अरविन्द चतुर्वेद
सुबह होते ही जन समुद्र में शोर की उठती-गिरती लहरों पर किसी बड़े जहाज की तरह हिचकोले खाने लगता है अपना यह कोलकाता महानगर। रात की परछाइयां सुबह के उजाले में कहां छिप जाती हैं, पता ही नहीं चलता। पर शाम होते ही दूधिया रोशनी की झिलमिलाहट के बीच अंधेरे के साए जगह-जगह से उभरने लगते हैं। जैसे-जैसे रात गहराती जाती है, सड़कों पर आवाजाही थमती है, दुकानों के पट गिर जाते हैं और ऊंचे-नीचे मकानों की बंद खिड़कियों के शीशे से किसिम-किसिम की मद्धिम-सी रंगीन रोशनियां भर नजर आती हैं- तब शुरू होता है रात का सफर। दिन के उजाले में छिपी खामोश अंधेरी दुनिया रोज जब रात को बारह का गजर होता है, भरपूर अंगड़ाई लेकर जाग चुकी होती है। अपने कारोबार में, कमाल और करतूत में खामोशी से काम लेती रात की परछाइयों का कद बहुमंजिली इमारतों जितना बड़ा भी हो सकता है- होता है। सन्नाटे का ऐसा आलम कि कोई गहरी चीख भी उठे तो डूबकर रह जाए। दूसरे-तीसरे दिन लोग यह खबर पाते हैं कि पिछली रात फलां इलाके में लावारिश लाश मिली। फलां जगह लूट लिया। फलां जगह ये हुआ, फलां जगह वो हुआ... पिछली रात... वगैरह।
इस सबसे बेखबर रात की स्याह चादर ओढ़े फुटपाथ पर पसरे बेपनाह सपनों की दुनिया है- औरत-मर्द, बूढ़े-जवान-बच्चे, भिखमंगे, बीमार, विक्षिप्त-अर्धविक्षिप्त। जानवर और आदमी के बीच का फर्क बनाए रखने के लिए ही शायद आवारा कुत्ते उनसे हाथ-दो हाथ की दूरी बनाकर सोते हैं। यह सर्वहारा है कोलकाता का, जिसके सामने वाम मोर्चा सरकार का साम्यवाद फुस्स हो जाता है। किसी कड़वी सच्चाई की तरह नंगी, गैरपोशीदा इस फुटपाथी दुनिया में भी लुक-छिपकर कई पोशीदा काम होते रहते हैं। यह और बात है कि कम्यूनिज्म के पिता माक्र्स की सूक्ति दोहरा कर आप संतोष कर लें- नंगे-भूखे आदमी की कोई नैतिकता नहीं होती। पर हकीकत यही है कि धरती पर अगर कहीं नरक है तो हावड़ा पुल के कोलकाता-छोर के नीचे दो तरफ से आनेवाली सड़कों के बीच बने मूत्र सिंचित कूड़े के गोदामनुमा फुटपाथी रैन बसेरों में ही है। ऐसे नरक सियालदह स्टेशन के पुल के इर्द-गिर्द भी है।
महानगर के दोनों रेलवे स्टेशन हावड़ा और सियालदह तेज रोशनी में रतजगा मना रहे हैं। देर से आने या जाने वाली ट्रेनों के मुसाफिरों की आंखों में नींद करवट बदल रही है, कुछ झपकी ले रहे हैं, कुछ लम्बी जम्हाई। कुछ चाय-सिगरेट पीते हुए नींद से मुठभेड़ कर रहे हैं। इन सबसे कुछ गज की दूरी पर या झिलमिल अंधेरे कोने में स्टेशन में- प्लेटफार्म पर बिल्ली आंखें चमक रही हैं- घात लगाए शिकारी आंखें। कब आंख झपके और कब ब्रीफकेस गायब। कोई दिलफेंक मुसाफिर किसी लफड़े में फंस जाए। कुली के भेस में ही कोई गच्चा दे जाए।
