मेरे गाँव की कहानी/चार : नहर के पुल पर अड्डा

अरविन्द चतुर्वेद :
पीपल के विशाल पुराने वृक्ष की छाया में नहर के पुल के दोनों किनारों पर गांव के दस-बीस लोग अक्सर आमने-सामने बैठे खाली वक्त गुजारते मिल जाते हैं। इनमें नौजवान लड़के भी होते हैं और बड़े बुजुर्ग भी। हां, अक्सर यह होता है कि नौजवान पुल के किसी छोर पर बुजुगों से जरा हट कर बैठें। हालांकि इसका कतई यह मतलब नहीं कि उनकी बातों में किसी प्रकार की गोपनीयता होती है, बल्कि होता यह है कि कई बार बुजुगों की बातें नौजवानों के कान में पड़ती हैं और नौजवानों की बातें बुजुगों के कान में और फिर धीरे-धीरे सब एक किस्म के सार्वजनिक-सामूहिक बातचीत में शामिल हो जाते हैं। इस तरह पुल पर लगने वाला दैनिक अडूडा अपनी तरह से सामाजिकता का एक प्रशिक्षण केंद्र भी है। यहीं से दोस्तियां बनती हैं और दुश्मनी के द्वार भी खुलते हैं।
पुल पर होने वाली बातों का कोई ओर-छोर नहीं होता। बुजुगों की बातें संस्मरणात्मक और किस्सागोई के अंदाज में होती हैं, जबकि नौजवानों और लड़कों की बातें निकट व्यतीत की घटना परक और सूचनात्मक होती हैं। अलग-अलग आदमी की बातों में उसके अनुभव की कुछ खास विशिष्टता नजर नहीं आती, लेकिन बहुत ध्यान दिया जाए तो वक्ता की रूचि और स्वभाव की हल्की-सी झलक जरूर पाई जा सकती है। अनुभव की एकरूपता के दो कारण समझ में आते हैं- एक तो सबकी जीवनस्थितियां करीब-करीब एक-सी हैं, दूसरे, इस ग्रामीण जिंदगी का दायरा बहुत सीमित है, यानी खेत-खलिहान से निकल कर आसपास के गांवों, नाते-रिश्तेदारियों से होते हुए ज्यादा से ज्यादा जिला मुख्यालय राबर्टूसगंज या फिर हारी-बीमारी में एकाध बार के बनारस-सफर तक। इसलिए होता यह है कि बातचीत का प्रवाह कभी-कभी अचानक थम जाता है और एक लम्बे विराम के बाद वक्ता बदल जाता है। कभी-कभी ऊब और खीझ भी पैदा होती है। ऐसे अवसर के लिए गांवों में लोग अक्सर अपने बीच से कुछ पात्रों को खोजे रखते हैं, जिनकी प्रसिद्ध बेवकूफियों की चर्चा करके मजा लिया जा सके, जो जल्दी से चिढ़ जाते हों, वहमी और सनकी हों, झेंप जाते हों या खटूटी-मीठी गालियां देना शुरू कर देते हों। ऐसे विलक्षण पात्र प्राय: हर गांव में एक-दो होते ही हैं। इस गांव में ऐसे दो लोग हैं- एक बांके चेरो, दूसरे पुजारी बाबा उर्फ पवन
कुमार चौबे। नाम से लगता है पवन कुमार चौबे नई उमर की नई फसल होंगे, लेकिन ऐसा है नहीं- वे गांव के बडे. बुजुगों में हैं, सचमुच बाबा हैं। बांके उम्र के लिहाज से गांव की मंझली पीढ़ी से आते हैं और अपने भाइयों में भी मंझले हैं। ...जारी
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1 comments: on "मेरे गाँव की कहानी/चार : नहर के पुल पर अड्डा"

Udan Tashtari said...

बढ़िया किस्सा है, जारी रहिये!!

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हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!

लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.

अनेक शुभकामनाएँ.

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