह इमामबख्श लेन, गौरी शंकर लेन, दुर्गाचरण मित्र लेन, मस्जिदबादी स्ट्रीट और दालपट्टी तक कमोबेश अपना दायरा बना चुका है। यह बाजार सिमटने के बजाय दिन-ब-दिन फैलता ही जा रहा है। फिलहाल, सोनागाछी जिस्म बाजार की चौहद्दी पश्चिम में चितपुर ट्राम लाइन, पूरब में सेंट्रल एवेन्यू, दक्षिण में चक्रवर्ती लेन और उत्तर में मस्जिदबाड़ी स्ट्रीट तक फैली हुई है।
ऐसा नहीं है कि इस समूचे दायरे में सिर्फ जिस्म की दूकानें ही सजी हैं। शरीफ नागरिकों का घर-संसार भी है, पुश्तैनी बाशिंदों के मकान भी हैं, दूसरे आम कारोबारी लोग भी हैं और नौकरी-पेशा लोग भी। लेकिन इनकी हालत बत्तीस दांतों के बीच जीभ जैसी है। जिस्म बाजार के बीच बसे परिवारी लोगों के घरों के दरवाजे अमूमन शाम साढ़े सात-आठ बजे तक बंद हो जाते हैं। अगर घर का कोई आदमी बाहर रह गया है तो वह भी कोशिश यही करता है कि किसी तरह रात नौ बजे तक जरूर घर पहुंच जाए।
सोनागाछी के विशाल देह बाजार के बारे में दलाल मंगला प्रसाद बड़े फख्र के साथ कहता है- दुनियाभर में मशहूर है साहब, कलकत्ते की यह सोनागाछी। करीब पच्चीस-तीस हजार औरतें तो होंगी ही।
- आप लोग कितने होंगे?
मंगला ने जवाब दिया- साला, इस लाइन में भी बड़ा कंपटीशन हो गया है, साहब। दस हजार दलाल तो होंगे ही।
- कितनी कमाई हो जाती है?
- ऊपर वाले की मेहरबानी से ठीके हो जाती है। सत्तर-पचहत्तर तो कहीं नहीं गया है। किसी किसी दिन दो-चार दिलदार ग्राहक मिल गए तो दो-ढाई सौ भी हो जाता है।
सोनागाछी का दलाल मंगला अपना परिवार यहां कोलकाता में नहीं रखता। परिवार समस्तीपुर में गांव में रहता है। यहां से पैसे भेजता है। तीन-चार महीने पर दो-चार दिन के लिए गांव हो आता है। गांव-घर वाले यही जानते हैं कि मंगला कोलकाता में कोई नौकरी करता है। पैंतालिस साल की उम्र वाला मंगला बीस सालों से दलाली कर रहा है।
बताता है- शुरू-शुरू में यह काम बहुत खराब लगता था। एक-दो साल तक रोज यही मन में आता था कि कल से यह काम छोड़ देंगे। लेकिन एक बार जो यह धंधा पकड़ाया तो कहां छूटा, साहब।
जिस चाय की दूकान पर मंगला से बात हो रही थी, वह दूकान भी मंगला की जान-पहचान की थी। फिर भी मंगला हड़बड़ी में था। वह मुझसे जल्दी से जल्दी पिंड छुड़ा लेना चाहता था। जब उससे मैंने सोनागाछी का जिस्म बाजार पूरा दिखा देने और किसी अड्डे पर चलकर किसी लड़की से बातचीत करा देने की बात की तो मेरी बात पूरी होने के पहले ही चालाक व अनुभवी दलाल मंगला ने कहा- पूरा सोनागाछी देखने-दिखाने में दो-तीन घंटे से कम टाइम नहीं लगेगा, साहब। मेरा तो आज का धंधा ही चौपट हो जाएगा।
आखिर में मुफ्त के चाय-नाश्ते-सिगरेट के बाद बेहयायी से मुस्कराते हुए मंगला धंधा चौपट करने के एवज में कुछ लेकर एक अड्डे पर मुझे ले गया। बीस-पच्चीस साल की दो लड़कियां अनमनी-सी कमरे के बाहर संकरे बरांडेनुमा गलियारे में खड़ी थीं। उन्होंने एक उचटती-सी नजर हम पर डाली और फिर नीचे से आने वाली सीढिय़ों की तरफ देखने लगीं।