सुबह होते ही जन समुद्र में शोर की उठती-गिरती लहरों पर किसी बड़े जहाज की तरह हिचकोले खाने लगता है अपना यह कोलकाता महानगर। रात की परछाइयां सुबह के उजाले में कहां छिप जाती हैं, पता ही नहीं चलता। पर शाम होते ही दूधिया रोशनी की झिलमिलाहट के बीच अंधेरे के साए जगह-जगह से उभरने लगते हैं। जैसे-जैसे रात गहराती जाती है, सड़कों पर आवाजाही थमती है, दुकानों के पट गिर जाते हैं और ऊंचे-नीचे मकानों की बंद खिड़कियों के शीशे से किसिम-किसिम की मद्धिम-सी रंगीन रोशनियां भर नजर आती हैं- तब शुरू होता है रात का सफर। दिन के उजाले में छिपी खामोश अंधेरी दुनिया रोज जब रात को बारह का गजर होता है, भरपूर अंगड़ाई लेकर जाग चुकी होती है। अपने कारोबार में, कमाल और करतूत में खामोशी से काम लेती रात की परछाइयों का कद बहुमंजिली इमारतों जितना बड़ा भी हो सकता है- होता है। सन्नाटे का ऐसा आलम कि कोई गहरी चीख भी उठे तो डूबकर रह जाए। दूसरे-तीसरे दिन लोग यह खबर पाते हैं कि पिछली रात फलां इलाके में लावारिश लाश मिली। फलां जगह लूट लिया। फलां जगह ये हुआ, फलां जगह वो हुआ... पिछली रात... वगैरह।
इस सबसे बेखबर रात की स्याह चादर ओढ़े फुटपाथ पर पसरे बेपनाह सपनों की दुनिया है- औरत-मर्द, बूढ़े-जवान-बच्चे, भिखमंगे, बीमार, विक्षिप्त-अर्धविक्षिप्त। जानवर और आदमी के बीच का फर्क बनाए रखने के लिए ही शायद आवारा कुत्ते उनसे हाथ-दो हाथ की दूरी बनाकर सोते हैं। यह सर्वहारा है कोलकाता का, जिसके सामने वाम मोर्चा सरकार का साम्यवाद फुस्स हो जाता है। किसी कड़वी सच्चाई की तरह नंगी, गैरपोशीदा इस फुटपाथी दुनिया में भी लुक-छिपकर कई पोशीदा काम होते रहते हैं। यह और बात है कि कम्यूनिज्म के पिता माक्र्स की सूक्ति दोहरा कर आप संतोष कर लें- नंगे-भूखे आदमी की कोई नैतिकता नहीं होती। पर हकीकत यही है कि धरती पर अगर कहीं नरक है तो हावड़ा पुल के कोलकाता-छोर के नीचे दो तरफ से आनेवाली सड़कों के बीच बने मूत्र सिंचित कूड़े के गोदामनुमा फुटपाथी रैन बसेरों में ही है। ऐसे नरक सियालदह स्टेशन के पुल के इर्द-गिर्द भी है।
महानगर के दोनों रेलवे स्टेशन हावड़ा और सियालदह तेज रोशनी में रतजगा मना रहे हैं। देर से आने या जाने वाली ट्रेनों के मुसाफिरों की आंखों में नींद करवट बदल रही है, कुछ झपकी ले रहे हैं, कुछ लम्बी जम्हाई। कुछ चाय-सिगरेट पीते हुए नींद से मुठभेड़ कर रहे हैं। इन सबसे कुछ गज की दूरी पर या झिलमिल अंधेरे कोने में स्टेशन में- प्लेटफार्म पर बिल्ली आंखें चमक रही हैं- घात लगाए शिकारी आंखें। कब आंख झपके और कब ब्रीफकेस गायब। कोई दिलफेंक मुसाफिर किसी लफड़े में फंस जाए। कुली के भेस में ही कोई गच्चा दे जाए।
0 comments: on "रात की बात"
Post a Comment