मेरे गाँव की कहानी : तीन - मछली-भात और नींबू के पत्ते

अरविन्द चतुर्वेद :
एक समय वह भी था कि वर्षा-जल से नहाए जंगल से होकर जब पुरवा हवा चलती थी तो भीगी वनस्पितियों की मादक महक के झोंके गांव तक आते थे। बरसात ही नहीं, हर मौसम में इस गांव की जिंदगी की निगाहें सहज रूप से पूरब जंगल की ओर उठती थीं, लेकिन जबसे जंगल गायब हुए, तबसे यह गांव पश्चिममुखी हो गया है। वैसे भी पूरब का जंगल गांव का पिछवाड़ा हुआ करता था, गांव का सामना तो पश्चिम तरफ आधा किलोमीटर से भी कम दूरी वाली खलियारी-राबटूर्सगंज रोड है जो इसे दुनिया की आम धारा से जोड़ती है। अब यही सड़क इस गांव का भविष्य है जो नई पीढ़ी को पढ़ाई और रोजगार की तलाश में शहरों की ओर ले जाती है।
ग्रामीण जिंदगी में बदलाव की रफ्तार इतनी धीमी होती है कि बगैर हलचल के चुपके से चीजें गायब होती हैं और आने वाली नई चीजों की आहट भी नहीं सुनाई देती। नई चीजें तक बड़ी खामोशी से जिंदगी में दाखिल होती हैं। मसलन, इस गांव ने कभी गोधूलि वेला भी देखी थी जब सैकड़ों मवेशियों को दिनभर जंगल में चराने के बाद सूर्यास्त के समय चरवाहे उनके साथ गांव लौटते थे।लेकिन जब से गांव में पांच-छह ट्रैक्टर आ गए, तब से हल-बैल और दूसरे मवेशी गायब होते चले गए। जिनके ट्रैक्टर हैं वही नहीं, बल्कि जिनके पास नहीं है, वे भी भाड़े के ट्रैक्टर से खेती कराने लगे हैं। पहले इस गांव में हर किसान अपने संसाधनों से जरूरत भर गोबर की खाद बना लेता था, लेकिन अब तो रासायनिक खाद की मारामारी है। विकास और गतिशीलता का पैमाना अगर चक्र यानी चक्के को माना जाए तो गांव में कम से कम तीन दर्जन से ज्यादा साइकिलें और दर्जन भर मोटर साइकिलें हैं। साइकिलें गांव की जरूरत हैं और मोटर साइकिलें शौक। ज्यादातर मोटर साइकिलें लड़कों को दहेज में मिली हैं। लड़के बेरोजगार हैं और उनकी शादी में मोटर साइकिल लेकर अपना सामाजिक स्तर प्रदर्शित करने वाले अभिभावक मोटर साइकिल के रोज-रोज के पेट्रोल-खर्चे को लेकर परेशान हैं- निकम्मे नौजवानों की आवारगी को मोटर साइकिलों ने रफ्तार दे दी है। वे खेती-किसानी के काम में अपने अभिभावकों का हाथ भी नहीं बंटाते और घर से खाना खाकर मोटर साइकिल से रामगढ़-रावर्टूसगंज के बाजारों में दिनभर भटकने के बाद रात को नौ-दस बजे खाना खाने और सोने के लिए लौटते हैं। मोटर साइकिल है तो मोबाइल फोन भी सबके हाथ में है, जबकि दरअसल उनकी ग्रामीण जिंदगी में इन चीजों की कुछ खास उपयोगिता नहीं है। इस तरह जो पैसा खाद-बीज और खेती की दूसरी जरूरतों में खर्च होता, वह आवारा लड़कों की मोटर साइकिल और मोबाइल फोन पर जाया हो रहा है।
गांव का एकमात्र प्रवेश द्वार पश्चिम में नहर का पक्का और पर्याप्त चौड़ा पुल है। नहर और पुल से सटा गांव का इकलौता तालाब धीरे-धीरे नष्ट हो चला है। तालाब के पूरबी भीटे पर इक्का-दुक्का परिवार बसे होने के कारण वह सुरक्षित तो है, लेकिन उधर से तालाब को थोड़ा पाट लिया गया है। बाकी तीन तरफ के किनारे कट-फटकर क्षत-विक्षत हैं। इस तालाब में पानी नहर से बरसात के मौसम में आता है, लेकिन चूंकि दशकों से तालाब की तलहटी की सफाई नहीं हुई है, इसलिए अब यह तालाब उथला होकर एक मामूली पोखर में तब्दील हो गया है। हर साल गरमियों में अब यह सूख जाता है और बेहया के हरे-भरे जंगल से पट जाया करता है। यह वही तालाब है, जिसमें कभी लगभग सालभर ही पानी रहा करता था और बरसात से लेकर जाड़े के मौसम तक पुरइन और कमल के फूल-पत्ते तालाब को सम्मोहक बनाते थे। साल में एक बार बसंत के आसपास सामूहिक रूप से इस तालाब से गांव वाले मछलियां पकड़ते थे और जरूरत के मुताबिक उन्हें तमाम परिवारों में बांट दिया जाता था। वह एक उत्सव जैसा दिन होता था। ब्राrाणों के घर की रसोई में तो मछली पक नहीं सकती थी, लेकिन उनके घरों के बाहरी आंगन के किसी छोर पर अस्थाई चूल्हा जलाया जाता था। पुरानी कड़ाही और कुछेक बरतन धो-मांज कर निकाले जाते थे जो मछली पकाने के लिए ही रखे होते थे। खास तौर पर बच्चों के लिए होता था यह मछली भोज। मगर यह शर्त होती थी कि मछली-भात खाने के बाद नींबू के पत्तों से दांत मांजने होंगे, ताकि मुंह से मछली की महक न आए। ...जारी
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2 comments: on "मेरे गाँव की कहानी : तीन - मछली-भात और नींबू के पत्ते"

Udan Tashtari said...

कुछ ऐसी यादें हुड़ी हैं..बढ़िया..जारी रहें.

Udan Tashtari said...

हुड़ी = जुड़ी

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