मंगला मुझे लेकर कमरे में घुस गया। उसके साथ होने के कारण मैं निश्चिंत था। कमरे में सजधज कर बैठी, करीब तीस साल की औसत शक्ल-सूरत मगर अच्छे कद-काठी वाली युवती के चेहरे पर हमें देखकर पहले तो चमक उभरी। पर मैथिली में जैसे ही मंगला ने उससे कहा- देस से आए हैं, अपने भरोसे के आदमी हैं। थोड़ा यह सब देखना-जानना चाहते हैं- महिला के चेहरे पर झल्लाहट का भाव उभर आया। वह शिष्ट महिला थी और शायद मंगला के लिहाज के चलते वह उखड़ी तो नहीं, फिर भी नाराजगी की झलक देते सपाट लहजे में कहा- इसमें देखने-जानने का क्या है? हमलोग क्या कोई तमाशा हैं? अपने बारे में कुछ भी बोलने-बताने से उसने साफ मना कर दिया और अपने हावभाव से जता दिया कि मैं वहां से चलता बनूं।
इतनी देर में ही उस अच्छे-खासे आयताकार कमरे की एक झलक मिल चुकी थी। कमरे के एक सिरे पर लकड़ी की बंद आलमारी थी जिसमें शायद उसके कपड़े-लत्ते रहे होंगे। बेंत की इकलौती कुर्सी पर कुशन- ग्राहक के बैठने के लिए, तिपाईनुमा टेबुल, लकड़ी के तख्त पर हल्का गद्ïदेदार बिस्तर और साफ धुली चादर-उसी पर वह बैठी थी। कमरे के दूसरे छोर पर एक स्टैंड था, जिस पर प्लास्टिक का पानी भरा एक जग कांच की दो गिलासें और एक-दो प्लेटें पड़ी थीं। लंबाई वाली भीतरी दीवार में एक दरवाजा भी था, जिसपर परदा टंगा था। शायद वह बाथरूम और छोटी-मोटी रसोई जैसी जगह में खुलता हो। दीवार पर दो कैलेंडर अलग-अलग टंगे थे- एक, लेटे हुए शिव की छाती पर खड़ी, गले में मुंड-माला पहने, जीभ निकाले हुई काली का और दूसरा, सिर्फ चड्ढी पहने, खड़े, मांस-पेशियां दिखाते, चौड़ी छाती वाले बॉडीबिल्डर पहलवान का, जो निश्चय ही आनेवाले ग्राहक को चुनौती देता हुआ लगता होगा।
बहरहाल, कमरे से निकल कर जब मैं सीढिय़ां उतर रहा था, पीछे से बरामदे में खड़ी दोनों लड़कियों की जोरदार खिलखिलाहट सुनाई पड़ी।
.... जारी
वाकई एक तिलस्म है सोनागाछी. यहाँ की बदनाम बस्तियों में जिस्म के खरीदार ग्राहक के लिए भी बहुत आसान नहीं है इस तिलस्म का खुल जा सिमसिम. इस तिलस्म को खोलकर ठिकाने तक ले जाने का काम करते हैं समस्तीपुर के मंगला ( पूरा नाम मंगला प्रसाद ), बीरभूम के बोनू और राधा ( पूरा नाम राधाचरण ) जैसे दलाल .
सोनागाछी के मायावी जिस्म बाज़ार के विस्तार का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह इमामबख्श लेन, गौरी शंकर लेन, दुर्गाचरण मित्र लेन, मस्जिदबादी स्ट्रीट और दालपट्टी तक कमोबेश अपना दायरा बना चुका है। यह बाजार सिमटने के बजाय दिन-ब-दिन फैलता ही जा रहा है। फिलहाल, सोनागाछी जिस्म बाजार की चौहद्दी पश्चिम में चितपुर ट्राम लाइन, पूरब में सेंट्रल एवेन्यू, दक्षिण में चक्रवर्ती लेन और उत्तर में मस्जिदबाड़ी स्ट्रीट तक फैली हुई है।
ऐसा नहीं है कि इस समूचे दायरे में सिर्फ जिस्म की दूकानें ही सजी हैं। शरीफ नागरिकों का घर-संसार भी है, पुश्तैनी बाशिंदों के मकान भी हैं, दूसरे आम कारोबारी लोग भी हैं और नौकरी-पेशा लोग भी। लेकिन इनकी हालत बत्तीस दांतों के बीच जीभ जैसी है। जिस्म बाजार के बीच बसे परिवारी लोगों के घरों के दरवाजे अमूमन शाम साढ़े सात-आठ बजे तक बंद हो जाते हैं। अगर घर का कोई आदमी बाहर रह गया है तो वह भी कोशिश यही करता है कि किसी तरह रात नौ बजे तक जरूर घर पहुंच जाए।
सोनागाछी के विशाल देह बाजार के बारे में दलाल मंगला प्रसाद बड़े फख्र के साथ कहता है- दुनियाभर में मशहूर है साहब, कलकत्ते की यह सोनागाछी। करीब पच्चीस-तीस हजार औरतें तो होंगी ही।
- आप लोग कितने होंगे?
मंगला ने जवाब दिया- साला, इस लाइन में भी बड़ा कंपटीशन हो गया है, साहब। दस हजार दलाल तो होंगे ही।
- कितनी कमाई हो जाती है?
