अरविन्द चतुर्वेद :
पुजारी बाबा बुजुर्ग हैं लेकिन चिर कुमार हैं, बाल ब्रहमचारी। और, असली नाम भी है पवन कुमार। बचपन में मां-बाप मर गए और उनसे बड़े दोनों भाइयों ने तो शादी-ब्याह करके अपना घर बसा लिया, इकलौती बहन की भी शादी हो गई मगर भाइयों-भौजाइयों का मुंह ताकते रह गए बेचारे यथा नाम पवन कुमार। अब तो खैर जिंदगी की ढलती शाम है मगर उम्र की दोपहरी तक जब कोई उनकी शादी का जिक्र छेड़ता था, किंचित सकुचाते हुए भी उनके चेहरे पर प्रत्याशा का एक भाव खेल जाता था। उनके मन के एकांत कोने में दबी विवाह की इच्छा चेहरे को झरोखा बनाकर झांकने लगती थी। शायद उनको लगता था कि विवाह को लेकर हंसी-मजाक करने वाले कभी न कभी उस निण्रायक बिंदु पर पहुंच जाएंगे कि भाइयों से अलग कर दिए गए पवन कुमार को अकेले चूल्हा फूंकते बहुत हुआ, अब इनका घर भी बस ही जाना चाहिए।
गांव में किसी युवक के शादी-ब्याह की तैयारी होती तो बारात में जाने के लिए पवन कुमार दूसरे लोगों की बनिस्बत सज-धज की कुछ अतिरिक्त तैयारी करते। वे रामगढ़ बाजार निकल जाते, जूते और कपड़े-लत्ते खरीदते। इकलौते सैलून में करीने से बाल कटवाते। मूछें सफाचट करा देते। नहाते वक्त कोशिश करते कि खेती-बारी का देह पर लिपटा सारा मटियालापन महकदार साबुन से रगड़-रगड़ कर छुड़ा दें। कपड़ों पर इत्र, बालों में गमकौवा तेल और चेहरे पर क्रीम-पाउडर लगाकर जब बारात में पवन कुमार निकलते तो उनकी पूरी कोशिश होती कि दूल्हे के छोटे भाई जैसे दिखें। मगर अच्छी कद-काठी और कसे हुए बदन के बावजूद आखिर उम्र भी तो कोई चीज होती है, शुरू-शुरू के चार-छह साल के बाद वह बुरी तरह चुगली करने लगी। अपनी ऐसी हर कोशिश में वे बहुरूपिया जैसे लगने लगे।
दस साल बीतते न बीतते पवन कुमार हताश हो गए। अब उन्होंने पूजा-पाठ पर ध्यान देना शुरू किया। सांवले-से माथे पर इस कनपटी से लेकर उस कनपटी तक चारो उंगलियों से सफेद चंदन की चार लकीरें खींचने लगे। यह पवन कुमार का नया अवतार था, जो पुजारी बाबा कहलाने लगा। लेकिन इस नए अवतार की स्वीकृति उन्हें सहजता से नहीं मिली। असल में तब तलक पवन कुमार की शादी की ललक और अधीरता गांव के सयानों पर ही नहीं, लड़कों पर भी इस कदर उजागर हो चुकी थी कि लड़के मजाक में सवाल करने लगे- शादी कब होगी पुजारी बाबा? पुजारी खिसिया जाते, उनका जवाब होता- जाओ, अपनी मौसी से पूछो, उसी से शादी करेंगे।
पुजारी बाबा हर साल अगहन के महीने में अपनी बहन के यहां सरगुजा निकल जाया करते और तीन महीने बाद फागुन लगने पर गांव लौटते। गांव वालों को हर बार यही लगता कि अबकी बार पुजारी सरगुजा से जरूर किसी औरत के साथ लौटेंगे, लेकिन हर बार उन्होंने गांव वालों को निराश ही किया।
फिर भी गांव की ठहरी हुई जिंदगी में पुजारी बाबा की सरगुजा-वापसी एक अतिरिक्त आकर्षण बन जाया करती थी। नहर के पुल पर उन्हें घेरकर गांव वाले बैठ जाया करते और सामान्य हालचाल के बाद कुछ विशेष पूछने-जानने का सिलसिला इस तरह शुरू होता :
- तो पुजारी बाबा, चोला-पानी तो बड़ा चकाचक बन गया है...
- हां, वहां चूल्हा तो फूंकना नहीं था। सवेरे-सवेरे भांजा लोग उठा देते थे। मामा, जल्दी से हाथ-मुंह धोकर नाश्ता कर लीजिए। अपने तो सब चाय-पकौड़ी, पराठा खाते थे लेकिन मैं चाय तो पीता नहीं और प्याज-लहसुन वाली पकौड़ी-पराठा भी नहीं खा सकता था, सो मेरे लिए बहुएं घी में हलवा बना देतीं और एक गिलास दूध-यही नाश्ता होता था।
- इसका मतलब खूब तर माल काटकर लौटे हैं पुजारी बाबा, है न!
- हां भाई, सो तो है। मगर यह नहीं समझ में आता कि तीन-तीन महीने तक एक जगह किसी का मन कैसे लग जाता है?
- अरे वहां खाली बैठने की फुरसत ही कहां मिलती है। सात गांव में तो जजमानी फैल गई है। दोपहर में यहां खाने का न्यौता तो शाम को उस गांव में। पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा सब ऊपर से, पुजारी बताते हैं।
- लेकिन पुजारी बाबा, कुछ लेकर तो लौटते नहीं। जो झोला लेकर जाते हैं, वही लटकाए चले आते हैं?
- तो क्या सरगुजा यहां है, कौन ढोएगा इतना बोझ? बीस-पच्चीस मन तो अनाज-पानी हो जाता है, सब भांजा लोगों के पास रखवा देते हैं। इस बार तो तीन जजमानों ने गाय और दो जजमानों ने दो भैंसे दान में दे दी। भांजा लोगों ने गाय-भैंस रखने से मना कर दिया। कौन झंझट पाले? बड़ी मुश्किल में पड़ गया। आखिर एक जगह से मिली गाय-भैंस दूसरे जजमान को देकर किसी तरह सलटाना पड़ा। लोग आसानी से तैयार भी नहीं थे, आखिर गुरू को मिली चीज चेले कैसे रख लेते। लेकिन जैसे-तैसे रख लिए।
एक आदमी बोला- अच्छा, अगली बार मैं आपके साथ चला चलूंगा और सब गाय-भैंस हांक ले आऊंगा। बस, एक भैंस या गाय आप मुझे दे दीजिएगा।
- आपको क्यों दे दूंगा? आपने मेरे लिए किया ही क्या है? भूल गए, अभी पिछले साल आपने ही न मेरे खेत में पानी आने से रोका था। बड़ा चालाक बन रहे हैं, आपको तो मरा हुआ चूहा भी नहीं दूंगा। पुजारी बाबा बोले।
गाय-भैंस के जवाब में मरे हुए चूहे के जिक्र से पुल पर एक हंसी तैर गई। वह आदमी पुजारी को कोई जवाब देता, इसके पहले उसके घर से बुलावा आ गया। वह उठा और घर की ओर चल पड़ा।
एक आदमी ने सबका ध्यान पुजारी के नए जूतों पर दिलाया- जूता तो बड़ा नक्शेदार है, पुजारी बाबा?
- असली पम्प शू है, रामगढ़ में नहीं मिल सकता। पुजारी बोले, अम्बिकापुर बाजार गया था। एक जजमान की जूता-चप्पल की दुकान है। उन्होंने नाश्ता-पानी कराया। कुशल-क्षेम के बाद चलने को हुआ तो देखा कि मेरा पुराना कपड़े वाला जूता गायब है और उसकी जगह यही पम्प शू रखा हुआ है। मुझे अपने जूते के लिए परेशान देखकर जजमान ने कहा, अरे महाराज, काहे उस पुराने-धुराने जूते के लिए परेशान हैं। वह नया जूता पहन लीजिए।
मैंने देखा कि दुकान का नौकर भी हंस रहा है। असल में जजमान बड़े मजाकिया आदमी हैं, उन्होंने ही नौकर से मेरे जूते हटवा कर ये नए जूते रखवा दिए थे।
पुजारी बाबा द्वारा सरगुजा की उदारता और जजमानी के साल-दर-साल फैलाव का किया जाने वाला वर्णन असल में परोक्ष रूप से गांव वालों की कृपणता, स्वार्थपरता, आपसी धोखेबाजी और रोजमर्रा की छोटी-मोटी खटपट के खिलाफ एक तरह की जवाबी कार्रवाई थी- देखो, तुम लोग कितने क्षुद्र प्राणी हो! इसीलिए उनकी सरगुजा-गाथा अतिशयोक्तिपूर्ण हुआ करती थी। तीन-चार साल की सरगुजा-परिक्रमा में उनकी काल्पनिक अतिशयोक्तियां इतनी अविश्वसनीय हो गईं कि बेवकूफ से बेवकूफ आदमी भी पुजारी को झूठा और परम गप्पी मानने लगा। पुजारी के अनुसार सरगुजा के एक बैंक में उनके पचास हजार रूपए जमा हो गए थे, सौ बीघा जमीन हो गई थी और गाय-भैंसों की तादाद हर साल बढ़ते-बढ़ते पूरे तीन दर्जन तक पहुंच गई थी।
लेकिन पुजारी की सरगुजा-परिक्रमा छह साल से ज्यादा नहीं चल सकी। बहन के निधन के बाद उन्होंने सरगुजा जाना छोड़ दिया। हां, इस दौरान इतना जरूर हुआ कि उनका पूजा-पाठ काफी बढ़ गया और गांव के गैर ब्राहमणों के बीच वे विशेष रूप से सबसे प्रामाणिक और सच्चे पंडित के रूप में प्रतिष्ठित हो गए।.....जारी
2 comments: on "गाँव कहानी/छः - शादी कब होगी, पुजारी बाबा"
मजा आया.............
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विलुप्त होती... .....नानी-दादी की पहेलियाँ.........परिणाम..... ( लड्डू बोलता है....इंजीनियर के दिल से....)
http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_24.html
सुन्दर रचना
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