- ऊपर वाले की मेहरबानी से ठीके हो जाती है। सत्तर-पचहत्तर तो कहीं नहीं गया है। किसी किसी दिन दो-चार दिलदार ग्राहक मिल गए तो दो-ढाई सौ भी हो जाता है।
सोनागाछी का दलाल मंगला अपना परिवार यहां कोलकाता में नहीं रखता। परिवार समस्तीपुर में गांव में रहता है। यहां से पैसे भेजता है। तीन-चार महीने पर दो-चार दिन के लिए गांव हो आता है। गांव-घर वाले यही जानते हैं कि मंगला कोलकाता में कोई नौकरी करता है। पैंतालिस साल की उम्र वाला मंगला बीस सालों से दलाली कर रहा है।
बताता है- शुरू-शुरू में यह काम बहुत खराब लगता था। एक-दो साल तक रोज यही मन में आता था कि कल से यह काम छोड़ देंगे। लेकिन एक बार जो यह धंधा पकड़ाया तो कहां छूटा, साहब।
जिस चाय की दूकान पर मंगला से बात हो रही थी, वह दूकान भी मंगला की जान-पहचान की थी। फिर भी मंगला हड़बड़ी में था। वह मुझसे जल्दी से जल्दी पिंड छुड़ा लेना चाहता था। जब उससे मैंने सोनागाछी का जिस्म बाजार पूरा दिखा देने और किसी अड्डे पर चलकर किसी लड़की से बातचीत करा देने की बात की तो मेरी बात पूरी होने के पहले ही चालाक व अनुभवी दलाल मंगला ने कहा- पूरा सोनागाछी देखने-दिखाने में दो-तीन घंटे से कम टाइम नहीं लगेगा, साहब। मेरा तो आज का धंधा ही चौपट हो जाएगा।
आखिर में मुफ्त के चाय-नाश्ते-सिगरेट के बाद बेहयायी से मुस्कराते हुए मंगला धंधा चौपट करने के एवज में कुछ लेकर एक अड्डे पर मुझे ले गया। बीस-पच्चीस साल की दो लड़कियां अनमनी-सी कमरे के बाहर संकरे बरांडेनुमा गलियारे में खड़ी थीं। उन्होंने एक उचटती-सी नजर हम पर डाली और फिर नीचे से आने वाली सीढिय़ों की तरफ देखने लगीं।
मंगला मुझे लेकर कमरे में घुस गया। उसके साथ होने के कारण मैं निश्चिंत था। कमरे में सजधज कर बैठी, करीब तीस साल की औसत शक्ल-सूरत मगर अच्छे कद-काठी वाली युवती के चेहरे पर हमें देखकर पहले तो चमक उभरी। पर मैथिली में जैसे ही मंगला ने उससे कहा- देस से आए हैं, अपने भरोसे के आदमी हैं। थोड़ा यह सब देखना-जानना चाहते हैं- महिला के चेहरे पर झल्लाहट का भाव उभर आया। वह शिष्ट महिला थी और शायद मंगला के लिहाज के चलते वह उखड़ी तो नहीं, फिर भी नाराजगी की झलक देते सपाट लहजे में कहा- इसमें देखने-जानने का क्या है? हमलोग क्या कोई तमाशा हैं? अपने बारे में कुछ भी बोलने-बताने से उसने साफ मना कर दिया और अपने हावभाव से जता दिया कि मैं वहां से चलता बनूं।
इतनी देर में ही उस अच्छे-खासे आयताकार कमरे की एक झलक मिल चुकी थी। कमरे के एक सिरे पर लकड़ी की बंद आलमारी थी जिसमें शायद उसके कपड़े-लत्ते रहे होंगे। बेंत की इकलौती कुर्सी पर कुशन- ग्राहक के बैठने के लिए, तिपाईनुमा टेबुल, लकड़ी के तख्त पर हल्का गद्ïदेदार बिस्तर और साफ धुली चादर-उसी पर वह बैठी थी। कमरे के दूसरे छोर पर एक स्टैंड था, जिस पर प्लास्टिक का पानी भरा एक जग कांच की दो गिलासें और एक-दो प्लेटें पड़ी थीं। लंबाई वाली भीतरी दीवार में एक दरवाजा भी था, जिसपर परदा टंगा था। शायद वह बाथरूम और छोटी-मोटी रसोई जैसी जगह में खुलता हो। दीवार पर दो कैलेंडर अलग-अलग टंगे थे- एक, लेटे हुए शिव की छाती पर खड़ी, गले में मुंड-माला पहने, जीभ निकाले हुई काली का और दूसरा, सिर्फ चड्ढी पहने, खड़े, मांस-पेशियां दिखाते, चौड़ी छाती वाले बॉडीबिल्डर पहलवान का, जो निश्चय ही आनेवाले ग्राहक को चुनौती देता हुआ लगता होगा।
बहरहाल, कमरे से निकल कर जब मैं सीढिय़ां उतर रहा था, पीछे से बरामदे में खड़ी दोनों लड़कियों की जोरदार खिलखिलाहट सुनाई पड़ी।
.... जारी
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